मेरे पिता, पंडितजी का बहुत सम्मान करते थे। उनकी विद्वता औैर उनसे जुड़े रोचक संस्मरण सुनाया करते थे। स्मारिका के लिए भरे मन से कुछ शब्द ही लिख सके, मगर यह संक्षिप्त लेख पंडितजी में मानवता के सूत्रों का स्पर्श करते उनके प्रति अपने भावों को प्रकट करने के लिए कम नहीं थे। स्मारिका में प्रकाशित वह लेख-
पंडित जी: जैसा मैंने जाना
सत्येन्द्र कुमार सिंह
नित नवोन्मेष की प्रवृत्ति प्रतिभा कहलाती है। कहते हैं यह परमात्मा-प्रदत्त होती है। यही सच भी लगता है क्योंकि, प्रतिभा सभी में नहीं होती है। प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति लोक कल्याण की बात सोचता है और उसके क्रिया-कलाप भी उसी अनुरूप होते हैं। ऐसे लोग विरले होते हैं तथा वे समाज के विशेष अंग होते हैं। इनका संसार से हमेशा के लिये चले जाना ही समाज की हानि है। वैसे तो दुनिया में आना, जीवन को जीना और चले जाना किसी अजानी शक्ति से संचालित निरन्तर प्रक्रिया है। परन्तु, महत्वपूर्ण यही होता है कि किसी ने जीवन को कैसे जिया? इन सब बातों में पं. जगदीश चन्द्र तिवारी बार-बार याद आते हैं। दो ही तरह के लोग तो जाने के बाद याद आते हैं- एक तो स्वजन और दूसरे सुजन, जो कीर्तिवान हो जाये रहते हैं। स्व. पं. जगदीश चन्द्र तिवारी सुजन थे। उनकी कीर्ति प्रदेश और बाहर तक फैली हुई है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पंडित जी हम सभी को छोड़कर किसी महायात्रा पर गये ही नहीं... ।
कहा जाता है कि मनुष्य पेट के लिये जीवन को जीता है, धर्म, ज्ञान और विवेक ये सब बाद की बातें हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन्हीं बाद की बातें यह बता सकती है कि जीवन को कैसे जिया जाना चाहिये। इसी में शांति और जीवन की सफलता है। पंडित जगदीश चन्द्र तिवारी ने सफल जीवन जिया, इसीलिये जाने के समय कुदरत ने उनके मन और शरीर के कोई उठा-पटक नहीं की।
सन् 1937 में अंग्रेजी के मास्टर मिलना गूलर का फूल था। हमारे बाबा पूज्य (स्व.) मनमोहन सिंह जी उस समय डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के मेम्बर थे। उन्हें पता लगा कि, जॉंजगीर उदयभांठा के पं. जगदीश चन्द्र तिवारी कटक से स्नातक होकर आये हैं। यही वह कालखण्ड रहा जिसमें तिवारी जी की प्रतिभा अनेक भाषाओं में उनकी मधुरवाणी से प्रवचनों, व्याख्यानों और वक्तव्यों के रूप में चतुर्दिक सुवासित हो रही थी। बाबाजी ने कौंसिल के चेयरमेन देवीप्रसाद वर्मा और सचिव कृष्णानन्द वर्मा से कहकर पंडित जी को अकलतरा में अंग्रेजी शिक्षक नियुक्त करा लिया। बतौर शिक्षक उन्होंने अल्पावधि में जो ख्याति अर्जित की, उससे कहीं अधिक ख्याति उनकी ज्ञानयुक्त बोलने की शैली में वे अर्जित करते जा रहे थे। आश्चर्यजनक था कि वह क्रम कभी टूटा नहीं। उन्हें सम्मान अपने आप मिलता था। क्योंकि प्रतिभा के धनी तो थे ही, आचरण ऐसा था कि, जैसे वे व्यासांश हों, कि जैसे वे सन्त हों, कि जैसे वे कृष्ण भी हों और सुदामा भी। वे सादा-सरल थे, भीतर के भीतर तक तरल थे। किसी की पीड़ा उन्हें ही बेचौन कर देती थी। राम-रावण युद्ध सम्बन्धी प्रवचन में कभी वे इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि मंच से कूद कर श्रोताओं के बीच में आ जाते थे और समूह अवाक् रह जाता था। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन‘ की आकांक्षा रखने वाली पंडित जी की वह जीती जागती तसवीर अब चिरनिद्रा में
सो रही है लेकिन तसवीर के खुदाई रंग कभी उतरेंगे नहीं।
पंडित जी पर जितना लिखा जाये, कम है,
कयास है कि उनकी याद में हर आँख नम है।
अकलतरा (बिलासपुर) म.प्र.
पंडितजी के परिवार जन और उनके सुयोग्य पुत्र दिनेश शर्मा जी के प्रयासों से अब जांजगीर में उनकी भव्य प्रतिमा का पुनर्स्थापत्य हुआ है। |
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