महानदी, शिवनाथ और जोंक संगम पर बसा नगर शिवरीनारायण, मेरी दृष्टि में छत्तीसगढ़ की नाभि है। छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र, वैष्णव मठ है। 1891 तक तहसील रहे इस स्थान में महंतपारा और भोगहापारा शामिल थे। माना जाता है कि माघ पूर्णिमा से लगने वाले मेले के पहले दिन जगन्नाथपुरी के ‘नील-माधव‘ यहां विराजते हैं। जानकारी मिलती है कि शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से नील-माधव को पुरी ले जा कर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किए जाने का उल्लेख 14 वीं सदी के उड़िया कवि सरलादास द्वारा किया गया है।
निकट स्थित प्राचीन नगरी खरौद के साथ इस स्थान का महत्वपूर्ण उल्लेख आर्क्यालाजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोट के वाल्युम 7, 1873-74 में मेजर जनरल ए. कनिंघम के सहायक जे.डी. बेगलर द्वारा बलौदा शीर्षक के अंतर्गत किया गया है।
मुख्य मंदिर तथा मंडप में रखी गरुड़ासीन लक्ष्मीनारायण प्रतिमा |
प्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह, 1882-85 के बीच शिवरीनारायण में तहसीलदार पदस्थ रहे। इस दौरान 1885 में महानदी में आई बाढ़ की विभीषिका को उन्होंने अपनी कविता ‘प्रलय‘ में दर्ज किया है। सज्जनाष्टक में यहां के यदुनाथ भोगहा, महंत अर्जुनदास, महंत गौतमदास, ऋषिराम शर्मा, माखन साव, हीराराम त्रिपाठी, मोहन पुजारी और रमानाथ पर कवित्त की रचना की। साथ ही श्यामास्वप्न, श्यामसरोजनी और श्यामालता की रचना भी शिवरीनारायण में रहते हुए की।
1910 में ए.ई. नेलसन संपादित बिलासपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर शिवरीनारायण का विवरण मिलता है। इसमें बताया गया है कि नदी के पास स्थित छोटे से तालाब ‘रोहिणी कुंड‘ में लोग अस्थि विसर्जन करते हैं, जबकि मुख्य मंदिर के गर्भगृह की प्रतिमा के चरणों के पास जलराशि का छोटा सा कुंड है, जिसे इस नाम से जाना जाता है। साथ ही उल्लेख आता है कि यहां महंत गद्दी की स्थापना दयारामदासजी ने की थी। इस परंपरा में सर्वस्वामी कल्याणदासजी, हरिदासजी, बालकदासजी, महादासजी, मोहनदासजी, सूरतरामदासजी, मथुरादासजी, प्रेमदासजी, तुलसीदासजी, अर्जुनदासजी और गौतमदासजी हुए। गौतमदासजी के गुरु अर्जुनदासजी 44 वर्ष महंत की गद्दी पर रहे, उनकी मृत्यु 75 वर्ष की आयु में हुई। गौतमदासजी निहंग गद्दी के बारहवें महंत हैं, इस समय वे 74 वर्ष के हैं और मठ की व्यवस्था का जिम्मा 29 वर्षीय लालदास को सौंप दिया है।
केशव नारायण मंदिर के प्रवेश द्वार पर जतिन दास के साथ मेरी यह फोटो रघु राय ने ली है। |
1923 में प्यारेलाल गुप्त द्वारा बिलासपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, हिंदी में ‘बिलासपुर वैभव‘ तैयार किया गया। इसमें उल्लेख आया है कि ‘निहंगोंका एक मठ शिवनारायणमें है। इस मठमें कुल 18 गांव लगे हुए हैं जिनमें 6 गांव माफी हैं। इस समय इस मठके महंत लाल दासजी बड़े सज्जन पुरुष हैं। शिवरीनारायण के रहने वाले योग्य कवि पं. शुकलालप्रसाद पाण्डेय का उल्लेख है। 1885 के बाढ़ में तहसील आफिस बह जाने, जगन्मोहनसिंह तहसीलदार की पुस्तिका ‘प्रलय‘ और ‘शिवनारायण?‘ का उल्लेख है। प्रमुख ठौर शीर्षक अंतर्गत शिवरीनारायण का विवरण है।
1955 में वी.वी. मिराशी द्वारा किए गए कलचुरि अभिलेखों का अध्ययन ‘कार्पस...‘ प्रकाशित हुआ, जिसमें शिवरीनारायण के तीन अभिलेख सम्मिलित हैं। इनमें रत्नदेव द्वितीय का कलचुरि संवत 878 (1127) का ताम्रपत्र, मूर्तिलेख कलचुरि संवत 898 (1146) तथा जाजल्लदेव द्वितीय का चंद्रचूड़ मंदिर शिलालेख चेदि संवत 919 (1167-68) है, जिस शिलालेख में कलचुरियों की आनुषंगिक शाखा पृथ्वीदेव प्रथम के छोटे भाई सर्वदेव के अलावा अन्य राजपुरुषों आमणदेव, राजदेव, तेजल्लदेव, उल्हणदेव, गोपाल और विकण्णदेव के नाम मिलते हैं।
शिवरीनारायण के पुरातत्व पर राय बहादुर हीरालाल, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, बालचन्द्र जैन, डॉ. सुधाकर पांडेय जैसे विद्वानों ने भी शोध-लेखन किया है।
2011 में प्रो. अश्विनी केशरवानी के संपादन में ‘श्री शिवरीनारायण माहात्म्य‘ का प्रकाशन हुआ है। इसके पहले उनकी पुस्तक ‘शिवरीनारायण देवालय और परम्पराएं‘, 2007 में प्रकाशित हुई, जिसमें स्थानीय जानकारियों का पर्याप्त रोचक संग्रह है। इस पुस्तक में आभार सहित शिवरीनारायण के एक परवर्ती काल के शिलालेख के मेरे पाठ को पेज-152 पर प्रकाशित किया है।
छत्तीसगढ़ में अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के अभिलेख, दस्तावेज गिने-चुने हैं। इस दृष्टि से इनका विशेष महत्व है। यह शिलालेख शिवरीनारायण के ‘सिंदुरगिरि‘, वर्तमान जोगीडीपा या जनकपुर के नाम से ज्ञात क्षेत्र के मंदिर में जड़ा हुआ है। शिलालेख का पाठ इस प्रकार है-
श्री गणेशायनमः। गौरी सुत गज वदन पग वंदि गुरुहि सिर नाय लिषेण सुकीरति सफल कै सारद आज्ञा पाय।।1।। दोहा ।। सिंदुरगिरि परि थल सुभग चित्रोत्पल तीर। सीध तपोवन रहत जहं सेवत सिअ रघुवीर।।2।। कल्प -- कै चरित अति गावत विविध प्रकारा।। शंकर सहसानन सहित लहै न सारद पारा।।3।। द्वापर चौथे पाद मा वह थल अति -काता। तपी तपोनिधि रहत नित तपत नीस दिन रात।।4।। मोरध्वज महिपाल मनि विदित रत्नपुर ग्राम।। सो सिुदंरगिरि में रच्यो बहु तपसिन कै धाम।।5।। काल पाअ पुनि लुप्त भे रह्यो कछुक नहि चीन्हा। तब रघुपति निज दास केै मन इच्छा करि दीन्हा।6।। सुचि संवक श्रीराम के तान भक्ति युत संता। सो पुनि इह थल उदित किये अर्जुनदास महंता।7।। उनविस सत के उूपरे अष्टाविंसति अंका। संवत विक्रम भूप के सर्व सुफल अकलंका।8।। कृष्ण पक्ष आषाढ़ कै तेरस - गुरुवारा। भयो प्रतिष्ठा साम कै अति रमनिक सु प्रसारा।9।। मति गति विद्याहीन है नारायणपुर धामा। दोहा ----- हीरारामा।10।। मीती आसाढ़ कृष्न 13 गुरुवासर संवत 1928.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4594 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
भारत भूमि के हर प्रांत में बने प्राचीन मंदिरों में इसका अनुपम इतिहास छिपा है, जिसे लोगों के सम्मुख लाया जाना चाहिए
ReplyDeleteझारा शिल्प पर विस्तृत शोधपरक आलेख ।
ReplyDeleteजानकारी युक्त पोस्ट, शोधपरक विषय वस्तु।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख
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