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Thursday, July 6, 2023

मल्हार का खजाना

नवभारत, बिलासपुर के फीचर पेज ‘इंद्रधनुष‘ पर ‘पुरातत्व‘ के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित

प्राचीन सिक्कों में छिपी है वैभव गाथा
- पी. एन. सुब्रमणियन

मल्हार पुराने इतिहास और संबंधित सामग्री में दिलचस्पी लेने वालों के ‘मल्हार‘ का भौगोलिक परिचय अधिक जरूरी नहीं है क्योंकि यह स्थान न केवल छत्तीसगढ़ वरन् पूरे देश में इतिहासचेता लोगों में लगभग ५० वर्षों से बराबर चर्चा में रहा है। ईस्वी पूर्व की आठवीं सदी से प्रारंभ हो रही ढ़ाई हजार वर्षों से भी अधिक काल के इतिहास प्रमाण का निरंतर सिलसिला स्मारक, मूर्ति, मिट्टी के बर्तन, मनके, दैनिक जीवन में उपयोग की विभिन्न सामग्री और इतिहास के पक्के- अभिलेख व सिक्कों के रूप में पूरी समृद्धि और विविधता सहित, मानो यहाँ इकट्ठी हैं। इसलिए दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी हेतु मल्हार का ही अनुमान होता है और यह स्थान व्यापारिक एवं धार्मिक गतिविधियों का विख्यात केन्द्र तो अवश्य रहा है। 

वैसे तो मल्हार की पुरातात्विक सामाग्रियां चर्चा में रही है, किन्तु ऐसी चर्चाओं का प्रतिशत, प्राप्तियों की तुलना में नगण्य है, यही कारण है कि स्थल में समय समय पर आनेवाले पुरातत्व के मेहमानों का ऐसा स्वागत किया है कि वे स्तम्भित रह गये हैं। सर्वश्री वि. श्री. वाकणकर, के. डी. बाजपेयी ये सभी यहाँ के अप्रत्याशित उपहार से अभिभूत हुए हैं। ऐसे भी विद्वानों और तथाकथित इतिहास प्रेमियों की कमी नहीं है जिन्होंने मल्हार की सामाग्रियों का दोहन व्यक्तिगत संग्रह कर मिथ्याभिमान करने से अधिक उपयोगी नहीं समझा और शायद ऐसे इतिहास प्रेमी उन ग्रामीण किसानों से कहीं अधिक दोषी हैं, जिन्हें ये सामाग्री खेती-बाड़ी के काम के दौरान या मकान के लिए मिट्टी खोदते हुए या बरसात के कटाव में प्राप्त होती है तथा जिनकी जागरूकता सीमित है। वे बस यह जानते है कि व्यक्तिगत परिचय वाले इतिहास प्रेमी इसे पाकर खुश होंगे और यदि पुलिस या शासन को इसकी सूचना मिली तो हम जेल में डाल दिये जायेंगे। चूंकि अधिकांश प्राप्त सामाग्री किसी व्यवस्थित तकनीकी उत्खनन का नहीं बल्कि इन्हीं ग्रामीणों की ‘चान्स डिस्कवरी‘ का फल होता है, अतः यह या तो प्रकाश में ही नहीं आ पाता या सार्थक हाथों में नहीं पड़ता। इसी तरह की सामग्री विशेषकर सिक्के मुझे मल्हार के ठाकुर गुलाब सिंह एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय के सौजन्य से देखने को मिले या प्राप्त हुए और इन सिक्कों में से कुछ ऐसे निकल आये जो स्वयं में विशिष्ट श्रेणी के हैं ही, इनके माध्यम से तत्कालीन क्षेत्रीय इतिहास पर भी नया प्रकाश पड़ सकता है, इसी दृष्टि से उन कुछ विशिष्ट सिक्कों की चर्चा विषय का विशेषज्ञ न होने पर भी करना आवश्यक जान पड़ने लगा। 

इन सिक्कों में सबसे पहले कुछ आहत (Punch Marked coins) सिक्के हैं। इस प्रकार के सिक्के भारत में विनियम हेतु प्रयुक्त माध्यम ‘मुद्रा‘ का आदि स्वरूप है। इतिहास में वस्तु विनिमय की स्थिति के बाद ‘गौ‘ माध्यम से लेनदेन होता था। आवश्यकता और उपयोगिता के औचित्य से धातु पिण्डों को मानक और सुविधाजनक माना गया है और इनका प्रचलन बढ़ता ही गया। इस प्रकार अर्थशास्त्रीय दृष्टि से आहत सिक्के ही प्रथमतः प्रचलित हुए, जिन्हें ‘मुद्रा‘ की परिभाषिक संज्ञा के अनुक्रम में आरंभिक स्थान दिया जा सकता है। आहत सिक्के लगभग २७०० वर्ष पूर्व प्रचलन में आये और परवर्ती अन्य प्रकारों के साथ करीब १००० वर्ष तक प्रचलित रहे। सामान्यतः आहत सिक्कों के निर्माण में एक निश्चित वजन के चाँदी के टुकड़े पट्टी में से काटकर या ढालकर तैयार किये जाते थे जिन्हें आघात कर चिन्हांकित कर लिया जाता था। 

मल्हार से प्राप्त चांदी के दो आहत सिक्के अपने में विशिष्ट प्रकार के हैं। ये सिक्के ४ पण अर्थात ८ रत्ती (आज के संदर्भ में २५ पैसे) मूल्य के हैं। तत्कालीन मुद्रा प्रणाली में मानक कर्षापण था। आज के रूपये जैसा, जिसका वजन ३२ रत्ती होता था। एक कर्षापण सोलह पणों में विभाजित था। यह व्यवस्था ठीक रूपया आना की भांति से थी, अर्थात जहाँ १६ आने का १ रूपया होता था उसी तरह १६ पणों का कर्षापण। मुद्रा शास्त्रीय अध्ययन इतिहास में विशेषज्ञों ने हजारों आहत मुद्राओं के वजन, उन पर दृष्टिगोचर चिन्ह कृतियों का सूक्ष्म परीक्षण कर, वर्गीकरण तथा उसके आधार पर निर्माण तकनीक, मुद्रा मानक, प्रचलन क्षेत्र आदि का निष्कर्ष निकाला। 

आहत सिक्कों के चलन के क्षेत्र की पहचान का मुख्य आधार उन पर अंकित चिन्ह ही है। इस दृष्टि से मल्हार के क्षेत्र में ‘४‘ चिन्हांकित सिक्कों का प्रचलन रहा होगा, क्योंकि विवेच्य दोनों आहत सिक्कों पर यह चिन्ह अंकित है, किन्तु इन चिन्हों के कारण ये सिक्के भारतीय आहत सिक्कों के वर्गीकरण में एक अलग श्रेणी में रखे जा सकते हैं क्योंकि अब तक ज्ञात आहत, सिक्कों पर इस प्रकार के चिन्हों का कोई उल्लेख नहीं हुआ है, साथ ही कर्षापण मूल्यमान के सिक्के भी भारतीय मुद्राशास्त्र में अल्पज्ञात है। इसीलिए इन्हें विशिष्ट प्रकार के सिक्के माना गया है, निश्चय ही यह चिन्ह इस क्षेत्र के आहत सिक्कों की अलग श्रेणी निर्धारित करता है। इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि यही चिन्ह मल्हार के विभिन्न राजवंशों के अलग-अलग काल के भिन्न-भिन्न सिक्कों पर उपयोग होता रहा है। 

इन सिक्कों का मल्हार में पाया जाना, इनके विशिष्ट प्रचलन क्षेत्र का आभास तो कराता ही है साथ ही मल्हार के प्राचीन सुविकसित अंतर्देशीय व्यावसायिक केन्द्र होने की पुष्टि भी करता है। एक अन्य रोचक एवं प्रासंगिक साम्य यह भी है कि बौद्ध साहित्य में लगभग २५०० वर्ष पूर्व श्रावस्ती के श्रेष्ठि अनाथपिंडक द्वारा कुमार जेत के जेतवन नामक आम्रवन को बुद्ध के एक दिवसीय प्रवास हेतु क्रय करने का उल्लेख है। कुमार जेत आम्रवन बेचने को तैयार नहीं थे किन्तु अनाथपिंडकं द्वारा मुहमांगे मूल्य का प्रस्ताव रखा गया। पूरे वनक्षेत्र को सिक्कों (निश्चय ही तत्कालीन प्रचलित आहत सिक्के) से ढंक कर मूल्य दिये जाने की लगभग असंभव शर्त रखी, जिसे अनाथपिंडक ने सहर्ष स्वीकार कर गाडियों से सिक्के मंगवाकर वनक्षेत्र में फैलाना आरंभ कर दिया। मल्हार के सिक्कों के संदर्भ में यह कथा मात्र संयोग की सीमा से अधिक रोचक हो जाता है क्योकि मल्हार का निकटवर्ती ग्राम जैतपुर है। स्थल पर बौद्ध धर्म के अवशेष तो विद्यमान हैं ही, साथ ही सिक्के भी विपुल संख्या में प्राप्त होते हैं।

मल्हार से प्राप्त एक मिश्रधातु का सिक्का भारत पर विदेशी आक्रमणों के आरंभिक काल अर्थात २३०० साल पहले की याद दिलाता है। जब भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, इस काल भारतीय इतिहास का कुछ भाग ‘इण्डो-ग्रीक काल‘ के रूप में जाना जाता है।

संदर्भित सिक्के पर महान यूनानी योद्धा (सिकंदर) की मुख्यकृति अंकित है। लेखांकित सिक्के का लेख अस्पष्ट होने के बावजूद यह सिक्का यूनानियों का मल्हार तक संबंध इंगित करता है। सिक्के पर दो छिद्र बने है जो संभवतः बाद में किसी व्यक्ति द्वारा धारण करने के प्रयोजन से किये जान पड़ते है।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिक्के मल्हार से मिले हैं जो अधिकतर सीसे के हैं। इन सिक्कों पर गज चिन्ह के साथ साथ ब्राह्मी लिपि का लेख ‘राञो मघसिरिस’ ‘मघ‘ अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों की बहुलता को देखते हुए ऐसा लगता है कि मल्हार में दूसरी/तीसरी सदी में मघ वंश का शासन रहा होगा। यहाँ यह बताना समुचित होगा कि मघवंश का शासन कौसाँबी दूसरी/तीसरी सदी में (इलाहाबाद के पास वर्तमान कोसम), रीवां और बांधवगढ़ में वहाँ से प्राप्त सिक्कों का अध्ययन प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री श्री अजयमित्र शास्त्री द्वारा किया गया था। उन पर एक ग्रंथ ‘कौसाँबी होर्ड आफ मघ कॉयन्स‘ भी प्रकाशित हुई है। हमारे पुराणों में उल्लेख है कि मघ वंश का शासन दक्षिण कोसल में रहा परन्तु पुरातात्विक प्रमाणों के अभाव में श्री शास्त्री ने अपने निष्कर्षों में यह कहा है कि संभवतः दक्षिण कोसल की उत्तरी सीमा बांधवगढ़ तक रही होगी और इसी कारण मघ वंश के दक्षिण कोसल पर आधिपत्य का उल्लेख आ गया होगा। बड़ी मात्रा में मल्हार से प्राप्त हो रहे ‘मघ‘ सिक्कों से अब न केवल इस वंश के दक्षिण कोसल से उद्भव का पौराणिक उल्लेख प्रमाणित होता है, वरन् इस बात की संभावना भी बनती है कि मध वंश मूलतः मल्हार से अंकुरित होकर कौसाम्बी की ओर बढ़ा हो। लिखावट की शैली से यह तथ्य आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, बांधवगढ़, रीवां और कौसांबी मे मघ शासकों के शिलालेख पाये गये हैं परन्तु मल्हार में उनका न पाया जाना, सिक्कों के आधार पर उपरोक्त निष्कर्षाें को प्रभावित नहीं करते। शिलालेखों का अपने ही गृहनगर में उत्कीर्ण किया जाना किसी भी शासक के लिए अनिवार्य नहीं हुआ करता वह उनका उपयोग नये विजित क्षेत्रों में अपने अधिकार को जताने के लिये करता है। यह भी हो सकता है कि मल्हार में मघों के शिलालेख रहें हों और बाद के शासकों द्वारा नष्ट कर दिये गये हों अथवा संयोगवश अब तक प्राप्त न हो सके हों।

अंत में मल्हार से प्राप्त कुछ अन्य सिक्कों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो लगभग ‘मघ‘ सिक्कों के ही समकालीन है। इन सिक्कों पर चिन्ह भी मघ सिक्कों से मिलते जुलते हैं किन्तु लेख अलग-अलग हैं। राजा और श्री के प्राकृत रूप ‘रा´ो‘ तथा ‘सिरिस‘ के सामान्य उपयोग के अतिरिक्त शासक का नाम ‘चंद‘, ‘भालीगस‘, ‘अचड‘, ‘धमगस‘, ‘सालुकस‘ आदि प्राप्त होते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के मिलते हैं, जिनका आकार मसूर के दाने से अधिक है। मुद्राशास्त्रियों द्वारा इनका परीक्षण तथा विस्तृत विवेचन कर भारतीय इतिहास के उन चार सौ वर्षों (ईसापूर्व और पश्चात के दो दो सौ वर्ष) की स्थितियों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसका अधिकांश ‘अधंकार युग‘ माना जाता है। साथ ही साथ मल्हार में यदि पुरातत्वीय उत्खनन किन्हीं कारणों से संभव न हो तो कम से कम संग्रह हेतु शासकीय प्रयास विभागीय तौर पर कराये जाने का उपाय आवश्यक है अन्यथा भारतीय इतिहास के न जाने कितने धरोहर अनजान रह जायेंगे और इतिहास के कितने ही पक्षों के उजागर हो सकने संभावना स्रोत सूख जायेंगे।
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प्राचीन मुद्राओं और उनके अध्ययन पर कुछ बातें। अजयमित्र शास्त्री जी के अलावा डॉ. सुस्मिता बोस मजुमदार ने इन सिक्कों पर गंभीर शोध किया है। रुचि लेने वाले संग्राहकों और अध्येताओं में रोहिणी कुमार बाजपेयी जी, राजेश तिवारी जी भी रहे। 

इस प्रकाशित मसौदे के लेखक, मूलतः केरल के, जिनकी स्कूली शिक्षा जगदलपुर में हुई, अपना नाम पा.ना. सुब्रमणियन लिखते हैं, मलयालम, दक्षिण भारतीय अन्य भाषाओं के साथ हल्बी, छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी पर अधिकार है, भारतीय स्टेट बैंक में स्केल-5 अधिकारी रहे, हिंदी पखवाड़ा और उसके बाद भी अपनी मेज पर लिखा रखते ‘मुझे अंगरेजी नहीं आती‘। ‘बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक‘, जिसका मुख्यालय बिलासपुर में होता था, में महाप्रबंधक पद पर रहे हैं।

कुछ और स्मृतियां। इस बैंक के साथ इसके शुरुआती दिनों को याद किया जाना आवश्यक है। सिक्कों-मुद्रा के साथ बैंक का रिश्ता तो होता ही है।अनोखी सूझ और दृष्टि के व्यक्ति इतिहास-पुरातत्व सजग एच.एम. शारदा जी हैं, जिन्होंने तब इस बैंक की शाखाएं खोलने के लिए युक्ति अपनाई, वह बेमिसाल थी। उनका सोचना था कि जिन गांवों में पुरातात्विक अवशेष प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जो ग्राम महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, निश्चय ही वह आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा होगा, इसलिए ग्रामीण बैंक की शाखाएं ऐसे ही गांवों में होनी चाहिए। यह उनकी इतिहास-पुरातत्व रुचि के अनुकूल था और हम पुरातत्व अधिकारियों के लिए अमूल्य मददगार। तब, यानि 1985-90 के दौरान ग्रामीण बैंक में रामू महराज यानि रामप्रसाद शुक्ला जी, रंजन राय जी, परमानंद जी, महेशचंद्र पंत जी, विवेक जोगलेकर जी, उदय कुमार जी जैसे गुणी लोग रहे हैं।

वापस सुब्रमणियन जी पर। उनकी रुचि, सजगता और अध्ययन का प्रमाण यह लेख तो है ही। गोदान के प्रसंग वाले अभिलेख स्थल ऋषभतीर्थ-गुजी यानि दमउदहरा में बैंक की ओर से शिलालेख के परिचय वाला पट्ट लगवाया था। हमारा कार्यालय सीमित संसाधनों और स्टाफ वाला होता था, मगर ग्रामीण बैंक की शाखाएं दूरस्थ-दुर्गम अंचल में होने के कारण हमारी भागदौड़ भी कई बार सीमित हो जाती थी मगर बेहद महत्व की सूचनाएं, जानकारियां और कई बार कार्यवाही में मदद ग्रामीण बैंक के अधिकारियों के माध्यम से हो जाया करती थी।

सुब्रमणियन जी  का ब्लॉग मल्हार Malhar गंभीर मगर रोचक रहा है और मेरी ब्लॉग यात्रा का पहला कदम उन्हीं के सहारे उठा था। हां, सुब्रमणियन जी संबंधी एक खास बात और, वे अमृता-प्रीतम के पिता हैं। जी हां, उनकी पुत्री का नाम अमृता और पुत्र प्रीतम नामधारी हैं।सुब्रमणियन जी ने पुराने सिक्कों का संभवतः अपना सारा संग्रह देश के महत्वपूर्ण प्राचीन मुद्रा अध्ययन केंद्र आंजनेरी, नासिक को भेंट स्वरूप सौंप दिया है।

Sunday, November 6, 2022

खजानों की खोज

पुरातत्व के साथ रहस्य, गुफा, सुरंग और चमत्कारों की कहानी, उसमें रंग भरती है। खुदाई, हनुमान छाप, राम दरबार सिक्के ठगी के साधन बनते हैं। अभिलेख और चित्रों-आकृतियों को बीजक, गुप्त खजाने का पता मान लिया जाता है। रमल, नजूमी, ज्योतिष, बैगा, आंख में खास तरह का काजल आंज कर जमीन में गड़ा धन देख लेने वालों की भी जाने-अनजाने हवा बनाई जाती है।

पुरातत्व में खजाना, चोरी, ठगी और इससे जुड़े अपराध से दो-चार होना पड़ता है। ऐसे कई प्रकरणों में से एक, 1997 में जबलपुर की घटना है, जिसमें भेड़ाघाट के रास्ते में बड़ी तादाद में गड़ा धन, सिक्के मिले थे। तत्कालीन विभागीय मुद्राशास्त्री जे.पी. जैन जी के द्वारा इस दफीने की सामग्री के परीक्षण में मैं साथ था। ‘कनक कनक ते सौ गुनी...‘ पता लगा कि जिन्हें भी यह सामग्री मिली, बंटवारा हुआ, उसमें से लगभग सभी के साथ कोई न कोई हादसा हुआ और इनमें से एक अनिष्ट आशंकाग्रस्त ने तो कुछ सोने की अशरफियां थाने ला कर खुद जमा कराईं।

ऐसी घटनाओं से पुरातत्व में लोगों की रुचि पैदा की जा सकती है, यह बिलासपुर के वरिष्ठ पत्रकार महेन्द्र दुबे जी ने रेखांकित किया। राजिम अंचल के निवासी दुबे जी, संत कवि पवन दीवान के सहयोगी रहे। छत्तीसगढ़ी अस्मिता के घोर-प्रबल हिमायती। दुबे जी, नवभारत समाचार पत्र से जुड़े रहे, बल्कि तब के संपादक गोविंदलाल वोरा जी से। समय बदल रहा था, बिलासपुर के नवभारत संवाददाता बी.आर. यादव जी विधायक और फिर मंत्री बने। मोतीलाल वोरा जी मुख्यमंत्री बने, तब उनके भाई गोविंदलाल वोरा जी ने अपना समाचार पत्र ‘अमृत संदेश‘ आरंभ किया। दुबे जी ‘अमृत संदेश‘ में आ गए। सामान्यतः कम बोलने वाले, मुस्कुराते दुबे जी की सजगता की चुगली उनकी चंचल आंखें कर देती थीं। मुलाकातों में समाचार, खबर-असर, न्यूज-व्यूज जैसी प्रेस-पत्रकारिता बातों-बातों में कह जाते। ऐसी ही बातों के दौरान कटघोरा में घटी घटना के समाचार एंगल से अलग, उन्हें इसमें एक्सक्लूसिव दिखा। लंबी बैठक की, नोट्स लिए और यह सामने आया-

बिलासपुर अंचल के ऐतिहासिक खजानों की चोरियां इस तरह हुयीं

भाजपा नेता श्री कृष्णकुमार पांडे को कटघोरा पुलिस ने उनके साथियों सहित कल्चुरी शासकों की प्रथम राजघानी तुमान से ५ कि.मी. दूर जटाशंकरी नदी एवं झाबर नाला के संगम पर स्थित नगोई ग्राम के ऐतिहासिक महत्व के टीले में खजाने की खोज में खुदाई करते हुये गिरफ्तार किया है। बताया जाता है कि तुमान में निवास कर रहे एक साधु ने श्री पांडे को उक्त टीले में खजाना होने की जानकारी दी थी। इसके पूर्व भी साधु ने तुमान गांव के एक कृषक को ऐतिहासिक स्थल सतखंडा महल के समीप खजाना होने का संकेत दिया था जहां कृषक को मात्र सूर्य की एक मूर्ति मिली।

ईसा पूर्व ७ वीं शताब्दी से लेकर आज तक की ऐतिहासिक किवदंतियों से भरपूर इस अंचल में खजाने की खोज कोई नयी बात नहीं है। बैगा गुनिया या तथा कथित ग्रामवासियों ने ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई की परंतु खजाना उन्हें नहीं मिला। खजाना उन्हीं को मिला जिन्होंने इस के लिये हाथ पैर नहीं मारे। पुरातत्व विभाग के एक संदर्भ ग्रंथ के अनुसार आजादी पूर्व १९३० में सोनसरी ग्राम में सोने के ६०० सिक्के मिलने के प्रमाण मिलते हैं। ये सिक्के त्रिपुरी के कल्चुरी शासक गांगेयदेव, रतनपुर के कलचुरी शासक जाजल्लदेव, रत्नदेव, पृथ्वीदेव, बस्तर के नागवंशी शासक सोमेश्वर एवं गोविंद चंद्र के काल के हैं। तब सभी सिक्के नागपुर संग्रहालय में जमा करा दिये गये। राज्य शासन को चाहिये कि अंचल के सिक्के को नागपुर से यहां स्थानांतरित करे।

अंचल में खजाना मिलने और उसके गायब होने की एक दिलचस्प घटना जांजगीर के समीप पचेड़ा गांव की है जहां एक बैगा की सलाह पर मनहरण बसाइत, गिरजानंद, पंचराम, माखन, शिवनारायण, बुडगा, कौशल, गेंदराम चौहान आदि ९ व्यक्तियों ने घोर अंधेरी रात्रि में एक खेत की खुदाई की। खेत मालिक मनहरण ने पुलिस के समक्ष स्वीकार किया कि खेत की खुदाई में सोने के सिक्कों से भरा हुआ एक बटलोही मिला। रात में ही बटलोही घर लाया गया और बैगा के सामने सिक्कों की गिरजानंद के घर में गिनती प्रारंभ हुयी। अभी वे ४०० सिक्के गिन ही पाये थे कि माखन बैगा ने उसे प्रसाद दिया जिसके खाने से वह मूर्छित हो गया और सारे सिक्के गायब हो गये। पुलिस जांच के दौरान गिरजानंद ने भी स्वीकार किया कि बटलोही में ३६००० सिक्के थे। ये सिक्के कहां गये यह आज तक पता नहीं लग सका है। अलबत्ता पुलिस ने निष्कर्ष निकाला कि शिवनारायण, बुडगा, कौशल, गेंदराम नैला से गायब हैं। ये सभी अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। पुलिस ने मनहरण के बड़े भाई गौकरण से भी पूछताछ की थी जिन्होंने स्वीकार किया कि उसकी मां ने खेत में खजाना होने की जानकारी दी थी परंतु हमने कभी खुदाई करने की आवश्यकता नहीं समझी। खेत बंटवारा के समय मनहरण और उसके बीच यह तय हुआ था कि जब कभी भी खजाने की खुदाई की जावेगी प्राप्त धन दोनों के बीच बराबर बंटवारा होगा। बटवारे में खेत मनहरण को मिला था। 

पचेडा गांव के इस रहस्यमय खजाना की प्रथम सूचना २६.१२.७७ को जांजगीर थाने में स्वयं मनहरण ने दर्ज कराई थी। पुलिस अधिकारियों के अतिरिक्त जांजगीर के तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी श्री मित्तल ने भी स्थल का निरीक्षण किया और जिला प्रशासन को प्रेषित रिपोर्ट में स्वीकार किया कि खेत में ७ फीट गड्ढा खोदा गया है। गड्ढे के आकार से आभास मिलता है कि यहां बटलोही रही होगी। परंतु सिक्के के बारे में उन्होंने भी चुप्पी साध ली। इसी तरह बैगा की सलाह पर कमरीद गांव के एक कृषक घसिया कुर्मी ने जमीन की खुदाई की जिसमें एक सोने की मूर्ति एवं सिक्के से भरा एक हंडा निकला। चर्चा रही कि उक्त कृषक ने मूर्ति के मात्र सिर भाग को ही नैला में १३००० रुपये में बेचा इस प्रकरण की भी पुलिस में रिपोर्ट हुयी परंतु खजाना हाथ नहीं लगा। अलबत्ता इस खजाने की एक अन्य जानकार उसी परिवार की एक महिला की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी।

कहते हैं कि किसी की तकदीर खुलती है कि अनायास खजाना उसके हाथों में आ जाता है। आठ वर्ष पूर्व ऐसे ही शिवरीनारायण के समीप केरा गांव के कुछ लोगों की तकदीर खुली और खजाना उनके हाथों में आ गया। गांव का एक कृषक मकालू पिता बुडगा गढ़ी जाने के रास्ते में स्थित एक झाड़ के नीचे पड़े एक पत्थर के ऊपर २१ अगस्त ७८ को प्रातः दस बजे बैठा हुआ था कि उसको विचार कौंधा कि क्यों न इस गड्ढे बने गोल पत्थर को ढेंकी का बाहना बनाने के लिये घर ले जावे। इस विचार के साथ ही जमीन से करीब ३ ऊपर उठे गोल पत्थर के मुंह में भरे हुये मिट्टी को निकालने के लिये हाथ चलाया तो उसके हाथों में अनायास मिट्टी से सने सोने के सिक्के लग गये। पहले तो उसकी समझ में नहीं आया और सिक्कों को पुनः रगड़ा तो सोने की चमक देख उसकी आंखें चौंधिया गयीं। फिर तो उसने जल्दी जल्दी मिट्टी हटाई और जितना उसकी जेब में आ सकता था खोल से सिक्का निकाला और घर चला गया। इस अनायास हाथ लगे खजाने की जानकारी गांव के अन्य लोगों को मिली तो वे भी तकदीर अजमाने के लिये उस ओर दौड़ पड़े। भय एवं आश्चर्य के वातावरण में जिससे जितना बन पड़ा पत्थर की खोल से सिक्का निकाला और घर की राह ली। इस बीच विद्यानंद ग्रामीण को समझाते रहा कि यह मकालू के भाग से मिला है उसे दे दो परंतु इसे सुनने का समय किसके पास था। सब अपनी जेब गरम करने में लगे हुये थे। मकालू पुनः घर से आया और जेब भरकर पुनः चला गया। इस भाग दौड़ के बीच खजाना मिलने की जानकारी जब गांव के कोटवार को लगी तो वह शिवरीनारायण थाने की ओर दौड़ा। रास्ते में ही उसे थानेदार मिल गया। 

जानकारी मिलते ही थानेदार भी बदहवास तकदीर अजमाने गांव की ओर दौड़ा और घटनास्थल पर १२ बड़े ४२ छोटे सोने के सिक्के जब्त किया। इसी तरह से जांजगीर के तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी श्री पी.सी. जैन को जब इस खजाने की भनक मिली तो वे भी गांव पहुंचे और ग्रामीणों को डांट डपट एवं जमीन देने का लालच देकर मकालू, विद्यानंद, लक्ष्मीप्रसाद, विजय, रमेश, चांदमल, झुमरु, मंगल बाई, जानकीदास, संतोष, मनहर, राजकुमार आदि से ४९ सिक्के बरामद किये। कहते हैं कि थानेदार एवं एस.डी.ओ. के हाथों इससे भी ज्यादा मात्रा में सोने के सिक्के हाथ लगे परंतु अधिकारियों ने इतनी ही बरामदगी बताई। गांव वालों के कथनानुसार एक फीट से अधिक गहरे पत्थर के खोल से करीब १० किलो वजन सोने के सिक्के निकले थे। बहरहाल यहां प्राप्त रतनपुर के कलचुरी शासकों जाजल्वदेव, रत्नदेव एवं पृथ्वीदेव कालीन ११ वीं एवं १२ वीं शताब्दी के २०० ग्राम वजन के १०३ सिक्के आज भी जबलपुर के संग्रहालय में छत्तीसगढ़ के वैभव पूर्ण अतीत को उजागर कर रहे हैं परंतु अतुल संपति को सदियों से अपने में समाहित किया खोल युक्त पत्थर के ढेंकी का बाहना तो नहीं बन सका अलबत्ता जिला कचहरी के नाजरात में पड़ा अपने अतीत पर अवश्य आंसू बहा रहा है।