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Sunday, October 9, 2022

जगदीश चंद्र तिवारी

जांजगीर निवासी विभूतियों में पंडित जगदीश चंद्र तिवारी (17.09.1912-14.12.1992) का नाम अविस्मरणीय है। पंडितजी के महाप्रयाण के पश्चात ‘स्मारिका-1995‘ का प्रकाशन हुआ। 

स्मारिका में पंडितजी को याद करते हुए उनसे जुड़े अंचल के महानुभावों ने उनके प्रति अपने शब्द-श्रद्धा सुमन अर्पित किया, जिसकी सूची यहां देखी जा सकती है। 

मेरे पिता, पंडितजी का बहुत सम्मान करते थे। उनकी विद्वता औैर उनसे जुड़े रोचक संस्मरण सुनाया करते थे। स्मारिका के लिए भरे मन से कुछ शब्द ही लिख सके, मगर यह संक्षिप्त लेख पंडितजी में मानवता के सूत्रों का स्पर्श करते उनके प्रति अपने भावों को प्रकट करने के लिए कम नहीं थे। स्मारिका में प्रकाशित वह लेख- 

पंडित जी: जैसा मैंने जाना 
सत्येन्द्र कुमार सिंह 

नित नवोन्मेष की प्रवृत्ति प्रतिभा कहलाती है। कहते हैं यह परमात्मा-प्रदत्त होती है। यही सच भी लगता है क्योंकि, प्रतिभा सभी में नहीं होती है। प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति लोक कल्याण की बात सोचता है और उसके क्रिया-कलाप भी उसी अनुरूप होते हैं। ऐसे लोग विरले होते हैं तथा वे समाज के विशेष अंग होते हैं। इनका संसार से हमेशा के लिये चले जाना ही समाज की हानि है। वैसे तो दुनिया में आना, जीवन को जीना और चले जाना किसी अजानी शक्ति से संचालित निरन्तर प्रक्रिया है। परन्तु, महत्वपूर्ण यही होता है कि किसी ने जीवन को कैसे जिया? इन सब बातों में पं. जगदीश चन्द्र तिवारी बार-बार याद आते हैं। दो ही तरह के लोग तो जाने के बाद याद आते हैं- एक तो स्वजन और दूसरे सुजन, जो कीर्तिवान हो जाये रहते हैं। स्व. पं. जगदीश चन्द्र तिवारी सुजन थे। उनकी कीर्ति प्रदेश और बाहर तक फैली हुई है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पंडित जी हम सभी को छोड़कर किसी महायात्रा पर गये ही नहीं... । 

कहा जाता है कि मनुष्य पेट के लिये जीवन को जीता है, धर्म, ज्ञान और विवेक ये सब बाद की बातें हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन्हीं बाद की बातें यह बता सकती है कि जीवन को कैसे जिया जाना चाहिये। इसी में शांति और जीवन की सफलता है। पंडित जगदीश चन्द्र तिवारी ने सफल जीवन जिया, इसीलिये जाने के समय कुदरत ने उनके मन और शरीर के कोई उठा-पटक नहीं की। 

सन् 1937 में अंग्रेजी के मास्टर मिलना गूलर का फूल था। हमारे बाबा पूज्य (स्व.) मनमोहन सिंह जी उस समय डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के मेम्बर थे। उन्हें पता लगा कि, जॉंजगीर उदयभांठा के पं. जगदीश चन्द्र तिवारी कटक से स्नातक होकर आये हैं। यही वह कालखण्ड रहा जिसमें तिवारी जी की प्रतिभा अनेक भाषाओं में उनकी मधुरवाणी से प्रवचनों, व्याख्यानों और वक्तव्यों के रूप में चतुर्दिक सुवासित हो रही थी। बाबाजी ने कौंसिल के चेयरमेन देवीप्रसाद वर्मा और सचिव कृष्णानन्द वर्मा से कहकर पंडित जी को अकलतरा में अंग्रेजी शिक्षक नियुक्त करा लिया। बतौर शिक्षक उन्होंने अल्पावधि में जो ख्याति अर्जित की, उससे कहीं अधिक ख्याति उनकी ज्ञानयुक्त बोलने की शैली में वे अर्जित करते जा रहे थे। आश्चर्यजनक था कि वह क्रम कभी टूटा नहीं। उन्हें सम्मान अपने आप मिलता था। क्योंकि प्रतिभा के धनी तो थे ही, आचरण ऐसा था कि, जैसे वे व्यासांश हों, कि जैसे वे सन्त हों, कि जैसे वे कृष्ण भी हों और सुदामा भी। वे सादा-सरल थे, भीतर के भीतर तक तरल थे। किसी की पीड़ा उन्हें ही बेचौन कर देती थी। राम-रावण युद्ध सम्बन्धी प्रवचन में कभी वे इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि मंच से कूद कर श्रोताओं के बीच में आ जाते थे और समूह अवाक् रह जाता था। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन‘ की आकांक्षा रखने वाली पंडित जी की वह जीती जागती तसवीर अब चिरनिद्रा में सो रही है लेकिन तसवीर के खुदाई रंग कभी उतरेंगे नहीं। 

पंडित जी पर जितना लिखा जाये, कम है, 
कयास है कि उनकी याद में हर आँख नम है। 

अकलतरा (बिलासपुर) म.प्र. 
पंडितजी के परिवार जन और उनके सुयोग्य पुत्र
दिनेश शर्मा जी के प्रयासों से अब जांजगीर में
उनकी भव्य प्रतिमा का पुनर्स्थापत्य हुआ है।

Saturday, October 8, 2022

तुलाराम गोपाल

तुलाराम जी के नाम से मेरा पहला परिचय 1980 में कुलदीप सहाय जी के माध्यम से हुआ। इस दौरान मैं ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर‘ शोध निबंध के लिए नियमित जांजगीर जाता था। कुलदीप सहाय जी अनुभव, जानकारियों और संस्मरणों का खजाना थे। भीमा तालाब के सूख जाने और उसे साफ कराने के संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि विष्णु मंदिर, शिखर रहित, अधूरा होने के कारण नकटा मंदिर या साथ लगे तालाब के नाम पर भीमा मंदिर कहा जाता है। मगर गर्भगृह में देव-प्रतिमा न होने के कारण पूजित नहीं है, इसलिए यह सूना मंदिर है और इसी नाम ‘सूना मंदिर‘ शीर्षक से तुलाराम गोपाल जी ने खंड काव्य की रचना की है। संयोग कि तब मेरी जानकारी इस चर्चा तक ही सीमित रही, किंतु स्मृति में यह बात बनी रही। इस स्मारक के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए साहित्यिक रचना करने वालों को यह नाम भा गया। साहित्यकार अश्विनी कुमार दुबे ने इस मंदिर पर लेख लिखा था, जिसका शीर्षक कुछ यूं था- ‘मैं सूना मंदिर हूं, मुझमें दीप धरो‘। 

तुलाराम जी के ‘सूना मंदिर‘ और साहित्यिक अवदान के प्रति मेरी जिज्ञासा बनी रही। पुनः अब संयोग बना कि मेरी मुलाकात तुलाराम जी के पुत्र सूर्य कुमार जी की पुत्री, अर्थात तुलाराम जी की सुयोग्य पौत्री अकलतरा निवासी श्रीमती वर्षा यादव से हुई, श्री रमाकांत सिंह जी माध्यम बने। वर्षा जी ने उत्साहपूर्वक सहयोग करते हुए तुलाराम जी की पुस्तक ‘शिवरीनारायण और सात देवालय (सोलह पुष्पों सहित)‘ का अवलोकन कराया, जानकारी दी कि ‘सूना मंदिर‘ के प्रकाशन की योजना है और तुलाराम जी के जीवन-वृत्त से भी परिचित कराया।

वर्षा जी से जानकारी मिली कि तुलाराम गोपाल जी का जन्म 31 जनवरी 1934 को चंद्रग्रहण के महामूल में हुआ था, जिससे यह बालक गरहन (ग्रहण) कहलाया। शाला-प्रवेश के समय गुरुजी ने तुलाराम गोपाल नामकरण किया। {संभवतः गुरुजी के मन में 1857 के क्रांतिवीर हरियाणा के अहिरवाल (यादव) तुलाराम राव की छवि थी।} बी.ए. एल.एल.-बी शिक्षा प्राप्त कर 1954 में सरकारी सेवा में आए। मगर शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे कर 1968 से वकालत करने लगे। जांजगीर में ‘सांस्कृतिक विकास मंडल‘ की स्थापना में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके अंतर्गत सांस्कृतिक, धार्मिक एवं मानस के प्रचार प्रसार में उत्कृष्ट कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. शांतिलाल गोपाल के सहयोग से स्वजाति बंधुओं के लिए संविधान एवं आचार संहिता का निर्माण किया। वे यादव महासभा के निर्वाचित अध्यक्ष भी रहे। आप मां शारदा के अनन्य भक्त थे। नवरात्रि पर्व में पूरे नौ दिवस मौन रह कर उपवास एवं हवन किया करते थे। आप के द्वारा निर्मित जांजगीर कचहरी चौक में स्थित मां शारदा मंदिर में आज भी नवरात्र में हवन एवं पूजन पूरे परिवार द्वारा किया जाता है। 19 अक्टूबर 1990 को एकादशी के दिन मां दुर्गा का विसर्जन हो रहा था, आप विधिवत नवरात्रि व्रत पूरा कर गो-लोक प्रस्थान कर गए।
 
‘बलिदान‘ और ‘पेकिंग सुनले मोर कबीर‘ के पश्चात पुस्तक ‘शिवरीनारायण और सात देवालय (सोलह पुष्पों सहित)‘ का प्रकाशन 1975 में जांजगीर से हुआ था। पुस्तक में कुल आठ मंदिरों- शिवरीनारायण का मंदिर, पीथमपुर का शिवालय, खरौद का अखलेश्वर मंदिर, अमरकंटक का नर्मदा मंदिर, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी का मंदिर, चांपा की समलेश्वरी का मंदिर, जांजगीर का जगदंबा मंदिर और मैहर की शारदा माता मंदिर, पर काव्य रचना है। साथ ही शीर्षक अनुरूप, कुलदीप सहाय जी के शब्दों में ‘सोलह प्रार्थना-पुष्पों को इस पुस्तक में स्थान दिया है- वे षोडशोपचार पूजन की विविध विधियों के काव्यात्मक प्रतीक हैं।‘ 

पुस्तक में प्रकाशक सूर्य कुमार गोपाल, जांजगीर का वक्तव्य है। विस्तारपूर्वक भूमिका लिखी है, कुलदीप सहाय, अधिवक्ता (एवं सेवा, लोकमत, पीपुल्स व्हाइस आदि के यशस्वी भूतपूर्व संपादक) ने। जगदीश चन्द्र तिवारी, अधिवक्ता, जांजगीर के ‘दो शब्द‘ हैं। प्रकाशक की ओर से शुद्धिपत्र लगाया जाना उल्लेखनीय है। इसी तरह आमुख में रचनाकार तुलाराम गोपाल ने मार्के की बात कही है कि ‘प्रस्तुत पुस्तक के बोलते हुये मंदिरों के माध्यम से मैंने अपने साहित्यिक बंधुओं से एक आत्मीय निवेदन किया है कि वे कुतुबमीनार, ताजमहल, अजंता, एलोरा तथा विदेशों के कई स्थलों और प्रसंगों पर बहुत कुछ लिख चुके हैं। अब वे कृपया अपने घर और आसपास स्थित कथा वस्तुओं पर भी लिखने का कष्ट करें, जिन पर हमने समीपता के कारण सदा से उपेक्षा की है।‘ 

तुलाराम जी की भावना और विचारों के अनुरूप मेरा मानना रहा है कि हम सभी अपनी प्रत्येक स्थिति-संदर्भों के कारण विशेष-सुविधायुक्त होते हैं, (स्वाधीनता संग्राम के दौरान जेल में की गई रचनाएं इसका उदाहरण हैं।) इसका लाभ लेना चाहिए, साथ ही यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि आसपास ‘ स्थान, वस्तु, व्यक्ति, घटना‘ पर ध्यान रहे, क्योंकि यह हमें ही करना होगा, हम ही बेहतर कर सकते हैं और शायद हम न कर सके तो अन्य कोई करने नहीं आएगा। 

इस क्रम में तुलाराम गोपाल जी और उनके कृतित्व का स्मरण करते हुए गौरव-बोध हो रहा है।