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Thursday, October 27, 2022

शिवरीनारायण

महानदी, शिवनाथ और जोंक संगम पर बसा नगर शिवरीनारायण, मेरी दृष्टि में छत्तीसगढ़ की नाभि है। छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र, वैष्णव मठ है। 1891 तक तहसील रहे इस स्थान में महंतपारा और भोगहापारा शामिल थे। माना जाता है कि माघ पूर्णिमा से लगने वाले मेले के पहले दिन जगन्नाथपुरी के ‘नील-माधव‘ यहां विराजते हैं। जानकारी मिलती है कि शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से नील-माधव को पुरी ले जा कर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किए जाने का उल्लेख 14 वीं सदी के उड़िया कवि सरलादास द्वारा किया गया है। 

निकट स्थित प्राचीन नगरी खरौद के साथ इस स्थान का महत्वपूर्ण उल्लेख आर्क्यालाजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोट के वाल्युम 7, 1873-74 में मेजर जनरल ए. कनिंघम के सहायक जे.डी. बेगलर द्वारा बलौदा शीर्षक के अंतर्गत किया गया है। 
मुख्य मंदिर तथा मंडप में रखी
गरुड़ासीन लक्ष्मीनारायण प्रतिमा

प्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह, 1882-85 के बीच शिवरीनारायण में तहसीलदार पदस्थ रहे। इस दौरान 1885 में महानदी में आई बाढ़ की विभीषिका को उन्होंने अपनी कविता ‘प्रलय‘ में दर्ज किया है। सज्जनाष्टक में यहां के यदुनाथ भोगहा, महंत अर्जुनदास, महंत गौतमदास, ऋषिराम शर्मा, माखन साव, हीराराम त्रिपाठी, मोहन पुजारी और रमानाथ पर कवित्त की रचना की। साथ ही श्यामास्वप्न, श्यामसरोजनी और श्यामालता की रचना भी शिवरीनारायण में रहते हुए की। 

1910 में ए.ई. नेलसन संपादित बिलासपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर शिवरीनारायण का विवरण मिलता है। इसमें बताया गया है कि नदी के पास स्थित छोटे से तालाब ‘रोहिणी कुंड‘ में लोग अस्थि विसर्जन करते हैं, जबकि मुख्य मंदिर के गर्भगृह की प्रतिमा के चरणों के पास जलराशि का छोटा सा कुंड है, जिसे इस नाम से जाना जाता है। साथ ही उल्लेख आता है कि यहां महंत गद्दी की स्थापना दयारामदासजी ने की थी। इस परंपरा में सर्वस्वामी कल्याणदासजी, हरिदासजी, बालकदासजी, महादासजी, मोहनदासजी, सूरतरामदासजी, मथुरादासजी, प्रेमदासजी, तुलसीदासजी, अर्जुनदासजी और गौतमदासजी हुए। गौतमदासजी के गुरु अर्जुनदासजी 44 वर्ष महंत की गद्दी पर रहे, उनकी मृत्यु 75 वर्ष की आयु में हुई। गौतमदासजी निहंग गद्दी के बारहवें महंत हैं, इस समय वे 74 वर्ष के हैं और मठ की व्यवस्था का जिम्मा 29 वर्षीय लालदास को सौंप दिया है। 

केशव नारायण मंदिर के प्रवेश द्वार पर
जतिन दास के साथ मेरी यह फोटो
रघु राय ने ली है।

1923 में प्यारेलाल गुप्त द्वारा बिलासपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, हिंदी में ‘बिलासपुर वैभव‘ तैयार किया गया। इसमें उल्लेख आया है कि ‘निहंगोंका एक मठ शिवनारायणमें है। इस मठमें कुल 18 गांव लगे हुए हैं जिनमें 6 गांव माफी हैं। इस समय इस मठके महंत लाल दासजी बड़े सज्जन पुरुष हैं। शिवरीनारायण के रहने वाले योग्य कवि पं. शुकलालप्रसाद पाण्डेय का उल्लेख है। 1885 के बाढ़ में तहसील आफिस बह जाने, जगन्मोहनसिंह तहसीलदार की पुस्तिका ‘प्रलय‘ और ‘शिवनारायण?‘ का उल्लेख है। प्रमुख ठौर शीर्षक अंतर्गत शिवरीनारायण का विवरण है। 

1955 में वी.वी. मिराशी द्वारा किए गए कलचुरि अभिलेखों का अध्ययन ‘कार्पस...‘ प्रकाशित हुआ, जिसमें शिवरीनारायण के तीन अभिलेख सम्मिलित हैं। इनमें रत्नदेव द्वितीय का कलचुरि संवत 878 (1127) का ताम्रपत्र, मूर्तिलेख कलचुरि संवत 898 (1146) तथा जाजल्लदेव द्वितीय का चंद्रचूड़ मंदिर शिलालेख चेदि संवत 919 (1167-68) है, जिस शिलालेख में कलचुरियों की आनुषंगिक शाखा पृथ्वीदेव प्रथम के छोटे भाई सर्वदेव के अलावा अन्य राजपुरुषों आमणदेव, राजदेव, तेजल्लदेव, उल्हणदेव, गोपाल और विकण्णदेव के नाम मिलते हैं। 

शिवरीनारायण के पुरातत्व पर राय बहादुर हीरालाल, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, बालचन्द्र जैन, डॉ. सुधाकर पांडेय जैसे विद्वानों ने भी शोध-लेखन किया है। 

2011 में प्रो. अश्विनी केशरवानी के संपादन में ‘श्री शिवरीनारायण माहात्म्य‘ का प्रकाशन हुआ है। इसके पहले उनकी पुस्तक ‘शिवरीनारायण देवालय और परम्पराएं‘, 2007 में प्रकाशित हुई, जिसमें स्थानीय जानकारियों का पर्याप्त रोचक संग्रह है। इस पुस्तक में आभार सहित शिवरीनारायण के एक परवर्ती काल के शिलालेख के मेरे पाठ को पेज-152 पर प्रकाशित किया है। 


छत्तीसगढ़ में अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के अभिलेख, दस्तावेज गिने-चुने हैं। इस दृष्टि से इनका विशेष महत्व है। यह शिलालेख शिवरीनारायण के ‘सिंदुरगिरि‘, वर्तमान जोगीडीपा या जनकपुर के नाम से ज्ञात क्षेत्र के मंदिर में जड़ा हुआ है। शिलालेख का पाठ इस प्रकार है- 

श्री गणेशायनमः। गौरी सुत गज वदन पग वंदि गुरुहि सिर नाय लिषेण सुकीरति सफल कै सारद आज्ञा पाय।।1।। दोहा ।। सिंदुरगिरि परि थल सुभग चित्रोत्पल तीर। सीध तपोवन रहत जहं सेवत सिअ रघुवीर।।2।। कल्प -- कै चरित अति गावत विविध प्रकारा।। शंकर सहसानन सहित लहै न सारद पारा।।3।। द्वापर चौथे पाद मा वह थल अति -काता। तपी तपोनिधि रहत नित तपत नीस दिन रात।।4।। मोरध्वज महिपाल मनि विदित रत्नपुर ग्राम।। सो सिुदंरगिरि में रच्यो बहु तपसिन कै धाम।।5।। काल पाअ पुनि लुप्त भे रह्यो कछुक नहि चीन्हा। तब रघुपति निज दास केै मन इच्छा करि दीन्हा।6।। सुचि संवक श्रीराम के तान भक्ति युत संता। सो पुनि इह थल उदित किये अर्जुनदास महंता।7।। उनविस सत के उूपरे अष्टाविंसति अंका। संवत विक्रम भूप के सर्व सुफल अकलंका।8।। कृष्ण पक्ष आषाढ़ कै तेरस - गुरुवारा। भयो प्रतिष्ठा साम कै अति रमनिक सु प्रसारा।9।। मति गति विद्याहीन है नारायणपुर धामा। दोहा ----- हीरारामा।10।। मीती आसाढ़ कृष्न 13 गुरुवासर संवत 1928. 

राम-जानकी मंदिर का गर्भगृह तथा मंडप में लगा शिलालेख, 
जिसका आशय स्वयं स्पष्ट है। इसमें आया नाम ‘सत्येन्द्र कुमार सिंह‘ 
मेरे (यानि राहुल कुमार सिंह और अग्रज राजेश कुमार सिंह) के पिता हैं। 
अश्विनी जी ने अपनी पुस्तक में इस श्रीराम जानकी मंदिर को
महंत अर्जुनदासजी की प्रेरणा से
संवत 1927 (सन 1870)? में बनवाया जाना लिखा है।

Saturday, October 1, 2016

हीरालाल

डेढ़ सौ साल पहले पैदा हुए व्यक्ति को क्योंकर याद करना जरूरी हो जाता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह पितरों में है, फिर भी पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ। 150 वीं जयंती के अवसर पर मुड़वारा-कटनी वाले रायबहादुर डा. हीरालाल की जन्मतिथि 1 अक्टूबर 1867 तक लौटते हुए देखा जा सकता है कि वे किस तरह इतिहास, पुरातत्व, जाति-जनजातियों से जुड़े, इस माध्यम से पूरे समाज की परम्परा, संस्कृति और उसकी भाषा-बोलियों में सराबोर हो कर अस्मिता, आत्म-गौरव की अभिव्यक्ति का नित-नूतन रस-संसार रचा। 67 वर्ष के जीवन सफर में इतिहास-परम्परा के न जाने कितने अनजाने-अनचीन्हे रास्तों को नाप लिया, शिक्षक से डिप्टी कमिश्नर (कलेक्टर) बनते तक अपने समकालीन परिवेश और समाज के दैनंदिन कल्याण के समानांतर, भविष्य का मार्ग प्रशस्त करते हुए। अब यह मौका है देखने का, कि उनके इंगित राह पर उनकी स्मृतियों को उंगली पकड़े हम कहां पहुंच पाए हैं।

रामकथा और मानस, भारतीय समाज में धर्म-अध्यात्म का सर्वप्रिय साधन है साथ ही साहित्य और ज्ञान-प्रकाश का स्तंभ बन कर कथावाचकों-टीकाकारों के माध्यम से 'सुराज', स्वाधीन और पराधीन के व्यापक अर्थ भी रचता है। महोबा के पास सूपा गांव की एक कलवार बिरादरी व्यापार के लिए बिलहरी आ बसी। इनमें एक, नारायणदास रामायणी हो कर पाठक कहलाए, मुड़वारा-कटनी आ बसे। इनके वंश क्रम में आगे मनबोधराम, ईश्वरदास और फिर हीरालाल हुए। शिवरीनारायण में तहसीलदार रहे 'श्यामा-स्वप्न' के रचयिता ठाकुर जगमोहन सिंह मुड़वारा मिडिल स्कूल में आए और तब तीसरी कक्षा के विद्यार्थी हीरालाल की प्रतिभा को पहचान कर बालक को संस्कृत पढ़ाने की बात शिक्षक से कही और चले गए। विद्या-व्यसनी बालक हीरालाल ने संस्कृत पढ़ने की जिद ठान ली, शिक्षक ने किसी तरह अपना पिंड छुड़ाया, लेकिन बालक हीरालाल के मन में पड़ा यह बीज आगे चलकर वट-वृक्ष बना।

शासकीय सेवा में विभिन्न दायित्वों के निर्वाह में उनकी विशेष योग्यता के अनुरूप कार्यों में संलग्न किया गया। उन्होंने शिक्षा और अकाल संबंधी काम तो किया ही, भाषा सर्वेक्षण, जाति-जनजाति अध्ययन, जनगणना और गजेटियर के लिए तैयारी करते हुए उन्होंने भाषा-साहित्य, प्राचीन इतिहास और परम्पराओं पर अतुलनीय कार्य किया। आपके सहयोग से आर.वी. रसेल ने चार खंडों में 'द ट्राइब्स एंड कास्ट्स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया' (सन 1916) तैयार किया, इसकी जानकारियां और तथ्य, प्रामाणिकता की मिसाल है। एक पुराने ताम्रपत्र के अपरिचित अक्षरों में खुदी लिपि को स्वयं के प्रयास से पहले-पहल समझ कर उसका संपादन किया, जो प्राचीन अभिलेखों की सबसे प्रतिष्ठित शोध पत्रिका 'एपिग्राफिया इंडिका' में प्रकाशित हुआ। फिर तो यह सिलसिला बन गया और वे इस शोध-पत्रिका के विशिष्ट व्यक्ति बन गए, इस क्रम में उन्होंने सन 1916 में 'डिस्क्रिप्टिव लिस्ट्स आफ इन्स्क्रिप्शन्स इन द सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार' पुस्तक में छत्तीसगढ़ सहित मध्यप्रान्त और बरार के तब तक ज्ञात सभी प्राचीन अभिलेखों की सूची तैयार कर प्रकाशित कराया।

मैदानी छत्तीसगढ़ में नांगा बइगा-बइगिन के अलावा विभिन्न बइगा ग्राम देवता यथा- सुनहर, बिसाल, बोधी, राजाराम, तिजउ, ठंडा, लतेल आदि हैं, इन्हीं में एक सुखेन भी हैं, जिनकी पूजा-स्थापना, अब कौशिल्या माता मंदिर के लिए प्रसिद्ध ग्राम चंदखुरी में है, इस जानकारी को सुषेण वैद्य से रोचक ढंग से जोड़कर आपने शोध लेख लिखा। इसी तरह लोकनायक नायिकाओं सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन और बहादुर कलारिन की तरह बिलासा केंवटिन के बारे में जाना तो देवार गीत- 'छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार। खोपा पारे रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।...' का अभिलेखन कर अंगरेजी अनुवाद करते हुए शोध लेख लिखा। बीसवीं सदी के पहले दशक में प्राचीन अभिलेखों संबंधी उनके शोध लेखों से छत्तीसगढ़ और विशेषकर बस्तर का प्राचीन गौरव उजागर हुआ।

31.12.1987 को
जारी डाक टिकट
हिन्दी गजेटियर की पहल के साथ हिन्दी-सेवा का मानों मौन संकल्प आपने दुहराया। इस काम में औरों को भी जोड़ते हुए बिलासपुर जिला के सन 1910 के गजेटियर का संक्षिप्त हिन्दी स्वरूप 'बिलासपुर वैभव' के लिए प्यारेलाल गुप्त को प्रेरित किया। इसी क्रम में गोकुल प्रसाद, धानूलाल श्रीवास्तव, रघुवीर प्रसाद जैसे नाम भी जुड़े। जबलपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका 'हितकारिणी' के लिए 1915-16 में ग्रामनामों पर आपके लिखे लेख 1917 में 'मध्यप्रदेशीय भौगोलिक नामार्थ-परिचय' प्रकाशित पुस्तक, स्थान नामों की पहली हिन्दी पुस्तक है, जिसमें छत्तीसगढ़ के स्थान नामों पर रोचक और सुबोध चर्चा है। वह 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी' के अध्यक्ष रहे। ''मध्यप्रान्त में संस्कृत एवं प्राकृत पाण्डुलिपियों की विवरणात्मक ग्रंथ-सूची'' संकलित की जिससे 8,000 से अधिक पाण्डुलिपियां प्रकाश में आईं। साथ ही नागपुर विश्वविद्यालय में 'हिन्दी-साहित्य परिषद' का गठन तथा स्नातकोत्तर तक के पाठ्यक्रम में हिन्दी को मान्यता दिलाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही।

जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने आपके निधन पर श्रद्धांजलि देते हुआ रचा- 'हीरा मध्यप्रदेश के, भारत के प्रिय लाल, कीर्ति तुम्हारी अमर है, पंडित हीरालाल।' और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘सरस्वती‘ के लिए लिखा- 'अयि अतीत तेरे ढेले भी, दुर्लभ रत्न तुल्य चिरकाल, पर तेरा तत्वज्ञ स्वयं ही, एक रत्न था हीरालाल।'

यह लेख 1.10.2016 को
‘नवभारत‘ में प्रकाशित हुआ।