-सत्येन्द्र कुमार सिंह, अकलतरा
वेद शास्त्र और पुराणों से भी ज्ञात होता है कि मानव एक श्रेष्ठ जीव है. मनुष्य का जीवन बहुत दुर्लभता से प्राप्त होता है परंतु यदि हम बहुत गहराई से विचार करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि आज का मानव सबसे खतरनाक प्राणी बन चुका है. जैसा कि स्व. राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है- यह मनुष्य ज्ञाननी श्रृंगालो कुकुरों से हीन, हो किया करता अनेकों क्रूर कर्म मलीन।
सुनने में यह बात उटपटांग सी लगती है. आमतौर पर गले के नीचे नहीं उतरती, पर सत्य तो अपनी जगह रहेगा ही. ऐसा देखा जाता है और मान्यता है कि जितने प्राणी है उनमें विवेक, ज्ञान, बुद्धि नहीं होती है. कुछ में थोड़ी बहुत होती भी है तो वे उससे कोई काम नहीं ले पाते. पर मानव में बल, बुद्धि, मन, विवेक की शक्ति होती है और यदि वह इस शक्ति का प्रयोग सही ढंग से करें तो वह निश्चित है कि वह श्रेष्ठ प्राणी कहलाने का हक प्राप्त कर सकता है पर हकीकत कुछ और ही है. आज का मनुष्य अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिये बहुत नीचे स्तर तक जा सकता है और ऐसा घृणित काम कर सकता है कि उसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव हो जाता है. मनुष्य के क्रिया कलाप अन्य जीवित प्राणियों से कई माने में भिन्न होता है. अन्य जंगली जीव प्राकृतिक ढंग से जीवन यापन करते हैं वे मूलत स्वभावगत अपने क्रियाकलापों में सही होते हैं, उन्हें किसी प्रकार का दिखावा या पाखण्ड करने नहीं आता परंतु सभ्य प्राणी मनुष्य अपने को सभ्य कहलाने के लिये और तथाकथित सभ्यता का दिखावा करने के लिये पाखंड, आडंबर और न जाने कितने प्रकार के प्रपंचों की रचना करने में आगे रहता है.
चाहे कोई महात्मा हो, साधु या सन्यासी हो सबको भोजन, कपड़ा और मकान तो चाहिये ही इन्हें हम पलायनवादी कह सकते हैं. आज के अधिकतर साधु सन्यासी जंगलों के बजाय, बने बनाये मठों, घरों और मदिरों के आसपास अपना डेरा डाले हुए धर्म और ज्ञान उपदेश के नाम पर लोगों से पैसे ऐठते हैं और अपनी जीविका मजे में चलाते हैं. दुनिया को मोक्ष दिलाने की बात करते हैं. लोगों को आशीर्वाद देते हैं. ज्ञान देते हैं. पर कितने ऐसे लोग हैं जो साधु सन्यासियों द्वारा दिये गये उपदेशों का पालन करते हैं. चाहे मनुष्य हो या सन्यासी हो सबको अपनी अपनी चिंताये होती है. इन्हीं वासनाओं के मकड़जाल में व्यक्तियों के क्रिया-कलाप देखे जा सकते हैं. साधुसन्यासी गृहस्थी के झमेले से बचते हैं और वास्तव में साधु सन्यासी बनकर पाखंड करने में लगे रहते हैं. लोगों को ठगते हैं और उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से लूटते हैं. यह काम एक सन्यासी या अज्ञानी का हो ही नहीं सकता. कुछ ठग साधु या सन्यासी थोड़ा बहुत चमत्कार दिखाकर विदेश चले जाते हैं और वहां भी लोगों को ठगने से बाज नहीं आते.
आज की शहरी और नगरी सभ्यता अमानवीयता का पर्याय बन चुकी है. शहरों का व्यापारीकरण, शोषण और अन्याय का पर्याय है. बड़े-बड़े व्यापारी कई प्रकार का ऐसा उद्योग धंधे चलाते हैं जिनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं में गुणवत्ता की कमी होती है. कई व्यापारी जो पक्के धंधेंबाज होते हैं जो बड़े-बड़े विज्ञापनों के माध्यम से शेयर बेचकर करोड़ो रूपये एकत्र करते हैं और जनता को भुलावे में डालकर अचानक गायब हो जाते हैं. नगरीय जीवन इस भांति पतनगामी हो चुका है कि आदमी में आमानवीय चरित्र की गरिमा ही समाप्त होती दिखायी पड़ती है. ये व्यापारी और उद्योगपति वातानुकूलिम कमरों में ऐशोआराम का जीवन व्यतीत करते हैं. ऐसे धंधों से लाखों करोड़ों कमाते हैं जो गैरकानूनी कहे जा सकते हैं और जिनमें कई राजनैतिक हस्तियों के हाथ होते हैं. एक आदमी के आंसू और खून पसीने धनाड्य व्यक्तियों के लिये सुख के साधन बन जाते हैं. दूसरी ओर शहर के झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की जिदगी नरक के समान होती है. उन्हें जिंदगी की जटिलताओं का सामना करना पड़ता है. उनकी जिंदगी का हर क्षण दर्द का दास्तान होती है. आश्वर्य की बात ये है कि इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों पर किसी राष्ट्रीय नेता की नजर नहीं जाती और न ही मिडिया से जुड़े लोगों की दृष्टि पड़ती है. कितनी विचित्र बात है कि एक तरफ अमीरी बढ़ रही है और दूसरी और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है.
मनुष्य की तीन प्रमुख आवश्यकता होती है- भोजन, कपड़ा और मकान. जहां तक भोजन का सवाल है हर आदमी अपने लिये इसकी व्यवस्था करता है परंतु जहां तक गरीबों के भोजन की व्यवस्था की बात है वह भारत जैसे विकासशील देश में अत्यंत ही दुखदायी है. .एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है और जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि इस अत्याधिक जनसंख्यावृद्धि के कारण सैकड़ों समस्याओं का जन्म होता है. जनसंख्या वृद्धि से आम लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है. लाखों करोड़ों लोगों को आजाद भारत में पीने के लिये शुद्ध जल उपलब्ध नहीं हो पाता है. गरीब लोग बीमार पड़ते है और बिना इलाज और दवापानी के दम तोड़ देते हैं. आज का सामाजिक जीवन इतना अमानवीय बन चुका है कि लोग किसी के प्रति सहानुभूति या हमदर्दी नहीं जताते. यदि कोई व्यक्ति किसी के प्रति सहानुभूति या लगाव रखता है तो वह अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिये एक चालाक आदमी दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाकर अपने ऐशोआराम के लिये उसका शोषण करने से बाज नहीं आता. बड़ी बड़ी कंपनियों के मालिक अपनी कंपनी के कर्मचारियों का शोषण करते हैं और तिजोरी भरते हैं. और खुद महलों में रहते हैं इस प्रकार वे दूसरों की कमाई पर जिंदगी के मजे लूटते हैं. इस बात को छिपाने के लिये वे समाज सेवा करने का ढोंग और पाखण्ड रचते हैं.
वे लोग जो श्रम करते हैं जिनकी श्रम और सेवा से देश और समाज का विकास होता है वे आज भी शोषण अन्याय और अत्याचार के शिकार होते हैं. वह इसलिये श्रम करने के लिये विवश है क्योंकि उसे अपने और अपने बालबच्चों का पेट भरना है यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसके जीवन का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है. धंधेबाज लोग, जो श्रमिकों से काम लेते हैं, उनमें इन विवश श्रमिकों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती है और न ही कोई मानवीय संवेदना होती है. यह आज के मानवीय संदर्भों में इस बात का द्योतक है कि आज का मानव कितना स्वार्थी हो चुका है.
वन कटते जा रहे हैं. मनुष्य उसके लिये दोषी है. पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है. मनुष्य जीविका कमाने के लिये संघर्ष कर रहा है. आज मनुष्य की क्रूरता इतनी बढ़ गई है कि वह कितने प्रकार के वन्यजीव और पक्षियों को मारकर खा जाने में कोई भूलचुक नहीं करता. मात्र अपनी स्वार्थ की पूर्ति के लिये यह वन्य जीवों का सफाया कर रहा है. आज कई पक्षियों और जीवों की प्रजाति समाप्त होने की सीमा पर पहुंच चुकी हैं. इस धरती पर लाखों-करोड़ों एकड़ भूमि पर से वनों का सफाया हो जाता है. प्रकृति के विरूद्ध मनुष्य का बलात्कार और आत्याचार मनुष्य की कूरता का प्रमाण है. वनों के कटने के परिणामस्वरूप धरती धीरे-धीरे गार्माती जा रही है. धरती का गर्म होना समस्त मानव जाति के लिये खतरे की घंटी है. समय रहते यदि हरे भरे वनों को कटने से नहीं रोका गया तो भविष्य में मानवता के खतरे और बढ़ जाएंगे और इस ग्रह मर निवास करना अत्यंत कठिन हो जाएगा. बढ़ते ग्रीन हाऊस का प्रभाव और अंटार्कटिका में बर्फ पिघलती जा रही है जिससे समुद्र का जल प्रतिवर्ष एक सेंटीमीटर बढ़ रहा है जो कि महाविनाश का सूचक है. यह सब क्यों हो रहा है? मनुष्य क्या चाहता है? वह अपने विनाश पर क्यों उतारू है? वह यह मार्ग क्यों नहीं निकालता जो सबके लिये मंगलकारी एवं सुरक्षित हो. मनुष्य अपनी बुद्धि और इतना दीवालिया क्यों हो गया है. मनुष्य चाहे तो वह मार्ग निकाल सकता है और इस धरती के मृतप्राय जीवन को नवजीवन प्रदान कर सकता है. इसके लिये शर्त यह है कि वह मानवीय समस्याओं पर संजीदगी के साथ विचार करें. यदि मानवीय जीवन को इस धरती पर बनाये रखना है तो उसे सच्चे अर्थों में मनुष्य होने का परिचय देना होगा. यह न एक व्यक्ति के लिए अपितु समस्त मानवता के लिए मंगलकारी सिद्ध होगा।
मेरे पिता सत्येन्द्र कुमार सिंह, संत कुमार, संत बाबू या संत महराज के नाम से जाने जाते थे। उनका जन्म 14 सितंबर 1928 को और निधन 13 जुलाई 1999 को हुआ। 1955 में आगरा विश्वविद्यालय से अंगरेजी साहित्य में एम.ए. किया था, शेक्सपियर उन्हें प्रिय थे। इंग्लैंड कभी गए नहीं, लेकिन किसी भी लंदनवासी को वहां के गली-कूचों के बारे में सहज बता सकते थे। अंगरेज कवियों के संदर्भ उल्लेख करते थे, मैंने कैंटरबरी टेल्स और चॉसर के बारे में उन्हीं से सुना था। जीव-जन्तुओं और प्रकृति-पर्यावरण से अगाध लगाव। कुत्ते तो पाले ही, बंदर, खरगोश, मोर, चीतल और कोटरी-चौसिंघा भी पाले। बांधे या बंद किए बिना। उनसे बात करते समझाइश देते, वे उनके साथ बने रहते और लगता कि बात समझ और मान रहे हैं। बिलासपुर-जांजगीर अंचल के, विशेषकर राजपूत परिवारों को अपने छत्तीसगढ़ आने के इतिहास के बारे में जानना होता, तो उनसे संपर्क करते। इतिहास की मौखिक परंपरा में उनकी गति थी।
जीप चलाते 15-20 मील या इससे भी कम स्पीड से, कहते कि कोई तुम्हारी गाड़ी के सामने आ कर आत्महत्या करना चाहे, उसे भी नुकसान न हो। आशय, शायद लापरवाही से बाइक, साइकिल चलाने वालों के प्रति टिप्पणी कि वे जान की परवाह न करने की हद तक लापरवाह होते हैं या कि किसी भी घटना परिस्थिति में स्वयं की जिम्मेदारी के लिए अधिकतम संभव सजग रहो, दूसरे, तुम्हारे साथ हैं और गलती भी कर रहे हों तो उन्हें संभालने की जिम्मेदारी अपनी मानो। कभी अपने से बड़ी उम्र के कर्मचारी को मैं आसान सी बात और काम न समझ-कर पाने के कारण डांट रहा था, उन्होंने सुन लिया, तब कुछ नहीं बोले। रात को कहा कि तुम उसे डांट रहे थे, यह ठीक नहीं। वह, जितनी उसकी समझ है, करता है, इसीलिए तुम्हारा कर्मचारी है और तुम्हारे डांटने में तुम्हें अपने अधिक बुद्धिमान, समझदार होने का गुमान था, यह ठीक नहीं। उनके शब्द लगभग इस तरह याद है- ‘ओ हर तोरे अतका हुंसियार रतिस त तोर बुता का बर करतिस ...।
बिजली, मोटर, मशीन में उन्हें रुचि थी और दखल भी। अकलतरा में आटोमेटिक राइस मिल, तेल मिल, सॉ मिल, आइस फैक्ट्री, सोडा वाटर जैसे काम, अजंता इंडस्ट्रीज के नाम से स्थापित किया। धीरे-धीरे, शायद विरक्ति होने लगी। 1960 के दशक में अकलतरा से गुजरने वाली शरणार्थी गाड़ियों के भोजन, दवा-इलाज और कपड़ों की व्यवस्था कर उन्हें तसल्ली होती। मानव सेवा समिति के माध्यम से नेत्र और स्वास्थ्य शिविर आयोजित कराने लगे। अकलतरा के सरपंच रहे, पुराने लोग लोग उन्हें परसाही नाला से अकलतरा तक पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था और अकलतरा बिजली सब-स्टेशन की स्थापना जैसे कुछ कामों के लिए याद करते हैं। मगर उनके साथ के सभी 20 पंच आजीवन, उनके परिवार-जन बन गए, बने रहे, उन्होंने इसे असली हासिल माना। इस तरह थोड़ी राजनीति की, लेकिन उसमें मन कभी रमा नहीं।
लिखना और वह भी हिंदी, उनके अभ्यास में नहीं था, लेकिन 1970 के दशक में बजरंग केड़िया जी, डीपी चौबे जी, मंगत राय-अशोक अग्रवाल जी, जैसे बिलासपुर के अखबारों के लोगों के कहने पर अपनी बातों को लिखना शुरू किया। बिलासपुर टाइम्स 1974-75 से सांध्यकालीन दैनिक निकलने लगा, तब इसके लिए रमणीक भाई, व्यंग्य और चुटीली टिप्पणियों वाला स्तंभ ‘चौराहे से‘ लिखते थे। आपने ‘तिराहे से‘ का क्रम आरंभ किया, जिसमें सामयिक, वैचारिक टिप्पणियां होती थीं। उस दौर में कम दिखने वाले पक्षियों की जानकारी प्राण चड्डा जी, सतीश जायसवाल जी, महेन्द्र दुबे जी, गंगा ठाकुर जी आदि से करते। 1960 दशक के आरंभिक वर्षों तक हुम्मा यानि Bustard, तरौद-किरारी भांठा में और उन दिनों तक कुर्री यानि Demoiselle Crane देवरघटा, महानदी-शिवनाथ संगम पर आने की और अन्य ढेरों प्रवासी पक्षियों की बात साझा करते थे।
1984 में नवभारत बिलासपुर से निकलने लगा और बाद के वर्षों में अपने वर्तमान भवन में आ गया। आप 1996-97 से बिलासपुर रहने लगे।बजरंग केड़िया जी से फोन पर बात होती और वन-पर्यावरण, साल बोरर, स्वास्थ्य, तकनीक, आर्थिकी, कृषि, सामुदायिक जीवन, इतिहास-गाथा, मानवता, नैतिक जीवन जैसे विषयों पर लेख बना कर भेज देते।
उनके लिखे-छपे में से मिल पाया यह लेख, 3 जुलाई 1997 को ‘नवभारत‘ बिलासपुर में प्रकाशित हुआ था। आज पितृ-मोक्ष पर सभी पितरों के पुण्य-स्मरण सहित प्रस्तुत है।
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