तुमान खोल की प्राकृतिक सुरक्षा सीमा पहाड़ियों से परिवेष्टित राजसत्ता का विस्तार जब रतनपुर में आता है तो उसका मैदानी खुलेपन की दिशा में आकर्षण दिखाई पड़ता है। सत्ता संघर्ष के जंगल कानून और गुरिल्ला छापामारी का युग समाप्त होकर मैदानी साहचर्य और विकसित सभ्यता की शुरूआत का, भू-व्यवस्थापन और कर-लगान की नई प्रणाली का, राजसत्ता में जनता की महत्वपूर्ण भागीदारी का सूत्रपात रतनपुर में होता है।
महिष्मति के कलचुरियों की पौराणिक पृष्ठभूमि से विकसित इतिहास ने त्रिपुरी में अगर दिशा पाई तो दक्षिण कोसल आकर उसे ठोस विस्तार मिला। दसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में तुमानखोल के सुरक्षित घेरे में त्रिपुरी कलचुरियों की एक शाखा ने अपनी स्वतंत्र सता घोषित की जो इतिहास में कलचुरियों की रतनपुर शाखा के रूप में जानी गई । इस नई शाखा की स्थापना और इनका लगभग साढ़े सात सौ वर्षों का अद्वितीय राज्यकाल कलचुरी, आदि हैहयवंशियों को इतिहास पुराण का सर्वाधिक दीर्घकाल तक शासन करने वाले वंश के रूप में स्थापित करता है।
रतनपुर में महाप्रतापी कलचुरी शासकों रत्नदेव, पृथ्वीदेव और जाजल्लदेव, प्रतापमल्ल, बाहरसाय और कल्याणसाय जैसे इतिहास प्रमाणित शासकों का स्वर्णयुग देखा वहीं मोरध्वज और चतुर्युगों मेें राजधानी का गौरव प्राप्त कर पुराण कथाओं से महिमा-मंडित भी हुआ है।
रतनपुर के कलचुरिकालीन पुरावशेषों का झलक और कला का अद्भुत सम्मोहक संसार अब बिखर सा गया है लेकिन उनकी झांकी रायपुर व बिलासपुर संग्रहालय, रतनपुर के प्राचीन किले, महामाया मंदिर, कंठी देऊल, जूनाशहर का सतखंडा महल, बावली, बीस दुअरिया, आठ बीसा, बादल महल, कर्णाजुनी तालाब, बैराग बन, भैैरव बाबा, रामटेकरी और लखनी देवी मंदिर में देखी जा सकती है।
महामाया मंदिर को प्रतिष्ठा सिद्ध आदि शक्ति के रूप में मान्य हुई है। प्रवेश-द्वार के सामने स्तंभों पर शिलालेख है। संलग्न तालाब और प्रतिमाओं, स्थापत्य अवशेषों के सांध्य आरती का वातावरण मानो कि काल विस्तार को लांघकर दर्शनार्थी को उसी स्थिति में ला देता है। जैसा रत्नदेव ने विलक्षण अनुभव यहां प्राप्त किया था। रायपुर संग्रहालय की दो महत्वपूर्ण प्रविष्टियां रतनपुर से प्राप्त हैं, जिनमें से एक शिव-पार्वती परिणय का कल्याण सुन्दर विग्रह है, इस प्रतिमा में सोमवंशी और कलचुरि कला के संधि-स्पर्श का सौन्दर्य अत्यन्त सजीव और मनोरम है।
ऐसी ही कलात्मक मूल्य की एक अन्य प्रतिमा शालभंजिका नायिका कठी देऊल मंदिर में है जिसके आभूषण अलंकरण और समानुपातिक शारीरिक सौन्दर्य में प्राकृतिक वृक्ष और जीव-जंतुओं को संघटित किया गया है। नायिका के संग दिखाया गया विदूषक प्रदर्शित है। रायपुर संग्रहालय में रखी काले पत्थर की चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा इस क्षेत्र में प्राप्त ग्रेनाइट की सर्वाधिक बड़े आकार की प्रतिमा है। चंवरधारिणी परिचारिकाओं सहित सम्पूर्ण देवमण्डल का परिकर है तथा उपासकों में प्रतिमा निर्माण हेतु दान के इतिहास को उद्धाटित करने वाले रतनपुर से प्राप्त शिलालेख भी सुरक्षित है।
कठीदेउल मंदिर वस्तुतः विभिन्न कार्यों की सामग्रियों से संयोजित पुनः संरचना है और संभवतः मंदिर में उत्कीर्ण संतोषगिरि नामक गोसाई का समाधिस्थल है। पुरातत्व अधिकारी एवं अध्येता राहुल कुमार सिंह का इस पक्ष में प्रबल तर्क है कि इस मंदिर के नामकरण का आधार भी यही रहा होगा साथ ही इस मंदिर की गोसाई परम्परा के लिए ग्राम छतौना लगाया गया था, जो इस मान्यता की पुष्टि करता है। कंठी देऊल मंदिर की संरक्षण प्रक्रिया में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसे पत्थर दर पत्थर अलग कर पुनः खड़ा किया है।
कंठी देऊल मंदिर में ही काले ग्रेनाइट पत्थर की लिंग पीठिका के साथ-साथ ब्रह्मा और विष्णु के बीच ज्योतिर्लिंग के समक्ष हुई प्रतियोगिता का शिल्पांकन भी अत्यन्त रोचक और महत्वपूर्ण है। इस स्मारक में कलचुरिकालीन राजपुरूष व कलचुरि मंदिरों के गजपीठ आदि स्थापत्य खंड भी जुड़े हुए है। यह दोमंजिली इमारत युगल शैली के प्रभाव का भी आभास कराती कलचुरिकालीन प्रतिमाओं का रतनपुर से संग्रह बिलासपुर संग्रहालय में किया गया है। बिलासपुर में संग्रहित प्रतिमाएं कलचुरि शासकों में संग्रहित प्रतिमाएं कलचुरि शासकों के धार्मिक सद्भाव पर प्रकाश डालती है। जैन धर्म के विभिन्न तीर्थकरों की पद्मासन व कार्योत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमाओं में कला प्रतिमान के दर्शन तो होते ही हैं, यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीन रतनपुर राज्य क्षेत्र में जैन धर्मावलंबियों को विशेष महत्व तथा उनकी धार्मिक भावनाओं को सम्मान दिया गया था। नगर प्रवेश में भैरव बाबा स्मारक है।
रतनपुर के इतिहास का एक अन्य महत्वपूर्ण भाग कल्याण साय के साथ जुड़ा हुआ है। जिसकी राजस्व डायरी में अंग्रेजी प्रशासनिक अधिकारियों ने इस पूरे क्षेत्र की जमाबंदी का परम्परागत आधार पाया था। यही वह काल था जब इस क्षेत्र की जमाबंदी का परम्परागत आधार पाया था। यही वह काल था जब इस क्षेत्र ने छत्तीसगढ़ की संज्ञा धारण कर अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता की पहचान बनाई।
अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध मराठा शासकों के साथ जुड़ा इतिहास काल है जब बैराग वन की प्रतिष्ठा कर्णार्जुनी की महत्ता फिर से पहचानी गई और रामटेकरी, मूसे खां की दरगाह, बिठोबा मंदिर, लखनी देवी, आठबीसा, बादलमहल और जूना शहर का सतखंडा महल, बीस दुअरिया और बावली की रचना हुई ।
रतनपुर के रचनाकारों, स्थपतियों, राजपुरूषों और अनाम श्रमजीवी शिल्पियों का स्मरण कला समर्पित उस युग का स्मरण है जहां धर्म, अध्यात्म और उच्चतर सांस्कृतिक मूल्यों से यह सारा अंचल सराबोर था किन्तु इसी क्रम में उन नामों का उल्लेख भी आवश्यक है जिन्होंने इतिहास के इस गौरवशाली अध्याय को पुनः सभी के सम्मुख लाने में योगदान दिया है। बाबू रेवाराम, पं. शिवदत्त शास्त्री, चीजम और नेल्सन जैसे अंग्रेज अधिकारी, वी.वी मिराशी, हीरालाल, बालचंद जैन, लोचन प्रसाद पांडेय और प्यारेलाल गुप्त, डॉ. माखन झा इन सभी विद्वानों के गंभीर शोध अध्ययन को यदि किसी ने लोकरंगों से रंगकर सहज ग्राह्य बनाया है तो वे है जनश्रुतियों और परम्पराओं के कारण कवि देवार जिनके गीतों ने इतिहास के परम्परागत अध्ययन को सदैव दिशा और गति दी है।
भाई अशोक अग्रवाल उन दिनों पत्रकारिता में सक्रिय थे। रायगढ़ उनका डेरा होता था। 'अकलतरा के असल नवरत्न, अकलतरा में स्थापित रहते हैं', :)इसलिए अब स्थायी डेरा-बासा अकलतरा। पिछले दिनों (चित्र)याद ताजा करते हुए, कि उस दौरान वे अकलतरा आते तो मौज में उनसे हुई बातों को लेख का स्वरूप मिल जाता। ऐसी ही एक चर्चा को उन्होंने इस तरह कलमबद्ध किया था।
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