प्राकृतिक संपदा और भौगोलिक विशिष्टता के कारण दक्षिण कोसल का क्षेत्र स्वाभाविक ही कला-संस्कृति पोषक विभिन्न राजवंशों के आकर्षण का केंद्र रहा है। फलस्वरूप स्थापत्य, मूर्तिकला, अभिलेख तथा मुद्राओं पर कलाप्रियता के साथ धार्मिक भावना के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, जो विभिन्न राजवंशों की धार्मिक चेतना तथा कलानुराग के परिचायक हैं। वर्तमान बिलासपुर जिले के भूभाग से ऐसी स्रोत-सामग्री प्रचुरता से प्राप्त होती है। इनके आधार पर तत्कालीन कला-प्रतिमान, दार्शनिक चिंतन, धार्मिक परंपरा तथा सहिष्णुता का परीक्षण किया जा सकता है।
यह क्षेत्र मुख्यतः शैव धर्मावलंबी राजवंशों के अंतर्गत दीर्घकाल तक शासित रहा, अतः शैव कला और स्थापत्य के विविध अवशेष बिलासपुर जिले में उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र के प्रमुख राजवंश क्रमशः शरभपुरीय, पाण्डव-सोम (चन्द्रवंशी) तथा कलचुरि, शासकों द्वारा शैव परंपरा का उत्तरोत्तर विकास होता रहा। यद्यपि शरभपुरियों का राजधर्म वैष्णव था, किंतु इस काल में भी शैवधर्म लोकप्रिय रहा। इन राजवंशों के शैवधर्म से संबंधित प्रमाण बिलासपुर जिले में विद्यमान हैं, जिनके आधार पर तत्कालीन धार्मिक स्थिति के साथ-साथ कला-स्थापत्य का आंकलन भी किया जा सकता है। इन प्रमुख राजवंशों के स्थापत्य-मूर्तिकला के प्रकाश में शैव-धार्मिकता के विकास के चरण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इन राजवंशों के प्रमुख कृतित्त्व का विवरण इस प्रकार है:
शरभपुरीय वंश: इतिहास में अब तक अप्रमाणित नगर शरभपुर तथा इसके पश्चात् प्रसन्नपुर मुख्यालय से राज्य संचालन करने वाले इस वंश का अमरार्य कुल से संलग्न होने के प्रमाण मिलते हैं। शरभपुरीय शासकों का काल ई. पाँचवीं-छठी सदी माना जाता है। शरभपुरियों के स्थापत्य उदाहरण मात्र बिलासपुर जिले से ही ज्ञात होते हैं। ताला के दो शिव मंदिर, शैव धर्मावलंबी मेकल के पाण्डववंशी शासकों द्वारा निर्मित होने की संभावना भी प्रकट की जा सकती है, किंतु यह निर्विवाद है कि इन शिव मंदिरों का निर्माण काल, मंदिर स्थापत्य के क्षेत्रीय इतिहास में प्राचीनतम है।
जिठानी तथा देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अपेक्षाकृत सुरक्षित व पूर्वज्ञात है। टीले के रूप में परिवर्तित जिठानी मंदिर की संरचना पिछले वर्षों में कराये गये विभागीय कार्यों से स्पष्ट हुई। दोनों मंदिरों के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमाएँ अप्राप्य हैं किंतु प्राप्त प्रतिमाओं और स्थापत्य अवशेष से तत्कालीन कला व शैव परंपरा की समृद्ध झलक मिलती है।
विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। द्वारशाखा के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती की द्यूतक्रीड़ा, भगीरथ अनुगामिनी गंगा आदि अंकनों में सुदीर्घ कलाभ्यास से प्राप्त उच्च प्रतिमान, दृश्यों को अत्यंत आकर्षक और सजीव बना देता है। इस मंदिर के परिसर में मयूरारूढ़ कार्तिकेय की दो प्रतिमाएँ, शिव प्रतिमा शीर्ष, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुख गण, प्रतिमाएँ भी धार्मिक विचारधारा के आयाम प्रस्तुत करती हैं।
दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपान क्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। तल-विन्यास से ज्ञात इस मंदिर की स्थापत्य योजना अत्यंत विशिष्ट है। यहाँ से भी शैवधर्म संबंधी अंकन- स्वतंत्र प्रतिमाएँ तथा स्थापत्य खंड, उपलब्ध हुए हैं। स्वतंत्र प्रतिमाओं में मुख्यतः कार्तिकेय, शिव मस्तक, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी फलक तथा मंदिर स्थापत्य खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला और शैव प्रसंगों के अंकन के अतिरिक्त नंदी, शिवगण आदि प्रमुख हैं।
पाण्डव-सोम वंश: वस्तुतः तीन भिन्न राजवंशों, जिनका निश्चित एकीकरण संभव नहीं हो सका है, का प्रभाव इस क्षेत्र में लगभग पाँच शताब्दियों तक रहा। इनमें मेकल के पाण्डव वंश का काल लगभग ई. पाँचवीं सदी, कोसल के पाण्डव वंश का काल ई. छठीं-सातवीं सदी तथा कोसल के सोमवंश का काल ई. सातवीं से दसवीं सदी निर्धारित किया गया है। पाण्डव-सोमवंशी शासकों के ताम्रपत्रों पर शिवस्तुति तथा मुद्रा (seal) पर नंदी की अनेक प्रकार की आकृतियाँ प्राप्त होती हैं। पाण्डव वंश-काल में निर्मित चार प्रमुख शिव मंदिर इस जिले में विद्यमान हैं। इनमें से अड़भार के मंदिर का तल-विन्यास व प्रवेशद्वार सुरक्षित है। मल्हार का देउर मंदिर शिखर विहीन है। खरौद का इन्दल देउल अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है और इसी स्थल के लक्ष्मणेश्वर मंदिर का वर्तमान स्वरूप पुनर्संरचना के फलस्वरूप है।
मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर मंदिर महत्त्वपूर्ण और विशाल है। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल-मण्डप तथा अर्द्धमंडप की भित्तियाँ कुछ ऊँचाई तक सुरक्षित हैं। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। द्वारशाख के भीतरी पार्श्वों में उत्तरी पार्श्व पर शिवलीला के विभिन्न दृश्य हैं। दक्षिणी पार्श्व पर गजासुर-वध, शिव-विवाह तथा उमा-महेश्वर के अंकन में सूक्ष्म परिपूर्णता व मिथकीय सहजता के दर्शन होते हैं। मंदिर परिसर में स्थापत्य खंडों पर शैव-द्वारपालों की आकर्षक मानवाकार प्रतिमाएँ तथा उमा-महेश्वर भी हैं। इसी परिसर में पूर्ववर्ती काल की दो विशाल एवं विशिष्ट प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं को मुखलिंग तथा यज्ञोपवीतधारी आवक्ष शिव रूप में उत्कीर्ण किया गया है।
खरौद का पश्चिमाभिमुख इन्दल देउल, तल-विन्यास में कोणीय योजना पर ईंटों से निर्मित है। मंदिर के पाषाण प्रवेशद्वार की शाख पर मानवाकार नदी-देवियों के साथ सिरदल पर त्रिमूर्ति की मध्य आकृति में नंदी सहित शिव-पार्वती प्रदर्शित हैं। मंदिर की बाह्य भित्ति पर गणेश उत्कीर्ण हैं।
खरौद के पूर्वाभिमुख लक्ष्मणेश्वर मंदिर का स्थापत्य नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। गर्भगृह में अष्टकोणीय किंतु अत्यंत क्षत शिवलिंग है। उभय द्वारशाख के निचले अर्द्धभाग में शैव द्वारपाल हैं। मंडप के स्तंभ पर अर्द्धनारीश्वर तथा रावणानुग्रह प्रतिमाएँ अवनत तल में उत्कीर्ण हैं। खरौद के ही एक अन्य (शबरी) मंदिर में शैव द्वारपाल तथा अर्द्धनारीश्वर की चतुर्भुजी व्याघ्रचर्मधारी मानवाकार प्रतिमाएँ भी इसी काल की कृतियाँ हैं।
अड़भार का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर ताराकृति अष्टकोणीय तल-विन्यास का है। प्रवेशद्वार में सिरदल पर कार्तिकेय तथा संभवतः उमा-महेश्वर का अंकन है। मंदिर परिसर में नंदी तथा अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी नटराज शिव की प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है।
कलचुरि वंश: त्रिपुरी के प्रसिद्ध कलचुरि वंश की शाखा ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित कर तुम्मान में राजधानी स्थापित की। कलचुरियों की यह शाखा, रतनपुर शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई और सुदीर्घ अवधि तक इस क्षेत्र पर राज्य करती रही। शैव धर्मावलंबी कलचुरियों के धार्मिक तथा लोक कल्याणकारी विभिन्न कृत्यों की सूचना अभिलेखों में उत्कीर्ण है। अभिलेखों के आरंभ में निर्गुण, व्यापक, नित्य और परम कारण शिव की भावपूर्ण वंदना है। कलचुरियों के शिवमंदिर निर्माण की परंपरा राजधानी तुम्मान से आरंभ होकर दो शताब्दियों तक निरंतर निर्वहित हुई।
तुम्मान का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर कलचुरियों की रतनपुर शाखा के आरंभिक स्थापत्य का उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित संरचना मूल से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। प्रवेशद्वार में सिरदल के मध्य कोष्ठ में शिव का अंकन है, किंतु द्वारशाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेशद्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर परिसर में नंदी, नंदिकेश्वर, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं।
पाली का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना मंदिर के सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में इस मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाह्य-भित्ति आकर्षक प्रतिमाओं से सज्जित है, जिसमें विभिन्न शैव प्रतिमाएँ यथा-नटराज, अंधकासुर वध, गजासुर वध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय अंकित हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर शैव-द्वारपाल तथा शिव परिवार के विभिन्न अंकन हैं। द्वारशाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला तथा उपासना के दृश्य हैं।
जांजगीर का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर, प्रसिद्ध विष्णु मंदिर के निकट स्थित है। इस मंदिर का मूल स्वरूप नवीनीकरण के प्रभाव से लुप्तप्राय है किंतु मूल प्रवेशद्वार सुरक्षित है। सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रूपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपालों की प्रतिमाएँ हैं। शिव कथानक के कुछ अन्य दृश्यों के साथ गणेश व नटराज की प्रतिमाएँ भी हैं।
मल्हार में कलचुरिकालीन दो शिव मंदिरों के अवशेष हैं। इनमें पातालेश्वर अथवा केदारेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग अंशतः तथा मंडप व अर्द्धमंडप मात्र तल-विन्यास में ही दृष्टव्य हैं। पश्चिमाभिमुख केदारेश्वर मंदिर निम्नतलीय गर्भगृह का है किंतु मंडप की योजना पूर्वाेल्लिखित तुम्मान मंदिर के सदृश है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वारशाखों के भीतरी पार्श्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध उत्कीर्ण है तथा सम्मुख में नंदी पर शिव-पार्वती, चतुर्भुजी शिव तथा अर्द्धनारीश्वर हैं। द्वारपालों के रूप में वीरभद्र तथा भैरव की प्रतिमाएँ हैं।
पश्चिमाभिमुख डिडिनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमा के स्थान पर राजमहिषी की प्रतिमा है। यह मंदिर नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। मंदिर के मंडप की भित्तियों में जड़ी शैव द्वारपाल तथा नटराज की प्रतिमा से, इस मंदिर का शैव होना अनुमानित था। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य के दौरान लिंगपीठिका खंड व नंदी प्रतिमा प्राप्त हुई, जिससे यह मंदिर शिव मंदिर के रूप में सुनिश्चित हुआ।
किरारी गोढ़ी का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर भी निम्नतलीय गर्भगृह योजना पर निर्मित है। मंदिर की पूर्व तथा उत्तर की भित्ति, जंघा तक अंशतः सुरक्षित है। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य में गर्भगृह से लिंगपीठिका खंड प्राप्त हुई। जंघा की शैव देव प्रतिमाओं में नटराज, हरिहर-हिरण्यगर्भ हैं। मंदिर परिसर में गणेश, नंदी आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं।
गनियारी का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर अत्यधिक भग्न है किंतु पुनर्संरचित प्रवेशद्वार लगभग सुरक्षित है। गर्भगृह में लिंग की स्थापना है। सिरदल पर शिव, पार्श्वों में द्वारपालों का तथा अन्य परंपरात्मक शैव अंकन भी हैं। बाह्य भित्ति में जंघा के भग्न होने से शिव के अन्य रूप वर्तमान संरचना में अनुपलब्ध हैं।
सरगाँव का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर कलचुरि स्थापत्य के परवर्ती उदाहरणों में लगभग सुरक्षित मंदिर है। निम्नतलीय गर्भगृह के प्रवेशद्वार में सिरदल व द्वार-पार्श्वों पर परंपरात्मक शैव प्रतिमाओं के अतिरिक्त जंघा पर नटराज, अंधकासुर, गणेश, हरिहर हिरण्यगर्भ की प्रतिमाएँ हैं।
मदनपुर में भी सरगाँव के समकालीन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जिले के अन्य स्थलों पर भी विभिन्न काल के शिव मंदिरों के अस्तित्त्व के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं, इनमें कुटेसर नगोई, रैनपुर खुर्द, पंडरिया, रतनपुर, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी, बेलपान, बसहा आदि प्रमुख हैं।
जानकारियों से भरा लेख , अच्छा लगा।
ReplyDeleteसारगर्भित लेख,अगर संभव हो तो लेख लिखे जाने के बाद प्राप्त शिव मंदिरों का उल्लेख जोड़ा जा सकता है। विशेषकर मदकू द्वीप के शिव मंदिर की श्रृंखला का
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