Friday, July 16, 2021

कठपुतलियां

आइये-आइये आपके शहर में कठपुतलियों का नाच सिर्फ दस पैसे में आइये जल्दी आइये- माधव की बेजान सी आवाज एक पिचके चोंगे से विस्तारित हो रही थी। आज ही इस बस्ती में ये कठपुतली वाले आए, दिन भर जुटकर इन्होंने यह एक खेमा तैयार किया था और इस खेमे के आसपास ही इस बस्ती की लगभग सारी आबादी केन्द्रित थी।

रघु खेमे के अंदर टूटे से तख्ते पर बैठकर कठपुतलियां ठीक कर रहा था। यही तख्ता खेल शुरू होने पर मंच के काम आता था। इनकी बूढ़ी मां खेमे के पीछे आसपास से लकड़ियां चुनकर आग जला चुकी थी और उस पर भात की तैयारी में एक अल्यूमीनियम की पिचकी देगची में पानी रख रही थी। बाहर दरवाजे पर माधव और रमली दस-दस पैसे लेकर दर्शकों को अंदर भेजते जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माधव ने अंदर झांककर देखा। भीड़ काफी हो चुकी थी अतः खेल शुरू करने के लिये अंदर जाते जाते रमली से उसने कहा- ‘भाभी खेल शुरू होते होते दरवाजा बन्द कर देना।

अंदर जाकर उसने ढोलक संभाल ली और रघु डोरियों का फंदा अपनी ऊंगलियों में फंसाने लगा। ढोलक पर अब माधव के हाथ चलने लगे। दर्शकों का शोर थम गया और एक एक करके कठपुतलियां मंच पर आती गईं, रघु सीटी बजा बजाकर कठपुतलियां नचाता रहा और माधव तेज आवाज में दृश्य समझाता गया, कभी दर्शक दम साध लेते तो कभी बच्चों के खिलखिलाने की आवाज आने लगती और रघु के हाथों का दर्द तेज हो जाता, रघु के हाथों का बढ़ता हुआ दर्द डोरियों के सहारे उतर कर कठपुतलियों को जीवंत बना रहा था और मानों वे कठपुतलियां रघु की प्राण शक्ति को लेकर ही नाच रही थीं। अंततः ढोलक की एक तेज आवाज के साथ रघु की ऊंगलियों में तनी डोरियां ढीली पड़ गई, कठपुतलियों का यह खेल खत्म हो गया।

रोज ही हरेक तमाशे के बाद रघु और माधव के स्थान परिवर्तित हो जाया करते थे अब रघु बैठ रहा था ढोलक पर और डोरियां थी माधव के जिम्मे। अगले खेल में माधव के साथ ठीक वही हुआ जो पिछले खेल में रघु के साथ हुआ था इस बार खेल के अंतिम दौर में माधव कराह उठा था और उसकी कराह को बड़ी चतुराई से रघु के ढोलक की तेज थापों से दर्शकों तक न पहुंचने दिया था।

तीसरे दिन भी हर दिन की भांति दो खेल हो चुके थे। तीसरा खेल शुरू होना था काफी दर्शक आ चुके थे कुछ लोग तमाशा देखने के लिये आसपास के पेड़ों पर चढ़कर बैठे थे। माधव के मना करने पर उसे धमकी भी दे चुके थे। थोड़ी देर बाद ही खेल शुरू हुआ था। यह क्या हुआ? कठपुतलियों के मरने का दृश्य पांच मिनट बाद ही मंचित हो गया। माधव ने झांककर पर्दे में देखा। रघु ऊंगलियों से डोरियों का फंदा उतार चुका था और मंच के पिछले भाग पर दोनों हाथ, पैरों के नीचे दबाये हुए बैठा था।

माधव यह देख कर समझ गया कि रघु को फिर वही पुराना दौरा आया है, जो पहिले कभी महीनों में आया करता था, किन्तु फिर बीच के दिन कम होते गये और यदि रघु दिन में दो तमाशा दिखाना जारी रखे तो शायद रघु के हाथों का तमाशा ही खत्म हो जाये एक दिन। अचानक दर्शकों का शोर तेज हो गया, दर्शक समूह चूंकि पैसे देने के बाद भी पूरा खेल नहीं देख पाया था अतः उत्तेजित हो रहा था तो कुछ कठपुतलियों मर जाने पर उदास थे किन्तु अन्य सभी चिल्ला रहे थे- स्साले पैसे वापस करो नहीं तो सब पर्दे फाड़कर फेंक देंगे।

माधव ने रघु की सलाह से निर्णय लिया कि पैसे वापस कर दिए जाये नहीं तो हमारी खैर नहीं है। सभी दर्शकों को उनके पूरे पैसे वापस हो गए; इन्हें चिंता हुई दूसरे दिन की, रघु की नसें फूल आई थीं और माधव एक खेल ही दिखा सकता था, दिन में।

दूसरे दिन शाम इनमें फिर वही उल्लास था, नियति ने इनकी समस्या हल कर दी थी। रघु के हाथों की मांसपेशियां ठीक हो गई थीं। रघु सोच रहा था कि शायद आज वह तमाशा दिखाना शुरू करें तो फिर वही कल सा तमाशा न हो जाये खैर। कल पैसे भी कम मिले थे इन कठपुतली वालों को, फिर ऊपर से रघु के तेल पानी का खर्च। आज खाने को इन्हें आधा पेट ही मिल पाता अगर बुढ़िया बीमार न हो जाती। लगातार पिछले दिनों से बुढ़िया का ताप तेज था, फिर भी खाना बनाकर वह लेट रही थी किन्तु आज तो मानों उसका शरीर जल रहा था, खाना नहीं खाया गया उससे और ये तीनों फिर उसी तरह चावल की लेई मिर्च के साथ निगलकर तमाशे की तैयारी में लग गए।

रघु बड़ा प्रसन्न हो रहा था। आज फिर वह दो खेल सकुशल दिखा चुका था। लाख लाख दुआयें दे रहा था ईश्वर को। किन्तु उसकी वह प्रसन्नता टिकी न रह सकी। दूसरे दिन उसका पुराना दौरा पहले ही खेल के अंत में आ गया, उस दिन भी दो ही खेल हो पाये। पेट आज फिर न भर पाया था उनका, यह स्थिति देखकर रघु ने माधव से दो खेल दिखाने को कहा। माधव भी स्वीकृति देने के सिवा और क्या कर सकता था। अब किसी तरह माधव दो खेल दिखाया करता। रघु के हाथों को तो इस दौरे ने मानों नाकाम ही कर दिया था।

जीवन के एक दो दिन फिर शांति से गुजर गए इन यायावरों के किन्तु अब दर्द उठा माघव के हाथों में।

किसी तरह उसी लीक पर इनका जीवन पागे बढ़ता गया, माधव के हाथों ने रघु के हाथों की तेजी ले ली। अब वह किसी तरह दिन में दो खेल दिखा लिया करता था, कभी कमाई अच्छी हो जाती तो वे कुछ पैसे भविष्य के लिये बचा लेते। किन्तु कितने नादान थे ये। इनके भविष्य में कुछ भी तो नही था, आज ऐसी दुर्घटना घटी जिसने इनके जीवन के स्थायित्व को फिर से तितर बितर कर दिया। सबेरे उठकर उन्होंने देखा कि बुढ़िया के मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं। उनके परिवार की इस कठपुतली का नाच खत्म हो चुका था। बुढ़िया की दवा दारू से जो कुछ पैसे बचे रह गए थे उससे इन्होंने दाह संस्कार की सामग्रियां जुटाई। शवयात्रा में कुछ और लोग भी शामिल हो गए थे किन्तु उनमें कोई भी एक दूसरे से परिचित न था। रघु, माधव और इन्हें परिचय का एक ही सेतु जोड़ता था- गरीबी।

शवयात्रा में मनहूस शांति छाई थी। उन्हें अपने खेल की चिंता थी तो किसी को साहूकार के कर्ज की। कोई उस दिन के खाने के इन्तजाम के बारे में सोच रहा था तो किसी को बेटी की शादी की चिंता खाए जा रही थी।

बुढ़िया को जलाकर वे वापस आ गए, और खेमे में वहीं दायरा सा बना कर बैठ गए। तीनों के चेहरों पर कोई भाव न थे, न वे आपस में कुछ बोल ही पा रहे थे। काफी देर तक वे इसी तरह बैठे रहे, फिर तीनों की आंखें मानों आपस में सलाह करने लगीं। अचानक तीनों उठ खड़े हुए, रघु पर्दे गिराने लगा। रमली और माधव बांस पर कठपुतलियां बांधकर और ढोलक पीटते निकल गए।

रात को लोगों ने सुना, माधव की आवाज भोंपू से और तेज आ रही है- आइये आइये आपके शहर में कठपुतलियों का...।

सच्ची घटना पर आधारित, मेरी लिखी यह कहानी, समाचार-पत्र ‘नवभारत‘ रायपुर, दिनांक 13 मई 1979 के पृष्ठ 4 पर प्रकाशित हुई थी। अब इस कहानी का मूल्यांकन करते हुए कह सकता हूं कि प्रयास अच्छा है, किंतु इस लेखक में कहानीकार के लक्षण विरल हैं।

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