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Saturday, May 31, 2025

माँ दंतेश्वरी

ओमप्रकाश सोनी, सुकमा, बस्तर में इतिहास के प्राध्यापक हैं, उनके माध्यम से माँ दंतेश्वरी से जुड़ी कुछ बातें कहने का अवसर बना। अब वह उनकी पुस्तक ‘बस्तर साम्राज्ञी माँ दंतेश्वरी (इतिहास और पुरातत्व)‘ में 'भूमिका' के रूप में प्रकाशित है-

भूमिका 

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) एवं द्वारका, सात अति पवित्र तीर्थ प्रसिद्ध हैं। चार धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग के अलावा बार्हस्पत्यसूत्र में आठ-आठ शैव, वैष्णव और शाक्त सिद्धिदायक तीर्थों की सूची मिलती है। सात नगरियों की तरह गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी- सात नदियां अति पवित्र मानी गई हैं। वैदिक सप्त सिंधु का आशय संभवतः इन सात नदियों से नहीं है, मगर प्रसंगवश ‘हिंदु‘ (हप्त हिन्दु) शब्द सिंधु नदी से संबंधित भौगोलिक क्षेत्र के रूप में पांचवीं सदी इस्वी पूर्व से प्रचलित रहा है, जिससे इंडोई और इंडिया शब्द आया। पाणिनी ने भी सिन्धु शब्द का प्रयोग देश के अर्थ में किया है। 

ऐसी कई सूचियां और उनके माहात्म्य मिलते हैं। सती की कथा और उसके अंगों के गिरने के स्थान पर बने शक्तिपीठों की संख्या ‘तन्त्रचूडामणि‘ में बावन, ‘शिवचरित्र‘ में इक्यावन, ‘देवीभागवत‘ में एक सौ आठ दी गई है और ‘कालिकापुराण‘ में छब्बीस उपपीठों का वर्णन है पर साधारणतया पीठों की संख्या इक्यावन स्वीकृत है। दंतेवाड़ा, बस्तर की दंतेश्वरी, सती के दांत गिरने का स्थान और उस पर स्थापित शक्तिपीठ के रूप में मानी जाती हैं। 
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद छत्तीसगढ़ की 14 देशी रियासतों में से कांकेर को जोड़ कर बस्तर जिला बना। यहां से अतीत की ओर लौटें तो नागयुग में ‘मासुनिदेश‘, ‘चक्रकोट‘ तथा ‘भ्रमरकोट‘, नलयुग में ‘निषधदेश‘, गुप्तकाल ‘महाकान्तार‘, महामेघ-शक-सातवाहन काल में ‘विद्याधराधिवास‘, ‘मलयमहेन्द्रचकोरक्षेत्र‘, ‘महावन‘, मौर्यकाल में आटविक राज्य, इससे और पहले ‘अश्मक‘, ‘स्त्रीराज्य‘ या उसका हिस्सा रहा। सबसे पुराना नाम दण्डकारण्य पता लगता है। 

मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। इस क्रम में अध्येताओं ने रामवनगमन पथ के साथ दण्डकारण्य-बस्तर में लंका की खोज का प्रयास किया है। रामकथा का शूर्पणखा और सीताहरण प्रसंग दण्डकारण्य से जुड़ा है। मगर ध्यान रहे कि केशकाल-बाराभांवर की भंगाराम-तेलीन सत्ती मां (अब प्रचलित भंगाराम को बंगाराम या वारंगल-ओरंगाल से आई मानते भोरंगाल-भंगाराम भी कहा गया है।) हैं और सुकमा की रामाराम, चिटमटिन देवी हैं। पौराणिक दण्डकारण्य या दण्डक वन, सामान्यतः दक्षिणापथ का विस्तृत भूभाग प्रतीत होता है, इसी के अंतर्गत ऐतिहासिक महाकांतार-बस्तर भी है। यह रोचक है कि ‘दण्ड‘ को राजाओं द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली लौकिक शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा गया है। राम के धनुष का नाम ही कोदण्ड है तथा वह दण्ड ही है जो प्रतीक रूप ध्वज (यथा- मयूरध्वज, सीरध्वज-जनक, कपिध्वज-अर्जुन) को धारण करता है। 

प्रथम राजा पृथु के दण्डकारण्य में अभिषेक का उल्लेख मिलता है। कहा गया है- 
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। 
अर्थात दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है। 

कथा में पृथु ने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का भी बोध कराया। 

इस अंचल की परंपरा में मयूरध्वज की कथा के सूत्र विद्यमान हैं। जैमिनी अश्वमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी यह कथा थोड़े फेरबदल से आई है, जिसमें ब्राह्मण को दान देने के लिए राजा-रानी अपने पुत्र को आरे से चीरने लगते हैं। इस कथा का असर बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम (1861-1868) ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। बस्तर का प्रसिद्ध दशहरा, देवी द्वारा महिषासुर के वध का अर्थात पाशविक वृत्तियों पर विजय का उत्सव है, जिसके प्रतीक रूप में भैंसों की बलि दी जाती थी। दशहरा के लिए फूलरथ और रैनीरथ निर्माण में केवल बसूले के प्रयोग की परंपरा रही है। 

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में ..1859 का संघर्ष ‘कोई विद्रोह‘ नाम से जाना जाता है, जिसमें फोतकेल, कोतापल्ली, भेज्जी और भोपालपट्टनम के जमींदारों ने जंगल काटने का विरोध किया। आंदोलन का नारा- ‘एक साल पेड़ के पीछे एक आदमी का सिर‘ से इसकी उग्रता का अनुमान किया जा सकता है। ऐसा ही एक अन्य उल्लेख ‘ताड़-झोंकनी‘ (1775), दरियावदेव-हलबा योद्धाओं का मिलता है, जिसमें काटे गए ताड़ वृक्षों को हाथ से झेलते, वृक्ष के नीचे दब कर हलबा वीरों की मृत्यु हो गई थी। 

महाभारत के नलोपाख्यान कथा में कलि-वास वाले पक्षी-रूपी पांसे, नल का एकमात्र वस्त्र ले कर उड़ जाते हैं तब अनावृत्त नल, दमयंती को ऋक्षवान पर्वत को लांघकर अवंती देश जाने वाला मार्ग, विंध्य पर्वत, पयोष्णी नदी, महर्षियों के आश्रम, दक्षिणापथ, विदर्भ और कोसल जाने का मार्ग बताते हैं। 

इस भौगोलिक विवरण से पड़ोसी विदर्भ की राजकुमारी दमयंती और निषध देश के साथ बस्तर का कुछ-कुछ रिश्ता बनता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे राकेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ (2018) में इसका परीक्षण करते हुए लिखते हैं- अनुमान लगता है कि निषध राज्य जबलपुर के पूरब में आज के छत्तीसगढ़ राज्य अथवा प्राचीन दक्षिण कोसल और उसके आस-पास रहा होना चाहिए। प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम ने पहले ही मोटे तौर पर इससे मिलता-जुलता अनुमान लगाया है। मगर पांचवीं सदी इस्वी के नल राजवंश के अभिलेख, सोने के सिक्के और गढ़धनोरा, भोंगापाल जैसे कला केंद्रों से उनका सीधा जुड़ाव इस भूभाग से प्रमाणित होता है। आर्यावर्त और दक्षिणापथ के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी महाकांतार-बस्तर है ही। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के दक्षिणापथ विजय अभियान में कोसल के महेन्द्र के बाद महाकांतार के व्याघ्रराज का उल्लेख है। 
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कहा गया है कि विधाता ने इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चंद्र एवं कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की। अन्य देवता अलक्ष्य हैं, मगर राजा को हम देख सकते हैं ... राजा में विष्णु का अंश होगा। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- राज्याभिषेक के बाद मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। पुराने नाटकों में राजा को देव संबोधित किया गया है, कुषाण राजाओं ने स्वयं को देवपुत्र कहा है। मगर दूसरी तरफ राजनीतिप्रकाश में कहा गया है कि ‘स्वयं प्रजा विष्णु है।‘ राजा और सम्राट शब्द पर विचार करें- राजा-राजन् शब्द राज् अर्थात ‘चमकना‘ से आया माना जाता है और कहीं इसे रंज अर्थात (प्रजा को) ‘प्रसन्न करना‘ के अर्थ में देखा गया है। सम्राट शब्द का आशय है, क्षेत्र-विशेष, जिसके पूर्णतः अधीन हो। इसी प्रकार एक मत है कि राजन शब्द के मूल में ‘राट‘ है, जिससे राष्ट्र और सम्राट बनता है। 

काछिनमाता, माणिक्येश्वरी, सती आदि का समाहार स्वरूप दंतेश्वरी देवी बस्तर सामाज्ञी भी हैं। ज्यों ओरछा के दशरथनंदन राम‘राजा‘ हैं। अंग्रेजी में ‘ट्यूटरली डेइटी‘ यानि ऐसा देवता या आत्मा है जो किसी विशिष्ट स्थान, भौगोलिक विशेषता, व्यक्ति, वंश, राष्ट्र, संस्कृति या व्यवसाय का संरक्षक हो। शास्त्रीय ग्रंथों में राज्य की दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत और राजा के देवत्व का उल्लेख आता है। ठाकुरदेव, बड़ादेव, बुढ़ादेव गांव के मालिक-देवता और दुल्हादेव, गृहस्वामी माने जाते हैं। इस तरह राजा और देव अभिन्न हो जाते हैं। 

राजा के दैवी उत्पत्ति में, बस्तर के राजा आदिवासी-देवसमूह की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी के प्रमुख-पुजारी होने के नाते ईश्वर का अवतार माने जाते थे। प्रवीरचंद्र भंजदेव इसके साथ ‘माटी पुजारी‘ अर्थात बस्तर के सभी छोटे-बड़े देवी-देवताओं के सबसे मुख्य पुजारी माने जाते थे। स्वाभाविक ही वे अपनी पुस्तिका का शीर्षक ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘ (1966) रखते हैं, वहीं कांकेर के ‘राजा‘ डॉ.आदित्य प्रताप देव अपनी पुस्तक ‘किग्स, स्पिरिट्स एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ (2022) के पहले अध्याय के लिए ‘द किंग एज ‘‘आइ’’ शीर्षक रखते हैं और मड़ई-दशहरा जैसे उत्सव-परंपराओं के दर्शक, सहभागी होते केंद्रीय पात्र बनते, मानों खुद की तलाश करने विवश होते हैं, राजा में देवत्व आरोपण पर कुछ यूं लिखते हैं- ‘‘राजा के आंगा देव होने के नाते पुराने राजमहल के ‘छोटे पाट‘, पूरे राज्य के आंगा देवों और राजा, जिन्हें बहुधा स्वयं देव (भगवान) रूप माना जाता था, उनकी शक्ति को समस्या निवारण के लिए, अपने में समा लेने में सक्षम थे।‘‘ (बड़े पाट, स्थानीय शीतला माता मंदिर में स्थापित हैं।) 

11 वीं सदी इस्वी के मधुरान्तकदेव के ताम्रपत्र में मेडिपोट (मेरिया-नरबलि) का उल्लेख है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में 1842-63 का मेरिया विद्रोह भी दर्ज है। देवता को बलि दिए जाने के संदर्भ में दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा के द्विभाषी शिलालेख देखा जा सकता है, 18 वीं सदी इस्वी के आरंभिक वर्षों के दो पाषाण खंडों पर खुदा लेख दिकपालदेव से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि दंतावली देवी के मंदिर में संपन्न कुटुम्ब यात्रा अनुष्ठान में कई हजार भैंसे और बकरों की बलि दी गई, जिससे शंखिनी नदी का पानी पांच दिनों तक लाल कुसुम वर्ण हो गया। 

प्रवीरचंद्र भंजदेव परंपरा-आग्रही थे तो बलि जैसे मानवीय मसलों पर आधुनिक सुधारवादी भी थे। ऐसे एक प्रसंग का उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया जाता है कि सन् 1960 के आसपास उन्होंने दशहरे के अवसर पर बकरा-महिष की बलि का निषेध कर नारियल चढ़ाने की परिपाटी चालू की। इसे चुनौती सी देते हुए बलराम नामक एक व्यक्ति ने, आदिवासी मुखियों के साथ प्रवीर से कहा- ‘महाराज पुराने जमाने में तो राजा लोग फूल रथ के सामने नर-बलि देते थे। आप कम से कम बकरे की बलि तो देने दीजिए। नारियल-वारियल से काम कैसे चलेगा महाराज। कुछ तो विचारिये।‘ इस पर प्रवीर ने कहा, ‘तो ठीक है, जाकर फूल रथ के सामने बलराम को काट दो। 
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धर्मक्षेत्र-पवित्र नगरियों का माहात्म्य प्राचीन ग्रथों में कहा जाता रहा है। इस दिशा में आधुनिक गंभीर अध्ययनों में भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे विशेष उल्लेखनीय है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास‘ के तृतीय भाग में तीर्थप्रकरण के अंतर्गत गंगा, नर्मदा, गोदावरी के साथ प्रयाग, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, मथुरा, जगन्नथ, कांची, पंढरपुर की विस्तार से चर्चा की है साथ ही दो हजार से अधिक नामों की परिचयात्मक तीर्थसूची दी है। काणे कहते हैं- ‘तीर्थयात्रा को नये रंग में ढालना होगा।‘ 

माहात्म्य कहने का आधुनिक समाज-मानवशास्त्रीय स्वरूप ‘सेक्रेड काम्प्लेक्स‘ (पावन या पुनीत प्रखंड/पवित्र संकुल-परिसर) के रूप में स्थल-विशेष का अध्ययन है। पिछली सदी के पचास-साठादि दशक में गया निवासी भूगोल विषय के स्नातक एल पी विद्यार्थी ने गयावालों का अध्ययन कर ‘द सेक्रेड काम्प्लेक्स इन हिंदू गया’ (1961) के रूप में आगे बढ़ाया, जो मानवशास्त्रियों के पारंपरिक अध्ययन तरीकों से अलग पद्धतिगत अभिविन्यास निर्धारित करता, अपने तरह का आरंभिक अध्ययन है। इस क्रम में उन्होंने बनारस, भुवनेश्वर, देवघर और पुरी के अलावा अन्य मंदिरों और घाटों का भी अध्ययन किया। 

प्रसिद्ध मानवशास्त्री डीएन मजुमदार ने भी काणे की तरह वस्तुस्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए परंपरा के साथ समय की आवश्यकता के अनुकूल समझौते पर बल दिया है साथ ही विद्यार्थी के अध्ययन को रेखांकित करते हुए कहा है- ‘‘हमारे मंदिर और धार्मिक तीर्थस्थल हमारी विरासत हैं और भारत की पहचान को आकार देते हैं। उनसे जुड़ी लोक मान्यताएं, रीति-रिवाज और शिक्षा को अलग करना या पहचानना मुश्किल है। कहानी केवल शास्त्रों में और मंदिर कला और वास्तुकला में ही नहीं है, बल्कि लोक और रीति-रिवाजों में भी है जो शहरों और मंदिरों के ‘पवित्र परिसर‘ में अभिन्न रूप से बुने हुए हैं। डॉ. विद्यार्थी ने मंदिरों के सामाजिक संगठन का वर्णन करने के लिए पवित्र केंद्र, पवित्र खंड, पवित्र समूह, पवित्र क्षेत्र, पवित्र भूमि, पवित्र भूगोल जैसे शब्दों का उपयोग किया है। वह तीर्थस्थल के पवित्र परिसर का वर्णन करते मानते हैं कि ऐसी अवधारणा भारत में आदिवासी धर्मों पर भी लागू होती है, जिसमें उनके पवित्र उपवन, पवित्र प्रदर्शन और पवित्र अनुष्ठान शामिल हैं।‘‘ 

सेक्रेड काम्प्लेक्स के अध्ययन का क्रम डॉ. माखन झा ने आगे बढ़ाया तथा ‘काम्प्लेक्स सोसायटीज एंड अदर एंथ्रोपोलॉजिकल एसेज‘ (1991) आदि कई प्रकाशन सामने आए। डॉ. माखन झा का छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना, उन्होंने 1969-70 में रतनपुर और आसपास के क्षेत्र का व्यापक-गहन सर्वेक्षण किया और अपने विभिन्न प्रकाशनों में उसे शामिल किया। डी.एन. मजुमदार की बस्तर आवाजाही अकलतरा निवासी इंद्रजीत सिंह के माध्यम से हुई। डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोधग्रंथ ‘‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ (1944), किसी भारतीय द्वारा बस्तर पर किया गया पहला शोधकार्य है। 

धार्मिक-तीर्थस्थल, पर्यटन स्थलों से कई मायनों में अलग होते हैं। मंदिर के साथ इतिहास, आस्था और परंपरा की महीन परतें होती हैं, ये परतें न सिर्फ महीन होतीं, बल्कि आपस में घुली-मिली भी होती हैं। इन्हें परखने के लिए उसका अंग बन जाना, आत्मीयता से अवलोकन कर तटस्थ अभिलेखन संभव होता सकता है। प्राचीन मंदिर, धार्मिक आस्था के साथ-साथ शिक्षा, चिकित्सा, लोक-कल्याण और संस्कृति के केंद्र होते थे, जहां जन-समुदाय एकत्र हो घुलता-मिलता था। अतएव वहां भाषा-संस्कृति के ऐसे बहुतेरे ऐतिहासिक तथ्य होते हैं जिनका महत्व समय-सापेक्ष और काल-स्वीकृत हो कर परंपरा में बदल जाने के कारण होता है। ऐसी आस्था, जिसका आधार मात्र धार्मिक नहीं, जो समष्टि से विकसित है, सभ्यतागत ढांचे के भाग के रूप में समय के साथ पुष्ट होती है। इस क्रम में नवाचार भी जुड़ता जाता है, ज्यों इस वर्ष 2025 में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई में पहुंचे 994 देव-विग्रहों का परिचय पत्र बनाया गया, जिसमें उनका नाम-पता, पुजारी का नाम और मोबाइल नंबर के साथ सिरहा, वादक-वृंद और झंडा पकड़ने वाले का नाम दर्ज किए जाने का समाचार है। 

केदारनाथ ठाकुर बस्तर भूषण 1908 में राजबाड़ा के अंदर स्थित दंतेश्वरी मंदिर के साथ दंतेवाड़ा के दंतंश्वरी मंदिर का विवरण मिलता है, उन्होंने ‘दन्तेश्वरी मंदिर के तेवहार‘ शीर्षक के अंतर्गत चैत्र से फालगुन तक सभी बारह माह की गतिविधियों का लेखा दिया है। यही इस पुस्तक की पीठिका या प्रस्थान बिंदु है, इस उद्यम में तीर्थयात्री के साथ पर्यटक और अध्येता की भूमिका का सम्यक निर्वाह हुआ है, इसलिए यह माहात्म्य, सेक्रेड काम्प्लेक्स के शोध के साथ वस्तुतः स्थल-पुराण है, जिसमें स्थान-विशेष की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाओं, जातीय परंपराओं और वहां के समाज का भी वर्णन है। 
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डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि शाक्त केंद्र दंतेवाड़ा का मंदिर नाग युग में ‘दत्तवाड़ा‘ नाम से विकसित हो चुका था। उन्होंने ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘-चतुर्थ खण्ड (2007) में नाटककार अर्जुन होता रचित उड़िया कृति ‘बस्तर विजय‘ (1941 में प्रकाशित), डॉ. चित्तरंजन कर द्वारा अनुदित, को शामिल किया है। नाटक का अंतिम अंश इस प्रकार है- महाराजा- हाँ, और एक बात। मंत्री महाशय! बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी की कृपा ही बस्तर-विजय का मूल है। गाँव-गाँव में, घर-घर में उनकी पूजा का आयोजन करो। राज्य में प्रचार करो, सभी उनकी ‘बस्तरेन‘ नाम से पूजा करेंगे ... ... ... 
... ... ... 
‘जय माँ बस्तरेन् की जय‘ 

-राहुल कुमार सिंह 
प्रमुख, धरोहर परियोजना 
बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर

Friday, February 1, 2013

बिग बॉस

अच्छा! आप नहीं देखते बिग बॉस। तब तो हम साथी हुए, मैं भी नहीं देखता यह शो। मत कहिएगा कि नाम भी नहीं सुना, पता नहीं क्या है ये, यदि आपने ऐसा कहा तो हम साथी नहीं रहेंगे। मैंने नाम सुना है और थोड़ा अंदाजा भी है कि इसमें एक घर होता है 'बिग बॉस' का, जिसमें रहने वालों की हरकत पर निगाह होती है, कैमरे लगे होते हैं और बहुत कुछ होता रहता है इसमें। मुझे लगता है कि ताक-झांक पसंद लोग इस शो से आकर्षित होते हैं फिर धीरे-धीरे पात्रों और उनके आपसी संबंधों में रुचि लेने लगते हैं। भारतीय और फ्रांसीसी इस मामले में एक जैसे माने जाते हैं कि वे सड़क पर हो रहे झगड़े के, अपना जरूरी काम छोड़ कर भी, न सिर्फ दर्शक बन जाते हैं, बल्कि मन ही मन पक्ष लेने लगते हैं और कई बार झगड़े में खुद शामिल हो जाते हैं। यह शायद मूल मानवीय स्वभाव है, मनुष्य सामाजिक प्राणी जो है।

बात थोड़ी पुरानी है, इतिहास जितनी महत्वपूर्ण नहीं, लेकिन बासी हो कर फीकी-बेस्वाद भी नहीं, बस सादा संस्मरण। पुरातत्वीय खुदाई के सिलसिले में कैम्प करना था। बस्तर का धुर अंदरूनी जंगली इलाका। मुख्‍यालय, जो गाइड लाइन के लिए तत्पर रहता है, से यह भी बताया गया था कि हिंस्र पशुओं से अधिक वहां इंसानों से खतरा है। मौके पर पहुंच कर पता लगा कि एक सरकारी इमारत स्कूल है और इसी स्कूल के गुरुजी हैं यहां अकेले कर्ता-धर्ता, गांव के हाकिम-हुक्काम, सब कुछ। गुरुजी निकले बांसडीह, बलिया वाले। ये कहीं भी मिल सकते हैं, दूर-दराज देश के किसी कोने में। पूरा परिवार देस में, प्राइमरी के विद्यार्थी अपने एक पुत्र को साथ ले कर खुद यहां, क्या करें, नौकरी जो है। छत्तीसगढ़ का कोई मिले, कहीं, जम्मू, असम या लद्दाख में, दम्पति साथ होंगे, खैर...

गुरुजी ने सीख दी, आपलोग यहां पूरे समय दिखते रहें, किसी न किसी की नजर में रहें। कहीं जाएं तो गांव के एक-दो लोगों को, जो आपके साथ टीले पर काम करने वाले हैं, जरूर साथ रखें, अनावश्यक किसी से बात न करें। किसी की नजर आप पर हो न हो आप ओझल न रहें, एक मिनट को भी। रात बसर करनी थी खुले खिड़की दरवाजे वाले कमरे या बरामदे में, नहाना था कुएं पर, लेकिन हाजत-फरागत का क्या होगा, कुछ समय के लिए सही, यहां तो ओट चाहिए ही। गुरुजी को मानों मन पढ़ना भी आता था। कहा कि नित्यकर्म के लिए खेतों की ओर जाएं, किसी गांववासी को साथ ले कर और खेत के मेढ़ के पीछे इस तरह बैठें कि आपका सिर दिखता रहे। गुरुजी, फिर आश्रयदाता, उनकी बात तो माननी ही थी।

गुरुजी प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाते थे, उनके सामने हम भी प्राइमरी के छात्र बन गए, तब कोई सवाल नहीं किया, शब्दशः निर्देश अनुरूप आचरण करते रहे, लेकिन कैम्प से वापस लौटते हुए, गुरुजी को धन्यवाद देने, विदा लेने पहुंचे और जैसे ही कहा कि जाते-जाते एक बात पूछनी है आप से, उन्होंने फिर मन पढ़ लिया और सवाल सुने बिना जवाब दिया, आपलोग यहां आए थे जिस टीले की खुदाई के लिए, माना जाता था कि टीले पर जाते ही लोगों की तबियत बिगड़ने लगती है तो बस्ती में खबर फैल गई कि साहब लोग अपनी जान तो गवाएंगे नहीं, किसी की बलि चढाएंगे, काम शुरू करने में, नहीं तो बाद में। इसलिए ओझल रहना या ऐसी कोई हरकत, आपलोगों के प्रति संदेह को बल देता।

इस पूरे अहवाल का सार कि गुरुजी से हमने सीखा कि दिखना जरूरी वाला फार्मूला सिर्फ 'जो दिखता है, वो बिकता है' के लिए नहीं, बल्कि दिखना, दिखते रहना पारदर्शिता, विश्वसनीयता बढ़ाती है, नई जगह पर आपका संदिग्‍ध होना कम कर सकती है। यों आसान सी लगने वाली बात, लेकिन साधना है, हमने इसे निभाया 24×7, हफ्ते के सभी सातों दिन और दिन के पूरे 24 घंटों में यहां। फिर बाद में ऐसे प्रवासों के दौरान बार-बार। अवसर बने तो कभी आप भी आजमाएं और इस प्रयोग का रोमांच महसूसें।

दुनिया रंगमंच, जिंदगी नाटक और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हम पात्र। ऊपर वाले (बिग बॉस) के हाथों की कठपुतलियां। नेपथ्‍य कुछ भी नहीं, मंच भी नहीं, लेकिन नाटक निरंतर। बंद लिफाफे का मजमून नहीं बल्कि सब पर जाहिर पोस्‍टकार्ड की इबारत। ऐसा कभी हुआ कि आपने किसी की निजी डायरी पढ़ ली हो या कोई आपकी डायरी पढ़ ले, आप किसी की आत्‍मकथा के अंतरंग प्रसंगों को पढ़, उसमें डूबते-तिरते सोचें कि अगर आपके जीवन की कहानी लिखी जाए। रील, रियल, रियलिटी। मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु कुरु स्वाहा' याद कीजिए, उन्होंने जिक्र किया है कि ऋत्विक घटक कभी-कभी सिनेमा को बायस्कोप कहते थे। बहुविध प्रयोग वाले इस उपन्यास में लेखक ने 'जिंदगी के किस्से पर कैमरे की नजर' जैसी शैली का प्रभावी और अनूठा इस्तेमाल किया है। उपन्यास को दृश्य और संवाद प्रधान गप्प-बायस्कोप कहते आग्रह किया है कि इसे पढ़ते हुए देखा-सुना जाए। आत्‍मकथा सी लगने वाली इस रचना के लिए लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते हैं- ''सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''

क्लोज सर्किट टीवी-कैमरों का चलन शुरू ही हुआ था, बैंक के परिचित अधिकारी ने बताया था कि फिलहाल सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है, लेकिन हमने सूचना लगा दी है कि ''सावधान! आप पर कैमरे की नजर है'' और तब से छिनैती की एक भी घटना नहीं हुई। दीवारों के भी कान का जमाना गया अब तो लिफ्ट में भी कैमरे की आंख होती है। कैमरे की आंखें हमारे व्‍यवहार को प्रभावित कर अनजाने ही हमें प्रदर्शनकारी बना देती हैं। सम्‍मान/पुरस्‍कार देने-लेने वाले हों या वरमाला डालते वर-वधू, दौर था जब पात्र एक-दूसरे के सम्‍मुख होते थे, लेकिन अब उनकी निगाहें कैमरे पर होती हैं, जो उन पर निगाह रखता है। कैमरे ने क्रिकेट को तो प्रदर्शकारी बनाया ही है, संसद और विधानसभा में जन-प्रतिनिधियों के छोटे परदे पर सार्वजनिक होने का कुछ असर उनके व्‍यवहार पर भी जरूर आया होगा। मशीनी आंखों ने खेल, राजनीति और फिल्मी सितारों के साथ खेल किया है, उनके सितारे बदले हैं और ट्रायल रूम में फिट कैमरों के प्रति सावधान रहने के टिप्स संदेश भी मिलते हैं। कभी तस्‍वीर पर या पुतला बना कर जादू-टोना करने की बात कही जाती थी और अब एमएमएस का जमाना है और धमकी होती है फेसबुक पर तस्‍वीर लगाने की। बस जान लें कि आप न जाने कहां-कहां कैमरे की जद में हैं। बहरहाल, ताक-झांक की आदत कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन शायद है यह आम प्रवृत्ति। दूसरी ओर लगातार नजर में बने रहना, ऐसी सोच, इसका अभ्यास, आचरण की शुचिता के लिए मददगार हो सकता है।
कभी एक पंक्ति सूझी थी- ''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'' बस यह वाक्य कहां से, कैसे, क्‍यों आया होगा, की छानबीन में अब तक काम में न आए चुटके-पुर्जियों और यादों के फुटेज खंगाल कर उनकी एडिटिंग से यानी 'कबाड़ से जुगाड़' तकनीक वाली पोस्‍ट।

पुछल्‍ला - वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्‍सर 'संदेह' होता है फिर संदेह से बचना क्‍यों? ऐतराज क्‍या? स्‍थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या फिर संदेह और अपवाद से।
'जनसत्‍ता' 11 मार्च 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट

Wednesday, July 18, 2012

बस्तर पर टीका-टिप्पणी

एकबारगी लगा कि यह मार्च महीने में लक्ष्य प्राप्त कर लेने की आपाधापी तो नहीं, जब वित्‍तीय वर्ष 2012 की समाप्ति के डेढ़ महीने में बस्तर पर चार किताबें आ गईं। 15 फरवरी को विमोचित राजीव रंजन प्रसाद की 'आमचो बस्तर' इस क्रम में पहली थी। फिर 26 फरवरी को संजीव बख्‍शी की 'भूलनकांदा', इसके बाद 2 मार्च को ब्रह्मवीर सिंह की 'दंड का अरण्य' और अंत में 31 मार्च को अनिल पुसदकर की 'क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' विमोचित हुई। चारों पुस्तकों पर एक साथ बात करते हुए इस संयोग पर बरबस ध्यान जाता है कि ठेठ बस्तर पर हल्बी शीर्षक वाली आमचो बस्तर का विमोचन दिल्ली में हुआ तो अन्य तीन का रायपुर में और इन चार में, मुख्‍यमंत्री, छत्तीसगढ़ के संयुक्त सचिव संजीव बख्‍शी की कृति का विमोचन विष्णु खरे ने किया तो बाकी तीन का मुख्‍यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने।

क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' - अनिल पुसदकर
मंजे पत्रकार, स्वयं लेखक के शब्दों में उनकी ''किताब में ढेरों सवाल हैं, व्यवस्था पर, सरकार पर, मीडिया पर और मानवाधिकार पर भी सवाल उठाये गये हैं। किताब में बस्तर का नक्सलवाद और उससे जूझते पुलिस वालों की स्थिति का हाल सामने रखा गया है।'' इस किताब विमोचन में हर क्षेत्र के प्रतिष्ठित नागरिकों की बड़ी संख्‍या में उपस्थिति पूरे मन से है, दिखाई पड़ रही थी और ज्यादातर लोग पूरे समय शाम 4 से 7 बजे तक बने रहे। अविवाहित अनिल जी की कृति का विमोचन था, कल्पना हुई कि वे बिटिया ब्याहते तब ऐसा माहौल होता।

कार्यक्रम आरंभ होने में विलंब के दौरान पुस्तक अंश के वाचन की रिकार्डिंग बज रही थी। यह अविस्मरणीय प्रभावी था और लगा कि एकदम बोलचाल की शैली में लिखी इस पुस्तक को सुने बिना, सिर्फ पढ़ने से काम नहीं चलेगा। यानि पुस्तक के साथ इसकी आडियो सीडी भी होती तो बेहतर होता। आयोजन के मंच पर लिखे- क्यों जाऊँ बस्तर? मरने! को देखकर साथी बने अष्‍टावक्र अरुणेश ने कहा कि क्या शीर्षक में चिह्नों को बदल देना उचित नहीं होता, यानि क्यों जाऊँ बस्तर! मरने?, मुझे उनका सुझाव सहमति योग्य लगा।

दंड का अरण्य - ब्रह्मवीर सिंह
युवा पत्रकार-लेखक के मन में सवाल है- आदिवासियों की हित रक्षा की बात सभी करते हैं तो आखिर उनके विरोध में कौन है? लगभग इसी मूलभूत सवाल के लिए की गई हालातों की जमीनी तलाश में उपजा जवाब है यह रचना। अखबारी दफ्तरों की उठापटक के हवाले हो गए इस छोटी सी किताब के शुरुआती 10-12 पेज अनावश्यक विस्तार से लगते हैं। ऐसा लगता है कि यह पुस्तक बस्तर पर होने वाले लेखन में साहित्यिक अभिव्यक्तियों के प्रति गंभीर रूप से असहमत है शायद इसीलिए साहित्यिक होने से सजग-सप्रयास बचते हुए, परिस्थिति और समस्या को यहां तटस्थ विवरण, वस्तुगत रिपोर्ताज की तरह प्रस्तुत किया गया है और वह असरदार तो है ही।

भूलनकांदा - संजीव बख्‍शी
खैरागढ़-राजनांदगांव के, पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी परम्परा वाले संजीव जी से मैंने 14-15 साल पहले रमेश अनुपम, आनंद हर्षुल, जयप्रकाश के साथ कांकेर में पहली बार कविताएं सुनीं और तब से उनकी कवि-छवि ही मेरे मन में जमी हुई है। बस्तर में पदस्थ रहे इस राजस्व-प्रशासनिक अधिकारी की कविताओं में अपना जिया परिवेश और संदर्भ- खसरा नंबर दो सौ उनासी बटा तीन (क), मुख्‍यधारा, मौहा जाड़ा, हफ्ते की रोशनी, बस्तर का हाट और कांकेर के पहाड़, जैसे कविता-शीर्षकों के साथ आते रहे हैं।

भूलनकांदा उपन्‍यास का विमोचन, मंच पर उपस्थित लेकिन अनबोले से विनोद कुमार शुक्ल और अपनी जवाबदारी निभाते डॉ. राजेन्द्र मिश्र के वक्तव्य सहित हुआ। मुख्‍य अतिथि विष्णु खरे का व्याख्‍यान, इस लिंक पर शब्दशः सुना भी जा सकता है, 'वागर्थ' के मई 2012 अंक में प्रकाशित हुआ है, जिसके कुछ अंश हैं-
यह गांव का उपन्यास है, पर ऐसे यथार्थ मानवीय गांव का, जो मैं नहीं समझता कि हिन्दी में इसके पहले कहीं आया हो। ... संजीव बख्‍शी ने जो भाषा बुनी है वह ऐसी नहीं है जो फणीश्वरनाथ रेणु की है। रेणु बड़े उपन्यासकार हैं, इसमें शक नहीं, लेकिन उनके यहां बहुत शोर है, तुमुल कोलाहल है, बहुत ज्यादा साउंड इफेक्ट है। ... कुल मिलाकर यह उपन्यास विनोद जी से थोड़ा हट कर, लेकिन कुछ आगे जाता नजर आता है। ... विजयदान देथा के होते हुए भी, आज तक ऐसा उपन्यास नहीं आया है। ... ऐसी सार्वजनीनता इससे पहले और कहीं नहीं आई थी, शायद प्रेमचंद के यहां भी नहीं।

प्रसंगवश, पिछले सालों में केदारनाथ सिंह ने इस रचनाकार के कविता संग्रह को कविवर विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-परंपरा की अगली कड़ी कहा था। लेकिन यह भी जोड़ा है कि इस कवि ने विनोद जी की शैली को इस तरह साधा है कि जैसे यह कवि का अपना ही 'स्वभाव' हो। इन उद्धरणों के बीच मेरी दृष्टि में यह उपन्यास व्यवस्था से विसंगत हो जाने की जनजातीय समस्या, जिसमें धैर्य की ऊपरी झीनी परत के नीचे गहरी जड़ों वाला द्रोह सुगबुगाता रहता है, का विश्वसनीय चित्रण है।

आमचो बस्तर - राजीव रंजन प्रसाद
लंबे समय बाद इतनी भारी-भरकम, 400 से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक को पेज-दर-पेज पढ़ा। पुस्‍तक में (पृष्ठ 314 पर) कहा गया है कि ''मुम्बई-दिल्ली-वर्धा से बस्तर लिखने वालों ने कभी इस भूभाग को समग्रता से प्रस्तुत ही नहीं किया।'' निसंदेह, यहां बस्तर के देश-काल को जिस समग्रता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उसके लिए यह आकार उपयुक्त ही नहीं, आवश्यक भी है। बस्‍तर इतिहास के प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण कालखंड, आदि काल से अब (पृष्ठ 331 पर 6 अप्रैल 2010) तक, को विस्तृत फलक पर प्रस्तुत इस कृति में काल-पात्रों के अलग-अलग स्तर का समानान्तर निर्वाह होता है।

मिथकीय चरित्र गुण्डा धूर और भूमकाल विद्रोह, दंतेश्‍वरी में नरबलि आदि प्रसंगों की चर्चा पर्याप्‍त विस्तार से है। पात्रों, शैलेष और मरकाम की बातचीत के माध्‍यम से बस्‍तर की समस्‍याओं, परिस्थितियों से लेकर संस्‍कृति, कहावत-मुहावरे तक का अंश भी यथेष्‍ट है। इन सब के बीच लेखक किसी दृष्टिकोण-मान्‍यता का पक्षधर नहीं दिखाई पड़ता, इससे पात्रों के विचार और कथन, उनकी अपनी विश्वसनीय और स्वाभाविक अभिव्यक्ति जान पड़ते हैं। प्रस्‍तुति में प्रवाह का ध्‍यान रखा गया है न कि कालक्रम का, लेकिन प्रवीरचंद्र भंजदेव और उनके निधन का विवरण अंत में लाना एकदम सटीक है, क्‍योंकि यही वह बिन्‍दु है, जिसके पूर्वापर संदर्भों बिना बस्‍तर के रहस्‍य का अनुमान कर पाना भी कठिन होता है।

संक्षेप में पुस्‍तक पढ़ते हुए भरोसा होता है कि लेखक न सिर्फ गंभीर और सावधान है, बल्कि उसने इस कृति में निष्ठा सहित अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। प्रूफ शुद्धि भी उल्‍लेखनीय और प्रशंसा-योग्‍य (वैसे पुस्‍तक में बार-बार 'प्रसंशा' मुद्रित) है। एक स्‍थान पर ''जहाज डूबने से पहले चूहे ही भागने लगते हैं'' (पृष्ठ 172) कहावत का प्रयोग भैरमदेव से कराया जाना जमा नहीं। आलोचना के कुछ और छिटपुट उल्‍लेख किए जा सकते हैं, लेकिन इस पुस्‍तक की सब से बड़ी कमजोरी, परिशिष्ट का अभाव, माना जा सकता है। इतिहास और तथ्‍यों को औपन्‍यासिक शैली में प्रस्‍तुत करते हुए यह उपयुक्‍त होता कि परिशिष्‍ट के कुछ और पेज जोड़ कर बस्‍तर इतिहास का कालक्रम, ऐतिहासिक पात्रों के नाम की सूची और संक्षिप्‍त परिचय भी दिया जाता, इससे पुस्‍तक की उपयोगिता और विश्‍वसनीयता बढ़ जाती। बस्‍तर पर कुछ लिखते-पढ़ते इस पुस्‍तक में आई टिप्‍पणी याद आ जाती है कि- ''इन दिनों बस्तर शब्द में बाजार अंतर्निहित है। (पृष्ठ 326) और ''अब बस्तर शब्द का लेखन की दुनिया में बाजार है।'' (पृष्ठ 337) अखिलेश भरोस द्वारा लिये चित्र का आवरण के लिए चयन, सार्थक और सूझ भरा है।

इन चारों साहित्‍य-पत्रकारिता की रचनाओं को एक साथ मिलाकर देखते हुए धारणा बनती है कि- अशांति और विद्रोह का इतिहास पढ़ते हुए महसूस होता है कि आम तौर शांत, संस्कृति संपन्न, उत्सवधर्मी लेकिन अपने में मशगूल (बस्तर का) वनवासी, अस्तित्व संकट से मुकाबिल होता है तो जंगल कानून पर अधिक भरोसा करता रहा है।

बस्तर और उसकी परिस्थितियों को समाज-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ समझने के लिए (कम से कम) जो प्रकाशन देखना मुझे जरूरी लगता है, वे हैं- डब्ल्यूवी ग्रिग्सन, वेरियर एल्विन, केदारनाथ ठाकुर, प्रवीरचंद्र भंजदेव, लाला जगदलपुरी, डॉं. हीरालाल शुक्ल, डॉ. कृष्‍ण कुमार झा, हरिहर वैष्णव, डॉं. कामता प्रसाद वर्मा की पुस्तकें/लेखन और मार्च 1966 के जगदलपुर गोलीकांड पर जस्टिस केएल पांडेय की रिपोर्ट।

बस्तर को उसकी विशिष्टता के साथ पहचानते हुए, शोध-अध्ययन दृष्टि से महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कार्य हैं- छत्तीसगढ़ के पहले मानवविज्ञानी डॉ. इन्द्रजीत सिंह का लखनऊ विश्वविद्यालय से किया गया गोंड जनजाति पर शोध, जो सन 1944 में The Gondwana and the Gonds शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। पुस्तक, बस्तर के जनजातीय जीवन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ उनके आर्थिक परिप्रेक्ष्य का तटस्थ लेकिन आत्मीय विवरणात्मक दस्तावेज है, जिसका निष्कर्ष कुछ इस तरह है- जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति के साथ समझ सकें। इसी प्रकार दूसरा कार्य है, सागर विश्वविद्यालय से किया गया डॉ. पीसी अग्रवाल का शोध Human Geography of Bastar District, जो सन 1968 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ और तीसरा, मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल द्वारा Bastar Development Plan वर्किंग ग्रुप के चेयरमैन आरसी सिंह देव के निर्देशन में सन 1984 में योजना आयोग के लिए तैयार, बस्तर विकास योजना, जिसे देख कर महसूस होता है कि इस प्रतिवेदन के अनुरूप तब इसका उपयुक्त क्रियान्वयन हो पाता तो आज शायद बस्तर कुछ और होता।


यहां आए सभी नामों के प्रति यथायोग्‍य सम्‍मान।

Monday, April 9, 2012

छत्तीसगढ़ी

बोली और भाषा में क्या फर्क है, लगभग वही जो लोक और शास्त्र में है। या कहें ज्‍यों कला का सहज-जात स्‍वरूप और मंचीय प्रस्‍तुतियां/आयोजन में या परम्‍परा-अनुकरण से सीख लिये और स्‍कूली कक्षाओं में सिखाए गए का फर्क। और यह उतना अनिश्चित भी माना जाता है, जितना नदी और नाला का अंतर। भाषा, मंदिर में पूजित विग्रह-मूर्ति का संग्रहालय में सज्जित और सम्मानित कर दिये जाने जैसा है, जबकि बोली ग्राम और लोक-देवताओं की तरह, जो कई बार अनगढ़, अनाकार, अनामित, मगर पूजित, श्रद्धा केंद्र होते हैं। श्रद्धालु अपनी गति-मति से अपना रिश्ता बनाए रखता है।

भाषा के लिए लिपि और व्याकरण अनिवार्य मान लिया जाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह पृथक लिपि हो और व्याकरण के बिना तो सार्थक अभिव्यक्ति, बोली हो या भाषा, संभव ही नहीं। हां! भाषा के लिए बोली की तुलना में मानकीकरण, शब्द भंडार और साहित्य अधिक जरूरी है। भाषा की आवश्‍यकता शास्‍त्र-रचना के लिए होती है। अभिव्‍यक्ति तो बोली से हो जाती है, साहित्‍य भी रच जाता है। वास्तव में बोली मनमौजी और कुछ हद तक व्‍यक्तिनिष्‍ठ होने से अधिक व्यापक होती है, वह संकुचित, मर्यादित और निर्धारित सीमा का पालन करते हुए भाषा के अनुशासन में बंधती है। बोली-भाषा की अपनी इस मोटी-झोंटी समझ में यह मजेदार लगता है कि अवधी, ब्रज 'भाषा' हैं और हिन्दी की पूर्वज, खड़ी 'बोली'। बोली, अधिक लोचदार भी होती है, शायद यह खड़ी-ठेठनुमा कम लोच वाली बोली, अपने खड़ेपन के कारण आसानी से भाषा बन गई।

फिलहाल यहां मामला छत्तीसगढ़ी का है और मैं चाहता हूं कि यह, भाषा के रूप में तो प्रतिष्ठित हो लेकिन उसका बोलीपन खो न जाए। पिछले दिनों खबर छपी- लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव-अनुरोध छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से प्राप्त हुआ है। इसी तरह अंगिका, बंजारा, बजिका/बज्जिका, भोजपुरी, भोटी, भोटिया, बुंदेलखंडी, धात्की, अंग्रेजी, गढ़वाली (पहाड़ी), गोंडी, गुज्जर/गुज्जरी, हो, कच्चाची, कामतापुरी, कारबी, खासी, कोदवा (कूर्ग), कोक बराक, कुमांउनी (पहाड़ी), कुरक, कुरमाली, लेपचा, लिम्‍बू, मिजो (लुशाई), मगही, मुंडारी, नागपुरी, निकोबारी, पहाड़ी (हिमाचली), पाली, राजस्थानी, संबलपुरी/कोसली, शौरसेनी (प्राकृत), सिरैकी, तेंयिदी और तुलु भाषा के लिए भी प्रस्ताव मिले हैं। स्पष्ट किया गया है कि आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए कोई मानदंड नहीं बताए गए हैं और इन्हें अनुसूची में शामिल करने की कोई समय सीमा निश्चित नहीं है। इस तारतम्‍य में छत्तीसगढ़ी बोलते-लिखते-पढ़ते-सुनते-देखते रहा, उनमें से कुछ उल्लेखनीय को एक साथ यहां इकट्‌ठा कर देना जरूरी लगा।

डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने 'छत्‍तीसगढ़ परिचय' में लिखा है- सरगुजा जिले के कोरवा और बस्‍तर जिले के हलबा के साथ कवर्धा के किसी बैगा और सारंगगढ़ के किसी कोलता को बैठा दीजिए फिर इन चारों की बोली-बानी, रहन-सहन, रीति-नीति पर विचार करते हुए छत्‍तीसगढ़ीयता का स्‍वरूप अपने मन में अंकित करने का प्रयत्‍न कीजिये। देखिये आपको कैसा मजा आयेगा!

दंतेश्‍वरी मंदिर, दंतेवाड़ा, बस्‍तर वाला 23 पंक्तियों का शिलालेख छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित नमूना माना जाता है। शासक दिकपालदेव के इस लेख में संवत 1760 की तिथि चैत्र सुदी 14 से वैशाष वदि 3 अंकित है, गणना कर इसकी अंगरेजी तिथि समानता 31 मार्च, मंगलवार और 4 अप्रैल, शनिवार सन्‌ 1702 निकाली गई है। लेख की भाषा को विद्वान अध्‍येताओं द्वारा हिन्‍दी कहीं ब्रज और भोजपुरी प्रभाव युक्‍त, छत्‍तीसगढ़ी मिश्रित हिन्‍दी तो कहीं बस्‍तरी भी कहा गया है। यह मानना स्‍वाभाविक लगता है कि छत्‍तीसगढ़ में भी ब्रज का प्रभाव कृष्‍णकथा (भागवत और लीला-रहंस) से और अवधी का प्रभाव रामकथा (नवधा, रामसत्‍ता) परम्‍परा से आया है और लिखी जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी अपने पुराने रूप में अधिक आसानी से पूर्वी हिन्‍दी समूह के साथ निर्धारित की जा सकती है।

यह भी उल्‍लेख रोचक होगा कि लेख वस्तुतः साथ लगे संस्कृत शिलालेख का अनुवाद है, इस तरह अनुवाद वाले उदाहरण भी कम हैं और लेख में कहा गया है कि कलियुग में संस्‍कृत बांचने वाले कम होंगे इसलिए यह 'भाषा' में लिखा है। लेख का अन्य संबंधित विषय स्वयं स्पष्ट है -
शिलालेख का फोटो और उसी का छापा 
दंतावला देवी जयति॥ देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरही हैं ते पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिखे है। ... ... ... ते दिकपालदेव विआह कीन्हे वरदी के चंदेल राव रतनराजा के कन्या अजवकुमरि महारानी विषैं अठारहें वर्ष रक्षपाल देव नाम जुवराज पुत्र भए। तव हल्ला ते नवरंगपुरगढ़ टोरि फांरि सकल वंद करि जगन्नाथ वस्तर पठै कै फेरि नवरंगपुर दे कै ओडिया राजा थापेरवजि। पुनि सकल पुरवासि लोग समेत दंतावला के कुटुम जात्रा करे सम्वत्‌ सत्रह सै साठि 1760 चैत्र सुदि 14 आरंभ वैशाष वदि 3 ते संपूर्न भै जात्रा कतेकौ हजार भैसा वोकरा मारे ते कर रकत प्रवाह वह पांच दिन संषिनी नदी लाल कुसुम वर्न भए। ई अर्थ मैथिल भगवान मिश्र राजगुरू पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपालदेव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।

रायपुर के कलचुरि शासक अमरसिंघदेव का कार्तिक सुदि 7 सं. 1792 (सन 1735) का आरंग ताम्रपत्रलेख का सम्‍मुख और पृष्‍ठ भाग, जिससे छत्‍तीसगढ़ की तत्‍कालीन दफ्तरी भाषा का अनुमान होता है।
यह ध्‍यान में रखते हुए कि लिखने और आम बोल-चाल की भाषा में फर्क स्‍वाभाविक है, संदर्भवश मात्र उल्‍लेखनीय है कि पुरानी छत्‍तीसगढ़ी के नमूनों में कार्तिक सुदी 5 सं. 1745 (सन 1688) का कलचुरि राजा राजसिंहदेव के पिता राजा तख्‍तसिंह द्वारा अपने चचेरे भाई रायपुर के राजा श्री मेरसिंह को लिखे पत्र (जिसकी नकल पं. लोचनप्रसाद पांडेय ने कलचुरि वंशज बड़गांव, रायपुर के श्री रतनगोपालसिंहदेव के माध्‍यम से प्राप्‍त की थी) और संबलपुर के दो ताम्रपत्रों (दोनों में 80 वर्ष का अंतर और जिसमें पुराना सन 1690 का बताया जाता है) का जिक्र होता है।

उज्‍ज्‍वल पक्ष है कि छत्‍तीसगढ़ी का व्‍यवस्थित और वैज्ञानिक व्‍याकरण सन 1885 में तैयार हो चुका था। जार्ज ग्रियर्सन ने भाषाशास्‍त्रीय सर्वेक्षण में इसी व्‍याकरण को अपनाते हुए इसके रचयिता हीरालाल काव्‍योपाध्‍याय के उपयुक्‍त नामोल्‍लेख सहित इसे सन 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की शोध पत्रिका में अनूदित और सम्‍पादित कर प्रकाशित कराया। पं. लोचन प्रसाद पाण्‍डेय द्वारा, रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में तैयार किए गए इस व्‍याकरण को, सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार शासन के आदेश से सन 1921 में पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराया गया।

छत्‍तीसगढ़ राज्‍य गठन के बाद न्यायालय श्रीमान न्यायाधिपति उच्च न्यायालय, जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के विविध क्रिमिनल याचिका क्र. 2708/2001 में याचिकाकर्ता श्रीमति हरित बाई, जौजे श्री मेमलाल, उम्र लगभग 30 वर्ष, साकिन ग्राम कुर्रू, थाना अभनपुर तह/जिला रायपुर (छ.ग.) विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन, द्वारा - थाना अभनपुर, तहसील व जिला रायपुर (छ.ग.) अपराध क्रमांक- 210/2001 में आवेदन पत्र अन्तर्गत धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता - 1973 अग्रिम जमानत बाबत, निम्नानुसार आदेश हुआ-
दिनांक 8.1.2002
आवेदिका कोति ले श्री के.के. दीक्षित अधिवक्ता,
शासन कोति ले श्री रणबीर सिंह, शास. अधिवक्ता
बहस सुने गइस। केस डायरी ला पढ़े गेइस
आवेदिका के वकील हर बताइस के ओखर तीन ठन नान-नान लइका हावय। मामला ला देखे अऊ सुने से ऐसन लागत हावय के आवेदिका ला दू महिना बर जमानत मा छोड़ना ठीक रही।
ऐही पायके आदेश दे जात है के कहुँ आवेदिका ला पुलिस हर गिरफ्तार करथे तो 10000/- के अपन मुचलका अऊ ओतके के जमानतदार पुलिस अधिकारी लंग देहे ले आवेदिका ला दू महीना बर जमानत मे छोड़ देहे जाय।
आवेदिका हर ओतका दिन मा अपन स्थाई जमानत के आवेदन दे अऊ ओखर आवेदन खारिज होए ले फेर इहे दोबारा आवेदन दे सकथे।
एखर नकल ला देये जाये तुरन्त

यहां एक अन्य शासकीय दस्तावेज, संयोगवश यह भी अभनपुर तहसील के कुर्रू से ही संबंधित है। इस अभिलेख में कानूनी भाषा और अनुवाद की सीमा के बावजूद बढि़या छत्‍तीसगढ़ी इस्‍तेमाल हुई है। यह तारीख 10/12/2007 बिक्रीनामा है, जिसे ''बीकरी-नामा'' लिखा गया है। इसी अभिलेख से-
बेचैया के नावः- 1/ चिन्ताराम उम्मर 65 बछर वल्द होलदास जात सतनामी रहवैया गांव जेवरा डाकघर- जेवरा थाना बेमेतरा अउ तहसील बेमेतरा जिला- दुरूग (छ.ग.)

परचा के नं -पी-202328

लेवाल के नावः- 1/ फेरूलाल उम्मर 65 बछर वल्द भकला जात -सतनामी रहवैया गांव पचेड़ा डाकघर - कुर्रू अउ तहसील - अभनपुर जिला- रायपुर (छ.ग.)।

बीकरी होये भुईंया के सरकारी बाजारू दाम बरोबर चुकाय गे हाबय। पाछु कहु बाजारू दाम कोनो कारन कम होही ते लेवाल ह ओला देनदार रईही बीकरी नामा मा सब्बो बात ल सुरता करके ईमान धरम से लिखवाये हावन लबारी निकले मा मै लेवाल देनदार रईही। बीकरी होय भुईंया हा शासन द्वारा भु दान म दे गे भुईंया नो हय। छ0ग0भू0रा0सं0 मा बनाये कानुन के धारा 165/6 अउ 165/7 के उलंघन नई होवत हे। सिलिंग कानुन के उलंघन नई होवत हे। बीकरी करे गे भुईंया हा- सीलींग अउ सरकारी पट्‌टा दार भुईंया नो है , बीकरी करे भुईंया मा कोनो जात के एकोठन रूख नईये। निमगा खेती किसानी के भुईंया आय। बीकरी करेगे भुमि मा तईहा जमाना से ले के आज तक खेती किसानी ही करे जावत हे। बीकरी शुदा भुईंया हा आज के पहीली कखरो मेर रहन या गहन नहीं रखे गेहे।

छत्तीसगढ़ी की वैधानिक स्थिति की चर्चा के पहले उसके मरम-धरम में रंगे-पंगे बद्रीसिंह कटरिया जी जैसे कुछ सुहृद-बुजुर्गों से सुनी बातें याद आती हैं-

ससुर खाना खाने बैठे, पानी-पीढ़ा जरूरी। बहू पहेली बुझाते अनुमति चाहती है-
‘बाप पूत के एके नांव, नाती के नांव अवरू।
ए किस्सा ल जान ले ह, तओ उठाह कंवरू।।
ससुर उसी तरह जवाब देते हैं-
जेकर पिए महिंगल होय, अउ चलावै घानी।
ए किस्सा ल जान ले ह, त ओ जाह पानी।
आशय कि खाना परोसते बहू देखती है कि पानी नहीं है, कहती है बाप और पूत का नाम एक (महुआ) मगर पोते का और कुछ (डोरी/टोरी- महुआ का फल), यह बूझ लें, तब कौर उठावें। ससुर जवाब में पहेली का हल उसी तरह बताते हुए पानी ले कर आने की अनुमति देते हैं कि जिसके पीने से व्यक्ति हाथी की तरह मतवाला हो जाता है (महुआ) और उसके लिए घानी चलती है (महुआ का फल-डोरी), यह बूझते पानी ले आओ।

बरसात, पनिहारिन और पानी पर बुझौवल है, जो कामुक नायक-नायिका के बीच हुए संवाद की तरह जान पड़ता है-
जात रहें तोर बर, भेंट डारें तो ला (छेंक ले हे मो ला)।
जाए दे तैं मो ला, ले आहंव तो ला।
बात कुछ इस तरह कि तुम्हारे लिए (पानी लेने के लिए) जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए, (बरसात ने) रास्ता रोक लिया, मुझे जाने दो गे, तो तुम्हें ले आऊंगी।

एक सवाल-जवाब इस तरह होता है-
‘दोसी अस न दासी, तैं का बर लगे फांसी।
नाचा ए न पेखन, तैं का ल आए देखन।
जिव जाही मोर, फेर मांस खाही तोर।‘
शिकारी ने बगुला फंसाने के लिए फिटका (फंदा) लगाया है और उसमें बतौर चारा, घुंइ को बांध रखा है। बगुला घुंइ को खाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, उसके मन में कुछ संदेह भी है, घुंइ से पूछता है कि तुम न दोषी हो न दासी, फिर इस तरह क्यों बंधी-फंसी हो। घुंइ जवाब देती है, यहां नाचा हो रहा है न पेखन (प्रेक्षण, कोई प्रदर्शन), फिर तुम क्या देखने चले आए और आगाह करती है, तुम मुझे खाना चाहते हो तो मेरी जान जाएगी, मगर (शिकारी) तुम्हारा मांस खाएगा।

शिकारी के जाल और पक्षियों का एक मार्मिक प्रसंग यह भी-
तीतुर फंसे, घाघर फंसे, तूं का बर फंस बटेर।
मया पिरित के फांस म आंखी ल दिएं लड़ेर।
शिकारी ने चिड़िया फंसाने के लिए जाल बिछाया। वापस आ कर देखता है कि उसमें तीतर, घाघर जैसी सामान्य आकार की चिड़िया फंस गईं हैं, मगर छोटे आकार का बटेर भी है, जो आसानी से जाल के छेद से बाहर निकल सकता था तो बटेर से पूछता है, तीतर-घाघर फंसे, लेकिन तुम कैसे फंस गए हो। साथ-साथ चरने वाले बटेर का जवाब कि तुम्हारे बिछाए जाल में नहीं, मैं तो साथी चिड़ियों के प्रेम-प्रीत में (कैसे साथ छोड़ दूं) आंखें बंद कर पड़ गया हूं।

छत्‍तीसगढ़ विधान सभा में शुक्रवार, 30 मार्च, 2001 को अशासकीय संकल्‍प सर्व सम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्‍द्र सरकार से अनुरोध करता है कि संविधान के अनुच्‍छेद 347 के तहत छत्‍तीसगढ़ी बोली को छत्‍तीसगढ़ राज्‍य की सरकारी भाषा के रूप में शासकीय मान्‍यता दी जाए।'' तथा पुनः शुक्रवार, 13 जुलाई, 2007 को अशासकीय संकल्‍प सर्व सम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्‍द्र सरकार से अनुरोध करता है कि छत्‍तीसगढ़ प्रदेश में बोली जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी भाषा को संविधान के अनुच्‍छेद 347 के तहत राज्‍य की सरकारी भाषा के रूप में मान्‍यता दी जाय।''

छत्‍तीसगढ़ राजभाषा अधिनियम, 1957 (क्रमांक 5 सन् 1958), (मूलतः मध्‍यप्रदेश राजभाषा अधिनियम, जो अनुकूलन के फलस्‍वरूप इस तरह कहा गया है) में ''राज्‍य के राजकीय प्रयोजनों के लिए राजभाषा'' में लेख है कि ''एतद्पश्‍चात् उपबंधित के अधीन रहते हुए हिन्‍दी, उन प्रयोजनों के अतिरिक्‍त, जो कि संविधान द्वारा विशेष रूप से अपवर्जित कर दिये गये हैं, समस्‍त प्रयोजनों के लिए तथा ऐसे विषयों के संबंध में, के अतिरिक्‍त जैसे कि राज्‍य-शासन द्वारा समय-समय पर अधिसूचना द्वारा उल्लिखित किये जाएं, राज्‍य की राजभाषा होगी।''
इसी राजपत्र में यह भी उल्‍लेख है कि ''मध्‍यप्रदेश आफिशियल लैंगवेजेज एक्‍ट, 1950 (मध्‍यप्रदेश की राजभाषाओं का अधिनियम, 1950) (क्रमांक 24, सन् 1950 तथा मध्‍यभारत शासकीय भाषा विधान, संवत् 2007 (क्रमांक 67, सन् 1950) निरस्‍त हो जाएंगे।''

छत्तीसगढ़ विधानसभा में 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ी राजभाषा विधेयक पारित हुआ, इसके पश्‍चात शुक्रवार, 11 जुलाई 2008 के छत्‍तीसगढ़ राजपत्र में छत्‍तीसगढ़ राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2007 को और संशोधित करने हेतु अधिनियम आया कि ''छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्‍त की जाने वाली भाषा के रूप में हिन्‍दी के अतिरिक्‍त छत्‍तीसगढ़ी को अंगीकार करने के लिए उपबंध करना समीचीन है.'' और इसके द्वारा मूल अधिनियम में शब्‍द ''हिन्‍दी'' के पश्‍चात् ''और छत्‍तीसगढ़ी'' अंतःस्‍थापित किया गया। इसमें यह भी स्‍पष्‍ट किया गया है कि- ''छत्‍तीसगढ़ी'' से अभिप्रेत है, देवनागरी लिपि में छत्‍तीसगढ़ी।'' सन 2013 में 11 जुलाई को ही शासन ने अधिसूचना जारी कर प्रतिवर्ष 28 नवंबर को ‘‘छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस‘‘ घोषित किया है।

तीन-एक साल पहले प्रकाशित पुस्‍तक, जिसमें ''दंतेवाड़ा के छत्‍तीसगढ़ी शिलालेख'' बताते हुए कोई अन्‍य चित्र, 1703 (शिलालेख का काल?, जो वस्‍तुतः सन 1702 है) अंक सहित छपा है।

नन्‍दकिशोर शुक्‍ल जी, पिछले चार-पांच साल में अपने निजी संसाधनों और संगठन क्षमता के बूते, लगातार सक्रिय रहते 'मिशन छत्‍तीसगढ़ी' के पर्याय बन गए हैं, कुछ गंभीर असहमतियों के बावजूद उनके ईमानदार जज्‍बे और जुनून का मैं प्रशंसक हूं।

दक्षिण भारत के मेरे एक परिचित ने मुझे अपने परिवार जन से छत्‍तीसगढ़ी में बात करते सुना तो यह कहकर चौंका दिया कि लगभग साल भर यहां रहते हुए उनका छत्तीसगढ़ी से परिचय मोबाइल के रिकार्डेड संदेश और रेल्वे प्लेटफार्म की उद्‌घोषणा के माध्यम से हुआ जितना ही है तब लगा कि अस्मिता को जगाए-बनाए रखने के लिए गोहार और हांक लगाने का काम, अवसरवादी स्तुति-बधाई गाने वालों, माइक पा कर छत्तीसगढ़ी की धारा प्रवाहित करने वालों और उसे छौंक की तरह, टेस्ट मेकर की तरह इस्तेमाल करने वालों से संभव नहीं है। विनोद कुमार शुक्‍ल जी की कहावत सी पंक्ति में- ''छत्‍तीसगढ़ी में वह झूठ बोल रहा है। लबारी बोलत है।'' तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता के असली झण्डाबरदार ज्यादातर ओझल-से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्‍तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।

पुनश्‍चः
लगता है अखबार (16 अप्रैल 2012) की नजर इस पोस्‍ट पर पड़ी है।

इसका मुख्‍य अंश मेरी सहमति से, 19 अप्रैल 2012 को जनसत्‍ता, नई दिल्‍ली के संपादकीय पृष्‍ठ पर ब्‍लाग के उल्‍लेख सहित प्रकाशित हुआ है।

Friday, February 24, 2012

कैसा हिन्‍दू... कैसी लक्ष्‍मी!

देश के पुराने अंगरेजी अखबार ने हिन्‍दू नाम के साथ प्रतिष्‍ठा अर्जित की है, पिछले दिनों इस हिन्‍दू पर लक्ष्‍मी नामधारी पत्रकार ने ऐसा धब्‍बा लगाया है, जिस पर अफसोस और चिन्‍ता होती है। इस मामले का उल्‍लेख मेरी पिछली पोस्‍ट 36 खसम पर है।

रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र दैनिक 'छत्‍तीसगढ़ वॉच' ने इसकी सुध ली है।
20 फरवरी, मंगलवार को मुखपृष्‍ठ पर प्रकाशित समाचार 
21 फरवरी, बुधवार को अंतिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित समाचार 
इसके अलावा ललित शर्मा जी ने फेसबुक पर तथा वरुण कुमार सखाजी ने भड़ास पर इसकी चर्चा अपने-अपने ढंग से की है। इस बीच पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए अध्‍यक्ष, छत्‍तीसगढ़ राज्‍य महिला आयोग के हस्‍ताक्षर युक्‍त प्रेस विज्ञप्ति में उल्‍लेख है कि आयोग, लेखिका को नोटिस जारी कर स्‍पष्‍टीकरण मांगेगा और कार्यवाही करेगा।
इस संचार युग में यह खोज-खबर 'द हिन्‍दू' को होगी ही, लेकिन शायद बड़े पत्र-पत्रकार को 'छोटी-मोटी' बात की परवाह कहां... सवाल कि ये कैसा हिन्‍दू और ये कैसी लक्ष्‍मी है?

Saturday, February 18, 2012

36 खसम

छत्‍तीसगढ़ से जुड़ी किंवदंती? पर दो स्‍थानीय लोगों की उत्‍तेजक बातचीत से आह्लादित पत्रकार सुश्री लक्ष्‍मी शरथ (Lakshmi Sharath) ने बस्‍तर, छत्‍तीसगढ़ पर यात्रा-वृत्‍तांत लिखा है, शीर्षक है - CHATTISGARH: Watching in delight as two locals heatedly discuss the legend associated with the State

लेख में कहा गया है- The local women saw Sita with two men and exclaimed she had two husbands. “Sita immediately retorted that each of these women will have Chattison (36) husbands,” says Mumtaj as we break into laughter. Toppoji and Mumtaj continue to discuss how most women in Chhattisgarh do have multiple husbands, although Mumtaj adds hurriedly: “Not everybody though.

अनुवाद कुछ इस तरह होगा- ''स्थानीय महिलाओं ने दो पुरुषों के साथ सीता को देखा और कहा कि इसके तो दो पति हैं, सीता ने तत्‍क्षण व्‍यंग्‍यपूर्वक कहा, इनमें से प्रत्येक औरत के छत्‍तीसों (36) पति हों। मुमताज के ऐसा कहते ही हम ठठाकर हंस पड़े । टोप्‍पोजी और मुमताज आगे बात करते रहे कि कैसे छत्‍तीसगढ़ की अधिकतर महिलाओं के बहुत सारे खसम होते हैं यद्यपि, मुमताज ने जल्‍दी से कहा, सबके साथ नहीं।''
सुश्री शरथ ने लांछनापूर्ण लेखन कर, बरास्‍ते विवाद, धार्मिक भावना और छत्‍तीसगढ़ की अस्मिता को चोट पहुंचाने का भर्त्‍सना-योग्‍य तथा अभद्र कार्य किया है। पाश्‍चात्‍य बौद्धिक जगत से प्रेरित, भ्रमित और गैर-जिम्‍मेदार लेखक, तात्‍कालिक प्रसिद्धि और बिकाऊपने के लिए ईश निन्‍दा का भी रास्‍ता अपना लेते हैं, उनका यह लेखन चर्चित होने का ऐसा ही ओछा और सस्‍ता हथकण्‍डा दिखता है।

'द हिन्‍दू' जैसे अखबार में ऐसी सामग्री प्रकाशित होना चिंताजनक है और इस पूरे मामले में मुझे (बस्‍तर, छत्‍तीसगढ़ में रहे श्री पा ना सुब्रहमनियन तथा छत्‍तीसगढ़ में रचे-पचे डा. बी के प्रसाद सहित), हम सबके मर्यादित बने रहने पर अफसोस हो रहा है।

Monday, February 6, 2012

मेला-मड़ई

विविधतापूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न स्वरूप के मेलों का लंबा सिलसिला है, इनमें मुख्‍यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र यानि जशपुर-रायगढ़ अंचल में जतरा अथवा रामरेखा, रायगढ़-सारंगढ़ का विष्णु यज्ञ- हरिहाट, चइत-राई और व्यापारिक मेला, कटघोरा-कोरबा अंचल का बार, दक्षिणी क्षेत्र यानि बस्तर के जिलों में मड़ई और अन्य हिस्सों में बजार, मातर और मेला जैसे जुड़ाव अपनी बहुरंगी छटा के साथ राज्य की सांस्कृतिक सम्पन्नता के जीवन्त उत्सव हैं। मेला ‘होता’ तो है ही, 'लगता', 'भरता' और 'बैठता' भी है।

गीता का उद्धरण है- 'मासानां मार्गशीर्षोऽहं ...', अगहन को माहों में श्रेष्ठ कहा गया है और यह व्याख्‍या सटीक जान पड़ती है कि खरीफ क्षेत्र में अगहन लगते, घर-घर में धन-धान्य के साथ गुरुवार लक्ष्‍मी-पूजा की तैयारी होने लगती है, जहां लक्ष्‍मी वहां विष्‍णु। इसी के साथ मेलों की गिनती का आरंभ, अंचल की परम्परा के अनुरूप, प्रथम के पर्याय- 'राम' अर्थात्, रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को अनुष्‍ठान सहित चबूतरा और ध्वजारोहण की तैयारियां होती हैं, द्वादशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है, तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा होता है, इस हेतु दो बड़े गड्ढे खोदे जाते, जिन्‍हें अच्‍छी तरह गोबर से लीप-सुखा कर भंडारण योग्‍य बना लिया जाता। भक्‍तों द्वारा चढ़ाए और इकट्ठा किए गए चावल व दाल को पका कर अलग-अलग इन गड्ढों में भरा जाता, जिसमें मक्खियां नहीं लगतीं। यही प्रसाद रमरमिहा अनुयायियों एवं अन्य श्रद्धालुओं में वितरित होता। संपूर्ण मेला क्षेत्र में जगह-जगह रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख 'रामराम' गोदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं।
मेले में परिवेश की सघनता इतनी असरकारक होती है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति, समष्टि हो जाता है। सदी पूरी कर चुका यह मेला महानदी के दाहिने और बायें तट पर, प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों में समानांतर भरता है। कुछ वर्षों में बारी-बारी से दाहिने और बायें तट पर मेले का संयुक्त आयोजन भी हुआ है। मेले के पूर्व बिलासपुर-रायपुर संभाग के रामनामी बहुल क्षेत्र से गुजरने वाली भव्य शोभा यात्रा का आयोजन भी किया गया है। इस मेले और समूह की विशिष्टता ने देशी-विदेशी अध्येताओं, मीडिया प्रतिनिधियों और फिल्मकारों को भी आकर्षित किया है।

रामनामी बड़े भजन के बाद तिथि क्रम में पौष पूर्णिमा अर्थात्‌ छेरछेरा पर्व पर तुरतुरिया, सगनी घाट (अहिवारा), चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है। इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर), रामपुर, रनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है, यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलों के क्रम के आरंभ का होता है, जो चैत मास तक चलता है। जांजगीर अंचल की प्रसिद्ध रउताही मड़ई हरदी बजार, खम्हरिया, बलौदा, बम्हनिन, पामगढ़, रहौद, खरखोद, ससहा है। क्रमशः भक्तिन (अकलतरा), बाराद्वार, कोटमी, धुरकोट, ठठारी की रउताही का समापन सक्ती के विशाल रउताही से माना जाता है। बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है। 'मधुमास पुनीता' होते हुए '...ऋतूनां कुसुमाकरः', वसंत ऋतु-रबी फसल तक चलने वाले मेलों के मुख्‍य सिलसिले का समापन चइत-राई से होता है, सरसींवां और भटगांव के चैत नवरात्रि से वैशाख माह के आरंभ तक चलने वाले चइत-राई मेले पुराने और बड़े मेले हैं। सपोस (चंदरपुर) का चइत-राई भी उल्लेखनीय है। चइत-राई का चलन बस्‍तर में भी है।

सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है। शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है। मान्यता है कि जो तीन साल लगातार यह प्रसाद खाता है वह आजीवन रोगमुक्त रहता है। यह उड़िया-छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मेल-जोल का मेला है। कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ 'ख्‍याला' मांगने की परम्परा है। लाठी और ढाल लेकर नृत्य तथा 'कटमुंहा' मुखौटेधारी भी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। सरगुजा का 'जतरा' यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।

भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्‍ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है। मकर संक्रांति पर एक विशिष्‍ट परम्‍परा घुन्‍डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है। यहां भक्‍त स्‍त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्‍प सहित इस पूरे अनुष्‍ठान को 'सूखा लहरा' लेना कहा जाता है।

क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा है, इनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्‍ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्‍या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षों में कांवड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है। रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।

आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है। इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है। गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है। एक लोकप्रिय गीत 'तूं बताव धनी मोर, तूं देखा द राजा मोर, कहां कहां बाबाजी के मेला होथे' में सतनामियों के गिरौदपुरी, खडुवापुरी, गुरुगद्दी भंडार, चटुआ, तेलासी के मेलों का उल्लेख है। 

शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट (जिसे मनकू, मटकू और मदकूदीप/द्वीप भी पुकारा जाता है), दरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में सौ-एक साल से भरने वाला इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है। मदकूदीप में एक अन्य पारम्परिक मेला पौष में भी भरता है। दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता है, किन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। पिछले वर्षों में यह स्थल श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ के रूप में विकसित हो गया है। यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सव, नगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्‍या में उपस्थिति होती है। इसी प्रकार चम्पारण में वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों से भी बड़ी तादाद में आते हैं। यह स्थान महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्‌य स्थल माना जाता है, अवसर होता है उनकी जयंती, वैशाख बदी 11 का।

आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले 'बार' में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का बारह दिन और बारह रात लगातार चलने वाले आयोजन का अपना विशिष्ट स्वरूप है। छत्तीसगढ़ी का शब्द युग्म 'तिहार-बार' इसीसे बना है। इस आयोजन के लिए शब्द युग्म 'तीज-तिहार' के तीज की तरह ही बेटी-बहुओं और रिश्तेदारों को खास आग्रह सहित आमंत्रित किया जाता है। गांव का शायद ही कोई घर छूटता हो, जहां इस मौके पर अतिथि न होते हों। इस तरह बार भी मेलों की तरह सामान्यतः पारिवारिक, सामाजिक, सामुदायिक, आर्थिक आवश्यकता-पूर्ति के माध्यम हैं। इनमें तुमान बार की चर्चा और प्रसिद्धि बैलों की दौड़ के कारण होती है। कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़कर, सरगुजा अंचल में 'बायर' नाम से आयोजित होता है। 'बायर' में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं। कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ 'हाय मोर दइया रे, राम जोहइया तो ला मया ह लागे' टेक से होता है। बायर के दौरान युवा जोड़े में शादी के लिए रजामंदी बन जाय तो माना जाता है कि देवता फुरमा (प्रसन्‍न) हैं, फसल अच्‍छी होगी।

रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्रा, जन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल रहता है। इस क्रम में गणेश चतुर्थी के अवसर पर आयोजित होने वाले दस दिवसीय चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होती। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इसका स्वरूप और चमकदार हो गया है। इसी प्रकार सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है। बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथ, अपने नए स्वरूप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है। रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात्‌ आरंभ हुआ सबसे नया बड़ा मेला राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष सप्ताह भर के लिए आयोजित होने वाला राज्योत्सव है। इस अवसर पर राजधानी रायपुर के साथ जिला मुख्‍यालयों में भी राज्योत्सव का आयोजन किया गया है। इसी क्रम में विभिन्न उत्सवों का जिक्र उपयुक्त होगा। भोरमदेव उत्सव, कवर्धा (अप्रैल), रामगढ़ उत्सव, सरगुजा (आषाढ़), लोककला महोत्सव, भाटापारा (मई-जून), सिरपुर उत्सव (फरवरी), खल्लारी उत्सव, महासमुंद (मार्च-अप्रैल), ताला महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी), मल्हार महोत्सव, बिलासपुर (मार्च-अप्रैल), बिलासा महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी-मार्च), रावत नाच महोत्सव, बिलासपुर (नवम्बर), जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी), शिवरीनारायण महोत्सव, जांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा), लोक-मड़ई, राजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरूप ले लिया है, इनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैं, जिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सव, राजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।

राजिम मेले की गिनती राज्य के विशालतम मेलों में है। विगत वर्षों में राजिम मेले का रूप लघु कुंभ जैसा हो गया है और यह 'श्री राजीवलोचन कुंभ' के नाम से आयोजित हो रहा है। मान्‍यता है कि चारों धाम तीर्थ का पुण्‍य-लाभ, राजिम पहुंचकर ही पूरा होता है। मेले के दौरान कल्पवास और संत समागम से इसके स्वरूप और आकार में खासी बढ़ोतरी हुई है। माघ-पूर्णिमा पर भरने वाले इस मेले का केन्द्र राजिम होता है, महानदी, पैरी और सोंढुर त्रिवेणी संगम पर नदी के बीचों-बीच स्थित कुलेश्‍वर महादेव और ठाकुर पुजारी वाले वैष्‍णव मंदिर राजीवलोचन के साथ मेले का विस्तार पंचक्रोशी क्षेत्र में पटेवा (पटेश्वर), कोपरा (कोपेश्वर), फिंगेश्वर (फणिकेश्वर), चंपारण (चम्पकेश्वर) तथा बम्हनी (ब्रह्मणेश्वर) तक होता है। इन शैव स्थलों के कारण मेले की अवधि पूरे पखवाड़े, शिवरात्रि तक होती है, लेकिन मेले की चहल-पहल, नियत अवधि के आगे-पीछे फैल कर लगभग महीने भर होती थी।
राजिम मेला के एक प्रसंग से उजागर होता मेलों का रोचक पक्ष यह कि मेले में एक खास खरीदी, विवाह योग्‍य लड़कियों के लिए, पैर के आभूषण-पैरी की होती थी। महानदी-सोढुंर के साथ संगम की पैरी नदी को पैरी आभूषण पहन कर पार करने का निषेध प्रचलित है। इसके पीछे कथा बताई जाती है कि वारंगल के शासक अन्‍नमराज से देवी ने कहा कि मैं तुम्‍हारे पीछे-पीछे आऊंगी, लेकिन पीछे मुड़ कर देखा तो वहीं रुक जाऊंगी। राजा आगे-आगे, उनके पीछे देवी के पैरी के घुंघरू की आवाज दन्‍तेवाड़ा तक आती रही, लेकिन देवी के पैर डंकिनी नदी की रेत में धंसने लगे। घुंघरू की आवाज न सुन कर राजा ने पीछे मुड़ कर देखा और देवी रुक गईं और वहीं स्‍थापित हो कर दंतेश्‍वरी कहलाईं। लेकिन कहानी इस तरह से भी कही जाती है कि देवी का ऐसा ही वरदान राजा को उसके राज्‍य विस्‍तार के लिए मिला था और बस्‍तर से चल कर बालू वाले पैरी नदी में पहुंचते, देवी के पैर धंसने और आहट न मिलने से राजा ने पीछे मुड़ कर देखा, इससे उसका राज्‍य विस्‍तार बाधित हुआ। इसी कारण पैरी नदी को पैरी पहन कर (नाव से भी) पार करने की मनाही प्रचलित हो गई। संभवतः इस मान्‍यता के पीछे पैरी नदी के बालू में पैर फंसने और नदी का अनिश्चित प्रवाह और स्‍वरूप ही कारण है।
राजिम मेले में कतार से रायपुर के अवधिया-धातुशिल्पियों की दुकान होती। वे साल भर कांसे की पैरी बनाते और इस मेले में उनका अधिकतर माल खप जाता, बची-खुची कसर खल्‍लारी मेला में पूरी हो जाती। विवाह पर कन्‍या को पैरी दिया जाना अनिवार्य होने से इस मौके पर अभिभावक लड़की को ले कर दुकान पर आते, दुकानदार पसंद करा कर, नाप कर लड़की को पैरी पहनाता। पसंद आने पर अभिभावक लड़की से कहते कि दुकानदार का पैर छूकर अभिवादन करे, उसने उसे पैरी पहनाया है। लड़की, दुकानदार सहित सभी बड़ों के पैर छूती और दुकानदार उसे आशीष देते हुए पैरी बांध-लपेट कर दे देता, पैरी के लिए मोल-भाव तो होता है लेकिन फिर पैरी पहनाने के एवज में दुकानदार को रकम (मूल्‍य नहीं) भेंट-स्‍वरूप दी जाती और यह पैरी अगली बार सीधे लड़की के विवाह पर खोल कर उसे पहनाया जाता। इसी के साथ रायगढ़ अंचल के मेलों के 'मान-जागर' को याद किया जा सकता है। यहां के प्रसिद्ध धातु-शिल्‍पी झारा-झोरका, अवधियों की तरह ही मोम-उच्छिष्‍ट (lost-wax) तकनीक से धातु शिल्‍प गढ़ते हैं। इस अंचल में लड़कियों को विवाह पर लक्ष्‍मी स्‍वरूप धन-धान्‍य का प्रतीक 'पैली-मान' (पाव-आधा सेर माप की लुटिया) और आलोकमय जीवन का प्रतीक 'दिया-जागर' (दीपदान) देना आवश्‍यक होता, जो झारा बनाते।

राजिम मेला का एक उल्‍लेखनीय, रोचक विस्‍तार जमशेदपुर तक है। यहां बड़ी तादाद में छत्‍तीसगढ़ के लोग सोनारी में रहते हैं। झेरिया साहू समाज द्वारा यहां सुवर्णरेखा और खड़खाई नदी के संगम, दोमुहानी में महाशिवरात्रि पर एक दिन का राजिम मेला-महोत्‍सव आयोजित किया जाता है। पहले यह आयोजन मानगो नदी के किनारे घोड़ा-हाथी मंदिर के पास होता था, लेकिन 'मैरिन ड्राइव' बन जाने के बाद इस आयोजन का स्‍थल बदल गया है।

शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है। मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का 'पट' बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी बड़ी संख्‍या में पहुंचते हैं। भक्त नारियल लेकर 'भुंइया नापते' या 'लोट मारते' मंदिर तक पहुंचते हैं, यह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है। प्रतिवर्ष होने वाले खासकर 'तारे-नारे' जैसी लोक विधाओं का प्रदर्शन अब नहीं दिखता लेकिन उत्सव का आयोजन होने से लोक विधाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण की प्रतिष्ठा तीर्थराज जैसी है। अंचल के लोग सामान्य धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर अस्थि विसर्जन तक का कार्य यहां सम्पन्न होते हैं। इस अवसर पर मंदिर के प्रांगण में अभी भी सिर्फ ग्यारह रुपए में सत्यनारायण भगवान की कथा कराई जा सकती है।

यह मेला जाति-पंचायतों के कारण भी महत्वपूर्ण है, जहां रामनामी, निषाद, देवार, नायक और अघरिया-पटेल-मरार जाति-समाज की सालाना पंचायत होती है। विभिन्न सम्प्रदाय, अखाड़ों के साधु-सन्यासी और मनोरंजन के लिए मौत का कुंआ, चारोंधाम, झूला, सर्कस, अजूबा-तमाशा, सिनेमा जैसे मेला के सभी घटक यहां देखे जा सकते हैं। पहले गोदना गुदवाने के लिए भी मेले का इंतजार होता था, अब इसकी जगह रंग-छापे वाली मेहंदी ने ले लिया है। गन्ने के रस में पगा लाई का 'उखरा' प्रत्येक मेलार्थी अवश्य खरीदता है। मेले की चहल-पहल शिवरीनारायण के माघ पूर्णिमा से खरौद की शिवरात्रि तक फैल जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में पिनखजूर खरीदी के लिए आमतौर पर उपलब्ध न होने और विशिष्टता के कारण, मेलों की खास चीज होती थी।

उखरा की तरह ही मेलों की सर्वप्रिय एक खरीदी बताशे की होती है। उखरा और बताशा एक प्रकार से कथित क्रमशः ऊपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है। इस संदर्भ में ऊपर और खाल्हे राज की पहचान का प्रयास करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसके अलावा एक अन्य प्रचलित भौगोलिक नामकरण 'चांतर राज' है, जो निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ का मध्य मैदानी हिस्सा है, किन्तु 'ऊपर और खाल्हे' राज, उच्च और निम्न का बोध कराते हैं और शायद इसीलिए, उच्चता की चाह होने के कारण इस संबंध में मान्यता एकाधिक है।

ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुर, जो लीलागर नदी के दाहिने स्थित है, को ऊपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीत में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्‍यालय रायपुर आ जाने के बाद ऊपर राज का विशेषण, इस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लिया, जिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिणी तट, ऊपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राज, जाना जाता है, किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्‌गम क्षेत्र ऊपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।

छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा है, जिसमें हाथ से 'दरा, पछीना और निमारा' गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है। इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता है कि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए 'परिचय सम्मेलन' जैसा होने के कारण भी है। बताया जाता है कि विक्रमी संवत की इक्कीसवीं शताब्दी आरंभ होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में आयोजित श्री विष्णु महायज्ञ के पश्चात्‌ इस क्षेत्र में सांकर और मुलमुला के साथ कुटीघाट में भी विशाल यज्ञ आयोजित हुआ जो मेले का स्वरूप प्राप्त कर प्रतिवर्ष भरता आ रहा है।

'लाखा चांउर' की प्रथा हसदेव नदी के किनारे कलेश्वरनाथ महादेव मंदिर, पीथमपुर में भी है, जहां होली-धूल पंचमी पर मेला भरता है। इस मेले की विशिष्टता नागा साधुओं द्वारा निकाली जाने वाली शिवजी की बारात है। मान्यता है कि यहां महादेवजी के दर्शन से पेट के रोग दूर होते है। इस संबंध में पेट के रोग से पीड़ित एक तैलिक द्वारा स्वप्नादेश के आधार पर शिवलिंग स्थापना की कथा प्रचलित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण खरियार के जमींदार द्वारा कराया गया है, जबकि मंदिर का पुजारी परंपरा से 'साहू' जाति का होता है। इस मेले का स्वरूप साल दर साल प्राकृतिक आपदाओं व अन्य दुर्घटनाओं के बावजूद भी लगभग अप्रभावित है। कोरबा अंचल के प्राचीन स्थल ग्राम कनकी के जांता महादेव मंदिर का पुजारी परंपरा से 'यादव' जाति का होता है। इस स्थान पर भी शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है।

चांतर राज में पारम्परिक रूप से मेले की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथियां माघ पूर्णिमा और महाशिवरात्रि (फाल्गुन बदी 13) हैं और इन्हीं तिथियों पर अधिकतर बड़े मेले भरते हैं। माघ पूर्णिमा पर भरने वाले अन्य बड़े मेलों में सेतगंगा, रतनपुर, बेलपान, लोदाम, बानबरद, झिरना, डोंगरिया (पांडातराई), खड़सरा, सहसपुर, चकनार-नरबदा (गंड़ई), बंगोली और सिरपुर प्रमुख है। इसी प्रकार शिवरात्रि पर भरने वाले प्रमुख मेलों में सेमरसल, अखरार, कोटसागर, लोरमी, नगपुरा (बेलतरा), मल्हार, पाली, परसाही (अकलतरा), देवरघट, तुर्री, दशरंगपुर, सोमनाथ, देव बलौदा और किलकिला पहाड़ (जशपुर) मेला हैं। कुछेक शैव स्थलों पर अन्य तिथियों पर मेला भरता है, जिनमें मोहरा (राजनांदगांव) का मेला कार्तिक पूर्णिमा को, भोरमदेव का मेला चैत्र बदी 13 को तथा लटेश्वरनाथ, किरारी (मस्तूरी) का मेला माघ बदी 13 को भरता है।


रामनवमी से प्रारंभ होने वाले डभरा (चंदरपुर) का मेला दिन की गरमी में ठंडा पड़ा रहता है लेकिन जैसे-जैसे शाम ढलती है, लोगों का आना शुरू होता है और गहराती रात के साथ यह मेला अपने पूरे शबाब पर आ जाता है। संपन्न अघरिया कृषकों के क्षेत्र में भरने वाले इस मेले की खासियत चर्चित थी कि यह मेला अच्छे-खासे 'कॅसीनो' को चुनौती दे सकता था। यहां अनुसूचित जाति के एक भक्त द्वारा निर्मित चतुर्भुज विष्णु का मंदिर भी है। कौड़िया का शिवरात्रि का मेला प्रेतबाधा से मुक्ति और झाड़-फूंक के लिए जाना जाता है। कुछ साल पहले तक पीथमपुर, शिवरीनारायण, मल्हार, चेटुआ आदि कई मेलों की चर्चा देह-व्यापार के लिए भी होती थी। कहा जाता है कि इस प्रयोजन के मुहावरे 'पाल तानना' और 'रावटी जाना' जैसे शब्द, इन मेलों से निकले हैं। रात्रिकालीन मेलों का उत्स अगहन में भरने वाले डुंगुल पहाड़ (झारखंड-जशपुर अंचल) के रामरेखा में दिखता है। इस क्षेत्र का एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक आयोजन बागबहार का फरवरी में भरने वाला मेला है।

धमतरी अंचल को मेला और मड़ई का समन्वय क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में कंवर की मड़ई, रूद्रेश्वर महादेव का रूद्री मेला और देवपुर का माघ मेला भरता है। एक अन्य प्रसिद्ध मेला चंवर का अंगारमोती देवी का मेला है। इस मेले का स्थल गंगरेल बांध के डूब में आने के बाद अब बांध के पास ही पहले की तरह दीवाली के बाद वाले शुक्रवार को भरता है। मेला और मड़ई दोनों का प्रयोजन धार्मिक होता है, किन्तु मेला स्थिर-स्थायी देव स्थलों में भरता है, जबकि मड़ई में निर्धारित देव स्थान पर आस-पास के देवताओं का प्रतीक- 'डांग' लाया जाता है अर्थात्‌ मड़ई एक प्रकार का देव सम्मेलन भी है। मैदानी छत्तीसगढ़ में बइगा-निखाद और यादव समुदाय की भूमिका मड़ई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बइगा, मड़ई लाते और पूजते हैं, जबकि यादव नृत्य सहित बाजार परिक्रमा, जिसे बिहाव या परघाना कहा जाता है, करते है। मेला, आमतौर पर निश्चित तिथि-पर्व पर भरता है किन्तु मड़ई सामान्यतः सप्ताह के निर्धारित दिन पर भरती है। यह साल भर लगने वाले साप्ताहिक बाजार का एक दिवसीय सालाना रूप माना जा सकता है। ऐसा स्थान, जहां साप्ताहिक बाजार नहीं लगता, वहां ग्रामवासी आपसी राय कर मड़ई का दिन निर्धारित करते हैं। मोटे तौर पर मेला और मड़ई में यही फर्क है।

मड़ई का सिलसिला शुरू होने के पहले, दीपावली के पश्चात यादव समुदाय द्वारा मातर का आयोजन किया जाता है, जिसमें मवेशी इकट्‌ठा होने की जगह- 'दइहान' अथवा निर्धारित स्थल पर बाजार भरता है। मेला-मड़ई की तिथि को खड़खड़िया और सिनेमा, सर्कस वाले भी प्रभावित करते थे और कई बार इन आयोजनों में प्रायोजक के रूप में इनकी मुख्‍य भागीदारी होती थी। दूसरी तरफ मेला आयोजक, खासकर सिनेमा (टूरिंग टाकीज) संचालकों को मेले के लिए आमंत्रित किया करते थे और किसी मेले में टूरिंग टाकीज की संख्‍या के आधार पर मेले का आकार और उसकी महत्ता आंकी जाती थी। मेला-मड़ई के संदर्भ में सप्‍ताह के निर्धारित वार पर भरने वाले मवेशी बाजार भी उल्लेखनीय हैं। मैदानी छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि में व्‍यापारी नायक-बंजारों के साथ तालाबों की परम्परा, मवेशी व्यापार और प्राचीन थलमार्ग की जानकारी मिलती है। कई पुस्‍तकें ऐसे ठिकानों पर ही आसानी से मिल पाती हैं और जिनसे लोकरुचि का अनुमान होता है।
बस्तर के जिलों में मड़ई की परम्परा है, जो दिसम्बर-जनवरी माह से आरंभ होती है। अधिकतर मड़ई एक दिन की ही होती है, लेकिन समेटते हुए दूसरे दिन की 'बासी मड़ई' भी लगभग स्वाभाविक अनिवार्यता है। चूंकि मड़ई, तिथि-पर्व से संलग्न सप्ताह दिवसों पर भरती है, इसलिए इनका उल्लेख मोटे तौर पर अंगरेजी माहों अनुसार किया जा सकता है। केशकाल घाटी के ऊपर, जन्माष्टमी और पोला के बीच, भादों बदी के प्रथम शनिवार (सामान्यतः सितम्बर) को भरने वाली भंगाराम देवी की मड़ई को भादों जात्रा भी कहा जाता है। भादों जात्रा के इस विशाल आयोजन में सिलिया, कोण्गूर, औवरी, हडेंगा, कोपरा, विश्रामपुरी, आलौर, कोंगेटा और पीपरा, नौ परगनों के मांझी क्षेत्रों के लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताओं को लेकर आते है।
भंगाराम देवी प्रमुख होने के नाते प्रत्येक देवी-देवताओं के कार्यों की समीक्षा करती है और निर्देश या दंड भी देती है। माना जाता है कि इस क्षेत्र में कई ग्रामों की देव शक्तियां आज भी बंदी है। यहां के मंदिर का सिरहा, बंदी देवता के सिरहा पुजारी से भाव आने पर वार्ता कर दंड या मुक्ति तय करता है। परम्परा और आकार की दृष्टि से भंगाराम मड़ई का स्थान विशिष्ट और महत्वपूर्ण है।

मड़ई के नियमित सिलसिले की शुरूआत अगहन पूर्णिमा पर केशरपाल में भरने वाली मड़ई से देखी जा सकती है। इसी दौर में सरवंडी, नरहरपुर, देवी नवागांव और लखनपुरी की मड़ई भरती है। जनवरी माह में कांकेर (पहला रविवार), चारामा और चित्रकोट मेला तथा गोविंदपुर, हल्बा, हर्राडुला, पटेगांव, सेलेगांव (गुरुवार, कभी फरवरी के आरंभ में भी), अन्तागढ़, जैतलूर और भद्रकाली की मड़ई होती है। फरवरी में देवरी, सरोना, नारायणपुर, देवड़ा, दुर्गकोंदल, कोड़ेकुर्से, हाटकर्रा (रविवार), संबलपुर (बुधवार), भानुप्रतापपुर (रविवार), आसुलखार (सोमवार), कोरर (सोमवार) की मड़ई होती है।

संख्‍या की दृष्टि से राज्य के विशाल मेलों में एक, जगदलपुर का दशहरा मेला है। बस्तर की मड़ई माघ-पूर्णिमा को होती है। बनमाली कृष्णदाश जी के बारामासी गीत की पंक्तियां हैं-
''माघ महेना बसतर चो, मंडई दखुक धरा। हुताय ले फिरुन ददा, गांव-गांव ने मंडई करा॥'' बस्तर के बाद घोटिया, मूली, जैतगिरी, गारेंगा और करपावंड की मड़ई भरती है। यही दौर महाशिवरात्रि के अवसर पर महाराज प्रवीरचंद्र भंजदेव के अवतार की ख्‍यातियुक्‍त कंठी वाले बाबा बिहारीदास के चपका की मड़ई का है, जिसकी प्रतिष्ठा पुराने बड़े मेले की है तथा जो अपने घटते-बढ़ते आकार और लोकप्रियता के साथ आज भी अंचल का अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजन है। मार्च में कोंडागांव (होली जलने के पूर्व मंगलवार), केशकाल, फरसगांव, विश्रामपुरी और मद्देड़ का सकलनारायण मेला होता है। दन्तेवाड़ा में दन्तेश्वरी का फागुन मेला नौ दिन चलता है।
अप्रैल में धनोरा, भनपुरी, तीरथगढ़, मावलीपदर, घोटपाल, चिटमटिन देवी रामाराम (सुकमा) मड़ई होती है। इस क्रम का समापन इलमिड़ी में पोचम्मा देवी के मई के आरंभ में भरने वाले मेले से होता है।

मेला-मड़ई के स्वरूप में समय के कदमताल, परिवर्तन अवश्य हुआ है, किन्तु धार्मिक पृष्ठभूमि में समाज की आर्थिक-सामुदायिक आवश्यकता के अनुरूप इन सतरंगी मेलों के रंग की चमक अब भी बनी हुई है और सामाजिक चलन की नब्ज टटोलने का जैसा सुअवसर आज भी मेलों में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।

मेला के अलावा तालाब और ग्राम देवता, दो अन्‍य ऐसे विषय हैं, बचपन से ही जिनकी बातें करते-सुनते मेरा मन कभी नहीं भरता। वैसे तो मैंने तालाब तथा ग्राम देवता पर भी कुछ-न-कुछ लिखा है लेकिन यहां प्रस्‍तुत मेला सहित उन विषयों पर लिखा मेरा लेख हमेशा अधूरा, कच्‍चा-सा लगता है।

यह लेख मेरे द्वारा, 'अस्मिता शंखनाद' मासिक पत्रिका के फरवरी-मार्च-अप्रैल 2006 अंक मड़ई-मेला-पर्यटन के लिए अतिथि संपादक श्री राम पटवा और डॉ. मन्नूलाल यदु जी के कहने पर तैयार किया गया। इसके बाद यह विभिन्न स्थानों पर, ज्यादातर मेरी बिना जानकारी के और बेनामी, जिसमें विकीपीडिया भी है, इस्तेमाल हुआ। कुछ कद्रदानों ने इसे अपने नाम से भी छपा लिया, इन सभी योगदान को छत्‍तीसगढ़ की संस्‍कृति के प्रचार के रूप में देखता हूं, अतः किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं, यह जिक्र इसलिए है क्‍योंकि यह एक प्रमुख कारण भी बना, अपनी लिखी नई-पुरानी सामग्री के साथ यह ब्लाग 'सिंहावलोकन' आरंभ करने का।

Tuesday, April 12, 2011

बस्‍तर में रामकथा

सन 1998 में रामकथा के तीन ग्रंथों का प्रकाशन मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क विभाग से हुआ। क्रम से नाम लें तो हलबी रामकथा, माड़िया रामकथा और मुरिया रामकथा। ग्रंथों के सम्पादक प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल हैं तथा हलबी रामायण में उनके नाम के साथ संग्राहक और अनुवादक भी उल्लिखित है। ग्रंथ में छपा है मूल्य : आदिवासियों में निर्मूल्य वितरण। वैसे तो सेंटीमीटर और ग्राम में माप-तौल भी हो सकती है, लेकिन किसी ग्रंथ का ऐसा तथ्‍य-आग्रही मूल्य-महत्व बताना वाजिब नहीं, सो भारी-भरकम इन ग्रंथों का आकार कल्याण के विशेषांक जैसा और पृष्ठ संख्‍या क्रमशः 688, 454 और 644 है।
प्रथम खण्ड माड़िया रामकथा (कोयामाटते रामना पाटा-वेसोड़) लिंगो ना वेहले पाटा (गोंडी रामकथा मंजूषा) के लिए कहा गया है कि यह ''रामकथा'' बस्तर की माड़िया-जनजातियों की वाचिक परम्परा की पुनर्रचना है। यह भी बताया गया है कि बस्तर की माड़िया जनजाति दो वर्गों में विभाजित है- अबुझमाड़ की अबुझमाड़िया, तथा दक्षिण बस्तर की दंडामी माड़िया।

अबुझमाड़िया तथा दंडामी माड़िया यद्यपि जातीय नाम से समान हैं, किन्तु इनकी बोलियां आपस में दुर्बोध हैं। अबुझमाड़िया मुरिया के बहुत अधिक निकट है। कोई भी मुरिया अबुझमाड़िया को आसानी से समझ सकता है, किन्तु किसी दंडामी माड़िया के लिए अबुझमाड़िया एक अबूझ पहेली है।

प्रो. हीरालाल शुक्ल
संपादक ने स्पष्ट किया है कि- ''रामकथा की पुनर्रचना के लिए सबसे पहले मैंने इनके मौखिक साहित्य में व्याप्त रामकथा के संदर्भों का संकलन किया था और तदुपरांत टूटी हुई कड़ियों का तुलसीदास के रामचरितमानस के प्रसंग में ढालने का प्रयास किया।''

ग्रंथ की भूमिका में यह उपयोगी और रोचक स्पष्टीकरण है कि गोंडी की सभी बोलियों में लोकगीत के लिए पाटा शब्द समान रूप से प्रचलित है। लोककथाओं के यहां तीन रूप मिलते हैं-
(क) सामान्य कथा के लिए अबुझमाड़िया में पिटो, दंडामी माड़िया में वेसोड़, तथा दोर्ली में शास्त्रम शब्द प्रचलित है। 
(ख) पौराणिक और धार्मिक कथाओं के लिए दंडामी माड़िया तथा दोर्ली में पुरवान शब्द प्रचलित है, जो पुराण का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है।
(ग) दंडामी माड़िया में वेसोड़ किसी कथा का वाचक है, जबकि दोर्ली में यह गीतकथा का उपलक्षक है। दंडामी माड़िया में गीतकथा के लिए पाटा-वेसोड़ शब्द प्रचलित है।

द्वितीय खण्ड मुरिया-रामचरितमानस लिंगोना वेहले पाटा (गोंडी रामकथा मंजूषा) में संपादक के अनुसार वे लगभग तीन दशकों तक मुरिया समाज में रामचरितमानस के गोंडी प्रारूप पर घोटुल के युवक-युवतियों के साथ बैठकर 'पाटा' बनाते रहे। उन्हीं के शब्दों में ''मैं इन युवक-युवतियों को मुरिया गोंडी में रामचरितमानस का अर्थ समझाता और अपने आशु कवित्व के कारण ये शीघ्र पाटा पारने लगते। दो दशक के बाद समूचे रामचरितमानस का इसीलिए (सन 1977 में) मुरिया में अनुवाद संभव हो सका।'' इसके साथ मुरिया रामकथा के 36 लोक-गायकों और 4 गायिकाओं की सूची दी गई है।

हलबी रामकथा की भूमिका में संपादक का कथन है- ''1962 से 1992 के मध्य तीन दशकों तक मेरे द्वारा सम्पादित प्रेरित या लिखित अब तक दर्जनों ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें रामकथा, गुंसाई-तुलसीदास तथा हलबी-रामचरित मानस (अक्षरशः सम्पूर्ण अनुवाद) उल्लेखनीय है। प्रस्तुत ''हलबी-रामकथा-मंजूषा'' में अब तक अप्रकाशित शेष रचनाओं का संग्रह है।

हलबी रामकथा के संपादकीय का अंश है-
''रामचरितमानस'' भारतीय-साहित्यचो अनुपम गंगा आय। एचो अमरुतचो सुआदके सियान-सजन, माई-पीला पातो एसत। एचो थाहा पाउक नी होय। एचो खोलने, गड़ेयाने डुबकी मारुन गियानचो रतन पाउन-पाउन कितरोय लोग सवकार होते एसत।

ए बड़े हरिकचो गोठ आय कि हलबी 'रामचरित' असन मौंकाने मुर होयसे, जे मौंकाने आमचो देश आजादी चो '50वीं बरिसगांठ' मनाएसे। 'रामचरितमानस' चो लिखलो 500 बरख पूरली।

मके बिसवास आसे कि ए किताबचो अदिक चलन होयदे। बस्तरचो बनवासी-रयतचो सांस्कृतिक भूक बुतातो उवाटने ए पोथी खिंडिक बले साहा होली जाले, आजादीचो 50वीं बरिसगांठ चो भाइग होली समझा।

पश्‍च-लेखः

ऊपर का लगभग पूरा हिस्सा इन ग्रंथों से लिया गया है। अब कुछ अपनी बात। वैसे तो थोड़ा कान खुला रखने वाले हिंदीभाषी के लिए समझना मुश्किल नहीं, फिर भी हलबी वाले पहले पैरा का अनुवाद इस तरह होगा-

रामचरितमानस भारतीय साहित्य की अनुपम गंगा है। इसके अमृत का स्वाद बड़े-बुजुर्ग, अबाल-वृद्ध पाते रहते हैं। इसकी थाह पाई नहीं जाती। इसकी गहराई में उतर कर, डुबकी मार के (लगाकर), ज्ञान का रत्न पा-पाकर कितने ही लोग साहूकार (सम्पन्न) होते रहते हैं।

भाषाई दृष्टि से अर्द्ध-मागधी या पूर्वी हिंदी की एक जबान (यहां तकनीकी-पारिभाषिक प्रयोजन न होने के कारण भाषा, बोली, उपभाषा के बजाय 'जबान' से काम चलाने का प्रयास है) छत्तीसगढ़ी है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी के साथ उत्तरी भाग में सरगुजिया और दक्षिण में हलबी स्वरूप, व्यापक और लगभग संपूर्ण संपर्क माध्यम है। पेवर छत्तीसगढ़ी (ठेठ-खांटी छत्तीसगढ़ी में शुद्ध के लिए शायद अंगरेजी 'प्योर' का अपभ्रंश पेवर शब्द प्रचलित है) या मध्य मैदानी छत्तीसगढ़ की जबान में भोजपुरी-मगही स्वाद लिए सरगुजिया (सादों या सादरी सहित) और मराठी महक व उड़िया छौंक वाली हलबी की भाषाशास्त्रीय विविधता रोचक है ही, इनकी वाचिक परम्परा के रस से थोड़ा परिचित होते ही, अरसिक भी इनमें ऊभ-चूभ होने लगता है। अपनी कहूं तो पहली जबान छत्तीसगढ़ी के बाद दोनों मौसियों सरगुजिया और हलबी से परिचित होने पर मुझे मातृभूमि पर सकारण गर्व होने लगा और भारतमाता के समग्र सांस्कृतिक रूप का कुछ अनुमान हो पाया।

त्वरित संदर्भ के लिए यह कि बस्तर अंचल पौराणिक-ऐतिहासिक दण्डकारण्य और महाकान्तार के नाम से जाना जाता था। पूर्व रियासत बस्तर का मुख्‍यालय आज की तरह ही जगदलपुर रहा, वैसे पुरातात्विक प्रमाणयुक्त बस्तर नाम का एक छोटा गांव भी जगदलपुर के पास ही है। रियासत के बाद बस्तर जिला, फिर संभाग बना। फिर उत्तरी बस्तर कांकेर जिला बना और दक्षिणी हिस्सा दंतेवाड़ा। सन 2007 से बीजापुर और नारायणपुर जिलों के गठन के बाद, अब 18 जिलों और 4 संभाग वाले छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर संभाग में 6, सरगुजा में 4, बिलासपुर में 3 तथा बस्तर संभाग में 5 जिले हैं।

कुछेक विद्वान रावण की लंका को बस्तर में ही मानते हैं। बस्तर के भाषाई-सांस्कृतिक सेतु स्वरूप इस ग्रंथ की तैयारी और प्रकाशन के दौरान न सिर्फ इसकी खोज-खबर रही, बल्कि एकाध अवसर पर मैंने सेतुबंध की गिलहरी-सा उत्साह भी महसूस किया था, वह आज रामनवमी पर याद कर रोमांचित हूं।

श्री हरिहर वैष्‍णव द्वारा ई-मेल से बस्‍तर में रामकथा पर प्राप्‍त महत्‍वपूर्ण सूचना (टिप्‍पणी के रूप में प्रकाशित) तथा दो छायाचित्र नीचे लगाए गए हैं -