Friday, December 2, 2022

बिलासपुर भास्कर: कल, आज और कल

सितंबर 2022, पहला हफ्ता। रात साढ़े दस बज गए हैं, फोन आता है। यह अक्सर अखबार वालों के फोन का समय होता है, फोन पर बात पूरी करने के बाद बता-दुहरा दिया करता हूं कि नींद से उठकर बात कर रहा हूं और ‘जागते रहो‘ वाला रिटर्न गिफ्ट दूंगा, कल सुबह-सुबह फोन कर के। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। फोन बिलासपुर वाले हर्ष पांडेय जी का था, दुआ-सलाम और एकाध औपचारिक बातों के साथ, बिलासपुर भास्कर प्रकाशन के 29 वर्ष पूरे होने पर पांचेक सौ शब्द में बिलासपुर कल, आज और कल, जैसा कुछ लिख कर देने का आग्रह।


बिलासपुर भास्कर के 1993 वाले आरंभिक दिनों को याद करता हूं। हमारे दफ्तर और संग्रहालय के बीच रास्ते, रेस्ट हाउस के सामने, तहसील चौक पर भास्कर प्रेस होता था। हर दूसरे चौथे दिन हमलोग, बिलासपुर के आयोजन पुरुष रामबाबू सोनथलिया जी और प्रेस के लोगों से मिलने वहां ठहर जाते। बिलासपुर भास्कर से इस तरह का पड़ोसी रिश्ता तब भी बना रहा, जब वह नार्मल स्कूल-हाई कोर्ट के सामने आ गया। यह मेरे निवास का पड़ोस था। मेरे लिए श्री बुक डिपो और कोचिंग के रास्ते के बीच। यह करीबी रिश्ता बना रहा। सुशील पाठक जैसे तब के कुछ साथी अब नहीं रहे। भास्कर परिवार के दिवाकर मुक्तिबोध, संजय द्विवेदी, अविनाश कुदेशिया, मनीष दवे से मोल-जोल बना रहा।

प्राण चड्ढा जी से लगभग रोज की मुलाकात थी। वे बरास्ते फोटोग्राफी और वन्य-जीवन, शौकिया अखबारों से जुड़े और भास्कर के संपादक रहे, सेवानिवृत्ति के बाद भी भास्कर परिवार से जुड़े रहे। छत्तीसगढ़ राज्य बनने की आहट थी, उनके और प्रेस परिवार के मशविरे पर योजना बनी कि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशिष्टता पर भास्कर के लिए लिखूं। शीर्षक तय हुआ ‘छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़िया‘। छत्तीस दिनों में छत्तीस नोट तैयार करने थे। इनमें से बीस नोट 9 से 29 मई 1998 के बीच प्रकाशित हुए। भास्कर के प्रवीण शुक्ला जी, सुनील गुप्ता जी जैसे साथी अब संपादक हैं। इस दौरान खबर मिली की हर्ष जी ने भी सिटी चीफ से संपादक तक का सफर तय कर लिया है, उन्हें बधाई।

हर्ष जी की बात पर लगा कि इस दौरान थोड़ी आमदरफ्त और लिखना-पढ़ना हाथ में लिया हुआ है कि तुरंत नहीं कर पाया तो यह पक्का लटका रह जाएगा। इसलिए उनसे फोन पर हुई बात का ही सूत्र पकड़ कर ब्रह्म मुहूर्त में नोट्स लेने लगा। यह ध्यान में था कि लोग सामान्यतः विवरणात्मक लिखेंगे, इसलिए दुहराव न हो, कुछ अलग हो। अलग इतना भी न हो कि अप्रासंगिक हो कर, हास्यास्पद हो जाय, सहज पठनीय प्रवाहमय, अपना-अपना सा लगे। नोट पूरा करते हुए देखा कि यही 500 शब्द हो गए हैं तो बस सुबह-सुबह साढ़े छह बजे, फोन आने के आठ घंटे बाद, जिसमें लगभग सात घंटे नींद के थे, जो रिटर्न गिफ्ट वाट्सएप पर भेजा वही यहां-

बिलासपुर: कल आज और कल

छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख शहर, रायपुर और बिलासपुर से मेरा ताल्लुक लगभग बराबर रहा है। शहरों का अपना मिजाज होता है, अपनी पहचान होती है और वह सिर्फ भवनों, सड़कों, प्रतिष्ठानों से ही नहीं, शहर के निवासियों से अधिक होती है। बिलासपुर के आत्मीय स्वभाव और रायपुर के कामकाजी-व्यावसायिक स्वभाव को फोन पर होने वाली बात से समझने का प्रयास करें। रायपुर में अभिवादन और कुशल-क्षेम के बाद फोन करने वाला, फोन करने के प्रयोजन पर न आए तो अगला उससे पूछ लेता है, ‘अच्छा, ठीक है, बताओ फोन कैसे किया?‘ दूसरी तरफ ठेठ बिलासपुर के फोन वार्तालाप में दो-चार मिनट देश-दुनिया, आगत-विगत की बात होती है और कई बार तो विदा भी, तब दूसरी बार फोन आता है कि ‘असल में फोन इसलिए किया था ...‘। यह पहचान किसी व्यक्ति-विशेष के गुण-दोष से नहीं, समय के साथ, अपने-आप, शहर की अपनी पहचान-‘सिगनेचर‘ जैसा विकसित होता है। मेरे लिए बिलासपुर, एक ऐसा ही आत्मीय शहर है।

शहरों के साथ इतिहास का वैसा आग्रह उचित नहीं होता कि उसके शिलान्यास और लोकार्पण की तिथि और मुख्य अतिथि निर्धारित करने लगें। उसका तो वैसा ही होना फभता है, जैसा बिलासपुर के साथ है, यानि आस्था और विश्वास से सराबोर मान्यता-दंतकथा। बिलासपुर, रतनपुर राज का कैम्प रहा, वहां जाजल्लदेव जैसे राजा भी हुए, जिनके नाम पत्थर पर खुदे हैं, प्राचीन राजधानी महामाया मंदिर के साथ वाहरसाय के नाम का शिलालेख है, मगर वह पत्थरों पर खुदी इबारत बन कर जड़ है। दूसरी तरफ, गोपालराय बिंझिया या गोपल्ला वीर और कल्याण साय का नाम, लोगों के मन-प्राण और जबान पर रहा, अमूर्त, और चला आ रहा है। कह सकते हैं- तू कहता पत्थर की लेखी, मगर आंखों की देखी हो न हो, मन में तो बसी और कायम है, ऐसा ही जीवन-स्पंदन नाम है ‘बिलासा‘, जिससे बिलासपुर शहर की धड़कन और असल पहचान है।

अरपा और जवाली नाले का संगम बसाहट का मंच बना। अरपा के दाहिने और जवाली के दाहिने, जुना बिलासपुर के साथ किला वार्ड, तो जवाली के बांयें शनिचरी पड़ाव। पहले-पहल तीन मालगुजारी गांव- बिलासपुर, चांटा और कुधुरडांड, यानि अब के जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड मिलकर आधुनिक बिलासपुर बने। रेलवे के साथ पेट्रोलियम डिपो, डीपूपारा बना, रेलवे की ही सीमा पर तार-घेरा के दूसरी ओर तारबाहर और चहारदीवारी सीमा के बाहर देवालबंद या दयालबंद। कतियापारा, गोंडपारा, तेलीपारा, घसियापारा, करबला, टिकरापारा, मसानगंज पर नगर, वार्ड, कॉलोनी की परतें चढ़ने लगीं और एसईसीएल, रेल-जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी नई पहचान बनी। मगर शहर के दिल की आदिम धड़कन, जो जुना बिलासपुर और गोलबाजार-गोंडपारा में थी, सरकंडा तक फैल गई अब भी उसी तरह यहीं धड़कती है। खांटी बिलसपुरिहा भाषा और लहजे से जान लेता है कि अगला गोंडपारा वाला है या नदी पार का। शहर का मिजाज, उसकी नब्ज आज भी यहीं आसानी से टटोली जा सकती है। फैलते शहर में शामिल होते गांव, कॉलोनी और सोसाइटी में बदलते जा रहे हैं, बदलते जाएंगे, मगर शहर की पहचान, उसकी अंतर्धारा, उसकी आत्मीय उष्मा जस की तस बनी रहे।

2 comments:

  1. बेहतरीन ।

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  2. बिलासपुर के बारे मे बहुत ही रोचक जानकारी .. बहुत बढ़िया लेख

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