Thursday, December 15, 2022

पुरानी खड़ी बोली

हरि ठाकुर जी ने छत्तीसगढ़ की गौरव-गाथा को कण-कण समेटा, उसका एक नमूना यह लेख, जिसकी हस्तलिखित प्रति आशीष सिंह जी ने उपलब्ध कराई, उनका आभार। लेख के प्रकाशन की जानकारी नहीं मिली है। यहां प्रस्तुत-


दक्षिण कोसल में सोलहवीं शताब्दी की खड़ी बोली का नमूना 

कितने आश्चर्य की बात है कि पन्द्रहवीं शताब्दी की खड़ी बोली के गद्य का नमूना हमें उस क्षेत्र प्राप्त हुआ है जहां अब पूर्णरूप से उडिया भाषा बोली जाती है। छत्तीसगढ़ से लगा हुआ उड़ीसा प्रदेश का एक जिला है सुन्दरगढ़। इस जिले के बड़गाँव थाने के अन्तर्गत बरपाली नामक गाँव में एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसकी भाषा प्रारंभिक खड़ी बोली है। सम्पूर्ण लेख नागरी लिपि तथा गद्य में है। वह ताम्रपत्र लेख ‘एन्सियेंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडिशन्स‘ नामक शोध पत्रिका में श्री के.एस. बेहरा ने प्रकाशित किया है। 

अठारहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कोसल या दक्षिण कोसल कहलाता था। इस दक्षिण कोसल की भौगोलिक सीमा का वर्णन करते हुए श्री एस.सी. बेहरा ने अपने शोध निबंध में लिखा है- रायपुर, बिलासपुर, सम्बलपुर, सुन्दरगढ़, बोलांगीर, कालाहांडी, बौद-फूलबनी और कोरापुट- ये क्षेत्र दक्षिण कोसल में थे। रायपुर और बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हैं ही। शेष जिले उड़ीसा में हैं। उक्त निबंध के लेखक ने रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग और राजनांदगाँव जिलो को भूलवश छोड़ दिया है। वस्तुतः ये जिले प्राचीन दक्षिण कोसल में ही थे। बस्तर का कुछ हिस्सा दक्षिण कोसल में था। शेष दण्डकारण्य कहलाता था।

सन् १७५० में छत्तीसगढ़ पर मराठों का अधिकार हो गया। लगभग उसी समय यह सम्पूर्ण क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाने लगा। उस समय भी उड़ीसा के उपर्युक्त जिले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन राजा बिम्बाजी के अधीन थे और छत्तीसगढ़ के ही परगना माने जाते थे। सन् १९०५ में बंग-भंग के समय छत्तीसगढ़ के ये उड़ियाभाषी जिले उड़ीसा में मिला दिए गये। इस प्रकार यदि देखा जाये तो इस ताम्रपत्र को दक्षिण कोसल या छत्तीसगढ़ का माना जा सकता है। किन्तु, तथ्य यह है कि वर्तमान में बरपाली उड़ीसा में है। 

इस ताम्रपत्र के प्रदाता थे हम्मीर देव जो सुन्दरगढ़ राज्य के शासक थे। वे परमार शेखर राजवंशके प्रारंभिक राजा थे। यह ताम्रपत्र लेख वस्तुतः एक दानपत्र है। यह दानपत्र राजा हमीरदेव ने अपने स्वर्गीय पिता के आदेश का पालन करने हेतु राजगुरु श्री नारायण बीसी को प्रदान किया था। दानपत्र में राजगुरु को बरपाली गांव दान में देने का उल्लेख है। दान पत्र पर विक्रम तिथि अंकित है तदनुसार २४ जनवरी १५४४ ई. की तारीख पड़ती है। उस दिन सूर्य ग्रहण पड़ा था। 

हमीरदेव का ताम्रपत्र लेख

(१) 
‘‘ सोस्ती श्री माहाराजा धीराज माहाराज
श्रीश्री हंमीर देव के राजगुरु श्री
नारायण वीसीई को परनाम पूर्व
सो पीता स्यामी का हुक्म था
के एक गांव कुसोदक दे देना सो
बमौजी व हुकुम पीता जी के
वो अपने घुसी में मौजे बरपाली

(२)
गांव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन
में कुसोदक कर दिआ पुत्र पौत्र
भादीक भोग किया करो जावत
चन्द्र दीवाकर रहेगे तावत भोग
करोगे वौ गार्गवंस वीन्द होगा
औवर जो कोहि होय सो जगह
को ग्राश्चन्ही करेगा तारीफ १५
पुस समत १६०० साल सही ‘‘

भाषा की दृष्टि से दान-पत्र का यह लेख ऐतिहासिक महत्व रखता है। उड़िया भाषी क्षेत्र में इस दान पत्र का प्राप्त होना इस बात का संकेत करता है कि सोलहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र की भाषा वही थी जो इस दानपत्र में है। कम से कम राज-काज की भाषा तो यह निश्चित रूप से ही थी, यह ताम्रपत्र लेख से स्वयं प्रमाणित है। निश्चय ही इस भाषा को उस समय की जनता समझ सकती थी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि सुन्दगढ़ राज्य छतीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ है। छत्तीसगढ़ के राजाओं के कामकाज की भाषा भी लगभग यही थी।

इस लेख की दूसरी विशेषता है कि वह शुद्ध गद्य में है और खड़ी बोली में है। इसकी भाषा पर हमें ब्रज या अवधी का कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। खड़ी बोली के व्याकरण के अनुसार इस प्रकार की भाषा का इस क्षेत्र में प्राप्त यह प्रथम और दुर्लभ लेख है।

लेख में हिज्जे की अनेक त्रुटियां हैं। ये त्रुटियां ताम्रपत्र पर लेख को उत्कीर्ण करने वाले की भी हो सकती हैं। स्वस्ति को सास्ति, महाराजा का माहाराजा, वीसी को बीसीई, पूर्वक को पुर्व पिता को पीता, स्वामी को स्यामी, एक को येक, कुशोदक को कुसोदक, खुशी को घुसी, गांव को गाव, आसीमांत को आसीन्त, सूर्य को सुर्ज्य, दिशा को दिआ, पौत्रादिक को पौत्रादीक, यावच्चंद्र को जावतचन्द्र, दिवाकर को दीवाकर, व या औ को वौ, वृन्द को वीन्द और को अवर, कोई को कोहि, ‘ग्रहण नहीं‘ को ग्राश्चन्हीं, तारीख को तारीक, पूस को पुस, संवत् को समत लिखा गया है। ये त्राुटियाँ दान-पत्र को लिपिबद्ध करने वाले की भी हो सकती हैं।

लेख की अन्य विशेषता है- संस्कृत तथा अरबी-फारसी के शब्दों का एक साथ प्रयोग। संस्कृत के शब्द स्वस्ति, कुशोदक, आसीमान्त, यावच्चन्द्र दिवाकर आदि प्रयोग इस बात का घोतक है कि दान पत्र लिखने वाला संस्कृत का पंडित था। साथ ही वह उर्दू के शब्दों से भी परिचित था जैसे बमौजी, हुकुम, खुशी, मौजा, तारीख, साल आदि। उर्दू शब्दों के प्रयोग से यह भी सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र की राज-काज की भाषा पर उर्दू का प्रभाव पड़ चुका था।

लेख में १५ पंक्तियां हैं। ताम्रपत्र के प्रथम पृष्ठ पर ७ पंक्तियां हैं। द्वितीय पृष्ठ पर ८ पंक्तियां हैं। खड़ी बोली के गद्य के विकास का अध्ययन करने वालों के लिए यह लेख पर्याप्त रुचिपूर्ण हो सकता है।

उपर्युक्त लेख में की पंक्ति क्रमांक १२ में बीन्द शब्द आया है। इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभवतः यह वृन्द के अर्थ में आया हो। वस्तुतः यहाँ पर ‘‘गोत्र‘‘ शब्द होना चाहिए था। इस लेख को आज की भाषा में इस प्रकार लिखा जायेगा-

‘‘स्वस्ति श्री महाराजा धिराज महाराज श्री श्री हम्मीर देव के राजगुरु श्री नारायण वीसी को प्रणाम पूर्वक सो पिता स्वामी का हुक्म था कि एक गांव कुशोदक दे देना सो बमौजी (स्वेच्छा से) व हुक्म पिताजी के व अपनी खुशी से मौजा बरपाली गाँव आसीमांत सूर्यग्रहण में कुशोदक कर दिया (कि) पुत्र पौत्रादिक भोग किया करो यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे तब तक भोग करोगे और गर्ग वंश गोत्र में रहेगा और जो कोई भी हो इस जगह (गाँव) को अधिग्रहण नहीं करेगा तारीख १५ पूस संवत् १६०० साल सही।‘‘

सोलहवीं शताब्दी के पूर्व की खड़ी बोली के कुछ नमूने उपलब्ध हैं जैसे पृथ्वीराज, मेवाड़ के राजा रावल समर सिंह, महात्मा गोरखनाथ, तथा स्वामी विट्ठलनाथ जी को पत्र। किन्तु इन पत्रों की भाषा को खड़ी बोली का गद्य कहना न्यायोचित नहीं कहा सकता। खड़ी बोली का उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण अमीर खुसरो का है किन्तु उसकी भाषा पर भी ब्रज भाषा का गहरा प्रभाव है। दूसरी बात, उनकी रचनाएं पद्य में हैं।

प्रस्तुत ताम्रपत्र लेख की खड़ी बोली के गद्य के समकक्ष स्वामी विट्ठल नाथ जी का यह गद्यांश रखा जा सकता है-

‘‘स्वामी तुम्हैं तो सतगुरु अम्हे तो लिष सबद एक पूछिवा दया करि कहिबा, मन न करिबा रोस। पराधीन उपरांति बन्धन नाहीं, सो आधीन उपरांति मुकुति नाई। यह भी १६००वीं शताब्दी का गद्य है। अब इसी के समकक्ष समकालीन दक्षिण कोसल के ताम्रपत्र लेख के लेख को गद्य की भाषा से तुलना कीजिए-
 
‘‘ सो पीता स्वामी का हुक्म था के येक गाँव कुसोदक दे देना सो बमौजी व हुकुम पीताजी के वो अपने घुसी में मौजे बरपाली गाँव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन में कुसोदक कर दिआ।‘‘

यदि इस गद्य को लिपिबद्ध करने वाले ने हिज्जे के प्रति सावधानी रखी होती तो यह अपने समय के उत्कृष्ट गद्य का उदाहरण होता फिर भी मेरे विचार से इन दोनों उदाहरणों में से यह दूसरा उदाहरण खड़ी बोली का अधिक शुद्ध रूप है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि खड़ी बोली के गद्य का यह नमूना हमें अहिंदी क्षेत्र से प्राप्त हुआ है जो इस बात का भी प्रमाण है कि अहिन्दी क्षेत्र में भी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी प्रचलित थी और राजकाज की भाषा थी।
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2 comments:

  1. हिज्जे में त्रुटि की एक वजह ताम्रपत्र लिखने वाला भी हो सकता है। अक्सर देखा गया है कि पेंटर इसी तरह की त्रुटि करते हैं। वैसे हिंदी इन्हीं तरह की लोकभाषाओं को सुधार कर बनी है।

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  2. उस इलाके में आज भी सूर्य को सुर्ज्य ही कहते होंगे

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