संग्रह की पहली कहानी ‘जुगनू‘ में बेसब्री और बस शब्द का इस्तेमाल, आगे चल कर बस खड़ी होने के बाद बस के आते ही की बात, ‘मदारी ने भानुमति का पिटारा‘, उनके सहकर्मी या मातहत के बजाय पुलिस के अधिकारी कहना, ‘कमसिन उम्र‘, ‘हिम्मत नहीं थी‘ और आते ही सब को मलेरिया का दुहराव, और बाद में मलेरिया के बजाय निमोनिया, जैसी चूक से आरंभ में ही पाठकीय सुरुचि आहत होती है। उनमें साहित्यकार होने के प्रकट और मुखर लक्षण न दिखाई पड़ने के कारण कभी कहा जाता था कि उनके अनगढ़ लिखे को कोई दुरुस्त करता है, तब वे छपती हैं। यह कहानी, लगता है कि मांजने से रह गई है।
कहानी ‘भाग्य‘ बेटी-नारीत्व को एकदम अलग तरह से, लेकिन स्वाभाविक उभारा गया है, जिसके बीच एक पारंपरिक कहानी भी बुन दी गई है। कुछ अलग तेवर की कहानी ‘बड़े लोग‘ पढ़ते हुए सप्रे जी की एक टोकरी भर मिट्टी याद आती है। इस कहानी में बातों को कहने का अंदाज, प्रौढ़ कलम का नमूना है, जो ‘नंगी आंखों वाला रेगिस्तान‘ में पुष्ट होता है। ‘अपनी जमीन‘ बेबात सी बात को कहानी बना देने का अपना अंदाज है। लंबी कहानी ‘सूकी बयड़ी‘, जिसमें लेखिका ने मानों भटकते हुए वह मुकाम पा लिया, जिसकी उसे तलाश थी और इसलिए टेसूआ-कमला प्रसंग को उलझा छूटा रहने दिया है। ठहर कर, सुभीते से गुनी-बुनी-कही गई कहानी।
संग्रह की अंतिम दो कहानियां ‘समर‘ और ‘लाल गुलाब‘ साहित्यकार के जीवन-संस्मरण और कहानी के बीच आवाजाही का ऐसा नमूना है, जो आमतौर पर देखने में नहीं आता, यह लेखिका की पारदर्शिता और साहित्यिक निष्ठा का प्रतिबिंब है, जो पाठक के मन में उनके प्रति श्रद्धा भाव जगाता है। वे अपने ‘समर लोक‘ से अभिन्न हैं। कहानियां रचते हुए वे उस सम के आसपास हैं, जहां उनका जीवन उनके लिए फकत कहानी है। कहानी से कम न कहानी से ज्यादा। वे कहती हैं- ‘मैं लोगों के चेहरे पढ़ती हूं‘। निसंदेह उन्हें लोगों के चेहरे पढ़ना और पढ़े को कह देना आता है, लेकिन जिसे चेहरा पढ़ना न आता हो वह अनाड़ी भी उनकी तस्वीरों में उनकी मीनाकुमारियत को बेचूक पढ़ सकता है।
कहानी कहने में ऐसे बिंदु पर बात शुरु करना, जहां चौंकाने वाली नाटकीयता हो, जिज्ञासा पैदा हो, वाली शैली का वे खूब इस्तेमाल करती हैं। पारा-पड़ोस की कहानी, कुछ गढ़ कर, कुछ बढ़-बढ़ा कर सुना रहा हो। आसपास सहज बीतती जिंदगी दास्तान बना कर कही जाए तो कैसी विसंगत दिखती है, महसूस कराने में सिद्धहस्त हैं। सहज में विसंगति को पकड़ पाना और विसंगतियों को सहज निभा लेना, लगता है खुद जिया है, इसलिए अभिव्यक्त कर पाती हैं।
चलन है कि पाठक को बस पढ़ना होता है, पढ़े पर कोई प्रतिक्रिया हो तो आपस में बातें कर लेता है, लिख कर सार्वजनिक नहीं करता, और करे तो आलोचक/प्रचारक जैसा कुछ मान लिया जाता है। तलाश शुरू कि ‘खुन्नस क्यों है?‘ ‘आपसदारी निभाई जा रही है?‘ ‘चक्कर क्या है?‘ क्योंकि सामान्य पाठक को सिर्फ सामान्य नहीं, शायद मामूली भी माना जाता है। प्रतिनिधि रचनाएं, श्रेष्ठ संचयन, चुनी हुई कविताएं, लोकप्रिय कहानियां, जैसे संग्रहों में रचनाओं का काल और प्रकाशन संदर्भ दिया जाना दुर्लभ है, इससे लगता है कि पाठक को इससे परिचित कराना जरूरी नहीं माना जाता, उसे इसका अधिकारी नहीं माना जाता, जैसा यहां भी है।
प्रसंगवश याद करें तो छत्तीसगढ़ की महिला साहित्यकार, जो राष्ट्रीय स्तर पर जानी गई, लेकिन जिनकी अब चर्चा शायद ही होती है, उनमें मेहरुन्निसा जी के समानांतर दूसरा नाम निसंदेह डॉ. कुंतल गोयल ही होगा, जिन्हें 2009 में पंडित सुंदरलाल शर्मा, छत्तीसगढ़ राज्य साहित्य सम्मान प्राप्त हुआ। अमृता प्रीतम को छत्तीसगढ़ से जोड़कर यहां अक्सर याद कर लिया जाता है मगर ‘अहिरन‘ वाली मामोनी यानि इंदिरा गोस्वामी को शायद ही कभी। इसके साथ स्नेह मोहनीश ‘महापात्र‘, इंदिरा राय, शशि तिवारी, शांति यदु जैसे नाम भी हैं, जिन पर अब यदा-कदा ही चर्चा होती है। (यहां नाम जोड़ने-छोड़ने जैसी बात नहीं है। फिर भी स्पष्टीकरण कि छत्तीसगढ़ में ऐसी कई-एक महिला साहित्यकार हैं, जिनमें रायपुर की जया जादवानी वरिष्ठ हैं साथ ही पिछले दस वर्षों में युवा लेखिकाओं में जशपुर की अंकिता जैन, बिलासपुर-दुर्ग की मधु चतुर्वेदी, जांजगीर-रायपुर की श्रद्धा थवाईत और बीजापुर की पूनम वासम ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है, सक्रिय हैं।)
सर आपने संस्कृति और पुरातत्व पर बहुत अच्छी आर्टिकल लिखे है। सर मैं भी अकलतरा छत्तीसगढ़ से हूँ ,
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