सन् 1979 में दुर्गा महाविद्यालय से स्नातक हो कर, स्नातकोत्तर के लिए मैंने प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय का चयन किया। पुरातत्व में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए गुरूजी श्री डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर की प्रेरणा रही और फलस्वरूप न सिर्फ रायपुर बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के अनूठे शिक्षण संस्थान शासकीय दूधाधारी श्रीवैष्णव स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश हुआ।
1979 से 1981, स्नातकोत्तर अध्ययन के दो साल, मेरे लिए स्मरणीय हैं और रहेंगे बल्कि यादों से कहीं अधिक इस अवधि का प्रभाव स्वयं पर महसूस करता हूं। इस संस्था के प्रति मेरा भाव, सहपाठियों की याद सहित महाविद्यालय और छात्रावास के भवन और गुरुजन की स्मृति के रूप में मेरे साथ जुड़ा है। सर्वप्रथम गुरू डॉं. लक्ष्मीशंकर निगम, प्राचार्य डॉं. रामनिहाल शर्मा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र, डॉ. सुल्लेरे, डॉ. लक्ष्मीकांत शर्मा, डॉ. श्रीवास्तव/ पाठक, कान्हे और जैन मैडम/ स्वामी, नाग, पाण्डेय, चौधरी, सारस्वत, कान्हे, अग्रवाल सर और इन सब के साथ ग्रंथपाल श्रीमती छवि चटर्जी। संस्कृत अध्ययन के वातावरण में यहां अधिकतर विद्यार्थी आयुर्वेदिक कॉलेज में प्रवेश के इच्छुक होते थे। कुछ छात्रसंघ की राजनीति के लिए यहां आते, कुछ की रुचि संस्कृत में होती, तो कुछ को छात्रवृत्ति का आकर्षण होता, बहरहाल ये सब संस्कृत वाले होते थे लेकिन हम पुरातत्व के विद्यार्थी ऐसे होते थे जो संस्कृत महाविद्यालय के छात्र होकर भी संस्कृत को विषय के रूप में नहीं पढ़ते थे।
इस तरह संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ने वालों और संस्कृत न पढ़ने-पढ़ाने वालों का अलग वर्ग था। बावजूद इसके कि संगत का लाभ सदैव और बराबर एक-दूसरे को मिलता था। अल्पमत में होने के बावजूद भी हमारी भिड़ंत अक्सर संस्कृत वालों से हो जाया करती थी। संस्कृत के लोग, उसे देवभाषा कहते तो हम उस की भाषा वैज्ञानिकता और व्याकरण नियम पर कुतर्कपूर्ण टिप्पणी करते कि इसमें कोट पहले सिल लिया जाता है और उसके अनुसार हाथ-पैर छिलकर फिटिंग लाई जाती है यानि संस्कृत में बोलने की स्वाभाविकता पर व्याकरण के कठोर नियम हावी रहते हैं। ऐसे सभी तर्क-वितर्क के बावजूद विद्यार्थियों के लिए शिक्षण का सौहार्दपूर्ण वातावरण कभी प्रभावित नहीं होता।
डॉ. राजेन्द्र मिश्र अपने व्यक्तित्व के चकाचौंध सहित आते तो हिन्दी के कम अंग्रेजी विभाग के अधिक लगते। कक्षाओं से कहीं अधिक समय चर्चाओं के लिए देते और कोई भी छात्र, जिसे साहित्य में रूचि हो, उसे बराबरी का अवसर देते हुए बात करने को हमेशा तैयार रहते। अच्छा साहित्य पढ़ने का संस्कार डालने के उनके निरन्तर उद्यम में उनका व्यक्तित्व और वक्तृत्व प्रभावी होता। अगर कोई एक ही खास बात इस संस्थान के लिए कहनी हो तो ''यह ऐसा शिक्षण संस्थान रहा कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से ज्ञान-दान के लिए सदैव तत्पर रहता। प्राचार्य डॉ. शर्मा से लेकर ग्रंथपाल मैडम चटर्जी तक।'' मैडम चटर्जी अनुशासन की इतनी पक्की थीं कि शुरू में लाईब्रेरी में संभलकर प्रवेश करना होता लेकिन धीरे-धीरे जैसे ही वे भांप लेती कि विद्यार्थी वास्तव में अध्ययनशील है तो फिर उसके लिए किताबें खोजना, किताबों की जानकारी के साथ हरसंभव मदद के लिए तैयार रहतीं।
डॉं. सुल्लेरे पास ही विज्ञान महाविद्यालय के पीछे रहते और महाविद्यालय के अलावा घर पर भी, कभी भी, मार्गदर्शन के लिए तैयार रहते। डॉ. निगम क्लास की पढ़ाई के साथ-साथ चाय की कैन्टीन में भी गपशप के बहाने इतिहास और इतिहास अध्ययन की मनोरंजक बातें, घटनाएं, संदर्भ सुनाते और उच्चस्तरीय तथा ताजे शोध की जानकारी देकर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। जेब खर्च न होने पर भरोसा रहता कि चाय तो निगम सर जरूर पिला देंगे यह भरोसा कभी नहीं टूटा, बल्कि रोड साइड क्लास अधिक लंबी खिंचने लगे तो मनी कैंटीन का समोसा भी हो जाता। निगम सर के हरे रंग की राजदूत मोटरसाईकिल बिना चाबी के स्टार्ट हो जाती लेकिन उसे चलाना मुश्किल होता। 'चला सको, तो ले जाओ' की अलिखित शर्त के साथ यह सबके लिए उपलब्ध रहती थी। हम कुछ लोग इस सुविधा का अक्सर लाभ लेते और वापस स्टॉफ रूम के सामने लाकर खड़ी कर देते। कई बार ऐसा भी होता कि इंतजार के बाद भी मोटरसाईकिल नहीं लौटती तब 'कल ले लेंगे' के सहज भाव सहित निगम सर, लिफ्ट लेकर या रिक्शे से वापस घर लौटते।
डॉ. रामनिहाल शर्मा और सारस्वत सर से उनके निधन-पूर्व तक सम्पर्क बना रहा और मैं हर मुलाकात में उनसे लाभान्वित होता रहा। डॉ. निगम, डॉ. राजेन्द्र मिश्र और अग्रवाल सर से उनकी थोड़ी बदली भूमिकाओं के बावजूद अभी भी सम्पर्क बना हुआ है और संस्कृत महाविद्यालय का विद्यार्थी होने का लाभ इन गुरुजनों से मुझे अब भी मिलता रहता है।
यहीं पढ़ाई के दौरान मुझे बोर्ड ऑफ स्टडीज और फिर विश्वविद्यालय के अकादमिक कौंसिल के छात्र प्रतिनिधि के रूप में सदस्य रहने का अवसर मिला और इसी महाविद्यालय की शिक्षा का परिणाम मेरे लिए एम.ए. में सर्वोच्च अंकों के लिए स्वर्ण पदक के रूप में सर्वाधिक उल्लेखनीय रहा। इसी पढ़ाई और परिणाम के बदौलत मेरा प्रवेश आगे की पढ़ाई के लिए बिरला इस्टीट्यूट, भोपाल में सहज ही हो गया और फिर यही मेरे पुरातत्व/संस्कृति विभाग की इस शासकीय सेवा की पृष्ठभूमि बना लेकिन इन सब उपलब्धियों की तुलना में यह महाविद्यालय गुरूकुलनुमा आत्मीय माहौल के साथ संस्कार केन्द्र के रूप में अधिक स्मरणीय है। वर्ष 2005 इस महाविद्यालय के लिए स्वर्ण जयंती का वर्ष मात्र नहीं विगत 50 स्वर्णिम वर्षों के गौरवशाली इतिहास का साक्षी वर्ष भी है।
2005 में महाविद्यालय की स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रकाशित स्मारिका के लिए मेरा लिखा लेख, जो लगभग इसी तरह प्रकाशित हुआ है।
पूर्णिमा परिशिष्ट
आषाढ़ की पूर्णिमा, गुरु अथवा व्यास पूर्णिमा भी है। कहा जाता है कि व्यास का जन्म इसी तिथि को हुआ था, जिनका अधिक प्रचलित नाम वेदव्यास है। इन्हें 28 व्यासों की नामावलि में अंतिम, कृष्ण द्वैपायन कहा गया है। इनका एक अन्य नाम बादरायण भी है। इस अवसर पर गुरुओं और अपने बादरायण संबंधों के कुछ उल्लेख-
छात्रावास में रहते हुए हम सब अपने को इस पूरे परिसर के लिए जिम्मेदार मानते और मेरी अनुशासनप्रियता का एक ही उदाहरण काफी होगा, लगभग छः महीने बाद एक दिन तबियत नरम-गरम होने के कारण मुझे पता चला कि छात्रावास में प्रतिदिन सन्ध्या प्रार्थना भी होती है, जो सबके लिए अनिवार्य है। तब दिन भर का तो अपना ठिकाना नहीं रहता था, लेकिन अपनी निशाचरी के कारण, रात की जिम्मेदारी चौकीदारों के साथ मैं अपनी भी मानता। रात चौकीदारी वाले साथियों सर्वश्री अंजोरदास, नरहर, कातिक और गुहाराम को भी गुरुओं के साथ स्मरण कर रहा हूं, गुरु शब्द की एक व्याख्या है- 'गरति सिञ्चति कर्णयोर्ज्ञानामृतम् इति गुरुः' अर्थात् गुरु, जो कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करे। उन दिनों के इन निशाचर साथियों से मैंने न जाने कितने किस्से सुने हैं भूत-परेत, धरम-करम-कुकरम, समाज-लोकाचार के और जीवन का पाठ पढ़ा है, वह सब मुझे अमृत सिंचन की तरह ही प्रिय होता था।
इसी संदर्भ में गुरु पदासीन महापुरुषों का स्मरण- कभी इस महाविद्यालय के विद्यार्थी रहे छत्तीसगढ़ के महान संत कवि श्री पवन दीवान जी, जिनके लिए नारा बना 'पवन नहीं ये आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है', जो राजनीति में सक्रिय रहते हुए कई पदों के साथ सांसद और कभी जेल मंत्री भी रहे, तब कहते, जिसका मंत्री हूं, वही दे सकता हूं।... इसी संस्था में छात्र रहे राजेश्री महंत रामसुंदरदास जी महाराज।... तीन विद्यार्थियों वाले कक्ष क्र. 12 में लगभग पूरे दो साल मैं अकेले रहा। कभी-कभार गालव साहू और तजेन्द्र शर्मा रूकते थे। तजेन्द्र के संदर्भ से छत्तीसगढ़ के पांडुका गांव में जन्म लिए महेश प्रसाद वर्मा यानि विश्व गुरु महर्षि महेश योगी से अपना जुड़ाव महसूस करता हूं। तजेन्द्र, पढ़ाई के बाद महर्षि जी की संस्था से संबद्ध हो गए थे।
अब क्लाइमेक्स, यानि आ जाएं रायपुर में रजनीश पर। छात्रावास का मुझे मिला कमरा खाली रहने से मुझे सुविधा ही थी। कुछ समय बाद पता चला कि छात्रावास में कई भूत हैं, उनकी चहलकदमी खाली पड़े मेस हॉल में, छत पर और इस कमरे क्र. 12 में रहती है। यह भी बताया गया कि इसी कमरे में कभी किसी छात्र ने आत्महत्या कर ली थी। (मन ही मन चाहता रहा कि इन किस्सों पर सबका भरोसा बना रहे और मैं अकेला इस कमरे में काबिज रहूं, लेकिन) इस बात की शिकायत ले कर पहले मैं वार्डन से मिला फिर प्राचार्य शर्मा जी से। उन्होंने धैर्य से मेरी बातें सुनी, फिर बताया कि तुम्हें तो वह खास कमरा दिया गया है, (संभव है मेरा मन रखने को, लेकिन मैं क्यों न मान लूं) जिसमें कभी रजनीश रहते थे। मैंने अविश्वासपूर्वक कहा, आचार्य रजनीश! यहां, रायपुर में। इस पर, शर्मा सर ने यह तस्वीर दिखाई-
आप भी देखिए, तब फोटो-वोटो अंगरेजी कारबार माना जाता था शायद, इसीलिए तो संस्कृत कालेज के इस समूह चित्र पर लेखी अंगरेजी में है और चित्र के साथ नाम का अनुमान आप लगा ही सकते हैं, Shri R. C. Mohan यानि श्री रजनीश चन्द्र मोहन, आचार्य रजनीश, भगवान रजनीश, ओशो।
आपका यह संस्मरण कितना कुछ समेटे है।
ReplyDeleteअहा! आनंद आ गया।
ReplyDeleteगुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर यादों के गलियारे कॉलेज और विश्वविद्यालय परिसर में आपके साथ मैं भी हो आया। और अपने कई गुरुओं को नमन कर आया। खास कर स्नाकोत्तर के दौरान मुझपर विशेष स्नेह बरसाने वाले प्रो. एहतेशामुद्दीन सर का जिनसे कीट विज्ञान के अपने विशेष विषय पर गूढ ज्ञान अर्जित करने का मौक़ा मिला।
उम्दा प्रस्तुति! आभार।
रायपुर के संस्कृत महाविद्यालय गुरुकुलीय वातावरण से गुरुओं के सानिध्य में विद्यार्थी योग्य एवं दीक्षांत होकर निकले। डॉ रामनिहाल शर्मा का दर्शन श्रवण लाभ एवं डॉ के डी सारस्वत का सानिध्य उनके जीवन पर्यंत मिला। आचार्य रजनीश के विषय में जानकारी इन्ही से प्राप्त हुई थी।
ReplyDeleteसभी गुरुओं को नमन। आपने सही समय में पोस्ट लगाई।
आभार
आपका यह संस्मरण अच्छा लगा,अब पता चला कि पुरातत्व में आप पारखी क्यों हैं.
ReplyDeleteआपकी पुरानी यादें अच्छी लगीं, लिपिबद्ध कर आपने इन्हें अमर कर दिया !
ReplyDeleteशुभकामनायें !
जानकारी भरी पोस्ट,
ReplyDeleteआभार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
राहुल जी! एक और रिश्ता बन गया आपका हमारा (मेरे अभिन्न मित्र चैतन्य आलोक का).. आपके यादों के गलियारे के अंतिम कमरे में ओशो के दर्शन.. हमारी तो गुरु पूर्णिमा सफल हो गयी!!
ReplyDeleteईमेल पर डॉ. ब्रजकिशोर-
ReplyDeleteछात्र और गुरु के भावनात्मक संस्मरण के साथ आत्म कथ्य का सरस वर्णन लगभग दुर्लभ प्रकार का पाया, अचानक ही आया था ब्लाग पर, पूर्णतः सार्थक हुआ. रजनीश जी का प्रसंग तो कल्पना में भी नहीं था. निगम साहब और ठाकुर साहब से मिलने का मौका पाया था पर आज समझ आया कि वे क्यों पसंद किये जाते हैं.
बहुत रोचक संस्मरण है.
ReplyDeleteअपने प्रवचनों में रजनीश ने अपने छात्र जीवन के कई किस्से सुनाये हैं, जिनमें से कई तो बिलकुल गढ़े हुए लगते हैं पर शायद उन जैसे क्रांतिकारी व्ताक्तित्व के साथ वाकई वह सब हुआ हो.
मुझे नहीं लगता कि नई पीढी के छात्र अपने गुरुजनों को कभी आदर स्वरूप याद किया करेंगे. गुरुजन आदरणीय भी कहाँ रहे!
महाराज इतने से काम नहीं चलेगा, हम सभी चाहते हैं कि इस पर और भी सामग्री का पता चले
ReplyDeleteओशो के प्रवचनों में इस संस्कृत महाविधालय का ज़िक्र कई बार सुना था, मुझ जैसे ओशो प्रेमी को तो ओशो से जुड़ी हर चीज़ अपनी लगती है सो सलिल भाई ने सही कहा, आप से अब एक और रिश्ता जुड़ गया है।
ReplyDeleteअहो भाव ! सहित गुरू पुर्णिमा की शुभकामनायें!
गुरु पूर्णिमा पर भला इससे बढियां और क्या पढना हो सकता है ?
ReplyDeleteक्या डॉ राजेन्द्र मिश्र जो कालान्तर में इलाहाबाद गए वो तो नहीं हैं ?
रायपुर के विभिन्न अध्यायों का विशद वर्ण।
ReplyDelete*वर्णन
ReplyDeleteआप का लेख पढ़ते पढ़्ते अचानक ख्त्म हो जाता है लगता है कि मन नही भरा खैर आपके लेख से मुझे भी अपने कालेज के दिनो की याद ताजा हो गयी
ReplyDeleteगुरूपूर्णिमा के अवसर पर आपकी यह पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteबहुत कुछ समेटे है आपका यह संस्मरण.छात्रावास में भूत के किस्से शायद सर्वव्यापी होते हैं :)
ReplyDeleteआनंददायी रहा पढ़ना.
अहा! क्या खूब संस्मरण है भाई साहब.
ReplyDeleteडॉं. रामनिहाल शर्मा जी से मिलने का तो सौभाग्य मिला था. और गुरुदेव डॉ. राजेन्द्र मिश्र जी का तो मै भी शिष्य रहा यूटीडी से एमए करने के दौरान. विलक्षण व्यक्तित्व है उनका. उन्हें सुनना अपने आप में एक अलग अनुभव है. नमन गुरुओं को. आचार्य रजनीश का अपने शहर के संस्कृत कालेज से नाता है ये तो सुना था, इस तरह का नाता है आज मालूम चला.
शुक्रिया
मेरे पिताजी ने तो मेरे आदरणीय शिक्षक से कह रखा था कि इसकी रोज पिटाई किया करें और यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा. आज उस पिटाई का महत्व पता चलता है...
ReplyDeleteगुरुओं को , गुरुकुल को इस पावन दिवस पर इस प्रकार श्रद्धा सुमन अर्पित करना...बस अभिभूत कर गया...
ReplyDeleteसाथ ही आपका संस्मरण किसी सुगठित रोचक कथा से कम न लगा...
आचार्य रजनीश यहाँ से भी सम्बद्ध थे,सर्वथा नवीन जानकारी है यह मेरे लिए...
ReplyDeleteइस आलेख को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे गुरु पूर्णिमा पर आधारित कोई भव्य डाक्यूमेंट्री देख रहे हों जिसकी कमेंट्री में आपकी आवाज है।
ReplyDeleteगुरुओं के साथ अंजोरदास, नरहर, कातिक और गुहाराम की चर्चा कुछ सीख देती है।
1970 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पढ़ा था कि रजनीश जबलपुर से दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के बाद कुछ समय तक रायपुर के किसी महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। आज उस महाविद्यालय का नाम भी जान लिया।
...भूतकाल की गुरुचर्चा में भूत, निशाचर और रजनीश का संयोग चकित कर गया...!!!
गुरुओं को नमन!
Badhiya
ReplyDeleteअद्भुत संस्मरण...उस कमरे ने r.c. mohan आचार्य रजनीश बना दिया. उस कमरे में निश्चय ही कोई खास बात होगी इस बात की पुष्टि आपकी दार्शनिक विवेचन क्षमता से होती है.
ReplyDeleteनवीन जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteगुरूपूर्णिमा की शुभकामनाये
"Hundred days of deligent study is equal to one day with a great teacher." I hope your stay in the hostel in that particular room has energised your literary taste. That room has some great things in it and you are the witness to it who has tasted the nectar. How many students are there now a days who remeber their teacher? Rather how many teachers are there who lead the students towards real life?
ReplyDeleteLet us lead our students towards their desired goals. By reading your article it is proved "Anything can happen over a cup of coffee"
Over a cup of tea,the students have learnt lessons of life and history. Let's bring those days back....
Koi louta de mere bite huwe din......
This anonymous person is G.A. Ghanshyam
ReplyDeleteबीती बातें कितना कुछ कह जाती हैं और बीती यादें कितना कुछ दे जाती हैं! जीवन की तमाम उपलब्धियों के साथ यादें भी अनमोल पूँजी होती हैं। आप का संस्मरण बडा सुन्दर और मधुर है। अच्छा किया बांट कर।
ReplyDeleteभाई राहुल सिंह जी ,
ReplyDeleteआपके ब्लाग में "रायपुर में रजनीश " पढा . इसमें संस्कृत महाविद्यालय के साथ मनी केंटिन का उल्लेख बहुत अच्छा लगा . सन १९७९ से १९८१ तक मैं भी विज्ञान महाविद्यालय रायपुर का विद्यार्थी रहा हूँ . मनी केंटिन शायद आयुर्वेदिक कालेज के पास वाला है जहाँ शाम को मैं भी अपने मित्रों के साथ अक्सर जाया करता था . इसी बिच आयुर्वेदिक कालेज के सामने एक एक्सिडेंट में इंजीनिरिंग कालेज के एक छात्र की मृत्यु हो गई थी , छात्र आन्दोलन के दौरान लाठी चार्ज हुआ था , इसमें मैं भी अपने मृत्यों के साथ था . भूतों वाला किस्सा तो आयुर्वेदिक छात्रावास में भी प्रचलित था . आपके संस्मरण पढ़कर मुझे भी छात्र जीवन के संस्मरण लिखने की इच्छा होने लगी है , कब लिख सकूँगा यह कहना मुश्किल है लेकिन लिखूंगा जरुर . मैं भी विश्वविद्यालय अकादमी का छात्र प्रतिनिधि था और अभी प्रदेश की राजनीति में सिरमौर लोग छात्रावास के मेरे कमरे में अक्सर बैठा करते थे . ये अलग बात है की वो लोग आज मुझे पहचानने से इंकार कर दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि आज मैं राजनीति में नहीं हूँ . १९८१ में कालेज पत्रिका "मनीषा " का मैं मुख्य संपादक था और मेरिट में आने के कारन "उत्कृष्ट विद्यार्थी " का पुरस्कार मुझे छात्रावास में मिला था . सभी अख़बारों में भी मेरी रचनाएँ नियमित छपती थी . खैर , आपका संस्मरण बहुत अच्छा है , बधाई .....
फेसबुक पर आदरणीय माधव शुक्ल मनोज जी की टिप्पणी-
ReplyDeleteराजेन्द्र अनुरागी जी जो रजनीश के सहपाठी रहे थे मैं उनके साथ उनके घर गया, परसाई जी के मकान के आगे ही रजनीश रहते थे। तब रजनीश से वार्ता और उन्होंने अपने ही हाथों से एक पेड़ा और समौसा मुझे दिया। मैने उन्हें याद दिलाया कि है मेरी कविता, और आपका लेख दैनिक जयहिन्द में आमने-सामने छपा था। तब रजनीश ने कहा वे कवितायें मुझे भी अच्छी लगी थी
आपके संस्मरणात्मक आलेख से बहुत कुछ जानकारी मिली.साथ ही गुरु पूर्णिमा को याद कराया ,साधुवाद !
ReplyDeleteeh.....aap to hum balkon ke liye gyan-ganga hi urel dete hain........kasht hota hai...ki apni
ReplyDeletealp-grahyata par.....
...is guru parv ke puneet avsar par is jagat ke
sabhi guruon ko hardik abhinandan.........
pranam.
Apratim aur pranamy.
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ReplyDeleteराहुल जी,
ReplyDeleteअब कुछ विस्तार से मालूम हुआ किस्सा-ए-रजनीश। विद्यालय और पढ़ने के वक्त के संस्मरण तो अच्छे लगते ही हैं। निश्चित तौर पर आपका लिखा यह संस्मरण शानदार लगा।
और आपको भी कुछ-कुछ जान गए, पहले से अधिक। थोड़ी देरी से आए हैं, आना तो पहले ही चाहिए था।
सबसे पहले आकर टिप्पणी कर जाना और पढ़ जाना भी एक मजेदार चीज है। लेकिन यह नहीं हो पाता।
नयी जानकारी के लिए आभार ...
ReplyDeleteसुशील सखुजा (शिल्पकार )
nayi jaankari........abhar
ReplyDeleteजो कभी हमें वर्तमान लगता है समय के साथ वह इतिहास हो जाता है ...बहुत कुछ छूट जाता है और बहुत कुछ जीवन को आगे बढ़ाने का साधन बनता है बस यही जीवन है ......आपने शिक्षा काल के विभिन्न पहलुओं को इस पोस्ट के माध्यम से सामने लाकर एक कड़ी को जीवंत कर दिया .....आपका आभार
ReplyDeleteआनंद आ गया. दुर्गा महाविद्यालय से मेरा भी वास्ता रहा है.
ReplyDeleteतय नही कर पा रहा हूँ कि आपकी इस पोस्ट पर क्या लिखूँ? पढ रहा था आपकी पोस्ट और याद आ रहा था, अपना, कॉलेज का समय। सूर्यभानु गुप्त का एक षेर शायद मेरी बात आप तक पहुँचा सके -
ReplyDeleteयादों की इक किताब में कुछ खत दबे मिले
सूखे हुए दरख्त का चेहरा हरा हुआ
राहुल जी .. आपको बधाई कितने बार दूं .. ये मेरी समझ से परे है । आपका हर पोस्ट अपने आप में नयापन लिये होता है । विषयों की विविधता रहती है .. आपके प्रत्येक पोस्ट में ।
ReplyDeleteएक अच्छी अभिव्यक्ति के लिये .. पुनः आपको बधाई ..
- डा. जेएसबी नायडू ( रायपुर )
ईमेल पर बालमुकुंद तंबोली जी-
ReplyDeleteOsho k baare me rochak jaankaari mili. Vaise, Osho ne mujhe sabse adhik prabhavit kiya hai. uske discourses me kavita hai, darshan hai, tarkikta , vyavharikta aur saundaryabodh hai. Baki kisi k gurutva ne mujhe prabhavit nahi kiya, par osho se jarur prabhavit hun. He was, in fact ,in my opinion, the 'most unique' person in the whole history.
SOME KNOW, BUT CANNOT EXPLAIN, SOME DONT KNOW BUT/AND TRY TO EXPLAIN, HE KNEW THE MYSTERY AND EXPLAINED TO A GREAT EXTENT.
व्यापक गुरू-गुण संस्मरण!! हमारी विचारधाराएं उनकी शिक्षाओं से ही पनपती पुष्ट होती है। -सापेक्ष दृष्टिकोण।
ReplyDeleteराहुल जी, पहले दफा आपके अड्डे पर आना हुआ। संस्मरण पढ़कर काफी अच्छा लगा। अब आवाजाही बनी रहेगी।
ReplyDeleteगुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने शिक्षकों की स्मृति का प्रेरक कार्य किया है आपने. रजनीश जी की तो अनोखी जानकारी दी आपने. आभार.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteGuru purnima par aapaka lekh aur sansmaran adbhut manata, dhanyawad. Aapane guru ko smaran kiya unhe, jinhone aapako parhaya, we nishchit hi aap par garv karate hain. Aapako punah dhanyawad.
ReplyDeleteआपका यह संस्मरण अच्छा लगा
ReplyDeleteरोचक संस्मरण! आप तो खुद ही गुरू हैं।
ReplyDeleteआपके पास भी खजाना है....जय हो!! बहुत रोचक!!
ReplyDeleteरोचक संस्मरण! बहुत अच्छा लगा इसे बांचना!
ReplyDeleteउस उम्र के अनुभवों से एक खासा लगाव होता है. कभी न भूलने वाली स्मृतियाँ होती है.
ReplyDeleteऐसे कमरे में रहना भी एक गजब का अनुभव रहा होगा.
कुछ साल पहले शंकर दयाल सिंह से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ मैंने कादम्बिनी में पढ़ी थी, संस्कृत कालेज की कक्षाओं के विषय में थी, आपकी पोस्ट ने उस याद को ताजा कर दिया। विवेकानंद जी के बाद रजनीश पर प्रस्तुति देकर आपने पाठकों की रुचि इस विषय में और बढ़ाई है लेकिन जब आपकी उत्सुकता और बढ़ जाती है तब लेख समाप्त हो जाता है। रजनीश से जुड़े वहाँ के लोगों के अनुभवों पर यदि आप और प्रकाश डाल सकें तो इस सुंदर कड़ी को आगे बढ़ाया जा सकेगा।
ReplyDeleteयादों के सहारे इतिहास को बयां करते हुए नई सीख देने का अद्भुत तरीका पसंद आया.
ReplyDelete"यही मेरे पुरातत्व/संस्कृति विभाग की इस शासकीय सेवा की पृष्ठभूमि बना लेकिन इन सब उपलब्धियों की तुलना में यह महाविद्यालय गुरूकुलनुमा आत्मीय माहौल के साथ संस्कार केन्द्र के रूप में अधिक स्मरणीय है।"
ReplyDeleteआत्मीयता से भरपूर,कई रोचक प्रसंग लिए आपका यह संस्मरण अत्यंत ज्ञानवर्द्धक एवं रोचक है.
राहुल जी,
ReplyDeleteनमस्कार
संस्कृत महाविद्यालय का उल्लेख बहुत अच्छा लगा
गुरूपूर्णिमा के अवसर पर बेहतरीन पोस्ट
आपके संस्मरणात्मक आलेख से बहुत कुछ जानकारी मिली.....!
संस्मरण को काफी रोचक लिखा है.
ReplyDeleteअच्छी लगीं संस्मरण .अच्छी जानकारी मिली..
ReplyDeleteरोचक संस्मरण!
ReplyDeleteओशो के संस्मरणों में जिक्र मिलता है कि जब वे सीधे म.प्र के शिक्षा मंत्री से महाविद्यालय में लेक्चरार पद की नियुक्ति लेकर आये तो शिक्षा विभाग ने गलती से उन्हे पहली नियुक्त्ति रायपुर के संस्कृत महाविद्यालय में दे दी जबकि वहाँ दर्शनशास्त्र का विषय नहीं था। गलती सुधारते सुधारते छह महीने लगे और वहाँ से वे जबलपुर गये। छह महीने उन्होने रायपुर में काटे...।
" तस्मै श्री गुरवे नम:"
ReplyDeleteआदरनीय महेन्द्र वर्मा जी की तरह मुझे भी लगा जैसे मैं कोई नाटक देख रही हूँ । राहुल जी की शैली ,थिरकती हुई ,इटलाती हुई,गुनगुनाती हुई,मुस्कुराती हुई आती है और दर्शक को भिगो
कर ,पलट- पलट कर निहारती हुई ,यह कहती हुई जाती है - "दया-मया धरे रइहव"।
Sanskrit के विषय मे आपके पावन विचारो को जानने का अवसर मिला ,धन्य हैं आप ।