Sunday, December 29, 2024

देव बलौदा में महाभारत प्रसंग

यहां प्रस्तुत लेख इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की शोध पत्रिका ‘कला-वैभव’ के अंक-17 (2007-08) में पृष्ठ 86-87 पर प्रकाशित हुआ है। श्री रायकवार के इस लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है-

दक्षिण कोसल की शिल्पकला में महाभारत के प्रसंग 
- श्री जी. एल. रायकवार*
*दूरभाष नं. 0771/2429109 (निवास) 

दक्षिण कोसल की स्थापायकता में रूपायित महाकाव्यों के कालजयी कथानकों के अंकन की परम्परा अत्यन्त मनोरंजक तथा कौतूहलवर्धक है। ईसवी पूर्व तृतीय-द्वितीय सदी से दक्षिण कोसल का इतिहास पुरावशेषों के माध्यम से प्रकट होने लगता है। इस अंचल की शिल्पकला का विकसित स्वरूप छठवी-सातवीं सदी ईसवी के ताला, मल्हार, राजिम, सिरपुर एवं अन्य स्थापत्य संरचनाओं में प्रस्फुटित है। इस काल में शरभपुरीय एवं सोमवंशी शासकों के द्वारा पुष्पित पल्लवित कला-परम्परा मंदिर स्थापत्य, विहार, प्रतिमाएं, मृण्मयी कला एवं धातु प्रतिमाओं में असीम सौन्दर्य तथा कला के मान्य सिद्धान्तों के अनुसार रूपायित है। रतनपुर के कलचुरि, कवर्धा के फणिनाग एवं बस्तर के छिंदक नाग शासकों के काल में कला-संस्कृति का स्वरूप स्थिर होने लगता है। इस काल में रामायण तथा महाभारत के पात्रों के जीवन से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं को शिल्पियों ने वर्ण्य विषय के रूप में स्वीकार कर मूर्तरूप प्रदान किया है। 

भारतीय कला के आधार तल में दार्शनिक चिन्तन, पौराणिक कथा एवं लोक-जीवन का समुच्चय है। कठोर पाषाण, ईंट, मिट्टी, काष्ठ, धातु एवं अन्य माध्यमों पर अभिव्यक्त कला से हमें तत्कालीन धारणाओं तथा मान्यताओं के साथ-साथ कला-अभिरुचि एवं शिल्पीय मौलिकता के दर्शन होते हैं। भारतीय कला एवं संस्कृति को प्रभावित करने वाले घटकों में धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय आर्ष ग्रन्थों के अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण साहित्य तथा धर्मशास्त्रों का कला एवं संस्कृति के पल्लवन में अतिशय योगदान है। 

शिल्पकला में महाभारत के प्रसंगों के निरूपण में दक्षिण कोसल के शिल्पियों ने देवालयों में स्थान निर्धारण तथा अभिधेय को न्यूनतम लक्षणों सहित प्रदर्शन के लिये स्वतंत्र रहा है। एकमात्र राजीव लोचन मंदिर को छोड़कर सोमवंशी काल के समस्त मंदिरों के मंडप भग्न है। राजीव लोचन मंदिर के मंडप में महाभारत के अप्रतिम योद्धा कर्ण तथा अर्जुन का शिल्पांकन मंडप में प्रवेश क्रम के प्रथम भित्तिस्तंभ में आमने- सामने संयोजित हैं। कर्ण तथा अर्जुन की अर्धस्तंभ पर रूपायित मानवाकार प्रतिमाएं प्रथम पंक्ति के क्रमशः बायें तथा दायें ओर दृष्टव्य हैं। उनके आयुधों में लम्बवत् विशाल धनुष, कंधे पर तूणीर तथा कटि में कटार का अंकन है। इनमें से एक प्रतिमा के वक्ष पर, आवृत कवच से कर्ण का अभिज्ञान सुस्पष्ट है। साथ ही साथ अधिष्ठान पर अश्व रूपायित है। कर्ण के पहचान से सम्मुख स्थित प्रतिमा का अभिज्ञान अर्जुन सुनिश्चित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सिरपुर स्थित स्थानीय संग्रहालय में सिरपुर के भग्नावशेषों से संग्रहीत कर्ण और अर्जुन की खंडित प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। इन प्रतिमा खंडों के अधिष्ठान में रथ भी रूपायित है। प्राप्त अवशेषों से सोमवंशी काल के वैष्णव मंदिरों के मंडप पर कर्ण और अर्जुन के रूपांकन की सुदीर्घ परम्परा पुष्ट होती है। 

कलचुरि कालीन कर्ण और अर्जुन की प्रतिमाएँ मारो (दुर्ग जिला), विजयपुर (बिलासपुर जिला) तथा मल्हार (बिलासपुर) से प्राप्त हुई हैं। उपरोक्त प्रतिमायें द्वार-शाखा की भाग हैं। शहडोल जिले के अनूपपुर के सन्निकट ग्राम सामतपुर स्थित लगभग बारहवीं सदी ईसवी के एक मंदिर का प्रवेश द्वार परिपूर्ण है। प्रवेश द्वार के ऊपरी हिस्से में दायें ओर सूर्य सहित कर्णं तथा बायें ओर इन्द्र सहित अर्जुन का अंकन है। विषय वस्तु के निरूपण में सामतपुर से प्राप्त अवशेष सुदृढ़ परम्परा और शिल्पीय कौशल का सुन्दर उदाहरण है। कर्ण और अर्जुन युक्त द्वार शाखा सरगुजा जिले के महेशपुर में भी प्राप्त हुई हैं। महेशपुर से ज्ञात विवेच्य प्रतिमायें त्रिपुरी के कलचुरियों के काल, लगभग 11 वीं सदी ईसवी में निर्मित हैं। विवेच्य प्रतिमाओं के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि शिल्पियों ने कर्ण और अर्जुन के प्रतिमा लक्षण में आयुध क्रम के अंतर्गत धनुष-बाण, तूणीर और अधिष्ठान में अश्वों के अंकन को मान्य किया है। 

कर्ण और अर्जुन के युद्ध से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण दृश्य देवबलोदा के शिव मंदिर में प्रदर्शित है। महाभारत के कर्ण पर्व पर आधारित कर्ण-अर्जुन के मध्य युद्ध का यह सर्वोत्तम दृश्य है। इस शिल्पकृति में दायें ओर अर्जुन तथा बायें ओर कर्ण रथारूढ़ बाण प्रहार करते हुये प्रदर्शित हैं। अर्जुन के रथ पर कपिध्वज है। कर्ण के द्वारा संधारित बाण पर अश्वसेन नाग का अंकन है। कर्ण और अर्जुन के द्वैरथ संग्राम में अर्जुन का प्रबल शत्रु अश्वसेन नाग की भूमिका तथा उपस्थिति का विशद वर्णन कर्ण पर्व में प्राप्त होता है। अश्वसेन नाग तथा कर्ण के मध्य संवाद में कर्ण की युद्धनीति, शालीनता तथा पराक्रम का उज्ज्वल पक्ष ज्ञात होता है। 

महाभारत के युद्ध में क्रूरतम विभीषिका के अंतर्गत दुःशासन का वध नारी के अपमान के भयंकर प्रतिशोध का परिणाम माना जाता है। दक्षिण कोसल की शिल्प कला में फिंगेश्वर (रायपुर जिला) के फणिकेश्वर महादेव के मंदिर के जंघा भाग में यह कक्षा रूपावित है। फणिकेश्वर मंदिर लगभग 14 वीं सदी ईसवी में क्षेत्रीय कलचुरि शासकों के काल में निर्मित है। प्रतिमा फलक में बायें ओर युद्धरत एक योद्धा भूमि पर लुंठित है तथा दूसरा योद्धा उस पर हाथों से प्रहार कर रहा है। लुंठित पुरुष के समीप गदा भूमि पर पड़ा हुआ है। ऊपरी मध्य भाग में एक बाहु पृथक से दिखाई पड़ रही है और फलक के अंतिम बायें भाग में एक नारी खड़ी हुई है। इस दृश्य में भीम के द्वारा दुःशासन के भुजा को उखाड़कर फेंकने, उसके हृदय का रक्तपान और उसके रक्त से द्रौपदी के केश प्रक्षालन की समस्त घटनाक्रम की शिल्पकृति में जिस कौशल से प्रदर्शित किया गया है वह दक्षिण कोसल के शिल्पी के निरंतर साधना का प्रतिफल है। भारतीय शिल्प कला में दुःशासन वध का यह एक मात्र ज्ञात शिल्प कृति है। प्रतिमा फलक में सीमित दृश्यांकन से कौरव-पांडवों के मध्य आयोजित द्यूत प्रसंग, दुःशासन के द्वारा द्रौपदी के केश पकड़कर सभा के मध्य पसीटते हुये लाना तथा भीम के द्वारा भीषण प्रतिशोध की घटना कौंध जाती है। महाभारत के कथानक को मौलिक कल्पना से सीमित स्थल में सहज रूप से रूपायित करने में शिल्पी की साधना अपूर्व है। 

दक्षिण कोसल में महाभारत कालीन पुरावत्वीय स्थल तथा अवशेष चिन्हांकित नहीं है तथापि महाभारत से संबंधित कथा तथा पात्रों के चरित्र गायन की मौखिक परम्परा अद्यतन इस अंचल में जीवित है जो 'पंडवानी' के नाम से जानी जाती है। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मंचों में पंडवानी के अनेक प्रदर्शन हुये हैं तथा इस विधा के गायन और अभिनय प्रस्तुति से कला मर्मज्ञ रोमांचित हुये हैं। छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन के सुप्रसिद्ध कला साधक पद्म विभूषण सुश्री तीजनबाई, श्री पूनाराम निषाद, श्रीमती रितु वर्मा, श्रीमती ऊषा बारले आदि प्राण-प्रण से इस परम्परा को सुरक्षित रखने तथा भावी पीढ़ी को उत्तराधिकार में सौंपने के लिये निस्वार्थ भाव से सचेष्ट हैं। 

अंततोगत्वा यह सुनिश्चित रूप से मान्य किया जा सकता है कि दक्षिण कोसल के सोमवंशी काल के स्थापत्य कला में कर्ण और अर्जुन के रूपांकन की परम्परा मान्य रही है। दक्षिण कोसल के कलचुरियों की कला में कर्ण और अर्जुन को द्वारशाखा पर रूपायित कर महत्व प्रदान किया गया साथ ही अन्य प्रसंगों को भी मूर्त करने में शिल्पी सफल रहे हैं। दक्षिण कोसल में महाभारत के शिल्पीय अभिव्यक्ति में मौलिकता, सजगता और कल्पना अद्वितीय है।

1 comment:

  1. इन्ही शिल्पकला से ही तो हमारे देश की पहचान है आज भले ही हम विज्ञान की क्षेत्र मे बहुत आगे बढ़ गए हैं लेकिन ये न भूलें कि हमारी पूर्वज हमसे भी कई गुना आगे थे जो ये कलाकृतियां बताती है ।

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