Tuesday, December 31, 2024

दूधाधारी मंदिर के भित्ति चित्र

यहां प्रस्तुत लेख पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, मध्यप्रदेश की शोध पत्रिका ‘पुरातन’ के अंक-4, 1986 में पृष्ठ 114-116 पर प्रकाशित हुआ है। श्री सोबरन सिंह यादव, राज्य शासन के पुरातत्व विभाग में पदस्थ रहते, रायपुर से सेवानिवृत्त हुए, उनके लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है- 

दूधाधारी मंदिर में मराठा कालीन "भित्ति चित्र" 
सोबरन सिंह यादव 

दूधाधारी मंदिर, रायपुर नगर के पश्चिम में महाराजबंद नामक प्राचीन तालाब के किनारे विद्यमान है. इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी के मध्य हुआ. उस समय यहाँ के राजा जैतसिंह थे उन्होंने भोंसला के राजगुरु स्वामी बलभद्रदास को निमंत्रित कर मठ और मंदिर के निर्माण हेतु भूमि और द्रव्य प्रदान किया था. स्वामी जी केवल दूध का आहार करते थे फलतः यह मठ और मंदिर दूधाधारी के नाम से प्रसिद्ध हुआ1. सन् 1873-74 में बेगलर ने इस अंचल के पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान इस मंदिर का भी निरीक्षण किया था. उनके अनुसार मंदिर के पुजारियों ने मंदिर को इतनी दूर से देखने दिया कि उसकी परछाई अथवा हवा तक मंदिर को स्पर्श न कर सके2 संमवतः इसलिए वे इस मंदिर के भित्तिचित्तों के बारे में नहीं लिख सकें. इस मंदिर के सभा मण्डल को रामायणी एवं कृष्णलीला इत्यादि के चित्रों से अलंकृत किया गया है. 

इस अंचल में भित्तिचित्र के सबसे प्राचीन उपलब्ध नमूने सरगुजा जिले की जोगीमारा गुफा में है भित्तिचित्र ही नहीं अपितु यहाँ भारत की प्राचीनतम नाट्यशाला भी है. इसी गुफा में (तृतीय शती ई.पू.) अथवा उसके बाद के चित्र अंकित हैं, जो ऐतिहासिक काल की भारतीय चित्रकला के प्राचीनतम नमूने हैं. 

दूधाधारी मंदिर के भित्तिचित्रों में नायक-नायिकाओं के वस्त्राभूषण एवं भवन इत्यादि में यद्यपि मराठों की छाप दृष्टिगत् होती है तथापि कहीं-कहीं इन्हीं चित्रों में नायिकाओं को वहीं राजस्थानी चोली- लहंगा एवं ओढनी में दर्शाया गया है, जो राजस्थानी शैली का निजस्व है. अर्थात् यहां के चित्रों पर राजस्थानी शैली प्रभावित है. ऐसे उदाहरण भी मिलते है जब कि मराठों ने राजस्थान से कलाकार आमंत्रित कर उनसे चित्रकारी का कार्य कराया3. बाजीराव पेशवा (1774-1791) ने पूणे के अपने "शनिवार वाड़ा" वाले प्रसाद को चित्रित कराने के लिये जयपुर से "भोजराज" चित्रकार को बुलाया था4. इस प्रकार से यहां भी संभव है कि भोसलों ने राजस्थानी कलाकार से इस मंदिर के सभा मण्डप को चित्रित करवाया हो. 

चित्रकला की विशेषता - यहां के चित्रों में सामान्यता रामायण एवं कृष्णलीला के दृश्यों का चित्रण मिलता है. चित्रों की रेखाएं एवं आकृतियां जड़ होती गई है; विषय वस्तु को विस्तार से दर्शाया गया है. आकृतियों की प्रधानता एवं प्रकृति से उनका संबंध नायिकाओं के केशविन्यास में फूलों की वेणी, नयनों के स्थान पर नाक में बड़ी पोंगरी, कहीं-कहीं नायिकाओं को कांछी (साड़ी) में दर्शाया जाना है, पुरूष नायकों को मराठा शैली की पगड़ी में दर्शाया जाना इत्यादि उक्त सभी विशेषताएँ हम इस मंदिर में भित्ति चित्रों में देख सकते हैं. इसके अतिरिक्त चेहरों पर अपभ्रंश शैली की स्पष्ट छाप है. रंग विधान चटकीला होने पर भी बहुवर्ण नहीं है. रामायण के कथानक में चित्रकार को जीवन के विभिन्न दृश्य चित्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ. आकृतियाँ महत्व के अनुसार छोटी-बड़ी है. दृश्य को सुविधानुसार ज्यामितिक आकृतियों में बांट दिया गया है. बुन्देल चित्रकला की भांति यहां भी चित्रों में लाल रंग का प्रयो- करके नायिका भेद दर्शाया गया है. 

यह चित्र मंदिर की दांयी दीवार के ऊपर चित्रित है जहां चित्रकार द्वारा सीता स्वयंवर का दृश्य दर्शाने का प्रयास किया है चित्र में राजा जनक का प्रासाद का दृश्य मुगल शैली से प्रभावित प्रतीत होता है प्रासाद के गवाक्षों में जनकपुरी की नारियां स्वयंवर का दृश्य देख रही है. चित्र के सबसे नीचे पांच मानव आकृतियां धनुष लिए खड़ी है इन सभी चित्रों में मराठाकालीन चोगा तथा मराठा पगड़ी चित्रित की गई है. इन चित्रों के सम्मुख श्री रामचन्द्र जी द्वारा धनुष के तोड़े जाने का दृश्य है. श्रीराम के पार्श्व में लक्ष्मणजी खड़े है एवं इनके पीछे गुरू विश्वामित्र बैठे है जिनकी दाढ़ी इत्यादि देखने से लगता है कि वह मानों कोई मौलवी का चित्र हो. इसके ऊपर सीताजी अपनी सहेलियों के साथ श्रीराम को वरमाला पहना रही है. यहां के चित्तों की जो जमीन है वह लाल रंग में दर्शायी गई है एवं उसके ऊपर सामान्यतः चार रंगों का प्रयोग मिलता है. 

उक्त चित्र के पार्श्व में इस चित्र का चित्रण किया गया है. यहां पर राम-रावण युद्ध का चित्र दर्शाया गया है. यह चित्र काफी धूमिल हो चुका है क्योंकि इसके रंग की परतें निकल गई हैं. नीचे दायी ओर दशमुखी रावण को अपने रथ पर दर्शाया गया है जिसके मुख के ऊपर की परत निकल गई है. दांयी ओर रामचन्द्र जी को रथ के ऊपर दर्शाया गया है. दोनों के रथों का आकार भी भिन्न है. इन दृश्यों के ऊपर बांयी ओर राक्षस सेना एवं दांयी ओर वानर सेना का चित्रण है. हनुमानजी एक विशाल राक्षस को ऊपर उठाए है जिसके ऊपर एक छोटा वानर दर्शाया गया है. वानरों को श्वेत वर्ण में एवं राक्षसों को श्याम वर्ण में दर्शाया गया है. नीचे का हिस्सा ठीक न होने के कारण उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है. 

मंदिर के प्रदक्षिणा पथ के निकट यह चित्र है. जहां कि राधा-कृष्ण का चित्रण चित्रकार द्वारा किया गया है. चित्र के नीचे का हिस्सा क्षतिग्रस्त है. ऊपर श्याम वर्ण में कृष्ण हैं एवं उनके दांयी ओर संभवतः राधा-कृष्ण आलिंगन युक्त है दोनों ओर दो परिचारिकाएं पंखा लिये हुए है. राधा एवं दोनों परिचारिकाओं के वस्त्राभूषण, केश विन्यास सभी मराठों के अनुरूप है. इस चित्र में भी जमीन भाग लाल रंग में दर्शाया गया है. 

एक चित्र इस मंदिर के बगल में निर्मित बालाजी मंदिर के बाहरी दीवार पर चित्रित है जहाँ कृष्ण जी को नीलवर्ण में दर्शाया गया है. सुदामाजी सिहासन पर बैठे हुए है एवं कृष्ण उनके पांव पखार रहे है. बगल में संभवतः रुकमणी रानी उनकों वस्त्रादि दे रही है. यहां पर नारियों के वस्त्राभूषण केश विन्यास आदि सभी मराठी है. इस चित्र में जमीन को लाल रंग में न दर्शाकर चित्रकार ने आसमानी रंग में दर्शाया है. यह चित्रण भी जगह-जगह से खराब हो रहा है. 

इसके अतिरिक्त इस बालाजी मंदिर के मण्डप में भी कई प्राचीन भित्ती चित्र थे किन्तु यहां के महंत जी द्वारा उनको नष्ट करके आधुनिक चित्र बनवा दिए गए हैं. मात्र दो या तीन छोटे-छोटे चित्र गर्भगृह के ललाट बिम्ब पर विद्यमान है. जहां कि मध्य में चतुर्भुजी गणेश है. उनके दांयी एवं बांयी ओर राम लक्ष्मण एवं सीताजी को दर्शाया गया है. इसी ललाट बिम्ब पर एक दम बांयी ओर के किनारे पर संभवतः भरत मिलन का दृश्य प्रतीत होता है. सीताजी को मराठा प्रकार के वस्त्राभूषणों से कलाकार ने सजाया है. इसके साथ ही एक दम दांयी ओर के चित्र में जोकि स्पष्ट नहीं है "गजेन्द्र मोक्ष" का दृश्य है जहां कि एक सफेद हाथी, विष्णु भगवान के सम्मुख अपना मस्तक उनके चरणों में रखकर धन्यवाद दे रहा है. पीछे धुंधला सरोवर दृश्य हैं. इस प्रकार वर्तमान में जितने भी चित्र बच रहे है वे अतीत में चित्रकला की क्या स्थिति थी, उस समय की धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति क्या थी, एक झांकी प्रस्तुत करने के लिये पर्याप्त हैं. इसके साथ ही दूधाधारी मंदिर के मंडप में कई ओर चित्र है जिनके कि रंग की पपड़ी आदि निकलने के कारण क्षतिग्रस्त हो चुके हैं. किन्तु हम यहां के भित्तिचित्रों में राजस्थानी शैली, बुन्देलखण्ड शैली एवं मराठों की छाप इन तीन शैलियों की छाप पाते हैं. 

यदि पहाड़ी चित्रकला में वहां का प्राकृतिक एवं मानव सौंदर्य परिलक्षित है, अथवा राजस्थानी चित्रों में स्थानीय वेशभूषा मुखाकृतियों पर मुगल प्रभाव स्पष्ट है, बुन्देलखण्ड की चित्रकला में मौलिकता एवं सहजता बलिष्ठ होने के कारण यह अन्य कलमों से अलग अपना स्थान बनाने में समर्थ हुई है. इसके विपरीत मंदिर के इन भित्तिचित्रों में हम राजस्थानी एवं मुगल तीन अंगों का हस्तक्षेप देख सकते है. संभवतः कलाकार राजस्थान का होने के कारण उसने अपनी मौलिकता चित्रों में कहीं-कहीं दे दी है. यद्यपि यहां के चित्र मराठा शासकों के मार्गदर्शन में बनाए गए थे. इसलिए बहुतायत स्थानों पर मराठों के अनुरूप चित्रों को हम देख सकते हैं. निष्कर्ष यह है कि वर्तमान में जितने भी चित्र बच रहे हैं वे इस अंचल के चित्रकला के इतिहास में महत्वपूर्ण उदाहरण हैं जिनका कि रसायनीकरण कर सुरक्षित किया जाना आवश्यक है. 

संदर्भ- 

    1. गुप्त प्यारेलाल -- प्राचीन छत्तीसगढ़ पृ. 156. 
    2. बेग्लर जे. डी. -- आर्कियालाजिकल सर्वे आफ इंडिया पृ. 167. 
    3. रायकृष्ण दास -- भारत की चित्रकला पृ. 7. 
    4. वही पृ. 74.

3 comments:

  1. बहुत उपयोगी जानकारी मिली है भैया

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  2. यही तो हमारी संस्कृति और धर्म का धरोहर है इससे ही भविष्य का राह आसान होता है

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  3. बहुत बढ़िया और उपयोगी जानकारी है यह। आपके पास तो भंडार है, इतिहास के तथ्यों, प्रमाणों और छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक जीवंतता के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने वाले विभिन्न बिंदुओं और आयामों का मैजिकल पिटारा है सिंह साब। बस,एक एक कर सबके लिए जादू करते जाइए।
    नव वर्ष की शुभकामनाएं भी, आपकी निरन्तर सक्रियता की अपेक्षा और विश्वास भी।

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