मध्यप्रदेश शासन का पाक्षिक ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 10 जून 1988 के अंक में बस्तर पर विशेष सामग्री प्रकाशित हुई, जिसमें पुरातत्व पर रायपुर में पदस्थ तत्कालीन अधिकारी वेदप्रकाश नगायच जी का यह लेख सम्मिलित था, उनकी अनुमति से यहां प्रस्तुत-
बस्तर जिले का पुरातत्वीय वैभव
अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण दण्डाकारण्य यानि प्राचीन बस्तर अपने सीमावर्ती क्षेत्रों यथा दक्षिण कोशल, विदर्भ, आंध्र, उड़ीसा से प्रायः अलग रहा है, जिसके फलस्वरूप यह क्षेत्र आधुनिक सभ्यता के सम्पर्क में कम ही आ पाया।
मध्यप्रदेश के दक्षिणी किनारे पर स्थित बस्तर जिला आज भी सामान्य लोगों के लिए कौतुहल का विषय बना हुआ है। बस्तर क्षेत्रफल में केरल राज्य से भी बड़ा है, तथा आदिम जनजातियों तथा घने जंगलों के लिए प्रसिद्ध है। घने जंगलों तथा आवागमन के सीमित साधनों के कारण यह क्षेत्र आज भी पुरातत्वीय सर्वेक्षण से अछूता रहा है।
बस्तर में चारों पाषाणकालों के अवशेष इस क्षेत्र की मुख्य नदियों इन्द्रावती, शबरी एवं नारंगी के तटों से प्राप्त हुए हैं।
इस क्षेत्र से पुरापाषाणकाल के अनगढ़े मूठदार छुरे तथा गढ़े हुए अधिक सुघड़ तथा त्रिकोणाकार छुरे प्राप्त हुए हैं। इन्द्रावती के तट पर बसे कालीपुर ग्राम से कर्तन उपकरण भी हाल ही में मिले हैं।
इन्द्रावती के तट पर स्थित देउरगांव, गढ़चंदेला, बिन्ता, घाटलोहंगा तथा नारंगी नदी के तट पर स्थित राजपुर एवं गढ़बोधरा नामक स्थानों से मध्य पाषाण युग के उपकरण खुर्चन यंत्र, अण्डाकार मूठ-छुरा तथा छेदक अस्त्र पाए गए हैं। उत्तर पाषाण युगीन उपकरण चित्रकूट, घाटलोहंगा तथा गढ़चंदेला से मिले हैं। ये उपकरण ब्लेड, स्क्रेपर आदि बहुतायत में मिले हैं। दक्षिण बस्तर से नुकीले बटवाली कुल्हाड़ी भी मिली है।
बस्तर में महापाषाणीय स्मारकों तथा शवाधान काष्ठ स्तम्भ (अलंकरणयुक्त) प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। काष्ठ स्तम्भ का प्रचलन तो आज भी माड़िया जनजाति में पाते हैं जिनके द्वारा शवाधान के समय काष्ठ स्तम्भ गाड़े जाते हैं, जिन पर काफी नक्काशी होती है।
बस्तर जिले की वैदिक कालीन स्थिति का स्वरूप अस्पष्ट है परन्तु महाकाव्यकाल की जो भी थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वह मात्र अनुश्रुतियों एवं पौराणिक कथाओं के माध्यम से पाते हैं। राजा दण्डक के इस क्षेत्र पर राज्य होने से यह क्षेत्र दण्डकारण्य कहलाया ऐसा मानना है कि जिस पर इतिहासज्ञों में मतान्तर भी है।
इसके ठीक काफी अंतराल के पश्चात 5-6 वीं शती के अवशेष इस क्षेत्र में पाते हैं। वैसे भी समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिणपथ विजय में महाकान्तार का सम्बन्ध वर्तमान बस्तर सम्भाग से ही है। कुछ इतिहासकारों ने महाकान्तार के व्याघ्रराज को नलवंशी शासक माना है। वैसे भी नलवंश का प्रमुख केन्द्र उड़ीसा प्रान्त एवं बस्तर का क्षेत्र रहा है। निष्कंटक क्षेत्र होने से सम्भवतः लम्बी अवधि तक इस क्षेत्र पर नलवंशी शासकों ने शासन किया हो। ये शैव धर्मावलम्बी थे जिसकी पुष्टि सिक्कों में नन्दी के अंकन से भी होती है। इस वंश के शासक वराहराज, भवदत्त तथा अर्थपति की 32 स्वर्णमुद्राएं बस्तर के एडेंगा नाम स्थान से मिली हैं, तथा चार अभिलेखों में एक महाराष्ट्र के ऋद्धिपुर, दो उड़ीसा के पोड़ागढ़ तथा केसरीबेड़ा से तथा एक राजिम (रायपुर) से मिला है।
नल राजवंश की सत्ता के पराभव के बाद 11 वीं शती से नागवंश के उत्थान को बस्तर क्षेत्र में पाते हैं ये रतनपुर के कलचुरियों के प्रतिद्वंद्वी थे। ये शासक अपने को छिदक कुल तथा कश्यप गोत्र का मानते थे जिससे इन्हें छिदक नाग भी कहा जाता है। इनकी दो शाखाएं थीं जिनमें एक शैव तथा दूसरी वैष्णव मतावलम्बी थी।
1023 ई.के एर्राकोट स्थान से प्राप्त शिलालेख से इस राजवंश का प्रथम शासक नृपतिभूषण का उल्लेख मिलता है। इन छिंदकनाग शासकों की राजधानी बारसूर थी, जो इनके कला एवं स्थापत्य का भी प्रमुख केन्द्र रही। कुछ वर्ष पहले भैरमगढ़ से छिदकनाग शासक जगदेव भूषण के 6 ताम्रपत्र प्राप्त हुए थे, जिसमें संवत 985 अर्थात 1063 ई. का उल्लेख है। राजपुर ग्राम से भी 1065 ई. का ताम्रपत्र मिला है जिसमें शासक मधुरान्तकदेव का उल्लेख है।
नागवंशी शासकों की इस क्षेत्र पर राजसत्ता 11 से 14 वीं शती तक रही जिसमें धर्म, कला, स्थापत्य की उन्नति हुई। नारायणपाल, बस्तर एवं बारसूर के मन्दिर इसके प्रमाण हैं।
बस्तर से उत्तर दिशा में करीब 125 किलोमीटर स्थित कांकेर (काकरण) राज्य था जो सोमवंशीय शासकों की राजधानी थी। इस राजवंश का प्रथम शासक सिंहराज था फिर व्याघ्रराज, वोपदेव, कृष्ण, जैतराज आदि हुए। इस राजवंश के अभिलेख कांकेर, तहनकापार, दुर्ग जिले के गुरूर एवं रायपुर जिले के देवकूट व सिहावा से मिले हैं। यद्यपि प्रारम्भ में यह राज्य कलचुरियों के अधीन रहा है। इनका काल भी 11 से 14 वीं शती तक रहा है।
लगभग 14 वीं शती के समीप बस्तर क्षेत्र में काकतीय राजवंश का उदय हुआ। इनकी अल्पकालीन राजधानी मधोता नामक स्थान पर थी। अन्नमदेव, हमीरदेव, मयराजदेव आदि कई शासकों ने 19 वीं शती तक यहां राज्य किया।
इस प्रकार बस्तर क्षेत्र के राजवंशों के इतिहास की क्रमबद्ध श्रृंखला पाते हैं। सिक्को, ताम्रपत्रों, शिलालेखों से उनके कार्यों तथा राज्य विस्तार का स्पष्ट अभिज्ञान होता है। कला एवं स्थापत्य में भी उनका योगदान अप्रतिम है। जिनका विवरण निम्नानुसार है-
भोंगापाल
जगदलपुर से 60 कि.मी. उत्तर कोण्डागांव स्थित है, जहां से 51 कि.मी. नारायणपुर तहसील के अन्तर्गत 25 कि.मी. जंगल में ग्राम भोंगापाल के पास एक टीला विद्यमान है जो ईंट निर्मित है। यहां से बुद्ध की आसनस्थ प्रभामण्डल युक्त प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो 5-6 वीं शती ई. की है तथा इसी के समीप नाले के दूसरी तरफ सप्तमातृका प्रतिमा प्राप्त हुई है।
इस स्थल की मलबा सफाई के पश्चात ही वस्तुस्थिति स्पष्ट होगी। परन्तु अभी ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थल पर सिरपुर की तरह बौद्ध बिहार रहा होगा।
गढ़धनौरा
यह स्थल केशकाल से लगभग 12 कि.मी. दूर गढ़धनौरा स्थित है। यहां किले के ध्वंसावशेष मिले हैं तथा ईंटों के बने शिव मन्दिर के अवशेष शिवलिंग सहित तथा पास ही में चतुर्भुजी विष्णु प्रतिमा मिली है। यहां जगह-जगह ईंटों के टीले हैं। मलबा सफाई के पश्चात् ही सम्पूर्ण वस्तुस्थिति स्पष्ट होगी। अनुमानतः यह शिव मन्दिर व मूर्तियां 8-9 वीं शती ई. की होगी।
बस्तर
बस्तर ग्राम में प्राचीन शिव मन्दिर है जो ऊंची जगती पर निर्मित है जिसका अधिष्ठान कई मोल्डिंगों में विभाजित है। मण्डप भग्नप्राय स्थिति में तथा मन्दिर के शिखर का आमलक खण्डित अवस्था में है। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। यह मन्दिर 10-11 वीं शती ई. का है।
नारायणपाल
जगदलपुर से करीब 40 कि.मी. दूर इन्द्रावती नदी के तट पर नारायणपाल ग्राम स्थित है। वस्तुतः यह शिव मन्दिर है जो पूर्वाभिमुख है जिसकी जलहरी से निकास हेतु सिंहमुख परिखा बनी है। परन्तु परवर्तीकाल में इसमें विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई गई है। मन्दिर का द्वार अलंकृत, बेसर शैली का उच्च शिखर वाला, ऊंची जगती पर बना है। मन्दिर में प्रवेश द्वार, मण्डप एवं गर्भगृह है प्रदक्षिणापथ नहीं है। मन्दिर का ऊपरी भाग खण्डित है। इस मन्दिर में दो शिलालेख भी लगे हुए हैं। यह मन्दिर 11 वीं शती ई. का वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण इस क्षेत्र में है।
बारसूर
जगदलपुर से 80 कि.मी. दूर बारसूर इन्द्रावती नदी के किनारे स्थित है। इसे मन्दिरों का नगर कहना अतिश्योक्ति न होगी। यहां देवरली मन्दिर जिसका शिखर ढह गया है, चन्द्रादित्य मन्दिर, मामा-भांजा मन्दिर (मूलतः शिवमन्दिर) बत्तीस स्तम्भों पर आधारित खुले मण्डपयुक्त बत्तीसा मन्दिर, गणेश की विशालकाय प्रतिमा तथा ग्राम के दूसरे किनारे एक कक्ष में प्रतिमाएं रखी हैं जिसे दन्तेश्वरी मन्दिर कहते हैं। ये सभी मन्दिर 11-12 वीं शती के हैं।
समलूर
गीदम से समलूर लगभग 12 कि.मी. दूर स्थित है जो दन्तेवाड़ा तहसील के अन्तर्गत आता है यहां प्राचीन शिव मन्दिर है जो स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्रवेशद्वार पर अलंकृत नन्दी व गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर उड़ीसा के मन्दिरों की शैली का बना है।
भैरमगढ़
बीजापुर तहसील से करीब 40 कि.मी. जगदलपुर मार्ग पर भैरमगढ़ स्थित है। यहां एक प्राचीन किले का द्वार तथा अनेक तालाब एवं प्राचीन मन्दिरों के खण्डहर पाए गए हैं। गुमना तालाब के किनारे पेड़ के नीचे गणेश प्रतिमा रखी है। भैरमगढ़ के जंगल में ही लखौरी तालाब के किनारे ध्वस्त मन्दिर के अवशेष मिले हैं जिनमें चन्द्रशिला, भग्न-स्तम्भ तथा प्रतिमाएं हैं जिनमें विष्णु, सूर्य, गणेश, शिव, पार्वती, नन्दी आदि की प्रतिमाएं मुख्य हैं। ये सभी काले पत्थर की निर्मित हैं। यह समस्त प्रतिमाएं चारों ओर बिखरी हैं तथा काफी कुछ भग्नप्राय स्थिति में है।
भैरमगढ़ में शिवमन्दिर में दो भैरव प्रतिमाएं एक विशालकाय दूसरी छोटी स्थापित है।
माता मन्दिर के पास खेत में एक पंक्ति में करीब 20 प्रतिमाएं रखी हैं ये सभी सैनिक प्रतिमाएं हैं।
छिंदगांव
यह ग्राम जगदलपुर-चित्रकूट मार्ग पर बण्डाजी से 6-7 कि.मी. अन्दर इन्द्रावती नदी के किनारे स्थित है जहां एक प्राचीन पूर्वाभिमुख शिवमन्दिर भग्नावस्था में स्थित है। तल विन्यास में प्रवेशद्वार अर्धमण्डप, मण्डप एवं गर्भगृह हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है, शिखरविहीन मन्दिर ऊंची जगती पर बना है। मन्दिर की द्वार शाखाएं सादी, ललाटबिम्ब में गणेश का अंकन है। मन्दिर के स्तम्भ चतुष्कोणीय व अष्टकोणीय है। मन्दिर-स्थापत्य की दृष्टि से यह लगभग 12 वीं शती ई. का नागवंशीय शासकों द्वारा निर्मित है। इसके पास ही नवीन मन्दिर में गणेश, नटराज, चामुण्डा एवं नृसिंह हिरण्यकश्यप का वध करते आदि प्रतिमाएं स्थापित हैं।
दन्तेवाड़ा
गीदम से 15 कि.मी. दूर प्रसिद्ध दंतेश्वरी देवी का मंदिर है जो इस क्षेत्र का सर्वाधिक पूजनीय स्थल है। यद्यपि मंदिर के स्थान पर आधुनिक भवन में लकड़ी का जालीयुक्त यह मंदिर है। मां दंतेश्वरी देवी की गर्भगृह में प्रतिष्ठित प्रतिमायुक्त तथा नागवंशी शासकों के शिलालेखों एवं विविध कालों की प्रतिमाओं को इस भवन में प्रदर्शित किया गया है। मंदिर के द्वार पर मानवाकार गरूड़-स्तम्भ अद्वितीय है।
चित्रकूट
जगदलपुर से 40 कि.मी. दूर स्थित चित्रकूट जलप्रपात के पास घुमरकुंडपारा स्थल पर एक भग्नशिव मंदिर को पाते हैं, जिसका केवल गर्भगृह है जिसमें एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। द्वारशाखाओं में नदी देवियों को पाते हैं, जो मंदिरा से अलग है। मंदिर अधूरा है यानि छत का शिखर विहीन है, जिसके अवशेष यत्र-तत्र बिखरे हैं। इनमें एक गणेश प्रतिमा भी है। यह 14-15वीं शती का नलवंशीय शासकों द्वारा निर्मित प्रतीत होता है। चित्रकूट ग्राम के पास खालेपारा में एक नवीन मढ़िया में उमामहेश्वर, हनुमान, स्कन्दमाता, महिषासुर-मर्दिनी, भैरव, योद्धा आदि प्रतिमाएं लगी एवं रखी हैं जो 13 से लेकर 17 वीं शती की हैं।
कुरूसपाल
यह ग्राम भानपुरी से 15 कि.मी. नारायणपाल के समीप है। यहां पूर्व में प्राचीन मन्दिर रहा होगा जिसकी कुछ प्रतिमाएं एक नवीन मढ़िया की दीवालों, अन्दर एवं मढ़िया के परिसर में लगी है। इनमें तीर्थकर, उमा महेश्वर, गणेश, विष्णु, चामुण्डा, सरस्वती, योद्धा, महिषासुर मर्दिनी, कुबेर, नवग्रह पगड़ीधारी राजा आदि प्रतिमाएं प्रमुख हैं, जो 12 वीं से लेकर 18 वीं शती ई. तक की है।
छोटे डोंगर
नारायणपुर से लगभग 50 कि.मी. बारसूर मार्ग पर छोटे डोंगर नामक ग्राम स्थित है जहां एक प्राचीन मन्दिर के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं तथा सती प्रतिमा एवं देवी प्रतिमाएं मिली हैं। मन्दिर 12-13 वीं शती ई. का प्रतीत होता है।
केशरपाल
जगदलपुर से करीब 40 कि.मी. दूर भानपुरी से 10 कि.मी. पश्चिम में मारकण्डेय नदी के किनारे केशरपाल ग्राम स्थित है। जहां प्राचीन मन्दिर रहा होगा अब मात्र प्रतिमाएं ही शेष हैं जिन्हें एक नवीन मढ़िया बनाकर उसकी दीवालों में लगा दिया गया है। इन प्रतिमाओं में उमा महेश्वर, कुबेर, महिषासुर मर्दिनी, गणेश, नन्दी, नदी देवी, सैनिक प्रतिमा प्रमुख हैं ये सभी 12-14वीं शती ई. की हैं।
पोषणपल्ली
भोपालपटनम तहसील मुख्यालय से करीब 20 कि.मी. पोषणपल्ली ग्राम है जो चिन्ताबागू नदी के किनारे अवस्थित है। इस स्थल को सकल नारायण नाम से जाना जाता है। यहां नवीन चौकोर मढ़िया में करीब 16-17 प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। जिनकी स्थानीय लोगों द्वारा पूजा की जाती है। इनमें उमा महेश्वर, विष्णु, गणेश, नन्दी, कृष्ण, महिषासुर मर्दिनी मुख्य हैं। जो 10 से 14 वीं शती ई. की हैं। प्रतिवर्ष मार्च माह में यहां एक विशाल मेला लगता है।
इस प्रकार बस्तर जिला प्रागैतिहासिक काल से ऐतिहासिक काल तक विविध रूपों में पुरातत्वीय धरोहरों से प्रभूत सम्पन्न है।
वेदप्रकाश नगायच
Excellent write up sir. The recent survey also revealed new prehistoric sites, rock paintings and historical remains. Tons of thank to you and Nagayach sit.🙏🙏
ReplyDeleteमजा आ गरा। आभार दोनों का
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