Wednesday, January 31, 2024

जंजगिरहा छत्तीसगढ़ी

बहुतेरे मानते हैं कि महानदी-हसदेव-लीलागर के बीच, यानि लगभग वर्तमान जांजगीर जिला, में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी अनूठी-मीठी है। उन बहुतेरों में एक मैं, सब साथ छोड़ दें तब भी। खरौद-रहौद-रसौंटा, नंदेली-कोसा-कोनार, नरियरा-बनाहिल-सोनसरी, गांव के नाम सिर्फ इसलिए कि जिन गांवों के निवासियों की बोली याद आई, कान में गूंजी और इन सबके साथ कोटमी-अकलतरा-मुलमुला। 


श्री रमाकांत सिंह
इसी मुलमुला के हैं हमारे आदरणीय बड़े भाई साहब रमाकांत सिंह जी, हम सब के बाबू साहब। इन गांवों में बोली-बानी की जैसी अभिव्यक्ति है, उसका असल सुख तो सुनने में ही है, मगर कामचलाउ समझने के लिए उसकी एक बानगी बाबू साहब की यह पोस्ट, दुहराते हुए कि बोली का गुरतुरपन (गुड़तुल्यपन) मिठास तो बोलने-सुनने में ही है, लिखते हुए क्षय स्वाभाविक है और अनुवाद में कुछ और अधिक क्षय, यों भी अनुवाद का अभ्यास रहा नहीं, छत्तीसगढ़ी और हिंदी दोनों मेरे लिए सहज अवश्य है, इसी के चलते पहले ‘जसमा ओड़न‘ नाटक का छत्तीसगढ़ी अनुवाद फिर रेरा चिरई गीत और अकबर खान के किस्से का हिंदी, फिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लिए बच्चों की सात पुस्तिकाओं का नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए छत्तीसगढ़ी अनुवाद का काम किया। जरूरी मानकर पहले रमाकांत सिंह जी की फेसबुकपर आई छत्तीसगढ़ी पोस्ट की प्रति और उसके बाद मेरे द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद- 

नानी की अम्मा बड़े प्यार से बुलाती थी ‘रामाकन ...‘ 
ममा दाई के दाई पीली दाई कहय बाबू ..... 
लिम के पाके फर गुरतुर होके मीठा जाथे 
फेर दाई ददा के पाके नई मिठाय बेटा 
आजकाल कहाँ दाई ददा लईका संग रथें? 
सकेले बर परथे नता ल, ऑंखि कस पुतरी राखे बर परथे 
नई त बरी कस भूरिया आऊ फुसिया जाथे परे परे 
नता घला ल पागे पर परथे या फेर अथान कस मरिसा म सुग्घर जचों के धर आउ टिपटिप ले भर सरसों तेल ... 
बड़ मया पिरित लगाके पागे बर परथे खाजा कस। 
जइसे पगाये रथें पपची चिकि गुर के चाशनी म। 
फेर खा के ...दे ...दे जोरन म बड़ मिठाथे। 
बस नता घलो ल चुरोये बर परथे मन लगाके कम आंच म 
डेहरी आउ ओरी के छांव आय नता मन 
फेर दाई आउ ददा, भाई बहिनी सब्बो लागमानी सरग के फर आय एकेच घ मिलथे नई मिलय दूसर घानी। 
बड़ मरन हो जाथे 
बड़ फदीयत आय बंटा जाथे बेटा घलो ह बहुरिया आय म 
सब्बो नता बबा, दाई, कका, फूफा, के कहे म भाँवर परेहे 
उढ़री होतिस त बात आन तान होतिस .... 
20 ...22 बछर अपन घर बाढ़े, मऊरे आउ पऊढे बहुरिया 
अपन आँखि म बड़कन सपना धर के आथे 
फोकला घर मिलिस त फदकगे 
भरे पूरे घर मिलिस त केंवटिन गौटिन 
होगे बड़ सासत हो जाथे राम हो 
दाई ददा भरे पूरे घर म साझी के हो जाथे 
माताराम कहै बेटा ‘साझी के सूजी सांगा म जाय‘ 
चार बेटा होगे बंटागे दाई ददा 
चैत ले जेठ रामलाल के पारी आय 
अषाढ़ ले भादों बड़े मंझला ह देखहि 
अगहन ले मांघ किशोर बुतरू के बाँहटा 
पूस ले फागुन साध राम देहि खाय बर 
आउ खर मास परगे त दाई ददा ढेंकी कुरिया म खाहिं 
चाउर दार पारी पारी पहुंच गईस त ठीक नहीं त ... 
चूल्हा म गईस सब नता मया पिरित 
चार सियान कहिस त सुने म आईस एकादशी के दिन 
अपन मन मजा करिन हमन जनम गयेन 
एमा काय बड़े बुता होंगे राम जी 
बाह रे जमाना सियान गियानी लईका घलो ल नवा बहुरिया एकेच रात म समझा डारथे रामायन। 
जिनगी के बेरा ओहर जाथे जिनगी समझत म 
ई सब म चुन्दी संग उमर खंटावत पाक जाथे नता 
लिम के फर पाक के मीठ होगे आउ दाई ददा होगे करू 
अगोरत देखे हावव आंसूं धरे महतारी ल 
आउ डेहरी म हंफरत पेट ऐंठत सियान ल अपने घर म 
फेर कोन कइथे दाई ददा म करगा (अपवाद) नई होवय 
एक ठन हमरे तुंहर घर के गोठ 
दाई गोंदा बाई बेटा बहोरन के सुरता आगे 
बहोरन......गोंदा दाई तेँ हर जनम भर मोर घर रहिजा 
जऊंन बनहि मिल बांट के खा लेबो 
गोंदा बाई.... सुन न बहोरन तेँ हर मोला सोन के सीथा खवाबे तभी तोर करा नई रहौ...ग 
बहोरन .... कस दाई मैं तो भूतियार मनसे आंव, मान ले काल तेँ हर सोन के लेंडी हाग देहे त मैं गरीब आदमी ओला
धरिहौ कोन कोठी म? 
तभो ले सोच ले काकर संग रहिबे? 
एहि लटर पटर म कब संझा ले बिहनियां होंगे पता नई चलिस हमरो चुन्दी पाकगे 
बोयें होबो तेला काटबो काय संसो करना 
राखिहैं राम लेजिहैं कोन, आउ लेजिहैं राम त राखिहैं कोन 
बस अपनो की याद और मेरे अपनों को समर्पित 
जनम दिस मोर महतारी फेर भरूहा धराइस मोर गुरु 

अनुवाद 

नानी की अम्मा बड़े प्यार से बुलाती थी ‘रामाकन,, 
नानी की मां पीली दाई कहतीं बाबू 
नीम का पका फल मीठा हो कर स्वादिष्ट हो जाता है 
मगर उम्र पके मां बाप नहीं सुहाते 
आजकल बच्चों के साथ कहां रहते हैं मां-बाप 
रिश्तेदारी को सहेज-समेट रखना होता है, आंख की पुतली की तरह (संभाले) रखना होता है 
अन्यथा बड़ी की तरह फफूंद लगी, बासी हो जाती है पड़े-पड़े 
रिश्तों को भी पागना होता है या फिर अचार की तरह घड़े में प्यार और जतन से भरा-पूरा हो सरसों तेल से 
बहुत ममता-प्रीति के साथ पागना होता है खाजा की तरह 
जैसे पगाया हो पपची (एक मिष्ठान्न) या चिकी गुड़ के साथ 
खा कर और फिर दे दो जोरन (विदाई-भेंट) में बहुत स्वादिष्ट 
बस रिश्तों (नात-गोत) को भी इसी तरह पकाना होता है, मन लगा कर धीमी आंच में 
डेहरी और ओरी (घर-प्रवेश का मुख) की छांव है रिश्ते 
मगर मां और पिता, भाई बहन सब रिश्ते-नाते स्वर्ग के फल हैं, एक बार ही मिलते हैं, नहीं मिलते दूसरी बार।
असमंजस (धर्मसंकट) हो जाता है 
बड़ी फजीहत है कि बेटा भी बंट जाता है बहू आने पर 
सभी रिश्ते बाबा, मां, चाचा, फूफा की सहमति से फेरे पड़े हैं 
भगा कर लाई गई होती तो और बात होती 
20-22 साल अपने घर पली-बढ़ी-सज्ञान बहू 
अपनी आंखें में बहुत से सपने संजो कर आती है 
खाली-निर्धन घर मिला तो बात बिगड़ी 
भरा-पूरा घर मिला तो दरिद्र भी मालकिन हो गई 
बहुत सांसत हो जाती है राम हो 
मां-बाप भरे पूरे घर में साझे (सब) की हो जाती है 
माताजी कहती थीं बेटा ‘साझे की सुई सांगा (भारी बोझ उठाने में प्रयुक्त दंड) में जाती है 
चार बेटे हुए, बंट गए मां-बाप 
चैत से जेठ तक रामलाल की बारी 
आषाढ़ से भादों बड़े-भंझला देखेगा 
अगहन से माघ किशोर बुतरू के हिस्से 
पूस से फागुन साधराम देगा खाने को (खिलाना-पिलाना करेगा) 
और खर मास पड़ा तो मां-बाप का खान-पान, घर के साझे हिस्से में 
(तब) चावल-दाल बारी-बारी पहुंच जाए तो ठीक, वरन 
चूल्हे में गए सब रिश्ते, ममता-प्रीति 
चार बुजुर्गों का तो कहा सुनने मिला, एकादशी के दिन 
आप मजा किए, हम पैदा हो गए 
यह कौन सी बड़ी बात राम जी 
वाह रे जमाना, समझदार लड़के को भी नई बहू एक ही रात में समझा डालती है रामायण। 
जिंदगी का समय ढल जाता है जिंदगी को समझते 
इसी सब में बाल के साथ उम्र पक जाती है खंटते 
नीम का फल पक कर मीठा हो गया और मां-बाप हो गए कड़ुए 
आंसू भरे इंतजार करते देखा है मां को 
और सीढ़ी पर हाफते पेट ऐंठते बुजुर्ग को अपने घर में 
फिर कौन कहता है मां-बाप में करगा (अपवाद) नहीं होता 
एक हमारे-आपके घर की बात 
मां गोंदाबाई बेटा बहोरन याद आए 
बहोरन- गोंदादाई तुम आजन्म मेरे घर रह जाओ 
जो भी होगा, मिल-बांट कर खा लेंगे 
गोंदाबाई- सुनो बहोरन, तुम मुझे सोने का सीथा (भात का गिरा हुआ दाना) खिलाओगे तब भी तुम्हारे पास नहीं रहूंगी 
बहोरन- क्यों मां, मैं तो मजदूर आदमी हूं, मान लो कल तुम सोने की लेड़ी हग दी तो मैं गरीब आदमी उसे किस कोठी में रखूंगा? 
तब भी सोच लो किसके साथ रहोगी? 
इसी लटर-पटर में कब शाम से सबेरा हो गया पता नहीं चला, हमारे बाल भी पक गए 
बोया होगा वही काटेंगे, क्यों चिंता करना 
रखेंगे राम ले जाएगा कौन और ले जाएंगे राम तो रखेगा कौन 
बस अपनों की याद और मेरे अपनों को समर्पित 
जन्म दिया मां ने मगर भरुहा (नरकुल-लेखनी) धराया मेरे गुरु ने।

2 comments:

  1. बहुत ही गहरी और सहज रचना है । अनुवाद से पंक्ति दर पंक्ति अर्थ जान पाई

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  2. उत्तम रचना ।बधाइयां

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