Saturday, July 17, 2021

होली

होली की उमंग
मस्ती के रंग
फाग के संग

खेत खलिहान गर्व से भरे हैं, टेसू के फूल प्रकृति की सुन्दरता द्विगुणित कर रहे हैं, आम के बौर की भीनी सुगंध वातावरण को मादक बना रही है, बसंती झोंके तन मन को गुदगुदा रहे हैं, मदन देवता के धनुष पर पंचशर चढ़े हैं और प्रत्यंचा खिंची हुई है, धूप में कुनकुनाहट आ गई है इन सबका मूक संदेश है- होली आ रही है। होली मस्ती का त्यौहार, फाग का त्यौहार, बड़े-बूढ़े बच्चे सबका त्यौहार, आल्हादकारी और भेदभाव रहित त्यौहार।

होली के स्वरूप में अंतर भले ही हो किन्तु होली का उत्साह और उन्माद भारत भर में सब पर समान रहता है। होली का उन्माद सब पर एक सा क्यों न हो, किसके अंग न कसमसायेंगें इस मौसम में-
अंग-अंग कसमस हुए, कर फागुन की याद। आंखों में छपने लगे फिर मन के अनुवाद।।

होली की स्वरूपों की बात चल पड़ी है तो आइये कुछ प्रमुख और चर्चित होली देखते चलें- होली की चर्चा में पहला नाम फालैन का याद आता है। फालैन में होली मनाने का तरीका कोई विशेष अनोखा नहीं है, चर्चा का कारण है एक पण्डा परिवार। इस परिवार का कोई एक सदस्य हर होली के अवसर पर धधक चुकी होली के अग्निकुंड में से नंगे पांव निकला करता है। इसके लिये उसे अग्निकुंड पर 10-12 कदम चलने होते हैं, जिसमें लगभग आधे मिनट का समय लगता है। और इस समय होली की लपटें कम से कम 4-5 फीट ऊपर उठती रहती हैं। होली के अवसर पर फालैन का यह कार्यक्रम अत्यधिक अनूठा और आश्चर्य का विषय है।

चर्चित होलियों में पहला नाम नंदगांव और बरसाने की लठमार होली का है। फागुन के कृष्ण पक्ष की नवमीं को नंदगांव के हुरिहार और बरसाने की गोपिकायें इस कार्यक्रम का रूप संजोते हैं। नारियां घूंघट की आड़ में पुरुषों पर लाठी का प्रहार करती हैं और नंदगांव के हुरिहार उस प्रहार को ढाल पर रोकते हैं। बरसाने की होली के दूसरे दिन नंदगांव में भी ऐसी ही लठमार होली होती है। फर्क इतना है कि इस होली में बरसाने के गुसाईं हुरिहार होते हैं और नंदगांव की गोपियां प्रहार करती हैं।

मथुरा के निकट एक स्थान है, दाऊजी, यहां के हुरंगा अर्थात वृहद होली का अपना ही अंदाज है। पुरुष पिचकारी से महिलाओं पर टेसू का रंग डालते हैं और रिश्ते के इन देवर पुरुषों के कपड़े फाड़कर स्त्रियां कोड़े बनाती है, पानी में भीगे इन कोड़ों का प्रहार देवरों की पीठ लाल कर डालता है और स्त्री पुरुषों की टोली विदा होते समय पुरूष गाते हैं-
हारी रे गोरी घर, चाली रे कोई जीत चले हैं, ब्रज ग्वाल। स्त्रियों का प्रत्युत्तर कथन होता है- हारे रे रसिया, घर चाले रे कोई जीत चली है, ब्रजनार।

राजस्थान के एक नगर बाड़मेर की होली की अब सिर्फ यादें रह गई हैं। बाड़मेर की 60-70 वर्ष पूर्व की होली पत्थरमार होली हुआ करती थी। धुलेंडी अर्थात होलिका दहन की अगली प्रभात से ही 15 दिन पूर्व से की गई तैयारी वाली पत्थरबाजी प्रारंभ हो जाती थी। किन्तु न तो इसमें वैमनस्यता रहती थी न ही दुश्मनी का भाव। रस्सी अथवा कपड़े के कोड़ो से देवरों की पिटाई का प्रचलन यहां अब भी है। साथ ही एक परंपरा ईलाजी की प्रतिमा बनाने की है, मान्यता है कि ईलाजी बांझ महिलाओं को पुत्र प्रदान करते हैं।

वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस में कहीं भी होली का उल्लेख नहीं है, किंतु अन्य गीतकारों ने अपने प्रिय देवताओं के होली का वर्णन किया है। फाग में होली अवध में राम भी खेलते हैं प्रजाजन और देवी सीता के साथ। शिव खेलते हैं गौरा के साथ, अपनी ही मस्ती में और ब्रज की होली नटवर कृष्ण का क्या कहना वह तो सखाओं, गोप-ग्वालों, राधा सभी के साथ खेलता है। होली के अवसर पर जितने फाग गीत गाये जाते हैं उतने गीत शायद ही किसी अन्य त्यौहारों में गाये जाते होगें। फाग के राम सीता की यह होली देखिये-
होरी खेले रघुबीरा अवध में।
केकरा हाथ कनक पिचकारी, केकरा हाथ अबीर।
राम के हाथ कनक पिचकारी, सीता के हाथ अबीर।

सूर सागर की बसंत लीला का राधा कृष्ण का फाग है-
मैं तो, खेलूंगी, कान्हा तोसे होरी बरजोरी।
हम घनश्याम बनब मथुरा में, तोहे नवल ब्रज वनिता बनाई।
मोर मुकुट कुंडल हम पहिरब, तोहे लला बेनूली पहनाई।
मुरली मधुर लेबि हम अपना, चूड़ी पहनाइब, कान्हा तोहरी कलाई।

बीकानेर में फाग ‘रम्मत‘ के रूप में प्रचलित है। रम्मतों में सास-बहू का ख्याल, देवर-भाभी की रम्मत, बूढ़े बालम की रम्मत और अमर सिंह राठौर की, आदि रम्मत होती है। रम्मत न के बराबर साज-श्रृंगार के बाद मंच पर खेली जाने वाली काव्य नाटिका है। मारवाड़ के गांव में जहां ढोला-मारू की प्रेमगाथा की बहुतायत है वहीं पेशवाओं के महाराष्ट्र में ‘तमाशे‘ का अपना रंग है। तमाशे के लिये मराठी शाहिर खास गीत रचा करते हैं और नर्तकियां उसे गाकर प्रेक्षकों का अनुरंजन करती हैं। एक तमाशे के गीत में मदनविद्ध नायिका अपने प्रेमी से कहती है-
सख्या चला बागामधिं रंग खेलू जरा, सब शिमम्याचा करा गुलाल गोटा घ्यावा
लाल हाती फेकू न मारा छाती, रंगभरी पिचकारी माझपाहाती
हरी करीन या रिती जसा वृन्दावनी खेले श्रीपति गोपी धेऊनी संगानी

कृष्ण प्रेमिका, बाजबहादुर की बेगम रूपमती ने लगभग 1637 विक्रम संवत में अपनी प्रेम कविता को फाग के रूप में लिखा है इसका माधुर्य दृष्टव्य है-
मोर मुकुट कुंडल को अतिछवि आंखन नैन अंजन धरे कोना। ‘रूपमती‘ मन होत बिरागी बाज बहादुर के नन्द दिठौना।।

मध्यप्रदेश में लगभग पूरे बुदेलखंड में प्रचलित चौकड़िया फाग ही गाया जाता है जो ईसुरी कवि की रचनायें मानी जाती हैं। छत्तीसगढ़ के हिस्से में भी विशेषकर श्रृंगारिक फाग का अत्यधिक प्रचलन है किन्तु कभी-कभी यह अश्लील दहकी गीतों की सीमा तक पहुंच जाता है। छत्तीसगढ़ी फागों में होली के त्यौहार को कुंवारों के लिये अनुपयुक्त माना गया है। एक ऋतु गीत की कुछ पंक्तियां उल्लेखनीय है-
माघ महिना राड़ी रोवय होत बिहनियां नहाय हो जाय
नहा खोर के घर म आवय अउ तुलसी हूम जलाय
फागुन महिना डिडवा रोवय गली-गली में खेले फाग।

नवभारत, रायपुर के होली परिशिष्ट, मुख्य लेख के रूप में, पृष्ठ-3 पर रविवार, दिनांक 11 मार्च 1979 को यह प्रकाशित हुआ था। संभवतः यही मेरा पहला लेख है, जिसके लिए समाचार पत्र के रामअधीर जी ने मौखिक रूप से अनुबंधित करते हुए, कुछ संदर्भ-सामग्री पढ़ने को दी। तब गूगल नहीं था। कुछ अपने पुराने नोट्स और याददाश्त काम आया। पारिश्रमिक भी मिला, लेकिन तब नवभारत के ऐसे परिशिष्ट में रविवार को मुख्य लेख छप जाना, छत्तीसगढ़ स्तरीय पुरस्कार से कम न था। अब लेख पढ़ते हुए लगा कि इस लेखक में थोड़ी सांस्कृतिक, साहित्यिक रुचि तब से है और उससे भविष्य में कुछ बेहतर की उम्मीद की जा सकती थी।

2 comments:

  1. वाह मज़ा आ गया बहुत ही सुन्दर

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