बात रतनपुर के तीन शिल्पखंडों से आरंभ करने में आसानी होगी, जो एक परवर्ती मंदिर (लगभग 15वीं सदी ई.) में लगा दिये गये थे। इस मंदिर 'कंठी देउल' का अस्तित्व वर्तमान में बदला हुआ है, क्योंकि यह एएसआइ द्वारा अन्य स्थान पर पुनर्संरचना की प्रक्रिया में है, इन शिल्पखंडों में से एक 'पार्वती परिणय' प्रतिमा है, जो अब रायपुर संग्रहालय में है। दो अन्य- 'शालभंजिका' एवं 'ज्योतिर्लिंग-ब्रह्मा, विष्णु प्रतिस्पर्धा' हैं। ये तीनों शिल्पखंड लगभग 9 वीं सदी ई. में रखे जा सकते हैं।
कंठी देउल, रतनपुर |
चर्चा का पहला खंड ऐसी कलाकृतियां हैं, जिनमें पाण्डु-सोमवंशी शैली की स्पष्ट छाप देशी-पहचानी जा सकती है और जिनका काल नवीं सदी ई. निश्चित किया जा सकता है, इनमें रतनपुर के उपरिलिखित तीन शिल्पखंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश द्वार हैं।
दूसरा खंड दसवीं सदी (विशेषकर उत्तरार्द्ध) से संबंधित है, जिसमें पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर है तथा दूसरा उदाहरण घटियारी का शिव मंदिर की मलबा-सफाई से प्राप्त प्रतिमाएं है। घटियारी का मंदिर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में किसी राजवंश (फणिनाग?) से संबंधित नहीं किया जा सकता।
तीसरे खंड ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में कलचुरि शिल्प और मंदिरों की श्रृंखला है, जिनका आरंभ तुमान से होता है, तुमान मंदिर का काल ग्यारहवीं सदी है। बारहवीं सदी के ढेर सारे उदाहरण हैं, जिनमें जांजगीर और शिवरीनारायण के दो-दो मंदिर, नारायपुर का मंदिर युगल, आरंग का भांड देवल (जैन मंदिर, भूमिज शैली), गनियारी, किरारीगोढ़ी, मल्हार के दो मंदिर आदि तथा रायपुर संभाग सीमा के कुछ मंदिर हैं।
चौथे खंड में तेरहवीं सदी के मंदिर हैं, जिनमें सरगांव का धूमनाथ मंदिर, मदनपुर से प्राप्त मंदिर अवशेष, धरहर (राजेन्द्रग्राम, जिला शहडोल) का मंदिर है।
तीसरे खंड के मंदिरों की कुछ विशिष्टताओं की थोड़ी और चर्चा यहां होनी चाहिये। अनियमित ढंग से शुरू करने पर तुमान का मंदिर और मल्हार के केदारेश्वर (पातालेश्वर) मंदिरों में मंडप और गर्भगृह समतल पर नहीं है। गर्भगृह बिना जगती के सीधे भूमि से आरंभ होकर उपर उठता है, जबकि मंडप उन्नत जगती पर है, (दोनों में अब जगती ही शेष है, मंडप का अनुमान मात्र संभव है) अतः पूरी संरचना विशाल जगती पर निर्मित जान पड़ती है। इस विशिष्टता के फलस्वरूप मल्हार का गर्भगृह निम्नतलीय है, किन्तु तुमान में ऐसा नहीं है (यहां अमरकंटक के पातालेश्वर का उल्लेख हो सकता है।) तुमान के द्वार-प्रतिहारियों और नदी-देवियों में त्रिपुरी कलचुरियों की शैली की झलक है, इस शिव मंदिर के द्वार शाख में दोनों ओर क्रमशः 5-5 कर विष्णु के दसों अवतार अंकित है। समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी विद्यमान है। (पाली, नारायणपुर और नारायणपाल मंदिरों में मंडप है।)
द्वारशाखों का सम्मुख और पार्श्व की चर्चा भी करनी चाहिये, रतनपुर किला में अवशिष्ट (या अन्य किसी स्थान से लाये गये) मात्र प्रवेश द्वार के सम्मुख में लता-वल्ली व सरीसृप का अंकन पुरानी रीति की स्मृति के कारण हुआ जान पड़ता है, इसलिये इसका काल निश्चित तौर पर नवीं सदी का उत्तरार्द्ध माना जाना उपयुक्त नहीं है यह और परवर्ती हो सकता है। शाख सामान्यतः विकसित नवशाख हैं, जिनमें दोनों ओर समान आकार की तीन-तीन आकृतियां (दो-दो प्रतिहारी व एक-एक नदी-देवियां) हैं और जिनका आकार लगभग पूरी ऊंचाई से दो-तिहाई या अधिक है। यह इन मंदिरों की सामान्य विशेषता बताई जा सकती है। शाखों के वाह्य पार्श्व तथा अंतःपार्श्व (द्वार में प्रवेश करते हुए दोनों बगल) के कुछ उल्लेख आवश्यक हैं।
रतनपुर किला के अवशिष्ट प्रवेश द्वार के वाह्य पार्श्व में कथानकों ('रावण का शिरोच्छेदन व शिवलिंग को अर्पण', नंदी पूजा आदि) का अंकन है। रतनपुर महामाया मंदिर (14-15वीं सदी) के द्वारशाखों पर अपारंपरिक ढंग से कलचुरि नरेश बाहरसाय के अभिलेख दोनों ओर हैं। जांजगीर के मंदिरों में से विष्णु मंदिर में वाह्य पार्श्व युगल अर्द्धस्तंभों का है (नारायणपुर में भी), जिसमें धनद देवी-देवता तथा संगीत-समाज अंकित है, वहीं जांजगीर के दूसरे मंदिर, शिव मंदिर में इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर कथानक व शिवपूजा के दृश्य भी हैं।
गनियारी के मंदिर के इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर हीरक आकृतियां तथा पुष्प अलंकरण है। प्रवेश द्वार के अंतःपार्श्व अधिकांश सादे हैं, किन्तु गनियारी में सोमवंशी स्मृति है, अर्थात इस स्थान पर सोमवंशियों में एक पूर्ण व दो अर्द्ध उत्फुल्ल पद्य अंकन हुआ है, गनियारी में पांच-छः पूर्ण उत्फुल्ल पद्य आकृतियां इस स्थान पर अंकित हैं, अंतःपार्श्वों पर कथानक व देव प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा ताला, देवरानी मंदिर और मल्हार, देउर मंदिर में है, इनमें द्वारशाख का अंतःपार्श्व सम्मुख से अधिक महत्वपूर्ण है, इसीका अनुकरण मल्हार के केदारेश्वर तथा शिवरीनारायण के केशव नारायण मंदिर में है। यहां द्वारशाख सम्मुख तो परम्परागत हैं किन्तु अंतःपार्श्वों में देवप्रतिमाएं अंकित हैं, मल्हार में शिव-पार्वती का द्यूत प्रसंग, पार्वती-परिणय, वरेश्वर शिव, अंधकासुर वध, विनायक-वैनायिकी आदि हैं, जबकि शिवरीनारायण में इस स्थान पर विष्णु के चौबीस रूपों का संयोजन है। (अंतःपार्श्वों तथा द्वारशाख पर विष्णु स्वरूप नारायणपुर में भी है।)
अलग-अलग मंदिरों व स्थलों की चर्चा करें तो किरारीगोढ़ी का खंडित मंदिर स्थापत्य में रथ-योजना प्रक्षेपों की कलचुरि तकनीक देखने के लिये महत्वपूर्ण है, यहां मंडप के चबूतरे से मिले स्थापत्य खंड में 'व्याल, नायिका व देव प्रतिमा' ऐसे समूह वाले कई खंड हैं, जिनसे मंडप की प्रतिमा योजना व अलंकरण का अनुमान होता है, ऐसे ही खंड घुटकू में प्राप्त हुए हैं, बीरतराई के कुछ खंड भी मंडप के अंश जान पड़ते हैं, कनकी से कई द्वारशाख मिले हैं, जो स्थल पर ही नये निर्मित मंदिरों में लगाये गये हैं, भाटीकुड़ा के अवशेष-सिरदल आदि रोचक और महत्वपूर्ण हैं।
श्री मधुसूदन ए. ढाकी को 07.12.1989 को मेरे द्वारा (अन्तर्देशीय पर) प्रेषित पत्र का मजमून, इसी पत्र के आधार पर (अन्य कोई औपचारिक आवेदन के बिना) मुझे अमेरिकन इंस्टीट्यूट आफ इंडियन स्टडीज की फेलोशिप मिली थी। (पद्मभूषण) ढाकी जी से जुड़ी कुछ और बातें आगे कभी।
शाल भंजिका की मूर्ति को बहुत ध्यान से देखा है, उसकी एक प्रतिकृति भी बनवायी थी। और अधिक जानकारी नहीं मिल पायी थी, संभवत आपके पास मिल सके।
ReplyDeleteकल्चुरि स्थापत्य पत्र वर्णित मंदिरों के शिल्प खण्डों का जीवंत वर्णन मंदिरों की ओर आकृष्ट करता है . आपने जिस सूक्ष्म तरीके से मंदिरों के कालखंडों का निर्धारण कर राजवंशों के निर्माण को अंकित किया है वह संग्रहणीय है .
ReplyDeleteजांजगीर ,पाली, मल्हार, तुमान, रतनपुर, सहित अन्य मंदिरों का सांगोपांग वर्णन अवर्णनीय है खासकर शिवरीनारायण मंदिर को आपने जैसे सम्मुख खड़े कर दिया है . अभी भी दिल भरा नहीं कुछ और भी पाने की लालसा में .....
ज्ञानवर्धक ऐतिहासिक आलेख।
ReplyDeleteविद्वानों के एक विद्वान् का शोध आलेख- मेरे स्तर से काफी ऊँचा
ReplyDeleteशाल भंजिका की एक मूर्ति का सन्दर्भ अजन्ता से भी जुडा हुआ सुनने को मिलता है। अभिनेता स्वर्गीय सुनील दत्त ने अपनी, फिल्म निर्माण संस्था 'अजन्ता आर्टस' के प्रतीक चिह्न के रूप में शाल भंजिका की मूर्ति ही दे रखी है।
ReplyDeleteजब रतनपुर जाना हुआ तो ऐसी जिज्ञासा थी मन में कि कुछ तो बचा होगा जो कलचुरियों का होगा, बताया गया यहाँ तो कुछ भी नहीं, अब कंठी देउल मंदिर को आपकी पोस्ट में देखा तो सुखद आश्चर्य हुआ। सचमुच यह मंदिर बहुत सुंदर है। अभी बलरामपुर में हूँ और डीपाडीह के बारे में जानने के लिए आपकी एक पुरानी पोस्ट फिर से पढ़ी। सचमुच ही आपने वहाँ तो कनिंघम की तरह कार्य किया है। यह भी खुशी हुई कि आपने इस बार नई पोस्ट जल्द की है। आशा है आप हर महीने चार पोस्ट वाला अपना आग्रह तोड़ेंगे और इनकी आवृत्ति में वृद्धि होगी।
ReplyDeleteकाफ़ी ऊँचे स्तर का आलेख है. हम तो अडहा ठैरे. ये फॉर एपल और एम फॉर मेंगो में फर्क समझ में नहीं आ पाता जब तक दोनों ही एक साथ सामने नहीं रखे हों.आपने पूरे कलचुरी काल खंडों को वामन अवतार में विष्णु कि तरह नाप डाला है और इसे समझने के लिए बहुत बड़े भेजे की जरूरत है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख | ज्ञानवर्धक प्रस्तुति | आभार |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
कलचुरी शासन के अवशेष पूरे विन्ध्य चेत्र से लेकर गोरखपुर तक को छूते हुए बिखरे पड़े हैं. लगभग दो सौ वर्षों के स्वर्णिम काल के क्रमिक उत्थान की गाथा है यह मंदिर.
ReplyDeleteकलचुरि कालीन मूर्ति कला पूरे वैभव पर रही होगी,आपने जो जानकारी दी वो महत्वपूर्ण हैं,
ReplyDeleteविद्वतापूर्ण विवरण , सजीव शब्द- चित्र , प्रणम्य प्रस्तुति । यह छत्तीसगढ की धरोहर है ।
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