अनादि, अनंत, असीम और गूढ़। रहस्यगर्भा सृष्टि में प्रकृति- नदी, जंगल और पहाड़, हमारा परिवेश- पूरा दृश्य संसार और जन्मी है मनु की संतान। सृजन की संभावनायुक्त, रचना का बीज जाने कब से पल्लवित-पुष्पित हो रहा है। विचारशील मानव की इसी सृजनात्मकता ने अपनी सहोदरा दृश्य-प्रकृति की पृष्ठभूमि के साथ पूरी दुनिया में रचे-गढ़े हैं अपनी विरासत के निशान। अजूबे और विचित्र, कभी कलात्मक तो कभी कल्पनातीत। आदिमानव-पूर्वजों की यही अवशिष्ट वसीयत आज विरासत है, धरोहर है, मनु-संतान की सम्पन्नता है।
हमारे पूर्वज- आदि मानव ने यही कोई चालीस-पचास हजार साल पहले अपने निवास के लिए, प्रकृति के विस्तृत अंक में सुरक्षित और निजी कोष्ठ की तलाश की। पेड़ों पर, पेड़ के नीचे तलहटी में रात बिताने-सुस्ताने वाले मानव को पहाड़ियों की कोख-कन्दरा अत्यंत अनुकूल प्रतीत हुई, और मौसम की भिन्नता से बच कर, सुरक्षित निवास और परिग्रह केन्द्र की पहचान बन कर उसके लिए पहाड़ी गुफाएं अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी साबित होने लगीं, हजारों साल तक यही गुफाएं आखेटजीवी मानव का निवास बनी रहीं। मानव चेतना में वास्तु अथवा स्थापत्य का अभिकल्प, इसी रूप में पूरी दृढ़ता से अंकित है।
कृषिजीवी और पशुपालक मानव पहाड़ी-तलहटी से उतर कर मैदान की ओर बढ़ने लगा, तब उसे वापस अपने निवास- गुफाओं तक लौट कर जाना और पुनः जीवनचर्या के लिए मैदान में आना निरर्थक प्रतीत हुआ, इसीलिए तब आवश्यकता हुई मैदान पर ही अपने निवास रचने-गढ़ने की। आरंभ में लकड़ी, घास-फूस, पत्थर, मिट्टी प्राकृतिक रूप से प्राप्त सहज उपादानों का उपयोग कर उसने वास्तु-आवास की नींव रखी। कन्दरावासी मानव के आरंभिक मैदानी आवास, गुफाओं से मिलते-जुलते सामान्य प्रकोष्ठ रहे होंगे। वर्तमान में भी इसी आदिम शैली में जीवन निर्वाह करने वाली 'सबरिया' जाति के कुन्दरा में प्राकृतिक पहाड़ी कन्दरा की स्मृति विद्यमान है।
आरंभिक वास्तु परम्परा के स्फुट प्रमाण ही हमारे देश में उपलब्ध हैं, किन्तु इसका उत्स हड़प्पायुगीन सभ्यता में देखने को मिलता है, जहां व्यवस्थित नगर-विन्यास में ईंटों से निर्मित पक्की बहुमंजिली इमारतें, चौड़ी समकोण पर काटती सड़कें, स्नानागार, अन्नागार का सम्पूर्ण विकसित वास्तुशास्त्रीय उदाहरण- अवशेष प्रकाशित हुआ है। वैदिक ग्रंथों में ज्यामितीय नियमों के साथ देवालयों, प्रासादों का उल्लेख तो आता है, किन्तु इस काल में सभ्यता का व्यतिक्रम है, फलस्वरूप विकसित नगरीय सभ्यता के स्थान पर अपेक्षाकृत अस्थायी वास्तु संरचनाओं वाली सामूहिक निवास की ग्रामीण रीति की सभ्यता का अनुमान होता है।
तत्पश्चात् लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व भारतीय मनीषियों ने वास्तुशास्त्र के अधिभौतिक और भौतिक सिद्धांतों पर सूक्ष्मता से गूढ़ विचार कर रचनाएं आरंभ कर दी थीं फलस्वरूप वैदिक साहित्य की पृष्ठभूमि पर पुराण, आगम, तंत्र, प्रतिष्ठा ग्रंथ, ज्योतिष और नीति ग्रंथों के प्रणयन में वास्तु कला संबंधी निर्देश विस्तार से मिलते हैं। साथ ही अपराजितपृच्छा, भुवन प्रदीप, मानसार, मानसोल्लास, मयमत, रूपमण्डन, समरांगण सूत्रधार, शिल्पशास्त्र, वास्तुपुरुष विधान, वास्तु शास्त्र, विश्वकर्मा विद्या प्रकाश आदि चौबीस प्रमुख शुद्ध वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों का प्रणयन हुआ। इसके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य महत्वपूर्ण तथा क्षेत्रीय ग्रंथ हैं। इस काल में वास्तु प्रयोगों और उदाहरणों की उपलब्ध जानकारी में अधिकांश स्मारक रचनाएं हैं, जिनमें स्तंभ या लाट और स्तूप प्रमुख हैं।
ईस्वी सन् के पूर्व और पश्चात् के लगभग दो सौ साल, भारतीय इतिहास का अंधकार युग है और इसी काल तारतम्य में संरचनात्मक के बजाय शिलोत्खात वास्तु प्रयोगों के उदाहरण मुख्यतः ज्ञात हैं, जिनमें चैत्य, गुहा, विहार की प्रधानता है। वास्तु-शिल्प विकास की वास्तविक प्रक्रिया का नियमित आरंभ, स्वर्ण युग- गुप्त काल में हुआ, जब वैचारिक धरातल पर अत्यंत सुलझे और प्रयोग के स्तर पर व्यवस्थित व सुगठित वास्तु प्रयोगों के परिणाम दिखने लगे, तबसे वस्तुतः वास्तु कला का इतिहास, मंदिरों के निर्माण का ही इतिहास है, जो मध्ययुग तक लगातार विकसित होता रहा।
छत्तीसगढ़ में भी वास्तु कला के स्फुट अवशेष लगभग सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी पूर्व के हैं, जिनमें मल्हार उत्खनन से उद्घाटित संरचनाएं हैं। संभवतः राजिम और आरंग के अवशेष भी इसके समकालीन हैं। इसके पश्चात् छत्तीसगढ़ की विशिष्टता मृत्तिका दुर्ग यानि मिट्टी के परकोटे वाले गढ़ हैं, किन्तु इन गढ़ों का विस्तृत और गहन अध्ययन अब तक न होने से तथा वैज्ञानिक रीति से उत्खनन के अभाव में इनके कालगत महत्व को प्रामाणिक रूप से स्थापित नहीं किया जा सका है, तथापि वास्तु कला की दृष्टि से वर्तमान में उपलब्ध अवशेष ही तत्कालीन वास्तु प्रयास और मानवीय श्रम की गाथा गढ़ने के लिए पर्याप्त हैं। छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में ऐसे गढ़ संख्या में, छत्तीस से कहीं अधिक हैं, जो विस्तृत उपजाऊ क्षेत्र हैं। इनमें कही विशाल और ऊंचे प्रकार हैं तो कहीं ये प्राकार रहित हैं और कहीं-कहीं दोहरे प्राकार के प्रमाण भी हैं। कहीं ये वृत्ताकार, कहीं चतुर्भुज, कहीं अष्टकोणीय, कहीं दो द्वार वाले कहीं-कहीं आठ द्वार अथवा बारह द्वार वाले भी हैं, प्रसंगवश अड़भार को अष्टद्वार और बाराद्वार को द्वादश द्वार का अपभ्रंश माना जाता है। परिखा अथवा खाई, इन गढ़ों की सामान्य पहचान है, जिनमें खतरनाक जल-जन्तु छोड़े गए होंगे, आज भी ऐसे कई स्थानों की खाई और तालाबों में मगर पाए जाते हैं।
लगभग 15 वर्ष पहले लिए गए मेरे नोट्स पर आधारित लेख का पूर्वार्द्ध, जिसका उत्तरार्द्ध यहां है.
आनंद आ गया लेकिन पेट भरा नहीं , अभी भूख बाकि है आशा है दो तीन कड़ी आगे भी लिखकर याचना को पूरी करेंगे . हालाँकि आपने सूत्र रूप में बहुत कुछ कहा दिया है. अगली कड़ी का इंतजार .....
ReplyDeleteग्राफ में दिए पुरुष पर प्रकाश डालने का कृपा करेंगे .
छत्तीसगढ के वास्तुशिल्प की अच्छी जानकारी दी आपने। अथर्वेद का शाला सुक्त वास्तुशिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय है।
ReplyDeletebahut achchha
ReplyDeleteअद्भुत........सूचनाप्रद।
ReplyDeleteछत्तीसगढ के वास्तुशिल्प की बहुत अच्छी जानकारी,,,,
ReplyDeleterecent post : समाधान समस्याओं का,
जहां तक मुझे समझ आता है, भारत का इतिहास तब तक उन्नति उन्मुख रहा है जब तक भारत में आततायियों को आगमन नहीं हुआ. जैसे जैसे भारत की ख्याति दूर दूर फैली, व्यापारियों का स्थान दस्युओं ने लेना प्रारम्भ कर दिया और उन्नति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगे. कल तक के विशुद्ध चिंतक-सृजक हृदय व मस्तिष्क अन्यान्य कलापों में संलग्न होने को विवश हो गए. यहीं से भारत का संक्रमणकाल प्रारम्भ हुआ होगा.
ReplyDeleteभूमिका ही इतनी प्रभावी है तो शेष कडियों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
ReplyDeleteप्रतीक्षा रहेगी।
पूरे देश में सिद्धान्त एक से ही पाये हैं, निश्चित ही विस्तृत और चर्चित रही होगी वास्तु पद्धतियाँ।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक जानकारी.
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के वास्तु के बारे में जानना मेरी प्राथमिक दिलचस्पियों में से एक है। आशा है आपकी यह श्रृंखला लंबी खींचेगी
ReplyDeleteछत्तीस गढ़ों का ऐतिहासिक प्रदेश -वास्तु दर्शन के आरंभ से जुड़ गया हूँ !
ReplyDeleteअद्भुत! आपके आलेख पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता। आपकी लेखनी विवश कर देती है। कम किन्तु सधे और नपे-तुले शब्दों में बहुत कुछ कह जाना तो कोई आपसे सीखे। बधाई!
ReplyDeleteइस विषय पर और पढ़ना चाहंगे , आशा है श्रंखला जारी रहेगी !
ReplyDeletemein isi ka intazaar kar raha tha.....
ReplyDelete"ॐ वास्तु देवाय नमः ।" वस्तुतः वास्तु-देव मात्र भवन-निर्माण के शिल्पी नहीं हैं , वे आवास- निर्माण के माध्यम से, हमें जीने की कला सिखाते हैं । सम्यक एवम् सटीक शब्द-संयोजन । स्पृहणीय, संग्रहणीय, प्रशंसनीय, अनिवर्चनीय-आलेख । ऐसा लगता है कि वास्तु-देव, व्यास की नाई बोलते गए और राहुल जी,गणेश की नाई लिखते गए और इस तरह आलेख,उपस्थित हो गया । स्तुत्य संस्तुति ।
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