Tuesday, July 4, 2023

जुआ - गिरधारी

‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ पत्रिका के दीपावली विशेषांक, 28 अक्तूबर से 3 नवम्बर 1984, पेज-41 पर गिरधारीलाल रायकवार जी का प्रकाशित लेख-

जब शिव नन्दी को जुए में हारे
जी. एल. रायकवार 

भारतीय मूर्तिकला विविधता तथा रोचकता का भण्डार बहुविध आयामों से परिपूर्ण है। भारतीय शिल्पियों ने शिल्पकला में पौराणिक आख्यानों को सजीवता से रूपायित किया है। इन प्रतिमाओं में शास्त्रीय विधानों का निर्वहन तथा आध्यात्मिकता का अपूर्व संयोग संचरित है। शास्त्रीय उपबन्धों का पालन करते हुए भाव साम्राज्य से निःश्रृत कल्पना का अपूर्व ओज, कलात्मकता तथा लावण्यता के साथ मौलिक परिवेश में प्रस्तुत करने में तत्कालीन शिल्पियों ने असाधारण सफलता प्राप्त की है। कल्पना के उद्दाम प्रवाह में शारीरिक सौन्दर्य, अद्भुत लोच, लावण्य, तथा भव्यता सहित शिल्पकार के प्रयास से शिल्प खण्डों में जीवन्त हो उठा है। इन्हीं विशेषताओं के फलस्वरूप भारतीय मूर्तिकला में लौकिक जीवन से सम्बन्धित विविध आयाम युद्ध, नृत्य, क्रीड़ा, मृगया आदि विषय उच्च आध्यात्मिकता से परिपूर्ण देव प्रतिमाओं के साथ देवालयों में प्रचुरता से निर्मित किए गए हैं। देवालयों में स्थित लौकिक प्रतिमाएं इसी सान्निध्यगुण से आछन्न होने के कारण कुत्सित मनोविकारों को उद्वेलित नहीं कर पाती हैं।

पौराणिक आख्यानों में शिव से सम्बन्धित अत्यन्त मनोरंजक कथानक हैं। शिव का वेश आभूषण, परिवार, वाहन एवं अनुचर सब परस्पर विरोधी हैं। उनकी सहज उदारता अनेक अवसरों पर उनके लिए ही संकट के कारण बने हैं। ऐसे महेश्वर, महाकाल, महायोगी, नटराज विविध सद्गुणों से अलंकृत देवाधिदेव महादेव के परिहासमय सरस स्तुतियां तथा सूक्तियां संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के काव्यों में उपलब्ध हैं। शिव के उग्र, सौम्य, शान्त, वीर, श्रृंगारिक आदि विविध प्रतिमाओं का अंकन लोकजीवन में व्याप्त शिव के सर्वाधिक प्रभाव को सूचित करता है। स्मृतियों में द्यूत (जुआ) को निन्दनीय माना गया है परन्तु कुछ शिव प्रतिमाओं में उन्हें पार्वती के साथ द्यूत क्रीड़ा में संलग्न दिखाया गया है। शिल्पशास्त्रों में इस प्रकार के प्रतिमा निर्माण का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। मूर्तिविज्ञान विषय से सम्बन्धित प्रकाशनों में इस प्रकार की प्रतिमाओं का वर्णन नहीं है। सम्भवतः लोकजीवन में मान्य परम्पराओं को शिल्पियों की सृजनात्मक कल्पना शक्ति ने ग्रहण कर शिव प्रतिमा के अधिष्ठान भाग पर द्यूत क्रीड़ा अंकित कर एक अपूर्व मनोरंजक कथानक की सृष्टि कर दी है। इस प्रकार की प्रतिमाएं अत्यन्त दुर्लभ हैं।

द्यूत क्रीड़ारत उमा-महेश्वर प्रतिमाओं में विषय का अभिज्ञान लेखक ने विविध शिव प्रतिमाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के उपरान्त सिद्ध करने का प्रयास किया है। ऐसी प्रतिमाओं में कथा बिन्दु, दो दृश्यों में प्रदर्शित है। प्रथमतः चौसर खेलते हुए उमा महेश्वर तथा उनके चतुर्दिक स्थित शिव परिवार, तत्पश्चात जुए में जीत की परिणति। इस कथानक से सम्बन्धित मात्र तीन प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में लेखक को ज्ञात हुई हैं। एक प्रतिमा ८वीं-९वीं शती ईस्वी की है तथा गुर्जर प्रतिहार कला की देन है। यह प्रतिमा सागर जिले के एक प्राचीन भग्न मन्दिर में मूल रूप से स्थित है। द्वितीय प्रतिमा १०वीं-११वीं शती ईस्वी में त्रिपुरी के कलचुरी शासकों के काल में निर्मित है तथा रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर में प्रदर्शित है। तृतीय खण्डित प्रतिमा सागर जिले से ही प्राप्त हुई है तथा परमार शासकों के काल में लगभग ११वी-१२वीं शती ईस्वी में निर्मित है। इन तीनों प्रतिमाओं में विषय वस्तु समान है।

इस प्रतिमा में शिल्पकार ने शिव परिवार सहित सम्पूर्ण कथानक प्रारम्भ से अन्त तक स्पष्ट करने असाधारण कौशल का परिचय दिया है। उमा महेश्वर परस्पर सम्मुख ललितासन में बैठे हुए चौसर खेल रहे हैं। दोनों के मध्य चौसर रखा हुआ है। प्रभावली पर हंसारूढ़ ब्रह्मा तथा आकाशचारी विद्याधर युगल अंकित हैं। विष्णु खण्डित हैं। मध्य पार्श्व में भैरव, भृंगी, वीरभद्र, मयूरासीन कार्तिकेय तथा आराधक परिचारक प्रदर्शित हैं। शिव के शीर्ष भाग पर जटामुकुट, नाग तथा अर्धचन्द्र सुशोभित है। पार्वती के मस्तक पर अलंकृत केश विन्यास है तथा चक्रकुण्डल, चन्द्रहार, स्तनसूत्र, भुजबन्ध, कलाई भर चूड़ियां, कंगन, कटिसूत्र एवं लहरियादार साड़ी पहनी हुई हैं। चतुर्भुजी शिव ऊपरी दाएं हाथ में त्रिशूल पकड़े हैं तथा निचले हाथ की अंगुलियों से गोटियों का क्रम संकेत कर रहे हैं। ऊपरी बाएं हाथ की तीन अंगुलियों से गोटियों की संख्या संकेत कर रहे हैं। द्विभुजी पार्वती दाएं हाथ में पासा पकड़ी हुई हैं। चौसर खेलते शिव के मुख पर गहन चिन्तन के भाव हैं जबकि पार्वती मुख पर विजयोल्लास के भाव प्रदर्शित हैं। प्रतिमा के निचले भाग पर नन्दी मध्य में खड़े हुए प्रदर्शित हैं। उनके गले में रस्सा बंधा हुआ है जिसे पकड़ कर पार्वती की सखियां नन्दी को अपनी ओर खींच रही हैं। दाईं ओर स्थित एक शिव गण नन्दी का सींग पकड़ कर डण्डे से मार रहा है तथा दूसरा पीछे से डण्डा मार कर हांक रहा है। नन्दी के पीछे आसनस्थ द्विभुजी गणेश उल्लासित दृष्टि से नन्दी का पीटा जाना तथा पार्वती की सखियों द्वारा उसका हरण देख रहे हैं। इस दृश्य में में जुए में पार्वती के द्वारा शिव से नन्दी को जीता चित्रित है। ऐश्वर्यविहीन दिगम्बर शिवजी के पास कोई सम्पत्ति तो नहीं है। अतः उन्होंने अपने वाहन नन्दी को ही दांव में लगा दिया और उसे हार भी गए।

इसी प्रकार की दूसरी प्रतिमा सागर जिले के एक प्राचीन भग्न मन्दिर में प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा अधिक प्राचीन है तथा गुर्जर प्रतिहार शासकों के काल में लगभग ८वीं-९वीं शती ईस्वी में निर्मित है। इस प्रतिमा में भी उमा महेश्वर चौसर खेलते हुए प्रदर्शित हैं। गणेश तथा कार्तिकेय उनके समीप खड़े हुए हैं। प्रतिमा अधिष्ठान पर पार्वती की सखियां नन्दी के गले में बंधी हुई रस्सी को पकड़ कर खींच रही हैं। इस प्रतिमा से यह सिद्ध होता है कि उमा महेश्वर के मध्य जुए में शिव के द्वारा नन्दी को हारने विषयक कथानक ८वीं-९वीं शती ईस्वी से प्रचलित है।

तृतीय तथा अन्तिम प्रतिमा भी सागर जिले में प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा का उर्ध्व भाग भग्न है तथापि यह प्रतिमा विशिष्ट प्रकार की है। इस प्रतिमा में पार्वती दाईं ओर तथा शिव बाईं ओर बैठे हुए हैं। भारतीय परम्परा में सामान्यतः नारी को बाएं ओर रूपायित किए जाने का विधान है। विपरीत क्रम गुण के कारण यह प्रतिमा असाधारण है। इस प्रतिमा में ऊपरी भाग पर शिव-पार्वती चौसर खेलते हुए प्रदर्शित हैं। अधिष्ठान भाग पर पार्वती की सखियां नन्दी के गले में बंधी रस्सी को पकड़ कर अपनी ओर (दाईं तरफ) खींच रही हैं। सबसे अन्त में गणेश तथा कार्तिकेय स्थित हैं।

प्राचीन स्मृतिकार यथा मनु, नारद तथा वृहस्पति ने द्यूत (जुआ) को वह खेल कहा है जो पास, चर्मखण्डों तथा हस्तिदन्त खण्डों से खेला जाता है तथा जिसमें कोई बाजी लगी रहती है। मूर्तिकला में देवताओं के द्वारा द्यूत (जुआ) का यही एक उदाहरण है जो शिव से सम्बन्धित है। इसी प्रकार शिवजी के द्वारा जुआ खेले जाने का यही एकमात्र उदाहरण है जिसमें वे नन्दी को हार गए थे। गनीमत यह रही कि शिव नन्दी को दांव में अपनी अर्धांगिनी से ही हारे। अतः बाद में उन्हें नन्दी वापस मिल गया। इस हार के बाद शिवजी ने फिर कभी द्यूतक्रीड़ा में भाग नहीं लिया।
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टीप- छत्तीसगढ़ में इस कथानक की शिल्पकृति ताला के देवरानी मंदिर के द्वारशाख पर (अब तक ज्ञात ऐसी सबसे पुरानी), सिरपुर स्थानीय संग्रहालय में तथा मल्हार के पातालेश्वर मंदिर के द्वारशाख पर भी है।
   ताला                                      मल्हार             सिरपुर

पुनः इस प्रसंग की चर्चा होने पर किसी कथावाचक ने इसे आगे बढ़ाया, क्षेपक की तरह- इससे हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।

1 comment:

  1. प्राचीन मंदिर अध्यात्म के साथ शिक्षा का केन्द्र भी थे। समाज का यह अभिन्न हिस्सा रहा है। समय पड़ने पर मंदिर समाज एवं देश की रक्षा में भी अभिन्न योगदान देते थे। मंदिरों की इन प्रतिमाओं से भी ऐसे ही शिक्षा दुर्व्यसनों से बचने की दी जा रही है।अनुपम उदाहरण।

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