Tuesday, July 11, 2023

देव-द्यूत

पिछले कुछ दिनों से जुए के फेर में पड़ गया हूं। मन ही मन पासे फेंकता, दांव-लगाता, जीत-हार का मनोराज्यं। वेद-पाठ, कला-रस और देव-आराधन का आनंद भी है इस मनोद्यूतं में। तिरी-पग्गा, तिरी-पच्चा, तिरी-पांचा, जैसे जाने कितने शब्द ‘जुआ-चित्ती‘ के लिए इस्तेमाल होते हैं। इनके करीबी है ‘तिया-पांचा‘ या ‘तीन-पांच‘, जो शायद जुए-पासे के खेल में छल-कपट के लिए ही प्रयुक्त होता है, ऐसे संकेत भी वैदिक साहित्य में मिल जाते हैं और गीता में कृष्ण ‘द्यूतं छलयतामस्मि‘ बताते हैं।

वैदिक साहित्य में ‘अक्ष‘ शब्द, पासा या गोटी के अर्थ में आता है। अथर्ववेद में ‘सं-रुध्‘ और ‘सं-लिखित‘ शब्दों का प्रयोग पासे के संदर्भ में हुआ है। ऋग्वेद का संदर्भ मिलता है जहां ‘पासा फेंकने‘ की धनदायक या नाशक के रूप में देवों से तुलना की गई है। पासा खेलने वाले व्यक्ति का पूरी संपत्ति सहित पत्नी के हार जाने का संकेत भी पहले-पहल ऋग्वेद में आया है। वैदिक साहित्य में ‘त्रिपंचाश‘ शब्द भी आया है, जिसका सीधा मतलब तिरपन समझ में आता है, मगर विद्वान एकमत नहीं हैं और एक बड़ी संख्या का अभिव्यंजक भी माना है। याद कीजिए- ‘जाओ, तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं‘ वाली बात ‘... पचीसो देखे हैं‘ भी कहा जाता है। पौ-बारह, जैसे शब्द भी बाजी मार लेने के लिए आते हैं। फेंके गए पासों पर आई संख्या चार से विभाजित हो ऐसी संख्या ‘कृत‘, चार से विभाजित करने पर तीन शेष रहे तो ‘त्रेता‘, दो बचे तो ‘द्वापर और एक बच जाए तो ‘कलि‘ कहे जाने का भी उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद के शंकर भाष्य में रैक्व प्रसंग में कृत-विजय का और तीन, दो, एक- क्रमशः त्रेता, द्वापर और कलि को संबद्ध किया है।

महाभारत के आरंभ में ही आदिपर्व के द्यूतपर्व में विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध किया जाता है। स्वयं को हारने के बाद युधिष्ठिर कहते हैं- यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान कष्ट हो रहा है, मगर विवेकशील धर्मराज द्रौपदी को दांव पर लगाते हैं, बड़े-बूढ़े धिक्कारते हैं। आगे चलकर वनपर्व के ‘नलोपाख्यान‘ आता है, जिसमें द्यूत प्रसंग को पिछले संदर्भ से जोड़ने का संकेत भी नहीं है मगर मानों पांडवों-युधिष्ठिर के बहाने पाठकों को बताया जाता है। कथा चलती है कि अवसर पा कर नल के शरीर में कलियुग प्रवेश करता है, इधर राजा नल का रिश्ते में भाई पुष्कर, कलियुग के ही उकसावे में उसे धर्मपूर्वक जुआ खेलने को बार-बार कह कर राजी कर लेता है। पुष्कर और नल के बीच कई महीनों तक जुआ चलता रहा। लगातार हारते नल से अंत में पुष्कर ने पत्नी-दमयंती को दांव पर लगाने के लिए कहा। किंतु कलियुग के प्रभाव में होने के बावजूद भी नल ने ऐसा नहीं किया।

मनु ने द्यूत को बुरा खेल माना है। राजा के अधीन खेलने का उल्लेख और व्यवस्था मिलती है। कात्यायन ने लिखा है कि यदि द्यूत की छूट मिले तो वह खुले स्थान में द्वार के पास खिलाया जाना चाहिए, जिससे भले व्यक्ति धोखा न खाएं और राजा को कर मिले। नारद, बृहस्पति, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य जैसे विभिन्न ग्रंथों और महाभारत में भी द्यूत की निन्दा और व्यवस्था संबंधी उल्लेख मिलते हैं। चौदहवीं सदी ईस्वी के जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि' की रोवक उक्ति है- ‘ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।'

ध्यान रहे कि शास्त्रीय ग्रंथों में द्यूत पर दी गई व्यवस्था, प्रतिद्वंन्दियों के बीच होने वाले खेल के लिए है, न कि पति-पत्नी के बीच के खेल के लिए। विवाह संस्कार पूरे हो जाने के बाद बारात वापस आने पर कंकण छुड़ाने की रस्म में नवदंपति के बीच जुआ-खेल खेला जाता है। एक कथा पासे या शतरंज जैसे खेल में विश्वामित्र का पत्नी से हारने पर पत्नी के हंसने से क्रुद्ध हो कर पासा तोड़ देने की भी है। वैष्णव परंपरा में कृष्ण लीला पुरुष हैं तो इधर शिव की लीलाएं भी कम नहीं। शिल्पशास्त्रीय या प्रतिमाविज्ञान का आधार नहीं मिलता मगर शिव-पार्वती के उमा-महेश विग्रह को शिल्प में चौसर खेलते दिखाया जाता हैै, ऐसी दुर्लभ शिल्प-कृतियां कलात्मक और रोचक कल्पनाशील हैं। 

उमा, पार्वती है, पर्वत-पुत्री, नगाधिराज-सुता, ऐश्वर्यशाली। उमा के पास दांव लगाने के लिए क्या कमी। मगर औघड़-फक्कड़ शिव के पास भांग-चिलम के अलावा उनके आयुध त्रिशूल, डमरू, नाग, खट्वांग ही हैं, वे सब उमा के लिए बेमतलब, किसी काम के नहीं, इसलिए जिनका दांव पर लगाया जाना, उमा को मंजूर न हुआ हो। नन्दी, कुछ काम के हो सकते थे, तो महेश की ओर से वही दांव के लिए प्रस्तुत और स्वीकृत हुए। शिल्प में नन्दी को हार जाना रूपायित किया जाता है। 

छत्तीसगढ़ में अब तक ज्ञात मुख्यतः ताला-6 वीं सदी इस्वी, सिरपुर-8 वीं सदी इस्वी, भोरमदेव-11 वीं सदी इस्वी, मल्हार-12 वीं सदी इस्वी और डमरू-13 वीं सदी इस्वी की शिल्प-कृतियां हैं।

तालाएवं सिरपुर

ताला और मल्हार के ऐसे शिल्प खंडों के तीन कोष्ठों से पूरे कथानक को न सिर्फ समझा जा सकता हैै, बल्कि ध्यान देने पर, पूरे प्रसंग और पात्रों का हाव-भाव और वह क्षण भी जीवंत हो उठता है। मुख्य पात्र उमा और महेश हैं, नन्दी हैं और हैं शिवगण समूह और पार्वती परिचारिकाएं। ताला में देवरानी मंदिर के प्रवेश द्वार के अंतः-पार्श्व के शिल्पखंड के मध्य में उमा-महेश चौपड़ खेल रहे हैं। बायें कोष्ठ में शिवगण प्रदर्शित हैं और दायें कोष्ठ में पार्वती की परिचारिकाएं विजित नन्दी को खींच कर ले जाने का प्रयास कर रही हैं और अनिच्छुक नन्दी अड़ा हुआ है। सिरपुर की प्रतिमा में उपर चौपड़ के एक-एक ओर सम्मुख शिव-पार्वती को दिखाया गया है और नीचे नन्दी को हांक कर ले जाया जाना अंकित है।
मल्हार, भोरमदेव एवं डमरू

मल्हार में कथानक तीन लंबवत कोष्ठों में है, जिनमें से प्रथम में चौपड़ खेलते उमा-महेश, दूसरे में शिवगण और पार्वती की परिचारिका के बीच नन्दी के लिए विवाद हो रहा है। तीसरे कोष्ठ के अंकन से स्पष्ट अनुमान होता है कि इस विवाद में दोनों उलझ जाते हैं और नन्दी बाबा मौका पा कर सरक जाते हैं। भोरमदेव मंदिर के पूर्वी मुख्य प्रवेश पर दक्षिणी शाखा पर शैव द्वारपाल और नदी देवी के ऊपर दो कोष्ठों में शिल्पांकन है। पहले में उमा-महेश को चौकोर चौपड़ और परिचारिका-गण के साथ दिखाया गया है। इसके पार्श्व खंड में पीछे की ओर सिर घुमाए प्रतिरोध करते नंदी, दंड लिए शिव गण और पार्वती-परिचारिका को दोनों हाथ उठा कर दंड-प्रहार को रोकने का प्रयास करते दिखाया गया है। डमरु की प्रतिमा में चौपड़ खेलते शिव-पार्वती और दाहिनी ओर गणेश को पहचाना जा सकता है।

श्री जी. एल. रायकवार ने सागर-जबलपुर अंचल की ऐसी तीन प्रतिमाओं की पहचान पहले-पहल की थी और 1984 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ दीपावली विशेषांक में इस पर रोचक लेख प्रकाशित कराया था। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी स्तुतियां हैं, जिनमें पार्वती और शिव के बीच द्यूत क्रीड़ा और पार्वती का गंगा के प्रति डाह उजागर होने का संवाद है। इसी प्रकार कुछ शिलालेखों की स्तुतियों में भी द्यूत-क्रीड़ारत शिव-पार्वती की वंदना की गई है।

क्षेपक की तरह एक कथा सुनने को मिली है कि जुए में नन्दी को हारने के बाद हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।

इस नोट को तैयार करने में सर्वश्री रायकवार, डॉ. के पी. वर्मा, श्री हयग्रीव परिहार, श्री प्रभात सिंह, श्री अमित सिंह ठाकुर ने सहयोग किया है।

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