गंगावतरण का शिल्पांकन: देवरानी मन्दिर
जी.एल. रायकवार
दक्षिण कोशल के ज्ञात मन्दिरों की शृंखला में ताला का देवरानी मंदिर सर्वाधिक प्राचीन है। बिलासपुर-रायपुर सड़क मार्ग पर मनिहारी नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर में गुप्तकालीन कला परम्परा की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ऊंचे आयताकार अधिष्ठान पर निर्मित यह पूर्वाभिमुखी शिव मन्दिर वास्तु-कला की विलक्षणता से परिपूर्ण है। इस मन्दिर की बाह्य संरचना तथा प्रवेश द्वार मूल रूप से अवशिष्ट हैं। प्रवेश द्वार पर बने विविध शिव-कथानक एवं अलंकरणात्मक कला के उत्कृष्टतम नमूने हैं।
स्थानीय लाल बलुआ प्रस्तर से निर्मित आयताकार यह मन्दिर अर्धमंडप, प्रवेश द्वार-अंतराल तथा गर्भगृह में विभक्त है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए चन्द्रशिला से संयुक्त ऊंची चौड़ी सीढ़ियां निर्मित हैं, जिसके दोनों ओर बौने आकृति के तुण्डिल शिवगण द्वारपाल के रूप में प्रदर्शित हैं। अर्धमंडप पर दो विशाल आकार के तोरण स्तंभ अवशिष्ट हैं, इनके शीर्ष भाग पर शिल्प पट्ट अथवा प्रतिमा प्रस्थापित रहे होंगे। इस मन्दिर की वास्तु-योजना में गंगा-यमुना मंडप की आंतरिक पार्श्वभित्तियों में ऊपर की ओर आमने-सामने प्रदर्शित हैं। गंगा-यमुना के सतत् प्रवाहिणी रूप को प्रदर्शित करने के लिए शिल्पियों ने द्विभंग-भंगिमा, तरंगवत पारदर्शी वस्त्र विन्यास तथा जलज पादपों को लहरों के साथ चित्रित कर सहज सौंदर्य को प्रस्फुटित किया है।
मन्दिर का प्रमुख प्रवेश द्वार कला के इस माधुर्य से सम्पृक्त शृंगार तथा तप पूरित पौराणिक कथानकों एवं जटिलतम सूक्ष्म अलंकरणों से सम्पन्न है। द्वार-शाखा की अलंकरण योजना में केंद्र से निःसृत जालिकावत वृतों में शुक, सारिका, मयूर, नर आदि का कलात्मक अंकन है। प्रवेश द्वार की बाह्य शाखा विविध प्रकार की पुष्पीय आकृतियों से उत्खचित तथा शृंखलाबद्ध हारों की आवृति से बटी हुई रस्सी के समान गुंफित हैं। प्रवेश द्वार के सिरदल पर समुद्र मंथन से उद्भूत गजाभिषेकित पद्मासनस्थ लक्ष्मी तथा उसके दोनों ओर शूंड से कुंभ देते हुए गज, मानवीय रूप से अवतरित होती हुई नदी-देवियां तथा मूर्त रूप धारण किए हुए विभिन्न तीर्थ-सरोवर अभिषेक में तन्मय हैं । इस पट्ट में सरिताओं के प्रवाह रूप में धारा के मध्य मीन कच्छप आदि जलचरों को रूपायित कर शिल्पी ने दृश्य योजना में गति अवर्णनीय कौशल से संचरित किया है। प्रवेश द्वार पर अंत पार्श्व भित्तियों पर शिव से संबंधित कथा तथा अलंकरण प्रतीक भिन्न-भिन्न प्रकोष्ठों पर प्रदर्शित हैं। बायें तरफ आलिंगनरत उमा-महेश्वर, कीर्तिमुख, चौसर खेलते हुए उमा-महेश्वर तथा गंगावतरण प्रदर्शित हैं। इनमें से चौसर क्रीड़ा तथा गंगावतरण का शिल्पांकन भारतीय कला में सर्वप्रथम ताला में रूपायित हुआ है। इस प्रकार की प्रतिमाएं बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध हैं। चौसर खेलते हुए शिव दांव में नंदी को हार चुके हैं। शिव के समीप खड़े हुए गण अपने स्वामी के हारने से विचलित तथा चिन्तातुर हैं।
इस मन्दिर के गर्भगृह की मूल प्रतिमा अद्यावधि अप्राप्त है। गर्भगृह में विभिन्न खंडित प्रतिमाओं के अवशिष्ट भाग रखे हुए हैं। इनमें से एक अधिष्ठाननुमा पट्ट पर भावविभोर नृत्यरत तीन शिवगणों का अंकन अत्यंत कलात्मक है। अन्य प्रतिमाओं में से चतुर्मुखी दुर्गा तथा खंडित नवगृह पट्ट उल्लेखनीय हैं। मन्दिर की खोज के समय से प्राप्त अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य खंड परिसर में ही रखी हुई हैं। इनमें से सूर्य, चतुर्भुजी प्रतिमा (संभवतः शिव), नारी प्रतिमा का अधोभाग, आदि महत्वपूर्ण हैं। अत्यंत भग्न होने के कारण यहां पर रखी हुई कुछ प्रतिमाओं का अभिज्ञान नहीं किया जा सका है। इसके अतिरिक्त विविध पुष्पीय तथा ज्यामितीय आकृतियों से अलंकृत विशाल आकार के स्थापत्य खंड इस मन्दिर की भव्यता तथा स्वर्णिम गौरवपूर्ण अतीत को मुखरित करते हैं।
दक्षिण कोशल (वर्तमान छत्तीसगढ़) का यह सर्वाधिक प्राचीन मन्दिर विशिष्ट वास्तु तथा मूर्तिशिल्प के कारण भारतीय कला में अद्वितीय है। तथापि समुचित प्रकाशन के अभाव में यह अल्प चर्चित है। इस मन्दिर की स्थापत्य योजना में तल-विन्यास, नदी-देवियों की पृथक आवृत्तियां, अलंकरण तथा शाखा योजना एवं मंडप के तोरण स्तंभ आदि विलक्षण हैं। मन्दिर के बाह्य भित्ति कोष्ठ पर प्रदर्शित प्रतिमाएं अब अवशिष्ट नहीं हैं।
इस मन्दिर के निर्माण काल के सम्बन्ध में निश्चित अभिलेखीय प्रमाण अनुपलब्ध हैं। देवरानी मन्दिर में स्थापत्य तथा मूर्तिकला का अत्यंत विकसित तथा परिष्कृत रूप प्राप्त होता है। प्रस्तर निर्मित इस मन्दिर की रचना में शिखर का भाग संभवतः ईंटों से निर्मित था। वास्तुगत तथ्यों से इस मन्दिर का निर्माणकाल पांचवीं शती ई. निश्चित होता है ।
- राजेन्द्र नगर, बिलासपुर (म.प्र.)
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