Friday, January 14, 2022

मुकुट-प्यारे-हरि

हरि ठाकुर, छत्तीसगढ़-गौरव के शोध, लेखन, प्रकाशन जैसे सभी क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहे। इतिहास को कण-कण समेटने के लिए उनका उद्यम लाजवाब और व्यग्रता अनूठी थी, लेकिन इसके इस्तेमाल में वे संयत रहते थे। इसके ढेरों प्रमाण अब भी उनके योग्य उत्तराधिकारी पुत्र आशीष सिंह सहेजे हुए हैं। यह भूमिका, हरि ठाकुर की लिखावट वाले यहां प्रस्तुत किए जा रहे 7 पृष्ठों के दस्तावेज के लिए है।

यह दस्तावेज मुकुटधर पांडेय द्वारा प्यारेलाल गुप्त को सन 1963 में लिखे पत्र की प्रतिलिपि है। गुप्त जी अपनी संकलित सामग्री, पत्रों आदि की चर्चा ठाकुर जी से करते, उन्हें दिखलाते और ऐसी किसी भी सामग्री की नकल उतार कर उसे सुरक्षित करने में ठाकुर जी देर नहीं करते। यह पत्र उसी का एक नमूना है।

यों तो पत्र का मजमून, गंभीर शोध-आलेख से कम नहीं, जिस पर पूरी टीका लिखी जानी चाहिए, किंतु यहां कुछ बिंदुओं का उल्लेख समीचीन होगा। छत्तीसगढ़-उड़ीसा संबंधों और इतिहास की दृष्टि से रायगढ़-संबलपुर के साथ सारंगढ़ का विशेष महत्व है। इस दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथों ‘सम्बलपुर इतिहास‘ और ‘जयचंद्रिका‘ का उल्लेख पत्र में आया है। वे ‘पूज्याग्रज‘ संबोधन, पं. लोचन प्रसाद पांडेय जी के लिए प्रयोग करते थे।

प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में लिखी जाने वाली हिन्दी की रोचक चर्चा है, जिसमें 2 ताम्रपत्रों की प्रतिलिपियां भेजने का उल्लेख है। ये ताम्रपत्र संभवतः वही हैं, जो सारंगढ़ में होने की जानकारी अन्य स्रोतों से मिलती है। (मेरे द्वारा इस संबंध में बहुत पहले प्रयास किया जा रहा है, लेकिन सफलता अब तक नहीं मिली है।)

अठारहवीं सदी मध्य अर्थात् रतनपुर राज पर मराठा भोंसलों के आधिपत्य के पूर्व रतनपुर-सम्बलपुर के तनाव और राजनैतिक षड़यंत्र, अस्थिरता का उल्लेख आया है। इस दौर के इतिहास में सारंगढ़-रायगढ़ राजा की भूमिका का महत्व भी उजागर हुआ है।

रोचक यह भी कि इस लंबे गंभीर शोध-सूचनापूर्ण पत्र का समापन करते हुए लिखा गया है कि- ‘‘इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम। जानिएगा।‘‘ और ‘‘लिखते २ थक गया हूं। विशेष विनय लिखने को और कुछ है भी नहीं।‘‘

अपनी ओर से मेरी बात बस इतनी कि धन्य हमारे ऐसे पुरखे। (प्रसंगवश पत्रिका ‘हमर छत्तीसगढ़‘ का अंक-3, जनवरी-दिसंबर 2003 मुकुटधर जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित था, जिसमें डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने अपने लेख में बताया है कि पाण्डेय जी द्वारा 1959 से 1975 के मध्य प्यारेलाल गुप्त जी को लिखे गए लगभग 121 पत्रों को मैंने पढ़ा‘ इस पर श्री मिश्र से चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि उनके पास पं. मुकुटधर के बहुत से पत्रों का संग्रह सुरक्षित है, मैंने उनसे निवेदन किया है कि उसे सुरक्षित और सार्वजनिक करने के लिए डिजिटाइज कर वेब पर लाना आवश्यक मानता हूं और इसमें उन्हें मेरे सहयोग की आवश्यकता हो तो मैं सहर्ष तैयार रहूंगा।)

आगे पत्र का पूरा मजमून-

श्रीराम
रायगढ़
२-१०-६३

मान्यवर गुप्त जी,

७-९ का कार्ड कल मिला। कल रात को डा. शर्मा ने उडिया भाषा में प्रकाशित सम्बलपुर इतिहास नामक पुस्तक ला कर दी जिसकी पृष्ठ संख्या ६४० है। लेखक हैं श्री शिवप्रसाद दाश B.A. M.Ed. विश्व भारती प्रेस सम्बलपुर में सन् १९६२ में प्रथम बार मुद्रित हुई है। कीमत है १५) । ये शिवप्रसाद दाश जी वही हैं जिनका नामोल्लेख स्व. पूज्याग्रज की जीवनी में ”सुधी समादर” के शीर्ष में हुआ है। वे सन् १९२४ में अपने इसी ग्रंथ के संबंध में ‘जयचंद्रिका‘ काव्य की नकल लेने को बालपुर पधारे थे। ‘जयचंद्रिका‘ का उल्लेव ग्रंथ में अनेक स्थलों पर हुआ है पर ग्रन्थकार ने पूज्याग्रज का नामोल्लेलख कहीं नहीं किया है जिनके द्वारा जयचंद्रिका पहले-पहल उन्हें देखने को मिली। खैर! प्रायः ४० वर्ष के उनके परिश्रम का फल है यह ग्रंथ। लगभग सौ पुस्तकों से उन्होंने सहायता ली है जिनका नामोल्लेख अंत में किया है, लेखक ने परिश्रम बहुत किया है, तभी ऐसे ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं।

आपको आश्चर्य होगा, मैंने सरसरी तौर से कल रात को ही १२ बजे तक पूरी किताब देख ली जो बातें आपके मतलब की मिलीं, लिख रहा हूं-

(१) प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में कैसी हिन्दी लिखी जाती थी ‘शीर्षक‘ लेख के काम की दो चीजें मिली- २ ताम्रपत्र जिनकी प्रतिलिपियॉं भेज रहा हूं। इनमें से एक-रतनपुर के राजा राजसिंह के पत्र का समसामयिक है। राजसिंह का पत्र संवत् १७४५ का है, छत्रसाय का लेख संवत १७४७ का। रतनपुर और सम्बलपुर में लगभग ६० कोस का अन्तर है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से इनका अध्ययन बड़ा मजेदार होगा। बस्तर वाला लेख संवत् १७६० का है। दूसरा ताम्रपत्र जैतसिंह का लगभग ८० वर्ष पीछे का है संवत् १८३८ का। अब आपको ४ प्राचीन लेख मिल गए - चारों प्रामाणिक। इन ताम्रपत्रों से तो प्रमाणित होता है कि उस समय सम्बलपुर (उड़ीसा हीराखंड) की राजभाषा हिन्दी थी।

(२) इस ग्रंथ के द्वारा पता चलता है कि सम्बलपुर के महाराजा छत्रसाय की (सं. १७४७ के लगभग) जिनके ताम्रपत्र का जिक्र उपर आया है, १२ रानियां थीं। रतनपुर की हैहय राजकुमारी उनकी अन्यतमा महिषी थीं। इस रानी के गर्भ से बूढ़ा राय का इस जन्म हुआ। नवजात शिशु को देखने के लिए रतनपुर राजा सम्बलपुर गये थे (राजा का नाम नहीं दिया है पर संवत् १७४७ के लगभग रामसिंह रतनपुर के राजा थे जिनका पत्र सं० १७४५ का लभ्य है, यह स्पष्ट है।) रत्नपुर की राजकुमारी पुरुषोत्तम सिंह और मान मिश्र नामक दो राजकर्मचारियों को बहुत मानती थी। अन्यान्य कर्मचारी उनसे ईर्ष्या करते थे। उन्होंने राजा छत्रसाय से चुगली खाई कि रतनपुर के राजा और राजकुमारी बूढ़ाराय को गद्दी पर बिठाने का षड़यन्त्र कर रही हैं। उन्होंने जालसाजी द्वारा मिथ्या आरोप को प्रमाणित कर दिया। इस पर राजा ने माता-पुत्र को जीवन्त समाधि का दण्ड दिया। खबर पा कर रत्नपुर के राजा बड़े क्रुद्ध हुए। उन्होंने नागपुर के भोंसलों की सहायता से सम्बलपुर पर आक्रमण कर छत्रसाय को बन्दी बनाया। छत्रसाय क्षमा-भिक्षा मांगने पर मुक्त हुए। उन्होंने शेष जीवन पुरी क्षेत्र में व्यतीत कर पाप का प्रायश्चित किया। पुरी में उनकी मृत्यु हुई।

ज्ञातव्य यह है कि क्या रतनपुर के इतिहास से इन बातों की पुष्टि होती है?

(३) रायगढ़ और सारंगढ़ के केवल उन्हीं राजाओं का उल्लेख यहां पाया जाता है जिनका सम्बलपुर के इतिहास से सम्बंध रहा है, यों वे सम्बलपुर के करद राजा थे, अठारह गढ़ों में सारंगढ़ और रायगढ़ भी थे।

सारंगढ़ के राजा बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने २ बार सम्बलपुर के महाराजाओं को राज्य-भ्रष्ट होने पर उनका सहाय्य कर उन्हें फिर से गद्दी पर बिठाया। वे पहले देवान कहलाते थे।

(अ) नरवर राय के पुत्र भीखराय देवान ने महाराजा बलभद्र साय के लिए बौत्नू-विजय करके उनसे ‘सोहागपुर सरखों‘ नामक १२ गॉंव पुरस्कार में प्राप्त किए थे। भीखराय देवान ने संवत् १६२४ से १६४४ तक राज्य किया था।

(ब) सम्बलपुर के महाराजा छत्रसाय के समय सैनिकों ने विद्रोह कर राजधानी को हस्तगत कर लिया। छत्रसाय अपने पुत्र अजित सिंह को साथ लेकर सारंगढ़ आए। उस समय उद्योतसाय सारंगढ़ के देवान थे। सैनिक विद्रोह का हाल पा कर उन्होंने अविलम्ब अपनी सेना सज्जित कर महाराजा सहित उत्तराभिमुख यात्रा की। वे रायगढ़ पहुंचे रायगढ़ में उस समय ठाकुर दुर्जय सिंह सम्बलपुर के सहायक सामन्त राजा थे। उन्होंने भी अपनी सेना उनके साथ कर दी। सारंगढ़ और रायगढ़ की सेना ने मिलकर सम्बलपुर के सैनिक विद्रोह का दमन किया। महाराजा छत्रसाय ने प्रसन्न होकर किकरदा परगने से ४२ गांव उद्योतसाय को ताम्रपत्र के द्वारा पुरस्कार में दिए। (संवत् १७१७)

(स) सबलपुर के राजा जैतसिंह के समय अकबर राय दीवान सर्वेसर्वा बन गया। महाराजा उसके भय से मंडला भाग गए। सारंगढ़ के राजा विश्वनाथ साय अपनी सेना लेकर सम्बलपुर गये। अकबर राय देवान को मार कर जैतसिंह को फिर से गद्दी पर बिठाया। तब उन्हें सरिया का परगना इनाम में मिला। इसका प्रमाण जैतसिंह द्वारा प्रदत्त सं० १८३८ का ताम्रपत्र है।

(4) रायगढ़ के सम्बंध में इतना ही लिखा है- ‘‘ठाकुर दुर्जय सिंह महाराजा छत्रसाय के समय सम्बलपुर के सहायक सामंत राजा थे। वे गौड़ (गोंड) वंश के थे। छत्रसाय ने उन्हें राजा की उपाधि दी थी। दुर्जय सिंह के पूर्व पुरुष नागपुर के अन्तर्गत बैरागढ़ (चांदा?) से आकर प्रथम फुलझर में रहे, उसके बाद सारंगढ़ और अंत में, रायगढ़ आए जहां उन्होंने अपने वंश की प्रतिष्ठा की। परवर्ती काल में रायगढ़ के राजा को बरगड़ का परगना भी प्राप्त हो गया। बाज पक्षी इनका वंश या राजचिन्ह है।

मदनसिंह1 जिसका जिक्र आपने अपने कार्ड में किया है दुर्जय सिंह के पहले हुए या पीछे। मदन सिंह का काल निर्णय पं. ज्वा. प्र. मिश्र ने यदि किया होगा तो पता चलेगा। दुर्जय सिंह महाराजा छत्रसाल के समय थे जिनका काल संवत् १७४७ के लगभग है।
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रायगढ़ के राजवंश के संबंध में मुझे इतनी और जानकारी है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज्य जब बंगाल और नागपुर में भोसलों का राज्य था तब राजा जुझार सिंह के समय रायगढ़ का राज्य बड़ा शक्तिशाली था। वह उन दोनों बड़े राज्यों के मध्य में Buffer State के समान था। जुझार सिंह के साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी की संधि हुई थी। जुझार सिंह ने ही शायद बरगड़ का किला सर किया था। रायगढ़ राज्य की खरसिया तहसील में बरगड़ का परगना है। मैं जब राजशाही में दण्डाधिकारी था मैंने बरगड़ परगने का दौरा किया था, तभी बरगड़ के कुछ भग्नावशेषों को जा कर देखा था।

जुझार सिंह का समय क्या है, नहीं कह सकता। पं. ज्वा. प्र. जी ने शायद कुछ जानकारी दी हो। इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम। जानिएगा। लिखते 2 थक गया हूं। विशेष विनय लिखने को और कुछ है भी नहीं।

आपका
मुकुटधर

सारंगढ़ के किसी ऐसे सज्जन का नाम मुझे नहीं मालूम जो आपको आवश्यक जानकारी दे सके।


मुकुटधर पांडेय जी का एक अन्य पत्र, जिसका महत्व स्वयं स्पष्ट है-
पोस्ट कार्ड पर रायगढ़ डाकखाने की मुहर 23.1.88 की
तथा अंबिकापुर 28.1.88 की है।

श्रीराम

रायगढ़ 22-1-88

(ठीक दिखता नहीं अन्दाज़ से लिख रहा हूं। जानिएगा।)

श्री छात्राएं
शासकीय कन्या उ.मा. शाला
अम्बिकापुर

आप लोगों का मुद्रित पत्र
प्राप्त हुआ। धन्यवाद।
आप लोगों को यह जान कर
दुःख होगा कि इस समय
(93 वर्ष की अवस्था में)
मोतियाबिन्दु से पीड़ित हूं-
आंखें काम नहीं कर रही हैं,
डा. ऑपरेशन की सलाह दे रहे हैं,
पशोपेश में हूं।

मुझे इस बात का अत्यन्त
खेद है कि मैं आप लोगों की
मांग पूरा करने में असमर्थ हूं।
मेरी बहुत सी कविताएं
संग्रह ग्रन्थों में आपको
मिलेंगी। आप उनमें से कोई

कविता अपने संग्रह के लिए
ले सकती हैं। मुझे कोई
आपत्ति नहीं। इस अवस्था में
चित्र भी भेजने में असमर्थ हूं,
क्षमा चाहता हूं।

प्रस्तावित संग्रह ग्रन्थ की
सफलता के लिए शुभकामना
सहित, आप लोगों का

मुकुटधर पाण्डेय

श्री छात्राएं
द्वारा प्राचार्य
शा.क.उ.मा. शाला
अम्बिकापुर (म.प्र.)
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हरिप्रसाद अवधिया जी के उपन्यास की लिए उनकी शुभाशंसा का नमूना भी उल्लेखनीय है-

‘मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता यह है कि अवधिया जी ने ‘धान के देश में‘ नाम देकर पहली बार उपन्यास को रचना की है। उपन्यास रचना में उन्हें कितनी सफलता हुई है इसका निर्णय तो सुविज्ञ आलोचक और मर्मज्ञ पाठक ही करेंगे। अवधिया जी पर मेरा विशेष स्नेह है। अपने स्नेह पात्रों की रचनाओं में हम लोग गुण-दोष की विवेचना नहीं करते। मैं तो यही कहूँगा कि उनकी इस प्रथम कृति से मुझे असन्तोष नहीं हुआ है। मुझे यह आशा भी है कि जब वे अन्य उपन्यास लिखेंगे तो उन्हें उत्तरोत्तर अधिक से अधिक सफलता प्राप्त होगी।‘
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2 comments:

  1. बहुत अच्छी जानकारी । डॉ परिवेश मिश्र या मनहर परिवार से कुछ जानकारी मिल सकती है शायद ।

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  2. अत्यंत रोचक। आपने यूनिकोड में उस दौर की हिंदी को उतारने में भी काफी मेहनत की।

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