पूरे आयोजन को स्थायी महत्व का मानते हुए यहां इस आयोजन की अखबार में प्रकाशित रपट, साथ ही पं. मुकुटधर पाण्डेय का संस्मरण भी दिया जा रहा है। मुकुटधर जी के संस्मरण में ‘पूज्याग्रज‘, ‘सभा-चतुर‘ और ‘नर-काव्य‘ (नाराशंसी का समानार्थी!) जैसे शब्दों का प्रयोग ध्यान आकृष्ट करता है। संस्मरण में छोटे और सरल वाक्यों द्वारा तटस्थ भाव से प्रस्तुति, संस्मरण में आई बातों के साथ मुकुटधर जी की शैली को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है, इसलिए इसे वेब पर सार्वजनिक करना आवश्यक मानते हुए यहां प्रस्तुत-
लोचन प्रसाद पाण्डेय जन्मशती समारोह
‘छत्तीसगढ़ के प्रति उनमें अगाध स्नेह था‘
कवि एवं पुरातत्ववेत्ता स्व. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय की जन्मशती पर विगत २६-२७ दिसम्बर को उनके गृहनगर रायगढ़ में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् भोपाल द्वारा दो दिवसीय समारोह आयोजित हुआ। पॉलिटेकनिक सभागार में समारोह का शुभारंभ वयोवृद्ध कवि पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय के उद्बोधन से हुआ।
पं. मुकुटधर पाण्डेय ने अपने उद्बोधन में कहा कि स्व. पं. लोचन प्रसाद जी ने काव्य लेखन द्वारा भाषा को एक संस्कार दिया। भारतेन्दु युग के बाद द्विवेदी युग में कविता द्वारा ही भाषा हेतु काम हुआ। स्व. पं. लोचन प्रसाद जी ने कविता के माध्यम से आदर्श को जीवन से जोड़ने का प्रयास किया। अपने लेखों तथा पुरातत्व के कार्य में उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना विषय चुना। छत्तीसगढ़ के प्रति उनमें अगाध स्नेह था। शुभारंभ सत्र में परिषद के सचिव श्री सोमदत्त ने स्व. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय जन्मशती समारोह के उद्देश्य पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि पाण्डेय जी की रचनायें जहां भी हैं, उन्हें एकत्र किया जाना चाहिए।
इसी सत्र में ‘पाण्डेय जी का रचनात्मक अवदान‘ विषय पर व्याख्यान देते हुए विद्वान साहित्यकार पं. विष्णुकांत शास्त्री ने कहा कि स्व. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने प्रथम बार यह स्थापित किया कि खड़ी बोली द्वारा भी कविता संभव है। द्विवेदी युग में कविता की हालत की विषद व्याख्या करते हुए शास्त्री जी ने बताया कि स्व. पं. लोचन प्रसाद जी ने कुछ वर्षों के बाद काव्य लेखन रोक दिया था अन्यथा संभव था कि वे कुछ महत्वपूर्ण लेखन करते। श्री शास्त्री ने स्व. लोचन प्रसाद जी की रचनाओं में आम आदमी के तकलीफ को भी रेखांकित किया।
व्याख्यान सत्र में ही श्री शरदचंद्र बेहार ने कहा कि स्व. लोचन प्रसाद जी के संपूर्ण लेखन में उनका युग उभर कर आता है। उनकी रचना उस युग का स्पंदन करती है साथ ही अपने संपूर्ण परिवेश के आत्म सम्मान को जगाती है। श्री शरदचंद्र बेहार ने जोर देते हुए इस बात को कहा कि उनकी रचनाओं का गुम होना एक दुखद घटना है।
इस दो दिवसीय आयोजन के दूसरे दिन स्व. पं. लोचन प्रसाद जी पर दो सत्रों में खुली परिचर्चा हुई।
सुबह के पहले सत्र में ‘काव्य भाषा का संस्कार और स्व. लोचन प्रसाद पाण्डेय‘ पर परिचर्चा हुई। इस सत्र में सर्वश्री प्रमोद वर्मा, प्रभात त्रिपाठी एवं सुश्री कल्याणी महापात्र ने अपने विचार व्यक्त किये। पटना से आये वरिष्ठ साहित्यकार श्री खगेन्द्र ठाकुर ने इस सत्र का संचालन किया तथा सर्वश्री वेणुधर पाण्डेय, शरदचंद्र बेहार, प्रभंजन शास्त्री, जगमोहन मिश्र, सतीश जायसवाल, विनय पाठक, डॉ. बलदेव एवं श्री जी.सी. अग्रवाल आदि ने परिचर्चा में भाग लिया।
आयोजन का तीसरा सत्र स्व. लोचन प्रसाद पाण्डेय की गवेषणाओं का महत्व‘ पर था। इस सत्र में सर्वश्री कल्याण चक्रवर्ती, डॉ. बलदेव एवं डॉ. बिहारीलाल साहू ने अपने आलेख का पाठ किया। इस सत्र का संचालन प्रमुख कवि एवं समीक्षक श्री प्रभात त्रिपाठी ने किया। सत्र की परिचर्चा में सर्वश्री नंदकिशोर तिवारी, सतीश जायसवाल, अनुपम कुमार, रायकवार एवं राहुल सिंह ने अपने विचार व्यक्त किये।
स्व. लोचन प्रसाद पाण्डेय जन्मशती समारोह का समापन सत्र ‘संस्मरण‘ का था। इस सत्र में श्री मुकुटधरं पाण्डेय का लिखा संस्मरण उनके पुत्र श्री दिनेश पाण्डेय ने पढ़कर सुनाया। सर्वश्री किशोरी मोहन त्रिपाठी, चिरंजीव दास, आनंदी सहाय शुक्ल, श्यामलाल चतुर्वेदी ने इस समापन सत्र में अनेक महत्वपूर्ण संस्मरण सुनाये। सर्वश्री धरणीधर शर्मा, जीवनसिंह ठाकुर, बिहारीलाल उपाध्याय, वेणुधर पाण्डेय ने भी कुछेक संस्मरण सुनायें। इस सत्र में स्व. पं. लोचन प्रसाद जी के नाती श्री विनोद पाण्डेय द्वारा लाये गये पाण्डेय जी का एक रिकार्डेड कैसेट भी लोगों को सुनाया गया। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के कार्यक्रम संपर्क अधिकारी श्री पूर्णचंद्र रथ ने अंत में आभार प्रदर्शन किया।
-हरकिशोर
उक्त समाचार मे श्री मुकुटधर पाण्डेय का लिखा संस्मरण उनके पुत्र श्री दिनेश पाण्डेय द्वारा पढ़कर सुनाने का उल्लेख है, वह इस प्रकार था-
कुछ संस्मरण
मुकुट धर पाण्डेय,
रायगढ़
26-12-1987
हमारे पूज्याग्रज लोचन प्रसाद पाण्डेय और मैथिलीशरण गुप्त दोनों समवयस्क थे। दोनों में बड़ा सद्भाव था। परस्पर पत्र व्यवहार और पुस्तकों का आदान प्रदान हुआ करता था। सन् 1909 में भाई साहब ने आधुनिक हिन्दी कविताओं का एक प्रतिनिधि संग्रह प्रस्तुत किया, जो कविता-कुसुम माला के नाम से प्रयाग के इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ, उसमें ‘स्वर्ग- सहोदर‘ नामक गुप्तजी की एक कविता भी संग्रहित थी। इसके लिये भाई साहब ने उनकी स्वीकृति प्राप्त नहीं की थी और तो किसी ने नहीं, गुप्त जी ने इस पर आपत्ति की। भाई साहब बड़ी मुश्किल में पड़ गये। उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी को लिखा, वह कविता उनके सम्पादन में निकलने वाली सरस्वती से ली गई थी। द्विवेदी जी ने गुप्त जी को समझाया, पुस्तक इंडियन प्रेस ने प्रकाशित की है, जहां से सरस्वती निक्लती है. उसके प्रकाशन से पांडेय जी को कोई लाभ नहीं, आपको आपत्ति है तो, अगले संस्करण में वह नहीं छापी जायेगी। गुप्त जी मन मसोस कर रह गये पर इस घटना से दोनों मित्रों में मन-मुटाव हो गया। सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु कवि‘ सेवानिवृत होकर बिलासपुर में रहने लगे थे। भाई साहब से उनका अच्छा सम्बन्ध था। मैथिलीशरण गुप्त ने किसी छद्मनाम से उनके काव्य प्रभाकर ग्रन्थ की आलोचना की थी, जो सरस्वती (1912) में छपी थी। भानु कवि चाहते थे कि प्रत्यालोचना की जाय। उन्होंने भाई साहब को लिखा- ‘का चुप साधि रहा बलवाना‘ और प्रत्यालोचना लिखने को प्रेरित किया। वह प्रत्यालोचना कलकत्ता से निक्लने वाली:भारत मित्र‘ में छपी। बालमुकुन्द गुप्त के काल से भारत मित्र से द्विवेदी जी को अनबन थी। उसके सम्पादक जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने द्विवेदी जी की ‘कालिदास की निरंकुशता - लेख माला‘ के उत्तर में, ‘निरंकुमाता निर्देशन‘ लिखा था। भारत मित्र में जब गुप्त जी के लेख का प्रत्युत्तर प्रकाशित हुआ, तब द्विवेदीजी ने गुप्त जी को लिखा- इसमें पाण्डेय जी का हाथ जान पड़ता है, तब किसी कारण से द्विवेदी से भी भाई साहब का मनोमालिन्य हो गया था।
युग बीत गये। हिन्दी संसार ने गुप्त जी की स्वर्ण जयंती मनायी। भाई साहब ने दीर्घकालीन मौन भंग कर, उन्हें बधाई का पत्र भेजा। गुप्त जी ने धन्यवाद पत्र में ‘सखेव तख्युः‘ अपराध क्षमा करने की प्रार्थना की। तबसे दोनों मित्रों में पुनश्च तुुष्टु सम्बन्ध स्थापित हो गया था। भाई साहब के देहावसान पर गुप्त जो ने सहानुभूति का तार भेजा था- ‘हिन्दी का एक विद्वान ही नहीं खो गया, मेरा एक बन्धु भी।‘
राजाशाही में रायगढ़ का गणेश मेला प्रसिद्ध था। भानुकवि आमंत्रित होकर आते थे। राजा भूपदेवसिंह को ‘कलगी-तुर्रा‘ का शौक था। दूर-दूर से गुनी मानी लोग आते थे। शायरी होती थी। दो दल होते थे। राजा साहब ने भानुकवि से पूछा- ‘आप किस दल के हैं?‘ उनका उत्तर था- महाराज जिस दल के हैं, मैं भी उसी दल का हूं‘, उनके उत्तर से राजा साहब बहुत प्रसन्न हुए। भानुकवि बड़े व्यवहार कुशल और सभा-चतुर थे। जब भी भाई साहब से इस बात की चर्चा होती थी, खूब हंसते थे, कहते थे- कहै कबीर छहों रस, जहाँ जस तहाँ तस।
रायगढ़ में हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक स्व. अनन्तराम पाण्डेय की स्मृति में अनन्त पुस्तकालय की स्थापना हुई थी। भाई साहब उसके मंत्री थे। उन्होंने भानुकवि के कर कमलों से उसका उद्घाटन कराया था। इस अवसर पर रायगढ़ दरबार ने उन्हें ‘साहित्याचार्य‘ को उपाधि से अलंकृत किया था। पीछे भारत सरकार ने उन्हें रायबहादुर और महामहोपाध्याय की उपाधि प्रदान की थी। इसके पहले हिन्दी के किती विद्वान को यह उपाधि नहीं मिली थी। हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा उन्हें साहित्य वाचस्पति को उपाधि भी प्राप्त हुई थी।
सन् 1912 में मैं रायगढ़ के नटवर हाई स्कूल का छात्र था। अंग्रेज कमिश्नर दौरे में आया हुआ था। मुलाहजे के लिए हाई स्कूल आ रहा था। मुझसे स्वागत गीत लिखाया गया था। वाद्य-यंत्रों के योग से गवाया गया था। उसी प्रकार एक शिक्षक के अवकाश ग्रहण, (सीताराम पोद्दार) पर मुझसे विदाई के गीत लिखाया गया था, भाई साहब को पता चला, तो वे बहुत नाराज हुए। तब से मैंने ‘नर-काव्य‘ नहीं करने को प्रतिज्ञा की थी। प्रसाद जी के ‘इन्दु‘ में इसी नाम की मेरी एक कविता भी थी। सुगुणवान डरूदेव समान हो ‘एक‘ अपवाद रखा गया था। अपवाद स्वरूप दो प्रसंग याद आते हैं। नागपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यालय मोर भवन का जब राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने उद्घाटन किया, तब मैंने उनके स्वागत में एक कविता पढ़ी थी। दूसरी कविता थी, महात्मा गांधी पर, जो मध्य प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन जबलपुर को मुख-पत्रिका ‘विवरणिका‘ के तत्कालीन संपादक नर्मदा प्रसाद खरे के आग्रह पर लिखी गई थी। ये दोनों महापुरुष अपवाद में आते थे।
भाई साहब नर-काव्य के विरोधी थे। वे ‘कीन्हें प्राकृत-जन गुनगाना-सिर धुनि गिरा लागि पाछिताना‘ के समर्थक थे। पर रायदेवी प्रसाद पूर्ण कवि पर एक बार उन्होंने ‘पूर्ण पंचक‘ कविता लिखी थी, जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती‘ में उनके चित्र सहित स्थान प्रदान किया था। उसकी एक पंक्ति याद आती है ‘वाणी के पुत्र मानी कविवर विनयी राय देवी प्रसाद‘ पूर्ण कविकृत्त ‘मेघदूत‘ का हिन्दी पद्यानुवाद ‘धाराधर धावन‘ के नाम से बहुत प्रसिद्ध था। उसी प्रकार सम्राट सप्तम् एडवर्ड के निधन पर उन्होंने सन् 1910 में शोकांजलि लिखी थी, और उसे उनकी विधवा साम्राज्ञी अलेक्जेन्ड्रा के पास भेजा था, पर वह सहानुभूति का एक मानवीय तकाजा था।
छोटी बहन की बिदाई के अवसर पर, कामता प्रसाद गुरू की ‘बेटी की विदा‘ के अनुकरण पर मैंने ‘बहिन की विदा‘ लिखी थी, मैं तब रायगढ़ में पढ़ता था। भाई साहब ने मुझे सूचित किया था, कि रामदयाल तिवारी ने उसको निम्न पंक्तियों की प्रशंसा की है-
‘कहीं जन्म ले कहीं दुःख से अपने दिवस बिताना
क्या इसमें ही जगत पिता ने जग का मंगल जाना।‘
तिवारी जी पीछे हिन्दी संसार में समर्थ समालोचक के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त के साकेत काव्य की आलोचना की थी। अंग्रेजी में लिखा था, हिन्दी में जिसका अनुवाद ‘गांधी मीमांसा‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था।
भाई साहब को लोक गीतों को लिपिबद्ध करने का शौक था, यह काम रामनरेश त्रिपाठी ने भी किया था। मंगन जाति के लोग, विविध वाद्यों के योग से भरथरी, ढोलामारू, नगेसर कन्या के गीत गाया करते थे। देवार जाति के लोग गोपल्ला गीत गाते थे, जिसमें रतनपुर के वीर गोपालराय की वीरता का बखान पाया जाता है। एक बार रतनपुर के राजा कल्याण साय दिल्ली की सेवा में गये थे। उनके साथ गोपाल राय भी गये थे। उन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन कर बादशाह को चकित कर दिया था। मुन्शी देवी प्रसाद ने जहांगीर नामा में राजा कल्याण साय की इस दिल्ली की यात्रा का उल्लेख किया है। भाई साहब दूर-दूर से देवारों को बुलाकर उनके गीत सुनते थे। देवी प्रसाद वर्मा ने अपनी पुस्तक लोचन प्रसाद पाण्डेय के निबंध में, गोपाल राय की मृत्यु शीर्षक लेख का संकलन किया है।
भाई साहब के पुरातत्व प्रेम का प्रारंभ एक विचित्र ढंग से हुआ था। पिता जी हमारी पितामही के अत्यन्त आग्रह से उन्हें सेन्ट्रल हिन्दू कालेज बनारस से लौटा लाए थे। घर में उन्हें पिता जी को अलमारी में बहुत सी पुरानी पुस्तकें मिली, जिनमें वे पुस्तकें भी थीं जो पिता जी के समय में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं। ये पुस्तकें थीं, राजा शिवप्रसाद (सितारे हिन्द) की लिखी, जो बड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी, भाई साहब ने उन पर नया आवरण चढ़ाकर, उन्हें नव जीवन प्रदान किया था। इन पुस्तकों को मैंने देखा था, पढ़ा था। उनकी भाषा बड़ी मनोरम थी।
फिर भाई साहब को रतनपुर के महाराजा राजसिंह के राजकवि गोपालचन्द्र की पुस्तकें, भक्त-चिन्तामणि और खूब तमाशा‘ देखने को मिली, जिन पर उन्होंने परिचयात्मक लेख लिखफर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाया था।
हमारा गांव महानदी के तट पर है। बरसात बीत जाने पर, जब नदी उतर कर सूख जाती थी, सोनझरा जाति के लोग बाहर से आते हैं और तट से गिरी हुई मिट्टी धोकर सुवर्ण-कण प्राप्त करते थे, वे कहते थे, ‘रत्ती आगर रतनपुर, बाल आगर बालपुर‘। वे वहां नदी के गर्भ देश में ही झोपड़ी बना कर रहते थे। कभी-कभी उन्हें, ताम्र मुद्राएं मिल जाती थीं, जो उनके काम की नहीं होती थीं। भाई साहब उन्हें खाने को चाँवल देकर, वे मुद्राएं उनसे प्राप्त कर लेते थे और कलकत्ता के ‘न्यूमिस्मेटिक सोसायटी‘ के अंग्रेजी पत्र में लेख लिखकर छपाते थे। वे मुद्राएं प्रायः रतनपुर के हैहयवंशी राजाओं की होती थी। उस पार तो उन्हें ऐसी मुद्रा मिली जिस पर ब्राह्मी लिपि में लेख अंकित था, रायबहादुर के.एम. दीक्षित ने उन्हें अभूतपूर्व कहा था।
डा. बलदेव ने, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के आग्रह पर जो लेख प्रस्तुत किया उससे भाई साहब के पुरातत्वान्वेषण पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
भाई साहब की पुरातात्विक और साहित्यिक गतिविधि प्रायः महाकोशल तक ही परिसीमित रही, पर समग्रता के विचार उनका दृष्टिकोण व्यापक रहा है। उन्होंने न केवल ‘महानदी काव्य‘ (उड़िया), की रचना की ‘चित्रोत्पलाचरण चुम्बित चारुदेश‘ महाकोशल की कीर्ति का कल-कीर्तन किया राजस्थान के प्रतापी प्रतापसिंह की प्रशस्ति में ‘मेवाड़ गाथा‘ लिखी, जिसका खड़ी बोली हिन्दी काव्य क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान है।
मुकुटधर पाण्डेय
रायगढ़.
*पं. लोचन प्रसाद जी जन्मशती पर 'कोसल कौमुदी' ग्रंथ का प्रकाशन 1988 में हुआ था, जिसमें स्पांसर और कापीराइट RAVISHANKAR UNIVERSITY उल्लिखित है। डा. विष्णु सिंह ठाकुर और नन्द किशोर तिवारी, जो ग्रंथ के संपादक मंडल में भी हैं, द्वारा लिखित उनके परिचय में जन्म, पौष शुक्ल, दशमी, विक्रम संवत 1943 तदनुसार 4 जनवरी 1886 छपा है। साथ ही पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय के चित्र के साथ भी तिथि (4 Jan.1886 - 18 Nov.1959) इस प्रकार दी गई है। हरि ठाकुर ने भी उनका जन्म पौष शुक्ल 10, संवत् 1943 (दिसंबर 1886) को बताया है। अंगरेजी और हिंदी तिथि के मिलान करने के लिए वेब पर तलाश में मिला कि सन 1886 में 4 जनवरी विक्रम संवत 1942, पौष कृष्ण द्वादशी, सोमवार तथा सन 1887 में 4 जनवरी विक्रम संवत 1943, पौष शुक्ल अष्टमी, मंगलवार था।
यहां उल्लिखित पं. लोचन प्रसाद जी की जन्मतिथि, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर द्वारा प्रकाशित ‘समय की शिला पर ....‘ (पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय की आत्मकथा) के आधार पर है, जिसमें पं. लोचनप्रसाद जी ने आत्म परिचय में लिखा है- ‘मेरा जन्म चंद्रपुर अंचल के बालपुर ग्राम में विक्रम संवत् 1943, पौष शुक्ल दशमी (तदनुसार 4 जनवरी सन् 1887) को हुआ था।
उक्त कार्यक्रम में मैं भी उपस्थित था, देश के नामचीन साहित्यविद उपस्थित थे। यह अवसर साहित्य वाचस्पति पं. लोचन प्रसाद पांडेय जी के पुनःमूल्यांकन का था
ReplyDeleteबहुत सुंदर, ज्ञानवर्धक और संग्रहणीय, बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteप्रो अश्विनी केशरवानी