Saturday, January 29, 2022

देवरानी जेठानी मंदिर, ताला

पुरातात्विक स्थल ताला पर मुख्यतः 1986 से 1988 तक विभिन्न पुरातात्विक कार्य राज्य शासन के बिलासपुर कार्यालय के माध्यम से श्री जी.एल. रायकवार के उत्तरदायित्व पर कराए गए, इस पूरे दौर में मेरी सहभागिता रही। ताला के विभिन्न पक्षों पर लिखने के अवसर बने, इस क्रम में मेरे द्वारा तैयार किया गया एक संक्षिप्त नोट तथा उसके पश्चात वार्ता के लिए आलेख- 

देवरानी-जेठानी मंदिर, ताला (ग्राम अमेरीकांपा) बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर, बिलासपुर-रायपुर मार्ग बायें व्यपवर्तन पर तथा पुनः दगोरी मार्ग पर दायें व्यपवर्तन पर मनियारी नदी के बायें तट पर स्थित छठी सदी ईस्वी के दो भग्न शिव मंदिर है। निकट ही मनियारी-शिवनाथ संगम है, जबकि मंदिर के सन्निकट एक बरसाती नाला बसंती, मनियारी में मिलता है । 

इन मंदिरों के प्रथम उल्लेख की जानकारी आर्क्यालाजिक सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, खंड- 7 पेज- 168 पर सन 1873-74 में डिप्टी कमिश्नर, रायपुर मि. फिशर के हवाले से जे.डी. बेग्लर ने किया। छठे दशक में अंचल के प्रसिद्ध पुरातत्वविद पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने इन्हें देखकर, अपने व्यक्तिगत नोट्स में दर्ज किया। सातवें दशक में डा. विष्णु सिंह ठाकुर ने इन्हें देखकर मंदिरों की जानकारी सार्वजनिक कर, चर्चा में लाया । मल्हार उत्खनन (1974-78) के दौरान प्रो. के.डी. बाजपेयी तथा श्री एस.के. पांडे ने भी इनका अवलोकन किया। 

नवें दशक में (दिनांक 9.3.84) यह राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया, इसी बीच एक विदेशी शोध छात्र डोनाल्ड स्टेडनर ने आर्काइव्स आफ एशियन आर्ट में 1980 में छायाचित्र व रेखाचित्र सहित इसे प्रकाशित कराया। नवें दशक के आरंभ में राज्य शासन के कार्य आरंभ किया और 1985-86 से व्यवस्थित मलबा सफाई, अनुरक्षण, रसायनिकरण आदि कार्य हुए। वर्ष 87-88 में तत्कालीन संस्कृति सचिव के विशेष आग्रह पर श्री के.के. चक्रवर्ती की देखरेख में विभागीय कार्य हुए। नवें दशक में अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकाशन श्री कृष्णदेव लिखित अध्याय, इनसाक्लोपीडिया आफ इण्डियन टेेम्पल आर्कटेक्चर का अमेरिकन इन्स्टीट्यूट आफ इंडियन स्टडीज द्वारा हुआ। 

स्थापत्य की दृष्टि से जेठानी मंदिर दक्षिणाभिमुख तथा पूर्व व पश्चिम से पार्श्व प्रवेश के लिए सोपान व्यवस्था वाला, विशिष्ट भू-योजना का मंदिर है, जिसमें शास्त्रीय योजना के विकास के स्थान पर शिलोत्खात वास्तु योजना की झलक है। देवरानी मंदिर गर्भगृह, अन्तराल व मुखमंडप वाला पूर्वाभिमुख मंदिर है, जिसका प्रवेश द्वार संरक्षण की अपेक्षाकृत अच्छी दशा में तथा अत्यंत आकर्षक है। कला के आधार पर मंदिरों को परवर्ती गुप्तकालीन माना गया है, किन्तु प्रतिमाशास्त्र व अलंकरण की दृष्टि से शास्त्रीय प्रतिमानों के साथ मौलिक प्रयोग भी परिलक्षित होता है। 

देवरानी मंदिर के परिसर से प्राप्त ‘रूद्र शिव’ की लगभग आठ फुट ऊंची और छह टन भारी प्रतिमा, भारतीय कला में अब तक प्राप्त उदाहरणों में विशिष्टतम है। प्रतिमा के पूरे शरीर तथा घुटनों, जंघाओं, उदर व वक्ष पर मानव मुख है तथा मुख व शरीर के अंगों को मोर, गोधा, मत्स्य, कर्क, कच्छप से समाकृत किया गया है। इसी प्रकार देवरानी द्वार शाखा पार्श्व पर कीर्ति मुखों में पत्र-पुष्पीय अभिकल्प का संयोजन है। 

स्थल से 12-13 सदी ई. के कलचुरी शासकों रत्नदेव व प्रतापमल्ल के ताम्र्र सिक्के तथा शरभुरीय प्रसन्नमात्र का छठी सदी ई. का रजत सिक्का प्राप्त हुआ है, जो सुुनिश्चित तौर पर ज्ञात प्रसन्नमात्र का एक रजत सिक्का है। 

देवरानी मंदिर के प्रवेश द्वार पर
विनोद जी, नामवर जी, आयुक्त मदनमोहन उपाध्याय जी और अशोक जी

इसी क्रम में ‘इतिहास के झरोखे से‘ शीर्षक वार्ता के लिए सन 1991 में तैयार यह आलेख- 

दक्षिण कोसल, ईसा की छठी सदी का आरंभ। शिवनाथ की सहायक नदी मनियारी के बायें तट पर विशाल अनुष्ठान जैसा दृश्य। हजारों कामगर हाथ व्यस्त थे। गुप्त वंश का स्वर्णकाल देखकर, स्थानीय शरभपुरीय राजवंश ने यह स्थान चुना था दो मंदिरों के निर्माण के लिए। वैष्णव धर्मावलम्बी राजवंश की यह शैव स्थापत्य, संरचना, इतिहास में उनकी धार्मिक सहिष्णुता और कलाप्रियता का प्रमाण साबित होने वाली थी। स्थल को मानो चिन्हांकित करने के लिए बसंती नाला और थोड़ी दूर पर ही मनियारी और शिवनाथ नदी का पवित्र संगम स्थल। नदी तट पर स्तरित चट्टानों का विपुल भंडार सहज उपलब्ध था। मंदिर निर्माण के लिए इससे उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता था। इतिहास के पिछले पन्नों पर इसी भू-भाग में पाषाणयुगीन मानव की उपस्थिति भी दर्ज है, जिसके प्रमाण स्वरूप लघु पाषाण उपकरण ही अब मिलते हैं। 

बिलासपुर जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर यह स्थल अब ‘ताला’ नाम से जाना जाता है, जो वस्तुतः ग्राम अमेरीकांपा का वीरान हिस्सा है, यहीं दो प्राचीन मंदिर भग्नप्राय स्थिति में, महत्ता के चिन्ह संजोये, विद्यमान हैं, जो स्थानीय लोगों में ‘देवरानी-जेठानी’ कहे जाते हैं। इन मंदिरों ने उपेक्षा का लम्बा दौर गुजारा है। शताधिक वर्षों में इक्का-दुक्का पुरातात्विक ही, इसकी खोज खबर लेने पहुंच सके थे। 

1873-74 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पहले महानिदेशक, सर अलेक्जेंडर कनिंघम के सहयोगी जे.डी. बेग्लर इस क्षेत्र में सर्वेक्षण के लिए आए। उन्हें रायपुर के तत्कालीन असिस्टेन्ट कमिश्नर मि. फिशर द्वारा इस स्थल की सूचना मिली। बेग्लर ने स्वयं इन मंदिरों को नहीं देखा, लेकिन भविष्य के लिए, रायपुर-बिलासपुर मार्ग के पुरातात्विक स्थलों में, ‘जेठानी-देवरानी’ मंदिर, नामोल्लेख मात्र प्रकाशित किया। वर्षों बीत गए। इन मंदिरों की खबर किसी ने नहीं ली। 

तकरीबन सौ साल बीतने को थे। शायद इन मंदिरों का आकर्षण प्रबल हुआ। सातवें दशक में दुर्गा महाविद्यालय, रायपुर के डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, अनुमान करते सरगांव से पैदल, अकेले, मनियारी के किनारे-किनारे बढ़ चले। रास्ते में उन्हें टीले और पुराने मिट्टी के खिलौने, पात्र खंड, मनके मिले। कदम तेजी से उठने लगे और वे मंजिल पर पहुंच ही गए। अजीब रोमांच था, स्तंभित रह गए डॉ ठाकुर, उन्हीं के शब्दों में -‘मैं गुप्तों के समकालिक स्मारकों की कला प्रत्यक्ष कर रहा था।’ वे पूरा दिन स्थल पर गुजारकर वापस आये और पुरातत्व में रूचि लेने वालों के लिए एक नयी राह खोज दी। 

आठवें दशक में मध्यप्रदेश शासन तथा एक अमरीकी शोधार्थी ने इस राह का अनुगमन किया और पुरातत्व के क्षेत्र में एक नयी सुगबुगाहट हुई। छत्तीसगढ़ में पहली बार गुप्तकालीन मंदिर अवशेषों की जानकारी उजागर हुई। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के छात्र डोनाल्ड, स्टेडनर ने देवरानी मंदिर को अत्यंत विशिष्ट संरचना माना और स्थल के गंभीर अध्ययन का पहला प्रयास किया। स्टेडनर के अध्ययन के आधार पर कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की ही विदुषी प्रोफेसर जोना जी. विलियम्स ने इसे छत्तीसगढ़ का ऐसा एकमात्र महत्वपूर्ण स्थल माना, जो गुप्तकला के प्रभाव से जीवन्त है। 

इस दौरान राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा स्थल संरक्षण आदि प्रक्रिया की पहल हुई। 1985 में पुरातत्व विभाग के तत्कालीन मानसेवी सलाहकार, हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ प्रमोदचन्द्र स्थल पर आए। उनकी सम्मति थी- ‘अद्भुत छठी सदी की भारतीय कला का चरम उत्कर्ष यहां घटित हुआ।’ ताला का महत्व पहचाना जाने लगा, किन्तु इसके बाद भी यह स्थल पुराविदों की चर्चा तक सीमित रहा। विदेशी शोधार्थी और विशेषज्ञ टिप्पणीकारों का कार्य-विवरण, जनसामान्य की बात तो दूर, क्षेत्रीय पुरातत्व में रूचि रखने वालों को भी सहज उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन राज्य शासन ने स्थल के महत्व के अनुरूप कार्य आरंभ कर दिया और एक-एक परत खुलती गई, एक बेतरतीब टीला खोदकर साफ किया गया और स्पष्ट हुआ जेठानी मंदिर का भव्य और अनूठा अभिकल्प, ढेरों प्रतिमाएं साथ ही सर्वाधिक चर्चा और महत्व की आठ फुट ऊंची, पांच टन से भी अधिक भारी अद्भुत प्रतिमा रूद्र शिव, देवरानी मंदिर के पास से प्राप्त हुई, जिसने पूरी दुनिया के समाचार जगत में स्थान पाया। 

आइये, देखें कि वस्तुतः इस स्थल में ऐसा क्या है, जो दर्शक को स्तब्ध कर देता है और पुरातत्वविदों के लिए भी पहेली है। कथित देवरानी और जेठानी मंदिर वस्तुतः शिवमंदिर है जिनमें, देवरानी अधिक सुरक्षित स्थित में है, लेकिन जेठानी लगभग ध्वस्त होकर टीला बन चुका था। दोनों मंदिरों के बीच सिर्फ 15 मीटर का फासला है। पुरातात्विक अध्ययनों से ये मंदिर, स्थापत्य व कला में छत्तीसगढ़ के एकमात्र और देश के विशिष्टतम गुप्तकालीन कला केन्द्र के रूप में मान्य हुए हैं। 

पुरातत्वीय कार्याें से जेठानी मंदिर का स्वरूप उजागर हुआ, यह मंदिर पश्चिम पार्श्ववर्ती नदी के समानान्तर, विलक्षण रूप से दक्षिणाभिमुख है, इस प्राचीन टीले की सफाई के फलस्वरूप जेठानी मंदिर की अनूठी स्थापत्य-योजना स्पष्ट हुई, पूर्व और पश्चिम से सोपानयुक्त पार्श्व प्रवेश, उत्तरी पृष्ठ में दो विशाल गजाकृतियों का अग्रभाग तथा सुदीर्घ स्तम्भों और प्रतिमाओं के पादपीठ सहित विभिन्न आकार की ईंटें व विशाल पाषाण खंडो से निर्मित संरचना स्पष्ट हुई। महत्वपूर्ण पुरावशेषों में, शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का चांदी का सिक्का मिला, कलचुरियों की रत्नपुर शाखा के शासकों रत्नदेव और प्रतापमल्ल के सिक्के भी मिले जो लगभग बारहवीं सदी ई. तक जनजीवन से इस क्षेत्र की संबद्धता प्रमाणित करते हैं। 

मूल मंदिर संरचना के भाग के रूप में अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश, गणेश, कार्तिकेय, नायिका, नागपुरूष आदि विभिन्न प्रतिमाएं एवं स्थापत्य खंड प्राप्त हुए हैं, इन प्रतिमाओं में शास्त्रीय विलक्षणता तो है ही इनका आकार भी उल्लेखनीय है। कुछ प्रतिमाएं तो 3 मीटर से भी अधिक लम्बी हैं। स्थापत्य और मूर्तिकला, तत्कालीन प्रचलित सामान्य प्रतिमानों के अनुरूप नहीं है। इसलिए इनका अध्ययन और शोध अधिक आवश्यक है। इनमें शास्त्रीय निर्देशों के साथ-साथ स्थानीय परम्परा और मौलिक चिन्तन को भी जोड़ने का प्रयास दिखता है। प्रतिमाओं में भव्यता, अलौकिक सौन्दर्य, आकर्षक अलंकरण तका कमनीयाता का संतुलित प्रदर्शन है। दो अन्य पाषाण प्रतिमाएं लघु फलक है, इनमें से एक विष्णु तथा दूसरी गौरी अंकित है। लघु फलक लगभग 8वीं सदी ईस्वी के हैं। इनका उपयोग प्रतिमा अनुकृति अथवा चल प्रतिमाओं के रूप में होता था। 

ताला में हुए विभिन्न चरणों के कार्यों ने देश के शीर्ष पुरातत्वविदों का ध्यान आकर्षित किया है। स्थल संबंधी खेज, अध्ययन, शोध तथा व्याख्या यद्यपि प्राथमिक स्तर पर है, किन्तु भविष्य की पुरातत्विक गतिविधियों के फलस्वरूप यह स्थल कला स्थापत्य के पहलू तो उजागर करेगा ही। शैव धर्मदर्शन के नए आयामों को उद्घाटित करते हुए यहां क्षेत्रीय कला परम्परा की पृष्ठभूमि भी उजागर होगी। आरंभिक अवलोकन मात्र से यह निःसंदेह है। 

देवरानी मंदिर की निर्माण योजना में आरंभिक चन्द्रशिला और सोपान के साथ अर्द्धमंडप, अन्तराल और गर्भगृह; तीन मुख्य भाग हैं। पूरी संरचना चबूतरे पर निर्मित है। मंदिर की बाहरी दीवार पर खुर और कुंभ के समानान्तर मकर मुख बने हैं और जंघा अर्द्धस्तंभों से विभक्त है। प्रवेश में दोनों ओर शिवगण है; अर्द्धमंडप के पार्श्वों में नदी देवी प्रतिमाएं हैं। 

मुख्य प्रवेश द्वार का सिरदल दो भागों में विभक्त है, ऊपरी हिस्से में गजाभिषिक्त लक्ष्मी, नदी-देवता, परिचारकों और गंधर्वों के अंकन की अभिकल्पना और गत्यात्मक चित्रण में कलाकार की समग्रकला साधना की गहराई दिखती है, निचले हिस्से में शिव-पार्वती विवाह का मंगल दृश्य है, सिरदल के भीतरी पार्श्व पर बीच में पन्द्रह ऋषियों को विशिष्ट मुद्रा में संयोजित कर वृत्त का आकार दिया गया है और दोनों पार्श्व अर्द्धपद्म से पूरित है। प्रवेश द्वार सम्मुख चार पुष्पीय लड़ियों के आकर्षण संयोजन अलंकृत है। प्रवेशद्वार के भीतरी पार्श्वों में उमा-महेश का लास्य, द्यूत प्रसंग में हारे शिव के वाहन नन्दी का पार्वती गणों के अधिकार में होना, भगीरथ अनुगामिनी गंगा स्पर्श से सगर वंशजों की मुक्ति, मौलिकता युक्त अनुभव सम्पन्न सृजन का परिणाम है, विशेष उल्लेखनीय कीतिमुख के रौद्रभाव संयोजन के लिए कोमल पत्र-पुष्प दलों का उपयोग, भारतीय कला का अद्वितीय प्रतिमान है। 

सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण प्रतिमा रूद्रशिव है। इसे महाशिव परमशिव या पशुपतिनाथ नाम भी दिया गया है। सिर पर नागयुग्म की भारी पगड़ी है। पूरे शरीर पर मानव और सिंह मुख तथा विभिन्न अंगों का रूपान्तरण जीव-जन्तुओं में हुआ है। दाढ़ी पर केकड़ा, मंूछ के स्थान पर दो मछलियां तथा नाक व भौंह का रूप गृहगोधा का है। आंख की पलकें दानव का मुखविवर हैं कान के स्थान पर मोर और कंधे मकर मुख है। चूंकि शिव का पशुपतिरूप, स्वाधिष्ठित संयमी पुरूष का है, अतः कछुए के गर्दन और सिर को उर्द्धरेतस आकार दिया गया है। श्री के.के.चक्रवर्ती व्याख्या करते है कि ‘जो रूद्र है व शिव भी है, जो अशुभ दूर करते हैं वह शुभ भी लाते हैं, जो ध्वंस करते है वही सृजन करते हैं; इस तरह यह रूद्र और शिव का समाहार का चिन्तन है।‘

No comments:

Post a Comment