Thursday, January 20, 2022

चैतुरगढ़

बिलासपुर-कटघोरा मार्ग पर ग्राम पाली से बांये व्यपवर्तन से ग्राम लाफा होकर पहाड़ी के तल पर स्थित ग्राम बगदरा से नव-निर्मित सीढ़ियों के द्वारा चैतुरगढ़ पहुंचा जा सकता है। बिलासपुर से चैतुरगढ़ की कुल दूरी लगभग 80 किलोमीटर है। इस प्राचीन गढ़ को अत्यंत सुदृढ़ किला माना जाता है। पहाड़ी पर प्राकृतिक गुफा को महादेव खोला या शंकरखोला कहते हैं, जो एक छोटी नदी जटाशंकरी (अहिरन) का उद्गम है। यह स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन संरक्षित है।

पहाड़ी के ऊपर संरचनाओं और पुरावशेषों की अधिकतम प्राचीनता लगभग 11-12 वीं सदी ई. है। किले में प्रवेश के लिए गणेश द्वार, देवी द्वार और हुंकरा द्वार है। इन पाषाण निर्मित दोहरे द्वारों के साथ प्राचीन कलचुरिकालीन प्रतिमाएं आलों में रखी हुई हैं। पहाड़ी के चारों ओर पत्थर से निर्मित प्राकार के अवशेष भी विद्यमान है।

इस गढ़ में गणेश द्वार के निकट देवी का मंदिर है, जिसके गर्भगृह में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से संलग्न पाषाण स्तंभों पर आधारित मण्डप है। मण्डप में पहुंचने के लिए सोपान क्रम की व्यवस्था है। मंदिर की बाहरी दीवार सादी है। पहाड़ी पर तीन तालाब है किन्तु मंदिर से संलग्न तालाब ही जल से परिपूर्ण रहता है। मंदिर का काल लगभग 15-16 वीं सदी ईस्वी है। नवरात्रि के अवसर पर दीप प्रज्वलन एवं विशेष पूजा अर्चना की जाती है।

उक्त संक्षिप्त परिचय लाफागढ़ का है। छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक धरोहर श्रृंखला के लिए मेरे द्वारा सन 1988 में तैयार पूरा आलेख इस प्रकार-

मानव जाति के मनोभूगोल के विकास में पृथ्वी के धरातल पर बनी उॅंची-नीची, छोटी-बड़ी पर्वत-श्रेणियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। पर्वत-श्रेणियों की उपस्थिति से दूरी के साथ निकटता और भय के साथ सुरक्षा की भावना आदिकाल से ही मानव मन में बनती-विकसित होती रही है। आदि-मानव का तो निवास ही शैल-गह्वर रहे, तब से ही पहाड़ियों-पर्वत श्रेणियों की सुरक्षात्मक उपयोगिता की प्रबल धारणा मानव मन में उपजी। मानव में सामाजिक भावना के साथ-साथ केन्द्रीय नियामक शक्ति की आवश्यकता से राजसत्ता का विकास हुआ और व्यवस्थित राजनैतिक स्थिति के प्रादर्शों के प्रारंभिक विवरणों में कौटिल्य का ‘गिरिदुर्ग’, ऐसी ही सोच के विकसित परिणाम थे, जिनका राजसत्ता में महत्वपूर्ण स्थान रहा। शैलाश्रयों के शैलचित्र, शिलोत्खात स्थापत्य और पर्वतों पर दुर्गीकरण, पर्वत-श्रृंखलाओं पर अंकित मानव मनःस्थितियों के चित्रण हैं, हमारे देश में उपलब्ध ऐसे अनेक स्थल जीवन-चर्या में सन्निहित कला, धर्म और सुरक्षात्मक प्रयासों के प्रमाण हैं।

बिलासपुर जिले के कटघोरा तहसील की चैतुरगढ़ या चिताउरगढ़ पहाड़ी इसी संदर्भ में चर्चित है। लाफा जमींदारी में स्थित होने के कारण लाफागढ़ के नाम से प्रसिद्ध यह पहाड़ी जिले के महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल पाली से लाफा होते पहुंचा जा सकता है। मध्ययुगीन क्षेत्रीय इतिहास को निर्धारित करने वाले राजवंश- कलचुरियों का इस क्षेत्र में पहला पड़ाव तुम्माण भी लाफागढ़ से अधिक दूर नहीं है। समुद्र तल से 3410 फुट उंचे पहाड़ी शिखर के चतुर्दिक लगभग 4 किलोमीटर उत्तर-दक्षिण और डेढ़ किलोमीटर पूर्व-पश्चिम लम्बे-चौड़े पठार की भौगोलिक अनुरूपताओं ने तत्कालीन क्षेत्रीय राजवंश को इस ओर आकृष्ट किया, फलस्वरूप यह स्थल इतिहास में सुरक्षित दुर्ग और कला-धर्म केन्द्र के रूप में हमारी धरोहर बनकर विद्यमान है।

लाफा से किले की दूरी अधिक नहीं है, किन्तु पहाड़ी का यह दक्षिण-पश्चिम हिस्सा खड़ी चिनाई से सपाट दीवार के मानिन्द है अतः इस ओर से किले पर प्रवेश संभव नहीं हो पाता। लाफा से आगे उत्तर की ओर बगदरा (बघधरा) पहुंचना होता है। बगदरा से पहाड़ी के उत्तर-पश्चिम हिस्से पर स्थित सिंह द्वार पहुॅंचा जाता है। यह रास्ता अत्यंत दुर्गम, अनियमित पगडंडी है, जिस पर स्थानीय पथ-प्रदर्शक के बिना चलना दुष्कर है। जंगल-झाड़ी के बीच से होकर गुजरने वाले इस मार्ग का अंतिम हिस्सा अत्यधिक कठिन तथा कुछ दूर सीधी चढ़ाई वाला है। चढ़ाई का अधिकांश मार्ग किले की दीवार से लगा हुआ है। यह संकरा रास्ता वस्तुतः पहाड़ी की खड़ी चिनाई और दीवार के बीच का ही संक्षिप्त भाग है, जिसमें से गुजरने पर दीवार या उसकी ओट से आसानी से निगाह रखी जा सकती है।

इस किले पर पहुंच की कठिनाई को देखकर लाफागढ़ पहुॅंचे दो अलग-अलग अंगरेज अधिकारियों, कैप्टन जे. फारसाइथ और जे.डी. बेग्लर ने इस दुर्गमता की विशेष रूप से चर्चा की है। पुरातत्व विभाग के अधिकारी बेग्लर के अनुसार ‘इस सत्र में मेरे द्वारा देखा गया यह अधिकतम मजबूत प्राकृतिक किला है।’ उन्होंने भारत के सुदृढ़तम किलों में भी लाफागढ़ की गणना की है। इन अंगरेज अधिकारियों की रपटों से यह स्पष्ट होता है कि किले की संरचनाएं तभी जर्जर होकर ध्वस्त हो रही थी। वर्तमान स्थिति में किले की दीवार तथा द्वार अधिकांशतः भग्न है। संरचना की दृष्टि से यहॉं कंकड़-बजरी तथा कहीं-कहीं ठोस पाषाण-खंडों से निर्मित दीवार के अवशेष, सिंह अथवा गणेश द्वार, मनका दाई द्वार और हुंकरा द्वार नामक तीन प्रवेश एवं महामाया मंदिर ही शेष हैं। रक्षा-भित्तियां अनियमित पहाड़ी कगार के अनुक्रम में निर्मित हैं।

रक्षा-भित्तियों का विस्तार पहाड़ी पर स्थित किले की दुरूह पहुंच को देखते हुए अधिक उपयोगी नहीं जान पड़ता। रक्षा-भित्तियां बजरीले कंकड़ और चूना-गारे से निर्मित है, किन्तु प्रवेश द्वारों की संरचना लगभग समान है। विशाल और चौड़े किन्तु वर्तमान में ध्वस्त, द्वार संयोजन दोहरे हैं, जिनके दोनों पार्श्वों पर रक्षक गृह बनाये गये थे। रक्षक-गृह, शैव तथा देवी उपासना कक्ष के रूप में भी प्रयुक्त रहे होंगे, यह तथ्य द्वारों के साथ प्राप्त होने वाले प्रतिमा खण्डों, देव-कोष्ठकों में स्थापित प्रतिमाओं और स्तंभयुक्त मंडप तुल्य योजना वाली संरचना से स्पष्ट होता है। भूरे बलुआ पत्थर से निर्मित ये स्तंभ लगभग सादे और चौकोर हैं। द्वारों पर प्रवेश करने पर 90 अंश कोण पर मोड़ सुरक्षात्मक दृष्टि से उपयोगी योजना है। द्वारों का निर्माण भी ठोस पाषाण खंडों के संयोजन से किया गया है।

प्रवेश द्वारों में विभिन्न प्रतिमाएं दृष्टव्य हैं। सिंह द्वार से सम्बद्ध प्रतिमाओं में गणेश, पशुमुखी नारी तथा उत्कटासन में स्थित एक अन्य नारी प्रतिमा है। मनका या मनिया दाई द्वार में दोहरे पद्मपीठ पर पद्मासन में स्थित चतुर्भुजी अत्यंत अलंकृत देवी प्रतिमा है। हुंकरा द्वार की विभिन्न प्रतिमाओं में मातृकाएं हैं। षट्भुजी वैष्णवी पद्मपीठ पर ललितासन में स्थित है। भुजाएं वरद मुद्रा तथा चक्रयुक्त हैं। एक अन्य देवी प्रतिमा जटामुकुट तथा कपालधारी प्रदर्शित है। इन्द्राणी की चतुर्भुजी प्रतिमा की अवशिष्ट भुजाएं वरद मुद्रा व सनाल पद्मयुक्त है। पादपीठ पर गज वाहन अंकित है। ब्रह्माणी की प्रतिमा त्रिमुखी है तथा पादपीठ पर हंस वाहन अंकित है। वराहमुखी वाराही जटामुकुट युक्त ललितासन में स्थित प्रदर्शित है।

किले में विशेष उल्लेखनीय संरचना महामाया मंदिर है। मंदिर पहाड़ी के पश्चिम भाग में सिंह द्वार के समीप स्थित है। पूर्वाभिमुख मंदिर नरम बलुआ पत्थर से निर्मित है। ऊंची जगती पर निर्मित मंदिर में पहुंचने के लिए सोपानक्रम की व्यवस्था है। अर्द्धमण्डप, मंडप, अंतराल और गर्भगृह युक्त मंदिर की संरचना शास्त्रीय दृष्टि से सादी और सपाट है। मंडप में पांच पंक्तियों में पांच-पांच स्तंभ व अर्द्धस्तंभ हैं। गर्भगृह के प्रवेशद्वार में सिरदल पर गणेश अंकित है। वाह्य भित्ति में सादे अधिष्ठान और जंघा पर शिखर है। गर्भगृह की प्रतिमा उल्लेखनीय है जिसमें दुर्गा के महिषासुर मर्दन का रूपांकन है। देवी की प्रतिमा द्वादशभुजी है। दाहिनी भुजाओं में क्रमशः परशु, त्रिशूल, खेटक, खट्वांग आदि आयुध हैं, बायीं भुजाओं का अधिकांश खंडित है। देवी के पैरों के निकट महिषासुर का अंकन है। वाहन सिंह भी महिष पर आक्रमणरत प्रदर्शित है। मंदिर के निकट ही ‘पाट तालाब’ है। इतनी ऊंचाई पर भी इस तालाब में सदैव जलराशि बनी रहती है। पहाड़ी पर दो अन्य तालाब भी थे, जो अब सूख गये हैं।

पुरातात्विक महत्व के इस स्थल-लाफागढ़ का निरपेक्ष काल निर्धारण, साक्ष्यों के अभाव में, संभव नहीं है। तर्क-प्रमाण के आधार पर स्थल 14-15 वीं सदी ईस्वी का प्रतीत होता है। महामाया मंदिर चूना गारा युक्त भित्तियां व कुछ कलाकृतियां निश्चय ही इस काल से पूर्व की नहीं है। देव प्रतिमाएं अवश्य इस स्थापना में संदेह पैदा करती है, किन्तु प्रतिमाओं और अवशेषों का स्थान परिवर्तन की संभावना से यह संदेह निर्मूल हो जाता है। ऐसा भी संभव है कि 10-11 सदी ईस्वी में कलचुरियों के आरंभ के साथ इस स्थल पर दुर्ग स्थापना हुई हो। अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा तैयार पारम्परिक सूची में लाफागढ़ का निर्माता पृथ्वीदेव को बताया जाता है। दन्तकथाओं से भी ऐसा ही पता चलता है किन्तु इसकी आवश्यकता न होने पर, साथ ही राजधानी रत्नपुर स्थानान्तरित हो जाने से किले का रख-रखाव नहीं हो पाया होगा और 14-15वीं शताब्दी में संभावित मुस्लिम आक्रमणों के भय से इसे पुनर्निर्मित किया गया हो। मुस्लिम आक्रमणों के प्रभाव का इतिहास इस क्षेत्र के अन्य गिरिदुर्ग गढ़कोसंगा अर्थात कोसईगढ़ से सम्बद्ध है, अतः लाफागढ़ की ऐतिहासिकता में भी इन्हीं तत्वों की संभावना प्रकट की जा सकती है। इस कथित सुदृढ़तम दुर्ग के साथ शौर्य एवं वीरता को कोई ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त नहीं होता।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक लाफागढ़ दुरूह होने के कारण आवागमन में आसान नहीं है। सघन साल वन से आच्छादित लाफागढ़ पहाड़ी के चतुर्दिक वन्य पशु-पक्षी भी सहज दृष्टिगोचर होते हैं। पुरातत्वीय महत्व के साथ नैसर्गिक सौंदर्य, पर्यटन की दृष्टि से स्थल को प्राप्त प्राकृतिक वरदान है। आवागमन व्यवस्था व अन्य सुविधाएं विकसित कर विद्यार्थियों एवं पर्यटकों का सहज आकर्षित किया जा सकता है।

1 comment:

  1. ज्ञानवर्धक आलेख, चैतुरगढ़ की चढ़ाई कठिन ही है। ऊपर पहुंचने पर प्रकृति का सुंदर स्वरुप देखने मिलता है।

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