Sunday, January 30, 2022

छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली

छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली संबंधी भाषावैज्ञानिक अध्ययन होता रहा है, अब शब्दकोश और मानकीकरण पर भी जोर दिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 21 जनवरी 2022 को आदेश जारी कर ‘मानक छत्तीसगढ़ी व्याकरण अउ छत्तीसगढ़ी शब्दकोश‘ निर्माण समिति के गठन हेतु सदस्य नामांकित किए गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भाषाविज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा के कुछ महत्वपूर्ण संदर्भों का स्मरण कर लेना आवश्यक है। इनमें से एक ‘छत्तीसगढ़ी बोली‘ शीर्षक लेख है। यह लेख द्विमासिक पत्रिका ‘रचना‘ के अंक-27, नवंबर-दिसंबर 2000 में प्रकाशित हुआ था। इसके साथ ‘देशबंधु‘ से साभार पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी-लेखन का मानकीकरण‘ का प्रकाशन 2002 में हुआ था, सहयोग में डॉ. चित्त रंजन कर, डॉ. केसरी लाल वर्मा तथा डॉ. सुधीर शर्मा का नाम है। अन्य भाषाविद्, साहित्यकारों के साथ यह तीनों ही नाम उक्त समिति के सदस्य नामांकित हैं।

यह उल्लेख समीचीन होगा कि इस बीच डॉ. चित्त रंजन कर ने भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण श्रृंखला में सन 2015 में प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़ की भाषाएं‘ खंड का संपादन किया है। डॉ. केसरी लाल वर्मा भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक जैसे अन्य कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे तथा वर्तमान में पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति हैं। डॉ. सुधीर शर्मा ने भाषाविज्ञान के साथ आयोजन और प्रकाशन के क्षेत्र में भी ख्याति अर्जित की है। समिति में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व सचिव भी सदस्य हैं। साथ ही हल्बी, गोंड़ी और जशपुर के भाषाविदों का भी नाम होना उल्लेखनीय है, जिससे अनुमान होता है कि इस क्रम में छत्तीसगढ़ की अन्य भाषा-बोली के समावेश पर भी विचार किया जाएगा।

छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली और मानकीकरण पर कुछ विचारणीय बातें-

मेहरोत्रा जी के ‘रचना‘ पत्रिका वाले लेख का आरंभ था- ‘छत्तीसगढ़ी‘ को अधिकतर छत्तीसगढ़ी-भाषी ‘भाषा‘ कहना-कहलवाना पसंद करते हैं, पर इस लेख के शीर्षक में इसे ‘बोली‘ लिखा गया है - जान-बूझकर, जिसके अनेक तकनीकी कारण हैं। इसी लेख में आगे है- ‘भाषा बनने के लिए छत्तीसगढ़ी को अपना स्वतंत्र अस्तित्व और भारी-भरकम व्यक्तित्व बनाना पड़ेगा, जैसे हिंदी से अलग हो कर पंजाबी ने बनाया।‘ तथा ‘जिस प्रकार पहले की असमिया बोली बंगला भाषा से अलग हो कर पृथक भाषा बन चुकी है। इस के लिए हमें और हमारी आगामी पीढ़ियों को छत्तीसगढ़ी और मानक हिंदी के आज के रिश्ते को देखते हुए कितना लंबा इंतजार करना पड़ेगा, इसका जवाब कोई नहीं दे सकता। ... अपनी मातृभाषा, अपने परिवार, अपनी जाति, अपने क्षेत्र से लगाव होना बिल्कुल गलत नहीं है। लेकिन ‘लगाव‘ का अर्थ ‘लगाव‘ से अधिक नहीं होना चाहिए। ... छत्तीसगढ़ी आदि को हिंदी से पृथक भाषा मानने का अर्थ है मानक हिंदी के आच्छादक रूप से छत्तीसगढ़ी आदि के अंतरंग संबंधों को नकारना।‘

राज्य गठन के साथ छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी की भावना तीव्र थी इसके चलते मेहरोत्रा जी के इस तकनीकी आधार के विरुद्ध भावनात्मक प्रतिक्रियाएं आईं। संभवतः इसी का परिणाम था कि पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी-लेखन का मानकीकरण‘-2002 के आरंभ में उन्होंने स्पष्ट किया कि हिंदी में भले ही संस्कृत के बहुत-से भाषापारिवारिक तथ्य और लक्षण विद्यमान हैं, पर जिस प्रकार वह ‘संस्कृत नहीं है‘, उसी प्रकार छत्तीसगढ़ी भी अब अपने रास्ते पर इतना आगे बढ़ चुकी है कि यह आज ‘हिंदी नहीं है।‘ तथा आगे लिखते हैं- ‘किसी ऐसे विषय पर अपनी विद्वत्ता नहीं दिखानी चाहिए, जिस में हमारी विशेषज्ञता न हो। ... देवनागरी लिपि को बहुत बड़े विशेषज्ञों ने बनाया/विकसित किया था/है। इस में भाषा-विकास के साथ वर्तनी-संबंधी आवश्यक सुधार भी विशेषज्ञ लोग और उनकी समितियां ही यथासमय किया करती हैं। लेकिन बाहरी नीम-हकीमों की संसार में कमी नहीं है, जिन्हें समझ लेना चाहिए कि सही हकीम बनने के लिए विषय-विशेष के गंभीर अध्ययन और अच्छे अनुभव की आवश्यकता होती है।‘ 

छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा, ‘‘एक विचार यात्रा ... छत्तीसगढ़ ‘जनभाषा से राजभाषा तक‘‘ का प्रकाशन सन 2003 में हुआ। इस पुस्तिका में डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी विभाषा से भाषा की यात्रा‘ शीर्षक लेख में कहते हैं- ‘भाषा विज्ञान के मूर्धन्य विद्वान डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा के तर्क से मैं सहमत हूं कि छत्तीसगढ़ की पुस्तकें, शब्दकोष, तकनीकी शब्दावली, विज्ञान तथा वाणिज्य के ग्रंथों का अभाव है। छतीसगढ़ी का मानक शब्दकोश अभी तक नहीं बन पाया है, जो उपलब्ध है, वह संपूर्ण नहीं है। मानक या परिनिष्ठित छतीसगढ़ी में सृजन के लिए नयी पीढ़ी को तत्पर होना पड़ेगा अन्यथा चिल्लाने या नारे लगाने से भाषा या राजभाषा की क्षमता नहीं बढेगी।‘ इसके बाद आगे लिखते हैं कि ‘वास्तव में अभी छत्तीसगढ़ी लोकभाषा या जनभाषा है, उसे भाषा के रूप में समृद्ध होने के लिए हिंदी से अलग अपना अस्तित्व कम से कम पचास प्रतिशत बनाना होगा। भाषा विज्ञान के अनुसार अभी छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिन्दी परिवार के अंतर्गत ही आती है। वह एक ओर अर्धमागधी की दुहिता, तो दूसरी ओर अवधी, वघेली की सहोदरा है। उसे संस्कृत की लाड़ली दौहित्री कहना अधिक उपयुक्त है- उसे समृद्ध और हिन्दी से अलग अस्तित्व प्रदान करने के लिए हमने क्या और कितना श्रम किया?‘ 

पुनः सन 2001 में रमेश चंद्र मेहरोत्रा की पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी को शासकीय मान्यता?‘ प्रकाशित हुई। इसमें उनके विचार इस प्रकार हैं- ‘छत्तीसगढ़ी को भाषा के रूप में विकसित करने की व्यग्रता का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है, ... बोली की सीमाओं को लाँघ कर भाषा के रूप में दावा कर चुकी छत्तीसगढ़ी को राजकीय कामकाज की भाषा की मान्यता दी जाने की दिशा में प्रयत्न शुरू हो चुके हैं। मेहरोत्रा जी की इसी पुस्तिका में ‘छत्तीसगढ़ी के लिए ‘दिल‘ और ‘दिमाग‘ शीर्षक के साथ उल्लेख है कि ‘यदि हलके-फुलके ढंग से बात करें, तो भाषा और बोली में अंतर करना बच्चों का खेल है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता, जो स्वयं को इस विषय का विशेषज्ञ मान कर इस बारे में अपना निर्णय झपट कर न दे देता हो।‘ इसके आगे उल्लेख है कि ‘भाषा/बोली और राजभाषा‘ शीर्षक के अंतर्गत विभिन्न कोशों का उद्धरण, जिनमें भाषा और बोली को समानार्थी बताया गया है, देते हुए स्पष्ट करते हैं- ‘अब निकालिए सिर खुजला-खुजला कर इन आद्योपांत पराच्छादित अर्थों में से पहले ‘भाषा‘ और ‘बोली‘ का अंतर और उस के बाद जमाइए ‘छत्तीसगढ़ी भाषा‘ और ‘छत्तीसगढ़ी बोली‘ का अपना ‘वाद‘! तात्पर्य कि भाषा और बोली में ठीक-ठीक अंतर नहीं किया जा सकता। इसी पुस्तिका में निष्कर्षतः कहते हैं- ‘इस समय ‘छत्तीसगढ़ी भाषा‘ का मतलब है ‘छत्तीसगढ़ी के केंद्रीय पश्चिमी-उत्तरी-पूर्वी-दक्षिणी सारे रूपों का पारिवारिक संकुल‘ और ‘मानक छत्तीसगढ़ी‘ का मतलब है ‘केंद्रीय छत्तीसगढ़ी का वह मानकीकृत (आदर्शाेन्मुख) रूप, जो छत्तीसगढ़ी भाषा के सर्वक्षेत्रीय बोली-रूपों को संपर्क-बद्ध किए हुए है।‘ 

भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के अध्यक्ष गणेश एन. देवी कहते हैं कि ‘पूर्व औपनिवेशिक काल में भाषा से संबंधित ज्ञान-मीमांसाओं में ‘मानक भाषा‘ तथा ‘बोली‘ के संबंध में किसी भी प्रकार की उच्च-नीचता (पदानुक्रम) नहीं थी। ... उस भाषा को निम्न कोटि कर माना जाने लगा जो मुद्रित स्वरूप में उपलब्ध नहीं थी। वहीं डॉ. चित्त रंजन कर के अनुसार यहां वर्तमान में तिरानवे भाषाएं/बोलियां बोली जाती हैं। 

‘द मारिया गोंड्स ऑफ बस्तर‘ डबलू.वी. ग्रिग्सन 1938, ने गोंडी और उसके व्याकरण अध्येता अंग्रेज अधिकारियों के अलावा, हल्बी को लिंगुआ फ्रैंका- संपर्क भाषा के साथ बस्तर की भाषाई विविधता के लिए बताया है कि सर्किल इंस्पेक्टर चेतन सिंह बस्तर की सभी ‘36‘ भाषाएं जानते थे। 

डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ में लिखा है- ‘सरगुजा जिले के कोरवा और बस्तर जिले के हलबा के साथ कवर्धा के किसी बैगा और सारंगगढ़ के किसी कोलता को बैठा दीजिए फिर इन चारों की बोली-बानी, रहन-सहन, रीति-नीति पर विचार करते हुए छत्तीसगढ़ीयता का स्वरूप अपने मन में अंकित करने का प्रयत्न कीजिये। देखिये आपको कैसा मजा आयेगा!‘ 

ए.ए. मैक्डॉनल की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट्रेचर‘ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में भाषा के मानकीकरण के संबंध में ग्रंथ के अनुवादक डॉ. रामसागर त्रिपाठी के विचार महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं कि ‘परिवर्तनशीलता भाषाओं की एक सामान्य प्रकृति है। पिता और पुत्र की भाषा सर्वांश में एक रूप नहीं होती, उच्चारण में कुछ न कुछ अन्तर पड़ जाता है। यह अन्तर पीढ़ियों के व्यवधान से १००-२०० वर्ष में इतना अधिक बढ़ जाता है भाषा का स्वरूप ही बदल जाता है और तब पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों भाषाओं को एक मानना असंगत प्रतीत होने लगता है। जो कालकृत व्यवधान के विषय में कही जाती हैं वही बात स्थानकृत दूरी के विषय में भी कही जा सकती है। एक ही भाषा थोड़ी-थोड़ी दूर में बदलती जाती है और पर्याप्त दूरी तक बढ़ कर अपना नाम रूप खो देती है। ... ... ... यह सारा कार्य भाषा संस्कार के द्वारा सम्पन्न हुआ था, अतः इस भाषा का नाम संस्कृत भाषा पड़ गया। यह समझना भारी भूल होगी कि संस्कृत कभी भी जन साधारण की भाषा थी। जन साधारण की भाषा वही भाषा हो सकती है जिसमें बोलने वालों को अपने ढंग से परिवर्तन कर लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। ... ... ... इस भाषा (संस्कृत) का प्रवर्तन स्थायी साहित्य लिखने के मन्तव्य से ही हुआ था। ... ... ... साहित्य सर्जना की दृष्टि से विचार मरने पर यही एक भाषा अमर भाषा कही जाने की अधिकारिणी है। ... ... ... हजारों वर्ष पहले लिखी वाल्मीकि रामायण को हम आज उसी सरलता से समझ सकते हैं जैसे तत्कालीन विद्वान उसे पढ़ते और समझते रहे होंगे। 

सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया‘ का हिन्दी अनुवाद उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) द्वारा प्रकाशित है। इस सर्वेक्षण में 179 भाषाएं और 544 बोलियां, इस प्रकार कुल संख्या 723 है। इसमें भाषा और बोली के लिए कहा गया है कि ‘साधारण रूप से हम यह कह सकते हैं कि एक भाषा की विभिन्न बोलियों में समानता होती है और उस भाषा को बोलनेवाले उसे समझ जाते हैं किन्तु अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा को ग्रहण करने के लिए विशेष परिश्रम और अध्ययन की आवश्यकता होती है।‘ 

इस भाषा सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ी की चर्चा ‘छत्तीसगढ़ी, लरिआ या खल्टाही‘ शीर्षक अंतर्गत है, जिसके नाम के परिचय में कहा गया है- ‘यह बोली ऊपर दिये हुए तीन नामों में से आमतौर से पहले, छत्तीसगढ़ी अर्थात् छत्तीसगढ़ की भाषा, के नाम से जानी जाती है। बिलासपुर जिला इस क्षेत्र का एक हिस्सा है और यह पड़ोसी बालाघाट जिले में ‘खलोटी‘ के नाम से प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ी, इस परवर्ती जिले के एक हिस्से में भी बोली जाती है और वहाँ यह (छत्तीसगढ़ी) ‘खलोटी‘ क्षेत्र की भाषा, अर्थात् ‘खल्टाही‘ के नाम से जानी जाती है। छत्तीसगढ़-मैदान के पूरब की ओर पूर्वी सम्बलपुर का उड़िया प्रान्त तथा उड़िया की सामन्तीय रियासतें पड़ती हैं। उन क्षेत्रों में रहने वालों के बीच, उनके पश्चिम में स्थित छत्तीसगढ़ प्रदेश ‘लरिया प्रदेश‘ के नाम से प्रसिद्ध है; और इसीलिए उनके यहाँ छत्तीसगढ़ी को ‘लरिआ‘ कहा जाता है।

रमेश चंद्र मेहरोत्रा जी का यह उद्धरण भी प्रासंगिक है- अब देखिए छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ से संबंधित अन्य बोलियों पर चुने हुए पीएचडी और डीलिट् स्तरीय शोधकार्य (इनमें से कई पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं)। छत्तीसगढ़ी रचनाओं और रूपों का उद्विकास (नरेंद्रदेव वर्मा 1973), छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन (मन्नूलाल यदु 1973), छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली (पालेश्वर प्रसाद शर्मा 1973), मध्यप्रदेश में आर्यभाषा परिवार की बोलियां (प्रेमनारायण दुबे 1974), मुरिया और उस पर छत्तीसगढ़ी का प्रभाव (श्रीमती तारा शुक्ला 1976), छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिंदी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ परिवर्तन (विनय कुमार पाठक 1978), छत्तीसगढ़ी और उड़िया में साम्य और वैषम्य तथा छत्तीसगढ़ी में उड़िया तत्व (ध्रुव कुमार वर्मा 1978), छत्तीसगढ़ी में व्यवहृत रिश्ते-नातों से संबंधित शब्दावली का भाषावैज्ञानिक अध्ययन (सतीश जैन 1983), छत्तीसगढ़ी के क्षेत्रीय एवं वर्गगत प्रभेदों के वाचकों की भाषा वैज्ञानिक प्रतिस्थापना (व्यास नारायण दुबे 1983), छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन ( विनय कुमार पाठक, 1985, डिलिट्), मानक हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी के भेदक तत्वों का अध्ययन (नरेंद्र कुमार सौदर्शन 1995), अकाउस्टिक डिस्टिंक्टिव फिचर्स ऑफ छत्तीसगढ़ी सग्मैंटल्स (ए.एस. साड़गांवकर, 1996, डिलिट्)।

ये भी- छत्तीसगढ़ के दोरली लोक साहित्य का भाषापरक अध्ययन (राम जनम पांडे 1971), छत्तीसगढ़ की तेलंगी पर ए डस्क्रिप्टिव अनालिसिस ऑफ द तेलंगी डायलक्ट ऑफ बस्तर (जे. श्रीहरि राव, 1975), छत्तीसगढ़ की दंडामी माड़िया पर ए ग्रामर ऑफ दंडामी माड़िया (केशीनाथ पांडेय 1980), बस्तर के आदिवासियों के नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (शिरीन लाखे 1987), राजनांदगांव के विभिन्न धर्मावलंबियों की धर्म-संबंधी शब्दावली का अर्थवैज्ञानिक अध्ययन (श्रीमती उषा मिश्रा, 1992)।

संभवतः उपर्युक्त कार्यों में किसी सीमा तक परिचित (मुझ से व्यक्तिगत रूप से अपरिचित) आयुक्त जे.आर.सोनी ने संकल्प-रथ (भोपाल) के जुलाई 1999 अंक (छत्तीसगढ़ के साहित्यिक अवदान पर केंद्रित विशेषांक) में लिखा है- डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ अंचल को भाषा विज्ञान से परिचित कराने वाले तथा छत्तीसगढ़ी पर महत्वपूर्ण शोध कार्य करने व करवाने वाले एकमेव प्रणम्य आचार्य हैं।

अब मुझे आगे आने वाले वाक्यों की पृष्ठभूमि के रूप में स्वयं भी यह विनित भाव से लिख देना चाहिए कि ऊपर दी गई सूची का सारा कार्य मैंने ही किया और करवाया है। लेकिन फिर भी यदि कोई दूरदर्शी मुझे छत्तीसगढ़ी का हितैषी नहीं मानता है, तो वह कृताचेता अधिकाधिक स्थूलकाय होने के लिए स्वतंत्र है। उस की चाह है कि छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की राजभाषा अभी बना दिया जाए, क्योंकि उसने छत्तीसगढ़ी की बहुत सेवा की है- वह अपने घर में बीवी-बच्चों से हमेशा छत्तीसगढ़ी में बात किया करता है, बस।

आइए समापन करें। हिंदी की मानक आकृति छत्तीसगढ़ी की विरोधी कतई नहीं है, यह तो अपने ही घर की बड़ी है, यह वृहत्तर समाज में सारे रिश्ते बनाए रखने के लिए यूनिफाइंग फोर्स है, यह कई प्रकार का बोझ अपने कंधों पर लेकर चलने वाली सहयोग सिद्ध गतिशीला है। जिस दिन छत्तीसगढ़ी के कंधे सब प्रकार की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए मजबूत हो जाएंगे, उस दिन यह स्वयं राजभाषा का पद पारंपरिक रूप से संभाल लेगी। वर्तमान पीढ़ियों के लिए पृथक राज्य बहुत बड़ी उपलब्धि और खुशी है, हम भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी कुछ करने और पाने के लिए छोड़ दें।

(छत्तीसगढ़ बोली है, भाषा है या विभाषा है, यह बहस राज्य निर्माण के पहले और दौरान भी जारी थी। 22 अगस्त 2000 को भाषाविद् रमेशचंद्र मेहरोत्रा जी का एक आलेख देशबन्धु में प्रकाशित हुआ था। शीर्षक था- छत्तीसगढ़ी के पक्ष और विपक्ष में।)

कुछ अपनी बात- 
आमजन में यह बहुत प्रचलित, भ्रामक धारणा है कि भाषा के लिए व्याकरण और लिपि आवश्यक है और छत्तीसगढ़ी के साथ यह कमी है। वस्तुतः यह बात ऐसे लोगों के बीच प्रचलित और मानी जाती है, जिन्हें छत्तीसगढ़ी के व्याकरण होने की जानकारी नहीं है साथ ही यह भी कि कोई भी अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति का शब्द-व्यापार व्याकरण के बिना संभव नहीं है। व्याकरण से ही किसी जबान के माध्यम से विचार विनिमय संभव है, जो वक्ता और श्रोता के लिए समान अर्थ देता हो। लिपि, भाषा के लिए आवश्यक नहीं, न ही अनिवार्यता है, ऐसा मानते हुए कुछ प्रयास छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ में प्रचलित अन्य भाषाओं की लिपि बनाने के हुए हैं। किंतु लिपि बनाने के संबंध में विशेषज्ञों की राय उपरोल्लिखित है। यह भी स्मरणीय है कि निजी प्रयासों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग द्वारा भी शब्दकोश तैयार कर, प्रकाशित कराया गया है।

भाषा और बोली के बीच के अंतर को भी विभिन्न प्रकार से विशेषज्ञों ने समझा-समझाया स्पष्ट किया है। किंतु सामान्यतः बोली को हेय, और भाषा को उच्च मान लिया जाता हैै, जैसा छत्तीसगढ़ी के साथ भी हुआ है। ऊपर इसके पर्याप्त उदाहरण आए हैं, जबकि भाषा बनने के क्रम में बोली का लोच चला जाता है। खड़ी बोली के खड़ेपन यानि कम लोच-मधुर होने के कारण ही उसका भाषा बन जाना आसान हुआ। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मानक हो जाने के साथ व्याकरण नियम जितने कठोर होंगे, शब्दार्थ जितने दृढ़ और स्थिर होंगे, अभिव्यक्ति की आयु उतनी बढ़ जाएगी। इसलिए श्रेयस्कर यही होगा कि छत्तीसगढ़ी का मानक स्वरूप ऊपर आए विशेषज्ञों की मार्गदर्शी राय के अनुरूप हो, जो लिखने और व्यापक, तकनीकी इस्तेमाल के लिए हो किंतु बोलचाल की छत्तीसगढ़ी में उसका बोलीपन सुरक्षित रहे।

छत्तीसगढ़ी मानकीकरण पर सोचते हुए एक उदाहरण ‘कर‘ पर ध्यान जाता है। ‘ओ कर‘ का अर्थ हुआ उस का। ‘ओ करऽ‘ यानि वहां पर। ‘ओ कर करऽ‘ यानि उस के पास और ‘ओ कर के‘ यानि वह कर के। यह भी विचारणीय है कि छत्तीसगढ़ी के भाषा-बोली और मानकीकरण की बात जितनी जोर पकड़ती जा रही है, घरों में आपसी बोलचाल से उतनी तेजी से बाहर हो रही है जबकि लिखने तथा माइक पर इसका आग्रह तीव्र हो जाता है, तो भविष्य का अनुमान चिंतित करता है। फिर भी आशा की जा सकती है कि वर्तमान में गठित समिति पूर्व निर्धारित मार्गदर्शी को कार्यरूप में परिणित करेगी साथ ही यह छत्तीसगढ़ी के भाषा व्यवहार को समृद्ध करने में सहायक होगा।

Saturday, January 29, 2022

देवरानी जेठानी मंदिर, ताला

पुरातात्विक स्थल ताला पर मुख्यतः 1986 से 1988 तक विभिन्न पुरातात्विक कार्य राज्य शासन के बिलासपुर कार्यालय के माध्यम से श्री जी.एल. रायकवार के उत्तरदायित्व पर कराए गए, इस पूरे दौर में मेरी सहभागिता रही। ताला के विभिन्न पक्षों पर लिखने के अवसर बने, इस क्रम में मेरे द्वारा तैयार किया गया एक संक्षिप्त नोट तथा उसके पश्चात वार्ता के लिए आलेख- 

देवरानी-जेठानी मंदिर, ताला (ग्राम अमेरीकांपा) बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर, बिलासपुर-रायपुर मार्ग बायें व्यपवर्तन पर तथा पुनः दगोरी मार्ग पर दायें व्यपवर्तन पर मनियारी नदी के बायें तट पर स्थित छठी सदी ईस्वी के दो भग्न शिव मंदिर है। निकट ही मनियारी-शिवनाथ संगम है, जबकि मंदिर के सन्निकट एक बरसाती नाला बसंती, मनियारी में मिलता है । 

इन मंदिरों के प्रथम उल्लेख की जानकारी आर्क्यालाजिक सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, खंड- 7 पेज- 168 पर सन 1873-74 में डिप्टी कमिश्नर, रायपुर मि. फिशर के हवाले से जे.डी. बेग्लर ने किया। छठे दशक में अंचल के प्रसिद्ध पुरातत्वविद पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने इन्हें देखकर, अपने व्यक्तिगत नोट्स में दर्ज किया। सातवें दशक में डा. विष्णु सिंह ठाकुर ने इन्हें देखकर मंदिरों की जानकारी सार्वजनिक कर, चर्चा में लाया । मल्हार उत्खनन (1974-78) के दौरान प्रो. के.डी. बाजपेयी तथा श्री एस.के. पांडे ने भी इनका अवलोकन किया। 

नवें दशक में (दिनांक 9.3.84) यह राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया, इसी बीच एक विदेशी शोध छात्र डोनाल्ड स्टेडनर ने आर्काइव्स आफ एशियन आर्ट में 1980 में छायाचित्र व रेखाचित्र सहित इसे प्रकाशित कराया। नवें दशक के आरंभ में राज्य शासन के कार्य आरंभ किया और 1985-86 से व्यवस्थित मलबा सफाई, अनुरक्षण, रसायनिकरण आदि कार्य हुए। वर्ष 87-88 में तत्कालीन संस्कृति सचिव के विशेष आग्रह पर श्री के.के. चक्रवर्ती की देखरेख में विभागीय कार्य हुए। नवें दशक में अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकाशन श्री कृष्णदेव लिखित अध्याय, इनसाक्लोपीडिया आफ इण्डियन टेेम्पल आर्कटेक्चर का अमेरिकन इन्स्टीट्यूट आफ इंडियन स्टडीज द्वारा हुआ। 

स्थापत्य की दृष्टि से जेठानी मंदिर दक्षिणाभिमुख तथा पूर्व व पश्चिम से पार्श्व प्रवेश के लिए सोपान व्यवस्था वाला, विशिष्ट भू-योजना का मंदिर है, जिसमें शास्त्रीय योजना के विकास के स्थान पर शिलोत्खात वास्तु योजना की झलक है। देवरानी मंदिर गर्भगृह, अन्तराल व मुखमंडप वाला पूर्वाभिमुख मंदिर है, जिसका प्रवेश द्वार संरक्षण की अपेक्षाकृत अच्छी दशा में तथा अत्यंत आकर्षक है। कला के आधार पर मंदिरों को परवर्ती गुप्तकालीन माना गया है, किन्तु प्रतिमाशास्त्र व अलंकरण की दृष्टि से शास्त्रीय प्रतिमानों के साथ मौलिक प्रयोग भी परिलक्षित होता है। 

देवरानी मंदिर के परिसर से प्राप्त ‘रूद्र शिव’ की लगभग आठ फुट ऊंची और छह टन भारी प्रतिमा, भारतीय कला में अब तक प्राप्त उदाहरणों में विशिष्टतम है। प्रतिमा के पूरे शरीर तथा घुटनों, जंघाओं, उदर व वक्ष पर मानव मुख है तथा मुख व शरीर के अंगों को मोर, गोधा, मत्स्य, कर्क, कच्छप से समाकृत किया गया है। इसी प्रकार देवरानी द्वार शाखा पार्श्व पर कीर्ति मुखों में पत्र-पुष्पीय अभिकल्प का संयोजन है। 

स्थल से 12-13 सदी ई. के कलचुरी शासकों रत्नदेव व प्रतापमल्ल के ताम्र्र सिक्के तथा शरभुरीय प्रसन्नमात्र का छठी सदी ई. का रजत सिक्का प्राप्त हुआ है, जो सुुनिश्चित तौर पर ज्ञात प्रसन्नमात्र का एक रजत सिक्का है। 

देवरानी मंदिर के प्रवेश द्वार पर
विनोद जी, नामवर जी, आयुक्त मदनमोहन उपाध्याय जी और अशोक जी

इसी क्रम में ‘इतिहास के झरोखे से‘ शीर्षक वार्ता के लिए सन 1991 में तैयार यह आलेख- 

दक्षिण कोसल, ईसा की छठी सदी का आरंभ। शिवनाथ की सहायक नदी मनियारी के बायें तट पर विशाल अनुष्ठान जैसा दृश्य। हजारों कामगर हाथ व्यस्त थे। गुप्त वंश का स्वर्णकाल देखकर, स्थानीय शरभपुरीय राजवंश ने यह स्थान चुना था दो मंदिरों के निर्माण के लिए। वैष्णव धर्मावलम्बी राजवंश की यह शैव स्थापत्य, संरचना, इतिहास में उनकी धार्मिक सहिष्णुता और कलाप्रियता का प्रमाण साबित होने वाली थी। स्थल को मानो चिन्हांकित करने के लिए बसंती नाला और थोड़ी दूर पर ही मनियारी और शिवनाथ नदी का पवित्र संगम स्थल। नदी तट पर स्तरित चट्टानों का विपुल भंडार सहज उपलब्ध था। मंदिर निर्माण के लिए इससे उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता था। इतिहास के पिछले पन्नों पर इसी भू-भाग में पाषाणयुगीन मानव की उपस्थिति भी दर्ज है, जिसके प्रमाण स्वरूप लघु पाषाण उपकरण ही अब मिलते हैं। 

बिलासपुर जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर यह स्थल अब ‘ताला’ नाम से जाना जाता है, जो वस्तुतः ग्राम अमेरीकांपा का वीरान हिस्सा है, यहीं दो प्राचीन मंदिर भग्नप्राय स्थिति में, महत्ता के चिन्ह संजोये, विद्यमान हैं, जो स्थानीय लोगों में ‘देवरानी-जेठानी’ कहे जाते हैं। इन मंदिरों ने उपेक्षा का लम्बा दौर गुजारा है। शताधिक वर्षों में इक्का-दुक्का पुरातात्विक ही, इसकी खोज खबर लेने पहुंच सके थे। 

1873-74 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पहले महानिदेशक, सर अलेक्जेंडर कनिंघम के सहयोगी जे.डी. बेग्लर इस क्षेत्र में सर्वेक्षण के लिए आए। उन्हें रायपुर के तत्कालीन असिस्टेन्ट कमिश्नर मि. फिशर द्वारा इस स्थल की सूचना मिली। बेग्लर ने स्वयं इन मंदिरों को नहीं देखा, लेकिन भविष्य के लिए, रायपुर-बिलासपुर मार्ग के पुरातात्विक स्थलों में, ‘जेठानी-देवरानी’ मंदिर, नामोल्लेख मात्र प्रकाशित किया। वर्षों बीत गए। इन मंदिरों की खबर किसी ने नहीं ली। 

तकरीबन सौ साल बीतने को थे। शायद इन मंदिरों का आकर्षण प्रबल हुआ। सातवें दशक में दुर्गा महाविद्यालय, रायपुर के डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, अनुमान करते सरगांव से पैदल, अकेले, मनियारी के किनारे-किनारे बढ़ चले। रास्ते में उन्हें टीले और पुराने मिट्टी के खिलौने, पात्र खंड, मनके मिले। कदम तेजी से उठने लगे और वे मंजिल पर पहुंच ही गए। अजीब रोमांच था, स्तंभित रह गए डॉ ठाकुर, उन्हीं के शब्दों में -‘मैं गुप्तों के समकालिक स्मारकों की कला प्रत्यक्ष कर रहा था।’ वे पूरा दिन स्थल पर गुजारकर वापस आये और पुरातत्व में रूचि लेने वालों के लिए एक नयी राह खोज दी। 

आठवें दशक में मध्यप्रदेश शासन तथा एक अमरीकी शोधार्थी ने इस राह का अनुगमन किया और पुरातत्व के क्षेत्र में एक नयी सुगबुगाहट हुई। छत्तीसगढ़ में पहली बार गुप्तकालीन मंदिर अवशेषों की जानकारी उजागर हुई। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के छात्र डोनाल्ड, स्टेडनर ने देवरानी मंदिर को अत्यंत विशिष्ट संरचना माना और स्थल के गंभीर अध्ययन का पहला प्रयास किया। स्टेडनर के अध्ययन के आधार पर कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की ही विदुषी प्रोफेसर जोना जी. विलियम्स ने इसे छत्तीसगढ़ का ऐसा एकमात्र महत्वपूर्ण स्थल माना, जो गुप्तकला के प्रभाव से जीवन्त है। 

इस दौरान राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा स्थल संरक्षण आदि प्रक्रिया की पहल हुई। 1985 में पुरातत्व विभाग के तत्कालीन मानसेवी सलाहकार, हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ प्रमोदचन्द्र स्थल पर आए। उनकी सम्मति थी- ‘अद्भुत छठी सदी की भारतीय कला का चरम उत्कर्ष यहां घटित हुआ।’ ताला का महत्व पहचाना जाने लगा, किन्तु इसके बाद भी यह स्थल पुराविदों की चर्चा तक सीमित रहा। विदेशी शोधार्थी और विशेषज्ञ टिप्पणीकारों का कार्य-विवरण, जनसामान्य की बात तो दूर, क्षेत्रीय पुरातत्व में रूचि रखने वालों को भी सहज उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन राज्य शासन ने स्थल के महत्व के अनुरूप कार्य आरंभ कर दिया और एक-एक परत खुलती गई, एक बेतरतीब टीला खोदकर साफ किया गया और स्पष्ट हुआ जेठानी मंदिर का भव्य और अनूठा अभिकल्प, ढेरों प्रतिमाएं साथ ही सर्वाधिक चर्चा और महत्व की आठ फुट ऊंची, पांच टन से भी अधिक भारी अद्भुत प्रतिमा रूद्र शिव, देवरानी मंदिर के पास से प्राप्त हुई, जिसने पूरी दुनिया के समाचार जगत में स्थान पाया। 

आइये, देखें कि वस्तुतः इस स्थल में ऐसा क्या है, जो दर्शक को स्तब्ध कर देता है और पुरातत्वविदों के लिए भी पहेली है। कथित देवरानी और जेठानी मंदिर वस्तुतः शिवमंदिर है जिनमें, देवरानी अधिक सुरक्षित स्थित में है, लेकिन जेठानी लगभग ध्वस्त होकर टीला बन चुका था। दोनों मंदिरों के बीच सिर्फ 15 मीटर का फासला है। पुरातात्विक अध्ययनों से ये मंदिर, स्थापत्य व कला में छत्तीसगढ़ के एकमात्र और देश के विशिष्टतम गुप्तकालीन कला केन्द्र के रूप में मान्य हुए हैं। 

पुरातत्वीय कार्याें से जेठानी मंदिर का स्वरूप उजागर हुआ, यह मंदिर पश्चिम पार्श्ववर्ती नदी के समानान्तर, विलक्षण रूप से दक्षिणाभिमुख है, इस प्राचीन टीले की सफाई के फलस्वरूप जेठानी मंदिर की अनूठी स्थापत्य-योजना स्पष्ट हुई, पूर्व और पश्चिम से सोपानयुक्त पार्श्व प्रवेश, उत्तरी पृष्ठ में दो विशाल गजाकृतियों का अग्रभाग तथा सुदीर्घ स्तम्भों और प्रतिमाओं के पादपीठ सहित विभिन्न आकार की ईंटें व विशाल पाषाण खंडो से निर्मित संरचना स्पष्ट हुई। महत्वपूर्ण पुरावशेषों में, शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का चांदी का सिक्का मिला, कलचुरियों की रत्नपुर शाखा के शासकों रत्नदेव और प्रतापमल्ल के सिक्के भी मिले जो लगभग बारहवीं सदी ई. तक जनजीवन से इस क्षेत्र की संबद्धता प्रमाणित करते हैं। 

मूल मंदिर संरचना के भाग के रूप में अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश, गणेश, कार्तिकेय, नायिका, नागपुरूष आदि विभिन्न प्रतिमाएं एवं स्थापत्य खंड प्राप्त हुए हैं, इन प्रतिमाओं में शास्त्रीय विलक्षणता तो है ही इनका आकार भी उल्लेखनीय है। कुछ प्रतिमाएं तो 3 मीटर से भी अधिक लम्बी हैं। स्थापत्य और मूर्तिकला, तत्कालीन प्रचलित सामान्य प्रतिमानों के अनुरूप नहीं है। इसलिए इनका अध्ययन और शोध अधिक आवश्यक है। इनमें शास्त्रीय निर्देशों के साथ-साथ स्थानीय परम्परा और मौलिक चिन्तन को भी जोड़ने का प्रयास दिखता है। प्रतिमाओं में भव्यता, अलौकिक सौन्दर्य, आकर्षक अलंकरण तका कमनीयाता का संतुलित प्रदर्शन है। दो अन्य पाषाण प्रतिमाएं लघु फलक है, इनमें से एक विष्णु तथा दूसरी गौरी अंकित है। लघु फलक लगभग 8वीं सदी ईस्वी के हैं। इनका उपयोग प्रतिमा अनुकृति अथवा चल प्रतिमाओं के रूप में होता था। 

ताला में हुए विभिन्न चरणों के कार्यों ने देश के शीर्ष पुरातत्वविदों का ध्यान आकर्षित किया है। स्थल संबंधी खेज, अध्ययन, शोध तथा व्याख्या यद्यपि प्राथमिक स्तर पर है, किन्तु भविष्य की पुरातत्विक गतिविधियों के फलस्वरूप यह स्थल कला स्थापत्य के पहलू तो उजागर करेगा ही। शैव धर्मदर्शन के नए आयामों को उद्घाटित करते हुए यहां क्षेत्रीय कला परम्परा की पृष्ठभूमि भी उजागर होगी। आरंभिक अवलोकन मात्र से यह निःसंदेह है। 

देवरानी मंदिर की निर्माण योजना में आरंभिक चन्द्रशिला और सोपान के साथ अर्द्धमंडप, अन्तराल और गर्भगृह; तीन मुख्य भाग हैं। पूरी संरचना चबूतरे पर निर्मित है। मंदिर की बाहरी दीवार पर खुर और कुंभ के समानान्तर मकर मुख बने हैं और जंघा अर्द्धस्तंभों से विभक्त है। प्रवेश में दोनों ओर शिवगण है; अर्द्धमंडप के पार्श्वों में नदी देवी प्रतिमाएं हैं। 

मुख्य प्रवेश द्वार का सिरदल दो भागों में विभक्त है, ऊपरी हिस्से में गजाभिषिक्त लक्ष्मी, नदी-देवता, परिचारकों और गंधर्वों के अंकन की अभिकल्पना और गत्यात्मक चित्रण में कलाकार की समग्रकला साधना की गहराई दिखती है, निचले हिस्से में शिव-पार्वती विवाह का मंगल दृश्य है, सिरदल के भीतरी पार्श्व पर बीच में पन्द्रह ऋषियों को विशिष्ट मुद्रा में संयोजित कर वृत्त का आकार दिया गया है और दोनों पार्श्व अर्द्धपद्म से पूरित है। प्रवेश द्वार सम्मुख चार पुष्पीय लड़ियों के आकर्षण संयोजन अलंकृत है। प्रवेशद्वार के भीतरी पार्श्वों में उमा-महेश का लास्य, द्यूत प्रसंग में हारे शिव के वाहन नन्दी का पार्वती गणों के अधिकार में होना, भगीरथ अनुगामिनी गंगा स्पर्श से सगर वंशजों की मुक्ति, मौलिकता युक्त अनुभव सम्पन्न सृजन का परिणाम है, विशेष उल्लेखनीय कीतिमुख के रौद्रभाव संयोजन के लिए कोमल पत्र-पुष्प दलों का उपयोग, भारतीय कला का अद्वितीय प्रतिमान है। 

सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण प्रतिमा रूद्रशिव है। इसे महाशिव परमशिव या पशुपतिनाथ नाम भी दिया गया है। सिर पर नागयुग्म की भारी पगड़ी है। पूरे शरीर पर मानव और सिंह मुख तथा विभिन्न अंगों का रूपान्तरण जीव-जन्तुओं में हुआ है। दाढ़ी पर केकड़ा, मंूछ के स्थान पर दो मछलियां तथा नाक व भौंह का रूप गृहगोधा का है। आंख की पलकें दानव का मुखविवर हैं कान के स्थान पर मोर और कंधे मकर मुख है। चूंकि शिव का पशुपतिरूप, स्वाधिष्ठित संयमी पुरूष का है, अतः कछुए के गर्दन और सिर को उर्द्धरेतस आकार दिया गया है। श्री के.के.चक्रवर्ती व्याख्या करते है कि ‘जो रूद्र है व शिव भी है, जो अशुभ दूर करते हैं वह शुभ भी लाते हैं, जो ध्वंस करते है वही सृजन करते हैं; इस तरह यह रूद्र और शिव का समाहार का चिन्तन है।‘

Friday, January 28, 2022

ताला की विलक्षण प्रतिमा

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के अवसर पर मध्यप्रदेश शासन, उच्च शिक्षा विभाग एवं मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी का समवेत उपक्रम, द्विमासिक ‘रचना‘ के अंक-27, नवंबर-दिसंबर 2000 में मुखपृष्ठ पर ताला, अमेरीकांपा, बिलासपुर की प्रसिद्ध प्राचीन प्रतिमा ‘रूद्र शिव‘ का चित्र प्रकाशित हुआ था। अंक के अतिथि संपादक डॉ. राजेन्द्र मिश्र थे। इस अंक के विभिन्न महत्वपूर्ण लेखों में एक लेख ‘ताला की विलक्षण प्रतिमा‘ मुखपृष्ठ के चित्र से संबंधित यानि ताला की इस प्रतिमा पर भी था। इसमें किसी एक मूर्ति पर एकाग्र पुस्तक ‘रिडिल ऑफ इण्डियन आइकनोग्राफी‘ का उल्लेख है, यहां प्रस्तुत लेख डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम ने लिखा है साथ ही उक्त पुस्तक के संपादक के रूप में इस प्रतिमा का परिचय भी उन्होंने पुस्तक में दिया है, जो यहां अंत में प्रस्तुत है। चित्र में दोनों प्रकाशन दृष्टवय हैं। 


सभ्यता के विकास के साथ ही मानव में कलात्मक प्रवृत्तियों का विकास भी स्पष्टतः दृष्टिगत होता है। गायन, वादन, नृत्य, संगीत के साथ-साथ अभिनय, चित्रकला और मूर्तिकला को कलात्मक प्रवृत्तियों के रूप में स्वीकृत किया जाता है। कालान्तर में कला के अन्तर्गत अनेक विषयों को सम्मिलित कर दिया गया और साहित्य में सामान्यतः 64 कलाओं का उल्लेख होने लगा। वात्स्यायन के कामसूत्र में 66 कलाओं का विवरण मिलता है। इसके अन्तर्गत ललित अथवा शिल्प कला के साथ ही दैनिक जीवन, पारम्परिक व्यवसाय आदि से सम्बन्धित विषयों को भी समाहित किया गया है।

कला के विभिन्न रूपों में मूर्तिकला का एक विशिष्ट स्थान रहा है। शिल्प शास्त्रीय परम्परा में मूर्तियों अथवा प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। सामान्यतः प्रतिमा और मूर्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं माना जाता। ‘प्रतिमा‘ शब्द का अर्थ, ‘प्रतिरूप‘ होता है, अर्थात किसी आकृति की प्रतिकृति को प्रतिमा कहा जा सकता है, किन्तु शास्त्रीय परम्परा में प्रतिमा को ‘अर्चा‘ से जोड़ दिया गया है। इस प्रकार प्रतिमा को किसी धार्मिक अथवा दार्शनिक सम्प्रदाय से सम्बन्धित होना आवश्यक माना जाने लगा। मूर्ति के लिए इस प्रकार की बाध्यता नहीं रही। इसीलिए प्रतिमा निर्माण में निश्चित नियमों तथा लक्षणों का पालन आवश्यक होता है, जबकि मूर्ति निर्माण में शिल्पी को अधिक स्वतंत्रता होती है।

भारतीय शिल्प में मूर्ति तथा प्रतिमा निर्माण की दीर्घकालीन परम्परा रही है। कला इतिहास के विद्वानों ने इन प्रतिमाओं की उनके लक्षणों एवं शैलियों के आधार विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं किन्तु कभी-कभी ऐसी विलक्षण प्रतिमाएँ प्राप्त हो जाती हैं, जो पुरातत्ववेत्ताओं और कला-इतिहासज्ञों के लिए समस्या बन जाती हैं, ऐसी ही एक प्रतिमा लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले में प्राप्त हुई है।

बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर, मनियारी नदी के तट पर, अमेरी काँपा नामक ग्राम के निकट ‘ताला‘ नामक स्थल पर दो प्राचीन भग्न मंदिर स्थित हैं, जो देवरानी-जेठानी मंदिर के नाम से प्रख्यात हैं। रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर भोजपुरी नामक ग्राम से इसकी दूरी लगभग छह किलोमीटर है। जेठानी मंदिर अत्यन्त ध्वस्त अवस्था में है, जबकि देवरानी मंदिर अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है। देवरानी और जेठानी मंदिर अपनी विशिष्ट कला के कारण देश-विदेश के कला प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं, मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग ने यहाँ समय-समय पर मलबा सफाई तथा संरक्षण का कार्य कराया है। इसी क्रम में भारतीय में प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी डॉ. के.के. चक्रवर्ती के मार्गदर्शन में इस स्थल की मलबा सफाई का कार्य, उस समय बिलासपुर में पदस्थ पुरातत्व विभाग के अधिकारी द्वय सर्वश्री जी.एल. रायकवार तथा राहुल सिंह द्वारा कराया गया, जिससे 17 जनवरी 1988 को एक विलक्षण प्रतिमा यहाँ से प्रकाश में आई।

यह विशाल प्रतिमा लगभग 9 फीट ऊँची तथा 5 टन वजनी तथा शिल्प की दृष्टि से अद्भुत है। इसमें शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिक-विन्यास में विभिन्न पशु-पक्षियों का संयोजन किया है। प्रतिमा के शीर्ष भाग में पगड़ीनुमा सर्प-युग्म का अंकन मिलता है। नासिका और आँखों की भौंह का निर्माण उतरते हुए छिपकली सदृश्य प्राणी से किया गया है। मूछों के अंकन में मत्स्य-युग्म प्रयुक्त है, जबकि ठुड्डी का निर्माण कर्क (केकड़ा) से किया गया है। कानों को मयूर-आकृतियाँ सदृश्य चित्रित किया गया है। सिर के दोनों पार्श्वों में फणयुक्त सर्प का चित्रण है। कंधों को मकर-मुख सदृश्य बनाया गया है, जिससे दोनों भुजाएँ निकलती हुई दिखाई देती हैं। शरीर के विभिन्न आंगों में सात-मानव-मुखों का चित्रण मिलता है। वक्ष-स्थल के दोनों ओर दो छोटे मुखों को अंकित किया गया है। उदर का निर्माण एक बड़े मुख द्वारा किया गया है। यह तीनों मुख मूछों से युक्त हैं। जंघाओं में सामने की ओर अंजलिबद्ध दो मुख तथा दोनों पार्श्वों में दो अन्य मुख अंकित हैं। दो सिंह-मुख घुटनों में प्रदर्शित किए गए हैं। उर्ध्वाकर लिंग के निर्माण के लिए मुँह निकाले कच्छप (कछुए) का प्रयोग है। घण्टा की आकृति के अण्डकोष कछुवे के पिछले पैरों से बने हैं। सर्पाे का प्रयोग उदर-पट्ट तथा कटिसूत्र के लिए किया गया है। हाथों के नाखून सर्प-मुख जैसे हैं। बायें पैर के पास भी एक सर्प का अंकन मिलता है।

इस प्रकार की प्रतिमा देश के किसी भाग से नहीं मिली है और न ही शिल्प-शास्त्रों में इसका उल्लेख मिलता है। प्रतिमा के लक्षणों के आधार पर इस सम्बन्ध में निम्नलिखित अनुमान व्यक्त किया जा सकता है:

1. यह प्रतिमा शैव परम्परा से संबंधित प्रतीत होती है। विभिन्न पशु-पक्षियों का चित्रण इसके पशुपति रूप का परिचायक कहा जा सकता है, शिव प्रतिमा के लक्षणों, यथा डमरू, त्रिशूल, नंदी आदि का यद्यपि इसमें अभाव है फिर भी सर्पों की उपस्थिति एवं उर्ध्वाकार लिंग, इसे शैव-परम्परा से सम्बद्ध करता है। 
2. यह प्रतिमा देवरानी मंदिर के प्रवेश-द्वार के निकट से प्राप्त हुई है तथा आकार-प्रकार में द्वारपाल सदृश्य दिखाई पड़ती है, अतः इसके द्वारपाल परम्परा से सम्बन्धित होने का अनुमान किया जा सकता है,
3. विशालकाय शरीर, सिर पर पगड़ी तथा उन्नत उदर के आधार पर यह यक्ष मूर्तियों के सदृश्य दिखाई पड़ती है।

कला-इतिहासकारों ने इस प्रतिमा के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करते हुए इसे लकुलीश, रूद्र-शिव, द्वादशमुख-शिव, यक्ष रूप में शिव आदि से समीकृत करने का प्रयास किया है। कुछ विद्वान इसमें तांत्रिक प्रभाव देखते हैं तथा कुछ इसमें अभिचारिक परम्परा का समावेश होने की सम्भावना व्यक्त करते हैं, इस प्रतिमा को लगभग छठवीं शताब्दी ई. के मध्य का माना जाता है। कलाशैली की दृष्टि से इस प्रतिमा की तुलना नागपुर के निकट मांडल से प्राप्त शिव प्रतिमाओं से की जा सकती है, मांडल से चतुर्मुखी, अष्टमुखी एवं द्वादशमुखी शिव प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं किन्तु ताला की प्रतिमा शिल्पांकन एवं प्रतीक की दृष्टि से अद्भुत एवं मौलिक कही जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न प्राणियों यथा-जलचर (मछली, मकर आदि), थलचर (सिंह, छिपकली आदि), उभयचर (कछुवा, केकड़ा, सर्प आदि) तथा नभचर (मयूर) का अंकन समस्त चराचर जगत का परिचारक कहा जा सकता है। इसी आधार पर इस प्रतिमा को शिव के ‘विश्व-रूप‘ से अभिज्ञानित करने का प्रयास भी किया गया है।

इस प्रतिमा में अंकित विभिन्न पशु-पक्षियों का अंकन किस उद्देश्य से किया गया है? वर्तमान में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इसमें अंकित विभिन्न प्रतीकों का अर्थ निकालने के लिए इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता प्रयत्नशील हैं। प्रसिद्ध कला-समालोचक एवं हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भारतीय कला इतिहास के प्रोफेसर डॉ. प्रमोद चन्द्र, जो इस मूर्ति की खोज के समय ताला में उपस्थित थे, ने विचार व्यक्त किया है कि यह प्रतिमा कला-इतिहासकारों के लिए कम से कम एक शताब्दी तक समस्या बनी रहेगी। भारतीय कला के देश-विदेश के अध्येता इस प्रतिमा के रहस्य की खोज में लगे हुए हैं। इन पंक्तियों के लेखक के सम्पादन में एक पुस्तक ‘रिडिल ऑफ इण्डियन आइकनोग्राफी‘ का प्रकाशन हुआ है, जिसमें विश्व के पन्द्रह अध्येताओं ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। किसी एक मूर्ति पर केन्द्रित एकाग्र प्रकाशन पहली बार किया गया है। यद्यपि इस अध्ययन से इस मूर्ति के अभिज्ञान की दिशा में नए आयाम मिले हैं तथापि अन्तिम निष्कर्ष अभी तक नहीं निकल पाया है।

प्रतिमा के अभिज्ञान तथा प्रतीकों के संबंध में भले ही मतभेद हों किन्तु इस तथ्य में कोई सन्देह नहीं है कि शिल्पी ने मूर्ति के संयोजन में अपनी मौलिक कल्पना का अद्भुत परिचय दिया है और साथ ही भारतीय परम्परा के विभिन्न आयामों को समेकित रूप में प्रदर्शित करने का अनोखा प्रयास भी किया है। 

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The image under discussion is 2.70 metre in height and approximately five tonnes in weight. This two-armed image standing in samapāda posture is massively built with emphasis on muscular strength. It has unusual iconographic features depicting various animals alongwith human and lion heads components. The description of the image is interesting enough. A turban made of a pair of snakes. The serpent is probably a favourite depiction of the artist. Therefore, the waist band and finger nails are also designed like snake. Apart from these, a pair of serpent-hood figures on either side of the head above the shoulders. A snake is also shown entwining the left leg. Among other animals, peacock is depicted ornamenting ears. Eyebrows and nose are made of a descending lizard. Eyelash are either in the pattern of an open mouth of a frog or the mouth of a roaring lion. Two figures of fish form moustaches of the image alongwith the upper lip, while the lower lip and the chin are shaped like a crab. Both the shoulders have depiction of makara (crocodile). Seven human heads as body are engraved in various parts of the body. Of these a pair of small heads may be seen on either side of the chest. A bigger face forms the abdomen. These three faces have moustaches. Each thigh consists of a pair of heads of which two smiling faces are carved on the front side in añjali-baddha posture, while the other two are carved on sides. Heads of lion are depicted on each knee. The ūrdhvamedhra (penis-erectus) is made of head and neck of a tortoise. Two bell-like testicles are designed as forelimbs of the same animal. The legs of the icon are formed in the shape of elephant's legs.

प्रसंगवश- धमनी, चकरभाठा निवासी पं. अजय शर्मा का ताला से घनिष्ठ लगाव रहा है, उनमें काव्य प्रतिभा तो है ही, लोकमन के भावों को सहज अभिव्यक्त करने का कौशल भी है, उनकी काव्य पुस्तिका ‘गाथा बगरे नता‘ में एक तरह से इस प्रतिमा से अपना नाता रेखांकित किया है-

रूद्र शिव सिंगार
(तालागांव)

भोलेबाबा, भोलेबाबा, तोर लीला अपरमपार।
तालागांव म खड़े, जीव जंतु के करे सिंगार।।

रूद्र रूप के बाना म, तय महा बिकराल।
भक्त रक्षा करथस, बारो मास आठो काल।।

उँगरी म पहिरे, नाग लोक के कतको सांप।
दरसन भर म, तनधारी के, भसम होथे पाप।।

नाक भऊँ छिपकिल्ली, पूँछी तिलक लगाये हस।
बिखहर राज के बांधे पागा, अद्भुत रूप बनाये हस।।

दुनो कान म, होके मस्त, नाचय मन मजूर।
हमरो सुन ले बबा, कर दे जमो दुःख दूर।।

खांध म बईठे मंगरा, मच्छरी के मेंछा अईठे।
जऊन रूप म भजथे तोला, दिखथस तेला तईसे।।

हिरदय म मनखे, पेट हवय महाकाल।
जेती देखबे तोर रूप, हवय बिकराल।।

थोथना म केकरा ओरमे, झपकी मारथे बेंगवा।
कऊँवा, गरूड़, कम्मर ओरमे, माड़ी गरजथे बघवा।।

कुकरी अड़वा के बट बट ले आंखी लक-लक लउकथे।
पहिली कोन आईस, घट घट वासी पूछत हे।।

नारी महिमा हवय अपार तोर गोदी म पाथे दुलार।
तंय ओला अइसे संवारे, उही बने हे श्रृष्टि अधार।।

अवतारी कच्छप ल लिंग रूप बइठारे।
आदि अनादि के संघरा पूजा बने जोग बइठारे।।

तालागांव के रूद्रशिव, तंय अद्भुत रूप धरे।
जल, थल नभचर के सिंगारी, विश्व रूप तय धरे।।

Wednesday, January 26, 2022

पद्म-2022

छत्तीसगढ़ में यह साल पद्म पुरस्कारों के नाम पर सूना रहा। बधाइयों का तांता लगने का अवसर नहीं बना तो स्वाभाविक ही अफसोस, उपेक्षा, पक्षपात, क्षोभ, पात्रता, काबिलियत, प्रतिभा, राजनीति पर बातें होने लगीं। यह मौका सयापे से अधिक इस ओर ध्यान देने का है कि चूक कहां हो जाती है, हम पिछड़ कहां जाते हैं। ऐसा भी होता आया है कि किसी को नहीं मिला का शोक करने वाले, पुरस्कृत की पात्रता पर भी सवाल उठाने में देर नहीं करते। जबकि राज्य से किसी का चयन हो खुशी की बात होनी चाहिए और नाम न होने पर अफसोस करने से जल्द उबर कर, अपने प्रयासों को प्रभावी बनाते अगले साल पर ध्यान देना सार्थक होगा।

इसमें कोई संदेह नहीं कि छत्तीसगढ़ में प्रतिभाओं की कमी नहीं, ऐसा भी नहीं कि पद्म पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां न गई हों, मगर संयोग कि इस वर्ष के पद्म पुरस्कारों की सूची में छत्तीसगढ़ का नाम नहीं आया। अब तक के पद्म पुरस्कारों पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद 2002 और 2003 में क्रमशः हबीब तनवीर और तीजनबाई को पद्मभूषण सम्मान मिला था। इसके बाद 2006 ऐसा वर्ष था, जब छत्तीसगढ़ से कोई नाम नहीं था। यहां उल्लेख आवश्यक है कि हबीब तनवीर को यह सम्मान छत्तीसगढ़ से नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश कोटे से मिला था, उन्हें पद्मश्री सम्मान भी दिल्ली कोटे से मिला था। इसी तरह जगदलपुर वाली मेहरुन्निसा परवेज अब भोपालवासी, बिलासपुर वाले दिवंगत सत्यदेव दुबे, रायपुर वाले शेखर सेन अब पुणेवासी, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अब मुंगेर और भिलाई वाले बुधादित्य मुखर्जी अब कोलकातावासी, को भी अन्य राज्यों के कोटे से सम्मान मिला न कि छत्तीसगढ़ कोटे से।

याद करते चलें यद्यपि पश्चिम बंगाल कोटे से, किंतु 1965 में छत्तीसगढ़ के पद्म सम्मानित पहले व्यक्ति डॉ. द्विजेन्द्रनाथ मुखर्जी हैं। बैरन बाजार का मुखर्जी कम्पाउंड उन्हीं के नाम पर है। बताया जाता है कि बागवानी के शौकीन डॉ. मुखर्जी ने सेवानिवृत्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ जेनेवा में नियुक्ति के प्रस्ताव को बगीचे के मोह में ठुकराया और रायपुर रह गए। डा. मुखर्जी को टेनिस, फोटोग्राफी, शिकार, चित्रकारी तथा वन और पशु-पक्षियों सहित कुत्तों का शौक रहा। कविता करने वाले डॉ. मुखर्जी ने बच्चों के लिए बांग्ला में पुस्तक ‘मोनेर कोथा’ - मन की कथा, भी लिखी। वहीं छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पूर्व एकमात्र पद्म सम्मान 1976 में मुकुटधर पाण्डेय को मिला था।

पद्म सम्मान की कार्यवाही केंद्र सरकार में गृह विभाग के अधीन होती है। पिछले वर्षों से पद्म सम्मान के लिए प्रविष्टियां आनलाइन आमंत्रित की जाती हैं। सामान्यतः नामांकन की प्रक्रिया मई माह से आरंभ हो कर प्रविष्टि की अंतिम तिथि 15 सितंबर निर्धारित होती है और अक्टूबर से चयन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। गत वर्षों में सूचना का अधिकार के तहत ली गई जानकारी से पता चला कि आनलाइन प्रक्रिया के बाद प्रविष्टियों की संख्या दस हजार से भी अधिक होती है। जानकार बताते हैं कि प्रविष्टियों के आरंभिक परीक्षण के पश्चात नवंबर माह तक समिति सम्मान हेतु नामों का चयन कर लेती है और इसके पश्चात दिसंबर में नामों की पुष्टि और सत्यापन की कार्यवाही कर सूची को जनवरी के आरंभ तक अंतिम रूप दे दिया जाता है। प्रत्येक वर्ष 25 जनवरी इन सम्मानों के घोषणा के लिए नियत तारीख है।

अब नजर डालें छत्तीसगढ़ और सम्मान की प्रविष्टियों पर। आनलाइन के पहले ऐसे भी उदाहरण रहे हैं जब पद्म पुरस्कार के लिए प्रपत्र में प्रविष्टि तैयार कर भेजने के बजाय हस्ताक्षर अभियान चलाया गया, जैसे लाला जगदलपुरी के लिए। कई प्रविष्टियां ऐसी भी होतीं, जैसा बच्चों को स्कूल में अवकाश के लिए एक पेज का आवेदन पत्र लिखाया जाता है। निर्धारित प्रारूप और प्रक्रिया के प्रति आमतौर पर अनभिज्ञता होती थी। आनलाइन के दौर में भी ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें आवेदनकर्ता प्रविष्टि जमा करने के लिए कलेक्टर, संस्कृति विभाग या मंत्रालय के चक्कर लगाते रहते हैं और उनकी शिकायत होती है कि उनका आवेदन नहीं लिया जा रहा था या उसे दिल्ली नहीं भेजा गया। फिर जोर-जुगाड़ की संभावना, आशा और आशंका। जबकि आनलाइन आवेदन प्रक्रिया स्वयं में पूरी तरह पारदर्शी और स्पष्ट है, जिसमें आवश्यकता इस बात की होती है कि निर्धारित प्रारूप में निर्देशों के अनुकूल शब्द संख्या में जानकारी और प्रपत्र तैयार कर निर्धारित समय-सीमा में अपलोड कर दिया जाए।

पद्म सम्मानों की पात्रता और उपयुक्तता को ले कर भी टिप्पणियां की जाती हैं। इस संबंध में डा. सुरेन्द्र दुबे, अनुज शर्मा और अनूप रंजन के नामों के साथ प्रतिकूल प्रतिक्रिया आती रही थी। उक्त तीनों से मेरा व्यक्तिगत परिचय है तथा कुछ मुद्दों पर इनसे मेरी गंभीर असहमतियां और मतभेद भी हैं किंतु इनके पद्म सम्मान पर मुझे हमेशा प्रसन्नता और गर्व महसूस हुआ है। जहां तक औचित्य और पात्रता का सवाल है डॉ. सुरेन्द्र दुबे की लोकप्रियता असंदिग्ध है और अमरीकी वाइट हाउस में कविता पढ़ने जैसी उपलब्धि उनके नाम है। इसी तरह अनुज शर्मा आंचलिक फिल्मों के ऐसे कलाकार हैं, जिनके नाम सफलता और उपलब्धियों के ढेरों रेकार्ड हैं, जिन तक न सिर्फ छत्तीसगढ़, बल्कि अन्य राज्यों में शायद ही कोई पहुंचा हो। अनूप रंजन पांडेय, कई दशकों से बस्तर के अंदरूनी इलाकों में बिना किसी संस्थागत मदद के कलाकारों से नियमित संपर्क में रह कर, बस्तर की सांगीतिक परंपरा को सामने ले कर आए, वह अपने में अनूठी मिसाल है। यों भी भावनात्मक रूप से छत्तीसगढ़ या राज्य से जुड़े किसी भी व्यक्ति का सम्मानित होना, सदैव स्वागतेय होना चाहिए।

इसी क्रम में 2021 के पद्म पुरस्कार में ध्यान देने की बात है कि भिलाई के राधेश्याम बारले को पद्मश्री सम्मान मिला, पंथी नर्तक के रूप में उनकी खासी प्रतिष्ठा है मगर रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव और बिलासपुर के ही दस से अधिक ऐसे पंथी दल हैं जो उनके दल से कम नहीं, फिर बारले ही क्यों? यहां रेखांकित करना आवश्यक है कि पंथी के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों तथा उनसे जुड़ी अपनी उपलब्धियों के दस्तावेजों को जमा करते हुए उन्हें सुरक्षित व्यवस्थित रखने और उन्हें प्रस्तुत करने का उन जैसा कौशल सब में नहीं होता। तात्पर्य यह कि ऐसे किसी सम्मान के लिए आवश्यक प्रक्रिया और दस्तावेज, जानकारियों का अभाव हो तो पात्र भी सम्मान पाने से वंचित हो सकते हैं। याद कर लें कि देवदास बंजारे को पद्म सम्मान नहीं मिला था।

ध्यान देना होगा कि पुरस्कार समिति के सदस्य, विचार के लिए प्रस्तुत सभी प्रविष्टियों, व्यक्तियों एवं उनकी प्रतिभा से स्वयं परिचित हों, संभव नहीं। समिति के लिए न यह अवसर होता, न ही संभव होता कि वे किसी गायक या वादक को सुन कर निर्णय लें या किसी साहित्यकार की रचना को पढ़ें या किसी समाजसेवी के काम को मौके पर जा कर देखें। उनकी भूमिका किसी न्यायाधीश की तरह होती है, जिसे उपलब्ध प्रमाण और साक्ष्य के आधार निर्णय लेना होता है, बल्कि यहां तो साक्ष्य यानि गवाही लेना भी संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में सारा निर्णय प्रविष्टि में प्रस्तुत जानकारी और उन जानकारियों की पुष्टि के लिए संलग्न दस्तावेज के आधार पर करना होता है। संक्षेप में, वस्तुपरक जानकारी के व्यक्तिपरक परीक्षण से निर्णय लिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में पूरी संभावना होती है कि कम योग्य, बेहतर दस्तावेज वाली प्रविष्टि, प्रतिभाशाली किंतु मामूली दस्तावेजों वाली प्रविष्टि की तुलना में सम्मान की हकदार बन जाए।

कुछ अन्य बातें। एक ओर छत्तीसगढ़ के धरमपाल सैनी और दामोदर गणेश बापट पद्म सम्मानित हुए। वहीं पी.डी. खेड़ा, केयूर भूषण, पवन दीवान, गहिरा गुरु का नाम इस सूची में शामिल नहीं हुआ, इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनमें से कोई नाम सम्मान के उपयुक्त नहीं था। इसी तरह साहित्य के क्षेत्र में विनोद कुमार शुक्ल और राजेश्वर दयाल सक्सेना को अब तक पद्म सम्मान नहीं मिला है। लाला जगदलपुरी, बिमलेंदु मुखर्जी, अरुण कुमार सेन, तुलसीराम देवांगन, गुणवंत व्यास, पीडी आशीर्वादम, बसंत तिमोथी, मनीष दत्त का नाम भी इस संदर्भ में याद किया जाना चाहिए, जिन्हें पद्म सम्मान नहीं मिला। पुरातत्व के क्षेत्र में डा. विष्णु सिंह ठाकुर के अवदान को भी नहीं भुलाया जा सकता। विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय ऐसे कई नाम निर्विवाद हैं, जिनकी पात्रता पर कोई सवाल नहीं हो सकता, जिनमें उदाहरणस्वरूप नाम डॉ. योगेश जैन, डॉ. ओमप्रकाश वर्मा, डॉ. आदित्य प्रताप देव, ट्रांसजेंडर विद्या राजपूत हैं। इनमें ऐसे लोग भी हैं, जो किसी सम्मान, पुरस्कार के लिए उद्यत नहीं रहे, जबकि इसके लिए जागरूकता और पुरस्कार के लिए आवश्यक प्रक्रिया अनुकूल उद्यम आवश्यक होता है। इसलिए पुरस्कार को मात्र योग्यता और पात्रता से सीधे जोड़ कर देखना उचित नहीं होता।

सम्मान के निर्धारित विभिन्न क्षेत्र संक्षेप में यथा- कला, सामाजिक कार्य, सार्वजनिक क्षेत्र, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, व्यापार-उद्योग, चिकित्सा, साहित्य-शिक्षा, लोक सेवा, खेल तथा अन्य, शासन की अधिकृत वेबसाइट पर स्पष्ट विस्तार से दर्शित होते हैं। आनलाइन नामांकन में सामान्यतः नामांकन विवरण, प्रशस्ति 800 शब्द, महत्वपूर्ण योगदान/ उपलब्धि 250 शब्द/ पुरस्कार-मान्यता राज्य, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय 250-250 शब्द/ काम का प्रभाव-क्षेत्र में योगदान 250 शब्द/ समाज को योगदान 250 शब्द/ फोटो 1 एमबी/ दस्तावेज 5 एमबी की सीमा होती है, जिसके साथ स्पष्ट निर्देश भी होते हैं। सभी प्रविष्टियां समिति को प्रस्तुत की जाती हैं, जिसके प्रमुख कैबिनेट सचिव होते हैं। समिति में गृह सचिव, माननीय राष्ट्रपति के सचिव और चार से छह प्रख्यात व्यक्ति, सदस्य शामिल होते हैं। समिति की अनुशंसा प्रधानमंत्री जी को माननीय राष्ट्रपति के अनुमोदन हेतु प्रस्तुत की जाती है। पद्म सम्मान के लिए प्रक्रिया को मोटे तौर पर समझने के लिए यह जानकारी दी जा रही है, किंतु इसकी पुष्टि अधिकृत वेबसाइट से अवश्य कर लेवें।

इस वर्ष पद्म-सूनेपन के साथ तोहमत और सयापे से जितनी जल्दी हो सके उबरना श्रेयस्कर और इसके प्रति जागरूकता के साथ उपयुक्त प्रयास की ओर ध्यान देना आवश्यक, ताकि अगले वर्षों में राज्य में बधाइयों का संयोग लगातार बनता रहे।

Sunday, January 23, 2022

जैन शिल्प-संपदा

भगवान महावीर की  2600 वीं जयन्ती महोत्सव के अवसर पर, जैन अध्ययन संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा सन 2001 में ‘छत्तीसगढ़ का जैन शिल्प‘ पुस्तिका प्रकाशित की गई थी, जिसका संपादन डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम ने किया था। श्री रमेश जैन सह-सम्पादक थे। पुस्तिका में डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम का ‘छत्तीसगढ़ में जैन धर्म एवं कला का सर्वेक्षण‘ महत्वपूर्ण लेख है। इस लेख में रायपुर, बिलासपुर संग्रहालय और परगनिहादेव (विमलनाथ) मंदिर, मल्हार की जैन प्रतिमाओं के साथ आरंग, सिरपुर, राजिम, (नगपुरा),मल्हार, रतनपुर, धनपुर, नेतनागर, पुजारीपाली, महेशपुर, अड़भार, कुरुसपाल, गढ़ बोदरा, बारसूर, कुम्ही, केशगवां से प्राप्त प्रस्तर प्रतिमाओं का उल्लेख है, जिनमें धनपुर की तीर्थंकर प्रतिमाएं शैलोत्खात हैं। इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त नवग्रहयुक्त ऋषभदेव तथा ऋषभदेव की ही एक अन्य धातु प्रतिमा के अलावा आरंग से प्राप्त पार्श्वनाथ तथा शीतलनाथ की दो, इस प्रकार कुल तीन स्फटिक प्रतिमाओं का उल्लेख है।
इस पुस्तिका में मेरा लेख  बिलासपुर संग्रहालय की जैन शिल्प-सम्पदा सम्मिलित है, आंशिक संशोधन सहित यहां प्रस्तुत-

दक्षिण कोसल के प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व की दृष्टि से बिलासपुर क्षेत्र अत्यधिक समृद्ध है। यहाँ के विशिष्ट कला केन्द्रों के रूप में मल्हार, ताला, रतनपुर, अड़भार, शिवरीनारायण आदि स्थलों को विशेष रूप से रखांकित किया जा सकता है। इस क्षेत्र में दक्षिण कोसल के प्राचीन से राजवंशों शरभपुरीय, सोम-पाण्डुवंशीय तथा कलचुरि के काल में निर्मित शैव, वैष्णव, बौद्ध एवं जैन धर्म से संबंधित शिल्प सम्पदा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। तत्कालीन राजवंशों की धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता के फलस्वरुप सभी धर्मों के देवालय, मठ और विहारों का निर्माण सम्पूर्ण दक्षिण कोसल क्षेत्र में दिखाई देता है।

बिलासपुर जिले में शरभपुरीय एवं पाण्डुवंशीय राजाओं के शासनकाल में मल्हार और कलचुरियों के शासन काल में रतनपुर विशेष महत्व के रहे हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेषों से निर्मित अनेक देवालयों में शैव, वैष्णव के साथ-साथ बौद्ध और जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी भित्तियों में जड़ी हुई हैं तथा कहीं-कहीं ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिष्ठापित भी हैं, जिनकी पूजा-आराधना सम्मिलित रूप से की जाती है। यह जनमानस की अज्ञानता, रुढ़िवादिता अथवा धर्म-भीरुता का उदाहरण नहीं है अपितु पाषाण में प्रतिष्ठित देवात्मा की आराधना तथा कला-अवशेषों का मूल्यांकन एवं अपनी संस्कृति के प्रति जागरुकता का समग्र रुप भी है।

बिलासपुर जिले में जैन धर्म की कलाकृतियों के प्रारंभिक उदाहरण मल्हार से प्राप्त हुए हैं। सोमवंश के शासकों के काल लगभग 7-8वीं सदी ईस्वी में मल्हार, धार्मिक केन्द्र के रुप में विकसित हो चुका था। इस काल की अधिकांश प्रतिमाएँ भूरा-बलुआ प्रस्तर से निर्मित हैं। कलचुरियों के काल में जैन धर्म की लोक-व्यापी स्वरुप देखने को मिलता है। 10-11वीं सदी ईस्वी में जैन कलाकृतियों के प्रचुर अवशेषों से यह भी आभासित होता है कि शैव एवं वैष्णव धर्म के आचार-विचार तथा प्रतिमा-शास्त्रीय मान्य सिद्धांत जैन स्थापत्य कला में भी अनेक अंशों में ग्राह्य हो चुके थे। प्रतिमा विज्ञान में यह तीर्थंकर आदिनाथ, अम्बिका, गोमुख यक्ष, मातृकाओं तथा नवग्रहों के विश्लेषणात्मक अध्ययन से विशेष रुप से स्पष्ट होता है।

जिला पुरातत्व संग्रहालय, बिलासपुर में बिलासपुर क्षेत्र की जैन प्रतिमाओं का अच्छा संग्रह है। इन प्रतिमाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
 
तीर्थंकर
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 64X42X20 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। प्रतिमा का अधिष्ठान भाग खण्डित होने के कारण तीर्थंकर का अभिज्ञान संभव नहीं है। तीर्थंकर को पद्मासन में ध्यान मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। उनके शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार मणि-मुक्ता जड़ित प्रभामण्डल है तथा ऊपरी भाग में त्रिशिखर छत्र अभिषेकरत गजयुक्त मालाधारी विद्याधर-युगल प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर के शीर्ष पर उष्णीशबद्ध बुदबुदाकार केश हैं। कंधों तक स्पर्श करते हुए. लंबे कान, वक्ष पर श्री-वत्स चिन्ह तथा गले पर आवर्त रेखाएँ दृष्टव्य हैं। उनकी मुख-मुद्रा अत्यन्त सौम्य है। मध्य भाग पर दोनों ओर चंवरधारी इन्द्र द्विभंग में प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर प्रतिमा की दोनो हथेलियां एवं अधिष्ठान पर, लांछन भग्न है।

तीर्थंकर आदिनाथ
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 50X48X18 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर आदिनाथ प्रतिमा का उर्ध्वभाग अत्यंत कलात्मक है। उनके शिरोभाग पर जटाजूट बद्ध केशराशि का अंकन है जिसकी लटें स्कंध पर्यन्त विस्तीर्ण हैं। शिरोभाग के पीछे अलंकृत प्रभामण्डल है, जिसके ऊपर त्रिशिखर छत्र, दुन्दुभिवादक, अभिषेकरत गज-युग्म तथा बाह्य पार्श्व में मालाधारी विद्याधारी-युगल दृष्टव्य हैं। आदिनाथ के समीप दोनों ओर स्थित चंवरधारी इन्द्र अवशिष्ट हैं। इस प्रतिमा का वक्ष भाग खंडित है तथा मध्यभाग अनुपलब्ध है।

तीर्थंकर आदिनाथ
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 75X51X24 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर आदिनाथ पद्मासन में ध्यानमग्न अवस्थित हैं। उनके मुख पर ध्यान के भाव हैं। शिरोभाग पर जटा भारयुक्त गुंफित केश हैं तथा स्कंध पर्यन्त विस्तीर्ण हैं। शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार अलंकृत प्रभामण्डल अवशिष्ट है तथा अन्य प्रतीक भग्न हैं। वक्ष पर श्रीवत्स लांछन है। उनके दायें ओर चंवरधारी इन्द्र स्थित हैं। सिंहासन के उत्कीर्ण पटल के मध्य प्रसन्न मुख बलिष्ठ नंदी दृष्टव्य है जिसके नीचे धर्मचक्र एवं उपासना करते प्रतिष्ठापक दम्पत्ति तथा अन्य आराधक अंकित हैं। सिंहासन के दोनों ओर सिंह बैठे हुये दृष्टव्य हैं।

तीर्थंकर मल्लिनाथ
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 97X26X19 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर मल्लिनाथ की स्थानक प्रतिमा ध्यानस्थ प्रदर्शित है। उनके शिरोभाग पर उण्णीषबद्ध बुदबुदाकार केश हैं। उनके कर्ण तथा भुजाएं अत्याधिक बड़े हैं जो क्रमशः कंधा तथा घुटनों तक विस्तृत हैं। वक्ष पर श्रीवत्स लांछन दृष्टव्य है। तीर्थंकर मल्लिनाथ के शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार, अलंकृत प्रभामण्डल है तथा शिखर छत्र, दुन्दुभिवादक अभिषेक करते गज-युग्म, मालाधारी विद्याधर आदि दृष्टव्य हैं। नीचे पैरों के समीप चंवरधारी इन्द्र एवं शासन यक्ष-यक्षिणी कुबेर और अपराजिता लघु रूप में दृष्टव्य हैं। अधिष्ठान भाग पर अंकित उत्कीर्ण पटल पर तीर्थंकर मल्लिनाथ का लांछन, ‘कलश‘ चिह्न का अंकन है। सिंहासन पर दोनों ओर सिंह प्रदर्शित हैं।

तीर्थंकर
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 70X20X12 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर समभाग स्थानक मुद्रा में खड़े हैं। उनके मस्तक पर बुदबुदाकार उष्णीषबद्ध केश हैं। मुख पर ध्यान के भाव है तथा नेत्र अर्धनिमीलित हैं। उनके कान कंधों तक विस्तीर्ण हैं तथा भुजाएं घुटनों को स्पर्श कर रही हैं। वक्ष पर मध्य में श्रीवत्स लांछन हैं। तीर्थंकर के शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल है तथा दुन्दुभिवादक, त्रिशिखर छत्र, अभिषेकरत गज-युग्म एवं मालाधारी विद्याधर आदि पारंपरिक अलंकरण हैं। नीचे पैरों के समीप चंवरधारी इन्द्र अवशिष्ट हैं।

गोमेद-अंबिका
प्राप्ति स्थल - दारसागर, सामग्री - बलुआ पाषाण, माप - 85X58X18 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। आम्र वृक्ष के नीचे गोमेद तथा अंबिका अर्ध पर्यंकासन में बैठे हुए प्रदर्शित हैं। गोमेद का मुख तथा दाहिना हाथ भग्न है। उनके बायें हाथ में अस्पष्ट वस्तु है। अंबिका के शिरोभाग पर किरीट मुकुट है तथा चक्राकार कुंडल, मुक्ताहार, स्तनसूत्र, भुजबंध, कटिसूत्र एवं नुपूर पहने हुई हैं। उनके दायें हाथ में बीजपूरक है तथा बायां हाथ भग्न है। अधिष्ठान भाग पर मध्य में पद्मासन आराधक अनुचरों सहित दृष्टव्य हैं। इस प्रतिमा में शिशु रूपायित नहीं हैं।

बाहुबली
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - भूरा बलुआ प्रस्तर, माप - 80X23X18 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। बाहुबली की यह प्रतिमा रतनपुर के पुलिया में जड़ी हुई थी, जिसे वहाँ से निकाले जाने के पश्चात् संग्रहालय में लाया गया है। यह छत्तीसगढ़ में ज्ञात एकमात्र बाहुबली की प्रतिमा है। जैन पुराणों में बाहुबली के द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत कठिन तपश्चर्या की कथा है जिसमें उल्लेख है कि उनके निश्चल देह पर लता गुल्म विकसित-पल्लवित हो गये थे। बाहुबली की यह तपस्या जैन धर्म की एक अत्यंत प्रभावोत्पादक कथा है। संग्रहालय की इस प्रतिमा में उपरोक्त तपश्चर्या का शिल्पीय रुपांकन है। बाहुबली समपाद स्थानक मुद्रा में स्थित रहकर तप कर रहे में हैं। उनके मुख पर असीम ध्यान के भाव हैं। शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल है। उनके जांघों के ऊपर लता गुल्म स्वाभाविक रुप से लिपटे हुए हैं तथा छिपकली सदृश्य एक जन्तु भी अंकित है। अंत में पैरों के समीप दोनों ओर चंवरधारी देव दृष्टव्य हैं। सिंहासन पीठिका पर मध्य में उत्कीर्ण पटल, धर्म चक्र तथा सिंह दृष्टव्य है।

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बिलासपुर जिले से ही नहीं अपितु संपूर्ण छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जैन धर्म के पर्याप्त अनुयायी थे तथा कुछ अंशों में इन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। इन प्राचीन प्रतिमाओं के अध्ययन से हमें तत्कालीन धार्मिक सद्भाव, कलात्मक प्रवृत्तियाँ, लोक-व्यवहार तथा शिल्पीय प्रवृत्तियों की जानकारी भी प्राप्त होती है। जैन प्रतिमा विज्ञान का अध्ययन तथा उपलब्ध कलाकृतियों के सूक्ष्म अवलोकन से शास्त्रीय वर्णन तथा शिल्पीय कर्म-कौशल के मध्य एक सुदृढ़ ज्ञान-विज्ञान की प्रचलित परम्परा का संवहन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

पुनश्च- उक्त लेख में जैन-परंपरा की तीन अन्य प्रतिमाओं का उल्लेख यहां जोड़ा जा रहा है, जो श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट, अकलतरा, जिला- जांजगीर-चांपा के नाम पर 24.09.86 को पंजीकृत तथा 31.01.08 को बिलासपुर संग्रहालय के लिए संकलित की गईं हैं। उक्त तीनों प्रतिमाएं रजिस्ट्रीकरण अधिकारी कार्यालय, बिलासपुर में पंजीकृत हैं। इनमें, पार्श्वनाथ (पंजीयन क्र. 561), 12 वीं सदी ईस्वी- काले ग्रेनाइट पत्थर की पद्मासन में बैठी प्रतिमा है। पंचफण नाग, पादपीठ पर सर्प लांछन है। ऋषभदेव (पंजीयन क्र. 562), 12 वीं सदी ईस्वी- लाल बलुआ पत्थर की पद्मासन में बैठी प्रतिमा है। शीर्ष पर प्रभामण्डल है। पादपीठ पर लांछन स्पष्ट नहीं है। संभवनाथ (पंजीयन क्र. 563), 11 वीं सदी ई.- काले ग्रेनाइट पत्थर की कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमा है। पादपीठ पर अश्व लांछन है।

Saturday, January 22, 2022

छत्तीस पांती तालाब

छत्तीसगढ़ के तालाबों और जल-प्रबंधन पर लिखते हुए कभी बात हुई कि इन जानकारियों को जल-जीवन, तालाब की छत्तीस पांती (पंक्ति) के रूप में किस तरह सजाया जा सकता है, इसी प्रयास का परिणाम-

01. छत्तीसगढ़ में जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के वृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं।

02. नौ लाख ओड़िया, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा, एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते का कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में जीवन्त हैं।

03. खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा के साथ प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में तथा बस्तर अंचल की लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है।

04. सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे और राजा बालंद, कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता। उक्ति है- सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा।

05. यह रोचक है कि छत्तीसगढ़ में आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, भैना, लोनिया, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही।

06. छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंख्य ‘लंकेटर तालाब’ अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।

07. छत्तीसगढ़ के ग्रामों में तालाबों की बहुलता इतनी कि ‘छै आगर छै कोरी’, यानि 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई स्थानों के साथ सम्बद्ध है। बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में ‘सात आगर सात कोरी’ (147) तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्या में तालाब विद्यमान हैं।

08. भीमादेव, बस्तर में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी के देवता हैं। बस्तर में विवाह के कई नेग-चार पानी और तालाब से जुड़े हैं। विवाह के अवसर पर दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है।

09. छत्तीसगढ़ में छत्तीस से अधिक संख्या में परिखायुक्त मृत्तिका-दुर्ग (मिट्टी के किले या गढ़) जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों का सामरिक उपयोग संदिग्ध है किन्तु गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है।

10. छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिस अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यतः तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। इस स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है।

11. छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा रही है और कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन ऐसे तालाबों का अनुष्ठानिक महत्व बना रहता है क्योंकि ऐसे ही तालाब के जल का उपयोग चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए किया जाता है।

12. जांजगीर-चांपा जिले के किरारी के हीराबंध तालाब से प्राप्त काष्ठ-स्तंभ, उस पर खुदे अक्षरों के आधार पर दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है।

13. तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है।

14. तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुंचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं।

15. तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बांधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के भी होते हैं।

16. तालाबों का नामकरण सामान्यतः उसके आकार, उपयोग, चरित्र पर आधारित होता है, इनमें खइया, नइया, पचरिहा, खो-खो तालाब, पनपिया, सतखंडा, अड़बंधा, डोंगिया, गोबरहा, पुरेनहा, देउरहा, नवा तलाव, पथर्रा, कारी, पंर्री जैसे नाम हैं।

17. तालाबों का नामकरण उसके चरित्र-इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे- फुटहा, दोखही, भुतही, छुइहा, फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, गोपिया, भीमा आदि। बरात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है।

18. पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची है इनमें उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआं, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने गांवों के नाम आम हैं।

19. जल अभिप्राय के उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद, मरौद, रहौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं।

20. जल अभिप्राय के सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर, लाखासर, खोंगसरा, अकलसरा, तेलसरा, बोड़सरा, सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा, भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी है।

21. तालाब समानार्थी तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उड़नताल, सरिसताल, अमरताल हैं।

22. चुआं, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गांवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआं, बेहरचुआं, जामचुआं, लाटाबोड़, नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं।

23. तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, बिल्लीबंद, टाटीबंद जैसे हैं।

24. तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया, बंधवा, सागर, डबरी, डभरा, गुचकुलिया, कुंआ, बावली, पचरी, पंचधार, सेतगंगा, गंगाजल, नर्मदा और निपनिया भी हैं।

25. छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी और सरगुजा में महान नदी है तो एक जिला मुख्यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर जिले के पलारी ग्राम का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है।

26. कार्तिक-स्नान, ग्रहण-स्नान, भोजली, मृतक संस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना) और विसर्जन आदि और पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं।

27. हरेली (सावन अमावस्या) की गेंड़ी को पोरा (भाद्रपद अमावस्या) के दिन तालाब का तीन चक्कर लगाकर गेंड़ी के पउवा (पायदान) का विसर्जन तालाब में किए जाने का लोक विधान है और विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है।

28. गांवजल्ला (ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर) लद्दी (गाद) निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। पानी सूख जाने पर तालाब में झिरिया (पानी जमा करने के लिए छोटा गड्ढ़ा) बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है।

29. तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थितिकी-तंत्र के बिना अधूरी है, जिसमें जल-वनस्पति, सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिड़िया (ऐरी), मछलियां, उभयचर आदि और कहीं-कहीं ऊद व मगर भी होते हैं।

30. जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएं तालाब की पारस्थितिकी सत्ता के पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं।

31. जल की रानी, मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात होते हैं- डंडवा, घसरा, अइछा, सोढ़िहा या सोंढ़ुल, लुदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, भेंड़ो, बामी, काराझिंया, खोखसी या खेकसी, झोरी, सलांगी या सरांगी, डुडुंग, डंडवा, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, तेलपिया, ग्रासकाल।

32. तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनके जबान पर कटरंग, सिंघी, लुडुवा, कोकिया, रेछा, कोतरी, खेंसरा, गिनवा, टेंगना, मोहराली, सिंगार, पढ़िना, भुंडी, सांवल, बोलिया या लपची, रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, पथर्री, चंदैनी, कटही, भेर्री, कतला, रोहू और मिरकल मछलियों के नाम भी सहज आते हैं।

33. सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र- बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। आम के पेड़ों की अमरइया भी प्रमुख तालाब के अभिन्न अंग होते हैं।

34. तालाब स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, मंदिर, देवी का स्थान- माताचौंरा या महामाया और शीतला की मान्यता सहित नीम के पेड़ और अन्य वृक्षों में पीपल (घंटहा पीपर) भी तालाबों के अभिन्न अंग हैं।

35. छत्तीसगढ़ में तालाब के साथ जुड़े मिथक, मान्यता और किस्सों में झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार, पूरी बरात तालाब में डूब जाना जैसे पात्र और प्रसंग तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है।

36. तालाब से जुड़ी दंतकथाओं में पत्थर की पचरी, मामा-भांजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य के इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।

Thursday, January 20, 2022

चैतुरगढ़

बिलासपुर-कटघोरा मार्ग पर ग्राम पाली से बांये व्यपवर्तन से ग्राम लाफा होकर पहाड़ी के तल पर स्थित ग्राम बगदरा से नव-निर्मित सीढ़ियों के द्वारा चैतुरगढ़ पहुंचा जा सकता है। बिलासपुर से चैतुरगढ़ की कुल दूरी लगभग 80 किलोमीटर है। इस प्राचीन गढ़ को अत्यंत सुदृढ़ किला माना जाता है। पहाड़ी पर प्राकृतिक गुफा को महादेव खोला या शंकरखोला कहते हैं, जो एक छोटी नदी जटाशंकरी (अहिरन) का उद्गम है। यह स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन संरक्षित है।

पहाड़ी के ऊपर संरचनाओं और पुरावशेषों की अधिकतम प्राचीनता लगभग 11-12 वीं सदी ई. है। किले में प्रवेश के लिए गणेश द्वार, देवी द्वार और हुंकरा द्वार है। इन पाषाण निर्मित दोहरे द्वारों के साथ प्राचीन कलचुरिकालीन प्रतिमाएं आलों में रखी हुई हैं। पहाड़ी के चारों ओर पत्थर से निर्मित प्राकार के अवशेष भी विद्यमान है।

इस गढ़ में गणेश द्वार के निकट देवी का मंदिर है, जिसके गर्भगृह में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से संलग्न पाषाण स्तंभों पर आधारित मण्डप है। मण्डप में पहुंचने के लिए सोपान क्रम की व्यवस्था है। मंदिर की बाहरी दीवार सादी है। पहाड़ी पर तीन तालाब है किन्तु मंदिर से संलग्न तालाब ही जल से परिपूर्ण रहता है। मंदिर का काल लगभग 15-16 वीं सदी ईस्वी है। नवरात्रि के अवसर पर दीप प्रज्वलन एवं विशेष पूजा अर्चना की जाती है।

उक्त संक्षिप्त परिचय लाफागढ़ का है। छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक धरोहर श्रृंखला के लिए मेरे द्वारा सन 1988 में तैयार पूरा आलेख इस प्रकार-

मानव जाति के मनोभूगोल के विकास में पृथ्वी के धरातल पर बनी उॅंची-नीची, छोटी-बड़ी पर्वत-श्रेणियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। पर्वत-श्रेणियों की उपस्थिति से दूरी के साथ निकटता और भय के साथ सुरक्षा की भावना आदिकाल से ही मानव मन में बनती-विकसित होती रही है। आदि-मानव का तो निवास ही शैल-गह्वर रहे, तब से ही पहाड़ियों-पर्वत श्रेणियों की सुरक्षात्मक उपयोगिता की प्रबल धारणा मानव मन में उपजी। मानव में सामाजिक भावना के साथ-साथ केन्द्रीय नियामक शक्ति की आवश्यकता से राजसत्ता का विकास हुआ और व्यवस्थित राजनैतिक स्थिति के प्रादर्शों के प्रारंभिक विवरणों में कौटिल्य का ‘गिरिदुर्ग’, ऐसी ही सोच के विकसित परिणाम थे, जिनका राजसत्ता में महत्वपूर्ण स्थान रहा। शैलाश्रयों के शैलचित्र, शिलोत्खात स्थापत्य और पर्वतों पर दुर्गीकरण, पर्वत-श्रृंखलाओं पर अंकित मानव मनःस्थितियों के चित्रण हैं, हमारे देश में उपलब्ध ऐसे अनेक स्थल जीवन-चर्या में सन्निहित कला, धर्म और सुरक्षात्मक प्रयासों के प्रमाण हैं।

बिलासपुर जिले के कटघोरा तहसील की चैतुरगढ़ या चिताउरगढ़ पहाड़ी इसी संदर्भ में चर्चित है। लाफा जमींदारी में स्थित होने के कारण लाफागढ़ के नाम से प्रसिद्ध यह पहाड़ी जिले के महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल पाली से लाफा होते पहुंचा जा सकता है। मध्ययुगीन क्षेत्रीय इतिहास को निर्धारित करने वाले राजवंश- कलचुरियों का इस क्षेत्र में पहला पड़ाव तुम्माण भी लाफागढ़ से अधिक दूर नहीं है। समुद्र तल से 3410 फुट उंचे पहाड़ी शिखर के चतुर्दिक लगभग 4 किलोमीटर उत्तर-दक्षिण और डेढ़ किलोमीटर पूर्व-पश्चिम लम्बे-चौड़े पठार की भौगोलिक अनुरूपताओं ने तत्कालीन क्षेत्रीय राजवंश को इस ओर आकृष्ट किया, फलस्वरूप यह स्थल इतिहास में सुरक्षित दुर्ग और कला-धर्म केन्द्र के रूप में हमारी धरोहर बनकर विद्यमान है।

लाफा से किले की दूरी अधिक नहीं है, किन्तु पहाड़ी का यह दक्षिण-पश्चिम हिस्सा खड़ी चिनाई से सपाट दीवार के मानिन्द है अतः इस ओर से किले पर प्रवेश संभव नहीं हो पाता। लाफा से आगे उत्तर की ओर बगदरा (बघधरा) पहुंचना होता है। बगदरा से पहाड़ी के उत्तर-पश्चिम हिस्से पर स्थित सिंह द्वार पहुॅंचा जाता है। यह रास्ता अत्यंत दुर्गम, अनियमित पगडंडी है, जिस पर स्थानीय पथ-प्रदर्शक के बिना चलना दुष्कर है। जंगल-झाड़ी के बीच से होकर गुजरने वाले इस मार्ग का अंतिम हिस्सा अत्यधिक कठिन तथा कुछ दूर सीधी चढ़ाई वाला है। चढ़ाई का अधिकांश मार्ग किले की दीवार से लगा हुआ है। यह संकरा रास्ता वस्तुतः पहाड़ी की खड़ी चिनाई और दीवार के बीच का ही संक्षिप्त भाग है, जिसमें से गुजरने पर दीवार या उसकी ओट से आसानी से निगाह रखी जा सकती है।

इस किले पर पहुंच की कठिनाई को देखकर लाफागढ़ पहुॅंचे दो अलग-अलग अंगरेज अधिकारियों, कैप्टन जे. फारसाइथ और जे.डी. बेग्लर ने इस दुर्गमता की विशेष रूप से चर्चा की है। पुरातत्व विभाग के अधिकारी बेग्लर के अनुसार ‘इस सत्र में मेरे द्वारा देखा गया यह अधिकतम मजबूत प्राकृतिक किला है।’ उन्होंने भारत के सुदृढ़तम किलों में भी लाफागढ़ की गणना की है। इन अंगरेज अधिकारियों की रपटों से यह स्पष्ट होता है कि किले की संरचनाएं तभी जर्जर होकर ध्वस्त हो रही थी। वर्तमान स्थिति में किले की दीवार तथा द्वार अधिकांशतः भग्न है। संरचना की दृष्टि से यहॉं कंकड़-बजरी तथा कहीं-कहीं ठोस पाषाण-खंडों से निर्मित दीवार के अवशेष, सिंह अथवा गणेश द्वार, मनका दाई द्वार और हुंकरा द्वार नामक तीन प्रवेश एवं महामाया मंदिर ही शेष हैं। रक्षा-भित्तियां अनियमित पहाड़ी कगार के अनुक्रम में निर्मित हैं।

रक्षा-भित्तियों का विस्तार पहाड़ी पर स्थित किले की दुरूह पहुंच को देखते हुए अधिक उपयोगी नहीं जान पड़ता। रक्षा-भित्तियां बजरीले कंकड़ और चूना-गारे से निर्मित है, किन्तु प्रवेश द्वारों की संरचना लगभग समान है। विशाल और चौड़े किन्तु वर्तमान में ध्वस्त, द्वार संयोजन दोहरे हैं, जिनके दोनों पार्श्वों पर रक्षक गृह बनाये गये थे। रक्षक-गृह, शैव तथा देवी उपासना कक्ष के रूप में भी प्रयुक्त रहे होंगे, यह तथ्य द्वारों के साथ प्राप्त होने वाले प्रतिमा खण्डों, देव-कोष्ठकों में स्थापित प्रतिमाओं और स्तंभयुक्त मंडप तुल्य योजना वाली संरचना से स्पष्ट होता है। भूरे बलुआ पत्थर से निर्मित ये स्तंभ लगभग सादे और चौकोर हैं। द्वारों पर प्रवेश करने पर 90 अंश कोण पर मोड़ सुरक्षात्मक दृष्टि से उपयोगी योजना है। द्वारों का निर्माण भी ठोस पाषाण खंडों के संयोजन से किया गया है।

प्रवेश द्वारों में विभिन्न प्रतिमाएं दृष्टव्य हैं। सिंह द्वार से सम्बद्ध प्रतिमाओं में गणेश, पशुमुखी नारी तथा उत्कटासन में स्थित एक अन्य नारी प्रतिमा है। मनका या मनिया दाई द्वार में दोहरे पद्मपीठ पर पद्मासन में स्थित चतुर्भुजी अत्यंत अलंकृत देवी प्रतिमा है। हुंकरा द्वार की विभिन्न प्रतिमाओं में मातृकाएं हैं। षट्भुजी वैष्णवी पद्मपीठ पर ललितासन में स्थित है। भुजाएं वरद मुद्रा तथा चक्रयुक्त हैं। एक अन्य देवी प्रतिमा जटामुकुट तथा कपालधारी प्रदर्शित है। इन्द्राणी की चतुर्भुजी प्रतिमा की अवशिष्ट भुजाएं वरद मुद्रा व सनाल पद्मयुक्त है। पादपीठ पर गज वाहन अंकित है। ब्रह्माणी की प्रतिमा त्रिमुखी है तथा पादपीठ पर हंस वाहन अंकित है। वराहमुखी वाराही जटामुकुट युक्त ललितासन में स्थित प्रदर्शित है।

किले में विशेष उल्लेखनीय संरचना महामाया मंदिर है। मंदिर पहाड़ी के पश्चिम भाग में सिंह द्वार के समीप स्थित है। पूर्वाभिमुख मंदिर नरम बलुआ पत्थर से निर्मित है। ऊंची जगती पर निर्मित मंदिर में पहुंचने के लिए सोपानक्रम की व्यवस्था है। अर्द्धमण्डप, मंडप, अंतराल और गर्भगृह युक्त मंदिर की संरचना शास्त्रीय दृष्टि से सादी और सपाट है। मंडप में पांच पंक्तियों में पांच-पांच स्तंभ व अर्द्धस्तंभ हैं। गर्भगृह के प्रवेशद्वार में सिरदल पर गणेश अंकित है। वाह्य भित्ति में सादे अधिष्ठान और जंघा पर शिखर है। गर्भगृह की प्रतिमा उल्लेखनीय है जिसमें दुर्गा के महिषासुर मर्दन का रूपांकन है। देवी की प्रतिमा द्वादशभुजी है। दाहिनी भुजाओं में क्रमशः परशु, त्रिशूल, खेटक, खट्वांग आदि आयुध हैं, बायीं भुजाओं का अधिकांश खंडित है। देवी के पैरों के निकट महिषासुर का अंकन है। वाहन सिंह भी महिष पर आक्रमणरत प्रदर्शित है। मंदिर के निकट ही ‘पाट तालाब’ है। इतनी ऊंचाई पर भी इस तालाब में सदैव जलराशि बनी रहती है। पहाड़ी पर दो अन्य तालाब भी थे, जो अब सूख गये हैं।

पुरातात्विक महत्व के इस स्थल-लाफागढ़ का निरपेक्ष काल निर्धारण, साक्ष्यों के अभाव में, संभव नहीं है। तर्क-प्रमाण के आधार पर स्थल 14-15 वीं सदी ईस्वी का प्रतीत होता है। महामाया मंदिर चूना गारा युक्त भित्तियां व कुछ कलाकृतियां निश्चय ही इस काल से पूर्व की नहीं है। देव प्रतिमाएं अवश्य इस स्थापना में संदेह पैदा करती है, किन्तु प्रतिमाओं और अवशेषों का स्थान परिवर्तन की संभावना से यह संदेह निर्मूल हो जाता है। ऐसा भी संभव है कि 10-11 सदी ईस्वी में कलचुरियों के आरंभ के साथ इस स्थल पर दुर्ग स्थापना हुई हो। अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा तैयार पारम्परिक सूची में लाफागढ़ का निर्माता पृथ्वीदेव को बताया जाता है। दन्तकथाओं से भी ऐसा ही पता चलता है किन्तु इसकी आवश्यकता न होने पर, साथ ही राजधानी रत्नपुर स्थानान्तरित हो जाने से किले का रख-रखाव नहीं हो पाया होगा और 14-15वीं शताब्दी में संभावित मुस्लिम आक्रमणों के भय से इसे पुनर्निर्मित किया गया हो। मुस्लिम आक्रमणों के प्रभाव का इतिहास इस क्षेत्र के अन्य गिरिदुर्ग गढ़कोसंगा अर्थात कोसईगढ़ से सम्बद्ध है, अतः लाफागढ़ की ऐतिहासिकता में भी इन्हीं तत्वों की संभावना प्रकट की जा सकती है। इस कथित सुदृढ़तम दुर्ग के साथ शौर्य एवं वीरता को कोई ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त नहीं होता।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक लाफागढ़ दुरूह होने के कारण आवागमन में आसान नहीं है। सघन साल वन से आच्छादित लाफागढ़ पहाड़ी के चतुर्दिक वन्य पशु-पक्षी भी सहज दृष्टिगोचर होते हैं। पुरातत्वीय महत्व के साथ नैसर्गिक सौंदर्य, पर्यटन की दृष्टि से स्थल को प्राप्त प्राकृतिक वरदान है। आवागमन व्यवस्था व अन्य सुविधाएं विकसित कर विद्यार्थियों एवं पर्यटकों का सहज आकर्षित किया जा सकता है।

Tuesday, January 18, 2022

लाफा-चैतुरगढ़ ट्रेक

यूथ हास्टल से मेरा परिचय 1980-81 में भोपाल में हुआ और तभी मैंने वाईएचआई, यूथ हास्टल्स एसोसिएशन आफ इंडिया की आजीवन सदस्यता ले ली थी। लगभग 15 साल बाद यात्रा के दौरान पुरी, तिरुपति और चाणक्यपुरी, दिल्ली में हास्टल में आसरा लिया और बिलासपुर के आसपास लाफा-चैतुरगढ़ तथा दलहा पहाड़, अकलतरा के ट्रेक के आयोजन में शामिल रहा। लाफा ट्रेक का संस्मरण तब 13 जनवरी 1996 के दैनिक समाचार पत्र ‘नवभारत‘, बिलासपुर में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था- 

बंद गुफा की दन्तकथा सुनते, पहाड़ी पर इसके चैत्याकार कटाव को देखते, लाफागढ़ के तिलस्म को भेदने की इच्छा-उत्कंठा और सीधी खड़ी चुनौतीपूर्ण चढ़ाई पर आगे बढ़ने का रोमांच ही उस उत्साह का संचार करता है, जिसके सहारे कदम आगे बढ़ते हैं और पहाड़ी की किलोमीटर भर ऊंची दूरी ‘सर‘ होने लगती है। दिसम्बर के सुबह की रेशमी धूप की रोशनी भी मुलायम थी। स्कूली बच्चों का अदम्य उत्साह और ग्रामवासियों का हैरत भरा सवाल ‘पैदल जायेंगे..?‘ गर्मजोशी से भरा था। श्रीमती रत्ना राय बुखार से तपती दवा खाकर स्वस्थ्य बने रहने का प्रयास कर रही थीं। सैंतालीस वर्षीय श्री रंजन राय, दमा से पीड़ित, एस्थिलीन लिये और श्री विवेक जोगलेकर उच्च रक्तचाप के मरीज। इन सभी ने अपनी व्यथा, अपने तक सीमित रखी और अपना उल्लास खुले मन से सब बांटते रहे, यात्रा शुरू हुई। 

उपरोक्त पंक्तियाँ किसी कथा की पृष्ठभूमि नहीं वरन इसी शहर की एक संस्था यूथ हास्टल द्वारा आयोजित, स्थानीय स्तर पर मैकल (लाफागढ़) ट्रेकिंग ‘95 से संबद्ध है। 

चैतुरगढ़ या चितूरगढ़ के नाम से प्रसिद्ध यह स्थल, बिलासपुर से पाली-लाफा होकर लगभग 82 किलोमीटर दूर स्थित है। यह स्थान पुरातात्विक उपलब्धियों व प्राकृतिक, धार्मिक कारणों से भी विख्यात है। लगभग एक किलोमीटर (3244 फीट) ऊंची तथा 15 वर्ग किलोमीटर विस्तृत, इस पहाड़ी पर बारहवीं से सोलहवीं सदी ईस्वी तक के कलावशेष विद्यमान हैं। इस सीधी खड़ी चढ़ाई वाली पहाड़ी ने पिछले सदी के अंग्रेज पुराविद् मि. बेग्लर तथा वन संरक्षक कैप्टन जे. फारसिथ को आकर्षित किया था। अनियमित चारदीवारी तथा हुंकरा, मनका व सिंहद्वार युक्त पहाड़ी पर महिषासुरमर्दिनी का एक प्राचीन मंदिर तथा तालाब है। लाफागढ़, गढ़ा मंडला के गोंड राजाओं रतनपुर के कलचुरि शासकों की सूची में रहा है और परवर्तीकाल में इस पर लाफा के जमींदारों का पूर्ण आधिपत्य हो गया। यह पहाड़ी प्राकृतिक सौंदर्य औषधिगुण युक्त वृक्षों, पशु-पक्षी संपदा के साथ ही एक छोटी नदी जटाशंकर या अहिरन का उद्गम स्थल होने के कारण भी प्रसिद्ध है। 

गत वर्ष मई माह में यूथ हास्टल के निरीक्षण में दल ने ट्रेकिंग के लिए लाफागढ़ की यात्रा की थी तथा पिछले दिनों 24 व 25 दिसम्बर को यूथ हास्टल की बिलासपुर इकाई द्वारा विधिवत् प्रथम ट्रेकिंग का आयोजन किया गया। यह संस्था, युवक-युवतियों तथा युवा-भावना युक्त व्यक्तियों को, स्वच्छंद किन्तु अनुशासित भ्रमण के लिए प्रेरित कर, इस हेतु आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था करता है ताकि व्यक्ति, निजी शारीरिक क्षमता के साथ प्रकृति, पर्यावरण, इतिहास और संस्कृति का ज्ञान-मधु एकत्र कर, जागरूक हो सकें। यूथ हास्टल द्वारा आयोजित ट्रेकिंग तथा अन्य कार्यक्रमों के लिए केन्द्र शासन, राज्य शासन, बैंकिंग सेवा आदि के कर्मचारियों को विशेष आकस्मिक अवकाश की पात्रता देता है और प्रतिभागियों को प्रमाण-पत्र भी दिये जाते हैं। बिलासपुर इकाई के पदाधिकारियों और सदस्यों ने गत वर्षों में यूथ हास्टल एसोसिएशन द्वारा आयोजित विभिन्न राष्ट्रीय ट्रेकिंग कार्यक्रमों में सफलतापूर्वक भाग लिया है, जिनमें सतपुड़ा (पचमढ़ी) ट्रेकिंग हिमालयन सारपास ट्रेकिंग व कुल्लू-चंद्रखान प्रमुख हैं। 

ट्रेकिंग आरंभ करते हुए दल को, पूर्व विधायक लाल कीर्तिकुमार, सरपंच श्री इन्द्रजीत सिंह तथा संयोजकों ने संबोधित किया, जिसमें ट्रेकिंग का परिचय, आवश्यक सावधानियों, निर्देशों के साथ यह भी ध्यान दिलाया गया कि दल का कोई भी सदस्य प्लास्टिक, पालिथीन, रैपर, कवर आदि न फैलाये बल्कि रास्ते में मिलने वाली ऐसी वस्तुएँ एकत्र करें और जो सदस्य सर्वाधिक रैपर एकत्र करेगा, उसे पुरस्कृत भी किया जावेगा। आशंकित, मगर उत्साहित युवा सरपंच दल को रवाना करते हुए स्वयं भी साथ हो लिये, मार्गदर्शन के लिए ग्राम के वरिष्ठ व सम्मानित नागरिक श्री उदय प्रताप सिंह साथ रहे। 

चालीस सदस्यीय पूरा दल, जिसमें अधिकतर डैफोडिल कान्वेंट स्कूल के शहरी माहौल में पले बढ़े बच्चे थे, उनकी आंखों में चमक झलक रही थी। हंसते खिलखिलाते, दौड़ते-भागते लेकिन शालीन और मर्यादित खुलेपन के माहौल में प्रकृति को सीधे सम्पर्क से जानने का आनंद अद्वितीय था। ऊपर आसमान पर सूरज अपनी मंजिल की ओर अग्रसर था और इधर ट्रेकिंग दल लाफागढ़ की ऊंचाई का फासला नाप रहा था। ट्रेकिंग के लिए जंगल के बीच से सीधी-चढ़ाई वाला रास्ता चुना गया था। वैसे तो यह संरक्षित वन है, लेकिन वृक्षों की अवैध कटाई धड़ल्ले से हो रही है और दुखद पहलू है कि शाल के मूल्यवान वृक्षों को थोड़े से गोंद (धूप) के लिए काटा गया है, और कटे पेड निरर्थक सड-गल रहे हैं। शाम ढलते-ढलते दल, हुंकरा द्वार पर पहुंच गया और आगे बढ़ने पर घंटों से प्रतीक्षारत समिति सदस्यों श्री चौहान, श्री नटवर लाल के साथ डॉ. बांधी ने सभी का स्वागत किया, पूरी पहाड़ी पर वानस्पतिक हरियाली और उबड़-खाबड़ विस्तार था। मंदिर के पास कुछ झोपड़ियाँ थीं, इन्हीं झोपड़ियों में रात बसर होनी थी। रात को कैम्प फायर में सभी ने भाग लिया और स्कूली छात्रा वर्षा सोन्थालिया ने सर्वाधिक रैपर इकट्ठे कर पुरस्कार जीता, तत्काल पुरस्कार की राशि सरपंच महोदय ने अपनी ओर से भेंट की। 

रात्रि-विश्राम के पश्चात् सुबह हुई. छात्र-छात्राएँ जो इस माहौल के प्रति उत्सुक और आशंकित थे, अब आश्वस्त और आत्मीय हो रहे थे। राजा-बैठकी से धुंध भरी वादियों और विस्तृत असीमित प्राकृतिक विविधता की दृश्यावली का सबने जी भरकर रसास्वादन किया। गढ़ की प्राचीनता और मंदिर स्थापत्य की जानकारी प्राप्त करते हुए. विद्यार्थियों ने सवालों की झड़ी लगा दी। सामान समेटा जाने लगा, तैयारी पूरी कर वापसी यात्रा आरंभ हुई। चढ़ाई का मार्ग आमटी-आमा वाला 9 किलोमीटर लम्बा था, तो वापसी के लिए नगोई भांठा की रोमांचक ढाल वाला 13 किलोमीटर लम्बा रास्ता। दल ने जैसे ही वापसी यात्रा आरंभ की, तालाब पर कम दबाव का क्षेत्र निर्मित होने से चारों ओर से कोहरा और बादल झूमते-लहराते आकर मानों तालाब में समाने लगे। सबके पैर ठिठक गए और पूरे दल को इस अद्भुत प्राकृतिक दृश्य की दुर्लभ छवि ने मानो विदाई देकर विभोर और अभिभूत कर दिया। उल्लासमय वातावरण में वापसी भी हो गई। लगभग सभी शहरी बच्चों ने ट्रेक की अवधि सात दिन तक लम्बी करने की सम्मति प्रकट की थी।

Monday, January 17, 2022

सबरिया - राजेश

राजेश कुमार सिंह, मानवविज्ञान और समाजशास्त्र के स्नातकोत्तर उपाधिधारी होने के साथ इनमें गंभीर रुचि लेते थे और उनका उद्यम अकादमिक अध्ययन तक सीमित नहीं, बल्कि सांस्कृतिक-सामाजिक सूत्रों के संधान सहित सकारात्मक परिवर्तन की संभावना भी देखने का होता। प्रवासी मजदूरों की स्थिति पर उनका लघु शोध-प्रबंध एक महत्वपूर्ण अध्ययन था। इसी प्रकार विभिन्न जाति-जनजाति और उनकी संस्कृति के प्रति उनकी दृष्टि सूक्ष्म होती थी। अपनी विशिष्टताओं के चलते सबरियों पर उनका ध्यान लगातार रहता और वे नोट्स लेते रहते, उन्हें इस बारे में जानकारियां जुटाने और समझने में अकलतरा वाले शेखर दुबे जी, अमरताल-लटिया वाले लक्ष्मीनारायण सिंह जी, मुलमुला-अकलतरा वाले रमाकांत सिंह जी, रिस्दा वाले दिलभरण सिंह जी, रेमंड सीमेंट-हैदराबाद वाले श्री एम.वाई शर्मा और ग्रामीण बैंक वाले पा.ना सुब्रह्मनियन के अलावा लटिया वाले श्री कन्हैया सबरिया, अमरताल वाले श्री अन्का सबरिया, आरसमेटा वाले श्री संकर सबरिया से महत्वपूर्ण सहयोग मिला। मुझे भी इस दिशा में रुचि हुई और उनके लिए कुछ जानकारी मैंने इकट्ठी की थी। यह नोट, मूलतः उनके द्वारा तैयार किया गया था, जिसे वे अंतिम रूप नहीं दे पाए, किंतु इसके बावजूद भी इसका महत्व कम नहीं है, मानते हुए प्रस्तुत-

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ एवं बिलासपुर अंचल के निवासी सबरिया वस्तुतः कौन है, ठीक-ठीक कोई नहीं जानता। नृतत्वशास्त्री, न समाजशास्त्री, न शासकीय विभाग और न खुद सबरिया। समय के साथ-साथ नदी के किनारों से मैदानों की ओर बढ़ते सबरिया लोगों की पहचान, समय के साथ-साथ अधिक धुंधलाती जा रही है। इसके सिर्फ दो ही उपादान शेष हैं जो इनके मूल स्थान और पहचान की ओर संकेत करते हैं। प्रथम यह कि ये उच्चारण में थोड़े अंतर के साथ तेलुगु भाषा बोलते हैं और दूसरा, ये हमेशा लोहे का मोटा डंडा ‘सब्बल‘ लिए रहते हैं। इनकी बसाहट से अनुमान होता है कि ये महानदी के साथ चलते-चलते इस क्षेत्र में प्रवेश कर गये। एक मोटे कयास से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व सबरिया आंध्र की मूल किसी जाति/जनजाति के सदस्य, अथवा उसके उपसमूह हैं, किंतु किस प्रयोजन से यहां आये? जवाब शायद महानदी ही दे सकती है।

सबरिया लोगों में बहुत कम पढ़े-लिखे हैं। उनका अपना कोई लिखित दस्तावेज भी नहीं है। अतः अपनी पहचान के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। मगर इनकी पहचान के गंभीर प्रयास नहीं हुए। सबरिया जाति पर कुछ शोध निबंध हैं पर इस मूल प्रश्न का, कि सबरिया आखिर हैं कौन, सभी मौन हैं। सरकारी खानापूरी इतने से ही हो जाती है कि इनकी जनसंख्या कितनी है और इनका प्रतिशत कुल जनसंख्या में कितना है। शासन ऐसे कुछ मामलों में आंकड़ों को इतना महत्व देता है कि आदमी उसके पीछे छिप जाता है। आवश्यकता पड़ने पर पुलिस की डायरियां और तहसील कार्यालय इन्हें गोंड मानकर काम चला लाते हैं। कभी-कभी तो इन्हें सिर्फ आदिवासी बता देना ही पर्याप्त समझा जाता है। मगर शासन की जनजाति सूची में सबरिया का कोई स्थान नहीं है।

मध्यप्रांत के जनजाति/जातियों के बारे में सबसे प्रमाणिक पुस्तक ‘द ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया’’ में रसेल एवं हीरालाल का ध्यान भी इन पर नहीं गया है। संभवतः उन्होंने सबरियों को सहरिया या संवरा-शबर मान लिया है। किंतु बाद के प्रकाशनों में यह सामान्यतः स्पष्ट है कि मिलते-जुलते नाम के अलावा इनमें अन्य कोई समानता नहीं है। सबरिया रहन-सहन, भाषा, शारीरिक गठन, पेशा, धार्मिक मान्यताओं में स्पष्टतः भिन्न हैं। सहरिया मूलतः मुरैना शिवपुरी, गुना जिलों में पाये जाते हैं। इन्हें पूर्व में अपराधी जनजातियों की सूची में रखा गया था। शबर, मूलतः उड़ीसा के रहने वाले माने गए हैं और भाषा आधार पर मुण्डा भाषा परिवार के अंतर्गत हैं जबकि सबरिया द्रविड़ भाषा परिवार के सदस्य हैं।

छत्तीसगढ़ अंचल के इन मेहमानों का ‘सबरिया‘ नामकरण में दिखाई पड़ता है कि जार्ज गिर्यसन ने अपने सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में ‘शबर’ जाति की उपस्थिति दर्ज की है। एक किंवदंती के अनुसार ये रामचरित मानस में उल्लेखित वृद्ध आदिवासी महिला शबरी के वंशज हैं, स्थापित मान्यतानुसार जिसने शिवरीनारायण में भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थें। संयोग की बात है कि शिवरीनारायण के आसपास सबरिया जाति की बड़ी जनसंख्या निवास करती है। दूसरी मान्यता इनके मूल उपादान हाथ में धारण किये जाने वाले लोहे के डंडे या सब्बल से है। सब्बल के छत्तीसगढ़ी उच्चारण साबर से, उसे धारण करने वाले, सबरिया कहे जाने लगे। सबरिया अपने इस उपकरण का उपयोग अत्यंत कुशलता से एवं सभी कार्यों- यथा, खोदने, काटने, भारी वस्तु उठाने, शिकार के प्रयोजन हेतु अस्त्र और शस्त्र दोनों रूप में करते हैं।

किंवदंतियों/अवधारणों से परे हटकर और पूर्वग्रहों से अलग, तार्किक विचार करने पर इनकी पहचान तो नहीं हो पाती परन्तु पूर्व में उल्लेखित दोनों उपादानों, बोली और सब्बल से इनके मूल स्थान, जीवन शैली और जीवन यापन के ढंग के बारे में स्पष्ट संकेत मिलता है। साबर या सब्बल एक ऐसा औजार है जिसका मूलतः खोदने और भारी वस्तुओं के उठाने हेतु उत्तोलक के रूप में सबसे अधिक सुविधाजनक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। इससे यह तो कहा ही जा सकता है कि सबरिया ऐसे कार्य में कुशल रहे हैं जिसका खोदने, भारी वस्तुओं को उठाने जैसे कार्य से संबंध हो। तार्किक संभावना बनती है कि सबरिया मूलतः खनिक हैं जो आंध्र-तेलंगाना के उस क्षेत्र के निवासी हैं जहां इमारती पत्थरों की खदानें रही हों और जहां से यात्रा एवं परिवहन का सर्व सुविधाजनक माध्यम-साधन, गोदावरी-इंद्रावती और महानदी रही हो। लेकिन दूसरा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि जीवन यापन का साधन होते हुए ये अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर इस क्षेत्र में क्यों चले आये। इसके लिये हमें महानदी के किनारे बसे प्राचीन नगरों में पाये जाने वाले साक्ष्यों को देखना होगा।

महानदी के किनारे पुरातात्विक महत्व के कई संपन्न नगरों के अवशेष हैं, जो अधिकतर पत्थरों की बड़ी-बड़ी सिलों और फर्शी से निर्मित है। यहां एक और किवदंती को शामिल किया जाय तो कहानी बनती है कि शिवरीनारायण, जांजगीर और पाली इन तीनों स्थानों पर एक साथ तीन मंदिरों का निर्माण हो रहा था। इस विश्वास/मान्यता के साथ कि एक निश्चित तिथि को सबसे पहले जिस मंदिर का निर्माण पूरा हो जावेगा वहीं नारायण वास करेंगे। संयोगवश इस प्रतियोगी निर्माण योजना में शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूरा हुआ और वहां नारायण की प्राण प्रतिष्ठा हुई। जांजगीर और पाली के मंदिर पिछड़ गए। वैसे तथ्य यह है कि पाली का मंदिर, नारायण का नहीं, बल्कि शिव का मंदिर है, महादेव मंदिर कहा जाता है, इस मंदिर को पूर्ण करने अथवा जीर्णोद्धार के प्रमाण अवश्य अभिलिखित हैं। जांजगीर का विष्णु मंदिर, जिसे भीमा मंदिर या अधूरा होने के कारण नकटा मंदिर भी कहा जाता है, अवश्य शिखररहित और पूजित नहीं है।

चूंकि सबरिया शारीरिक रूप से बलिष्ठ एवं परिश्रमी होते हैं अतः यह माना जा सकता है कि इन मंदिरों के निर्माण का काल जो लगभग एक हजार वर्ष पूर्व है, इन्हें परिवहन और पत्थर की बड़ी-बड़ी लाटों को मंदिर की ऊंचाई पर पहुंचाने हेतु बुलवाया गया होगा। धीरे-धीरे इनकी मिट्टी काटने की कुशलता और परिश्रमी होने से इन्हें लगातार काम मिलता गया होगा और आंध्र-तेलंगाना से आये ये अप्रवासी मजदूर, यहीं बस गये होंगे। दूसरी एक अन्य कथा से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है जिस पर स्वयं सबरिया विश्वास करते हैं कि बहुत पुराने समय में दक्षिण की ओर भयानक दुर्भिक्ष पड़ने के कारण इनके पूर्वज ‘जनम देंसु’ (उत्तर दिशा) के राजा के यहां जीवन यापन हेतु गए और वहीं के होकर रह गये।

सबरिया पुराने रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ जिलों में मूलतः महानदी के पास-पास, छोटे-छोटे समूहों में जिन्हें सबरिया डेरा कहा जाता है, बसे हुए हैं। जीवन यापन, शिक्षा एवं रहन-सहन की दृष्टि से ये आदिम स्तर पर ही हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में सबरिया बोली बोलने वालों की संख्या अनुमानित बमुश्किल 2000 से 2500 के बीच है। शासन द्वारा कर्ज देने अथवा बच्चों के स्कूल प्रवेश के अवसर पर जाति नाम सामान्यतः गोंड दर्ज किया जाता है। अपनी अलग पहचान की समस्या के चलते, इनमें इसके प्रति उदासीन, सहज स्वीकृति का भाव है। 

सबरिया गांव के बाहर रह कर गांव के निवासियों से अपने सम्पर्कों की भी दूरी बनाए रखते हैं। अपनी अलग बोली होने के बावजूद, अन्य लोगों से संपर्क हेतु ये छत्तीसगढ़ी बोली का प्रयोग आसानीपूर्वक करते हैं। इनके पास जीवन यापन हेतु कोई निश्चित स्रोत नहीं है। थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी, शिकार और विशेषकर गड्डा खोदने एवं मिट्टी काटने की मजदूरी से अपना जीवन निर्वाह करते हैं। सबरिया बोली का नामकरण छत्तीसगढ़ अंचल के मूल निवासियों द्वारा, इस समूह की बोली के रूप में हुआ है, जिसे भी सबरियों ने स्वीकार कर लिया है। इनकी बोली के तुलनात्मक विश्लेषण से दो तथ्य सामने आये हैं (1) सबरिया, अपनी बोली और शारीरिक गठन के आधार पर द्रविड़ भाषा वर्ग के हैं। (2) सबरिया बोली अपने भाषागत स्वरूप में प्राचीन तेलुगू के निकट है।

ग्लोटोक्रोनोलॉजिकल, तुलनात्मक अध्ययन से निश्चित किया गया है कि सबरिया बोली प्राचीन तेलुगू के निकट है, जो द्रविड़ भाषा परिवार के तेलुगू की एक बोली है और लगभग 10 वीं शताब्दी ईस्वी में पृथक होकर इस ओर आ गई होगी। इसके अलावा भी सबरिया बोली की अन्य भाषिक विशेषताएं प्राचीन तेलुगू से मिलती है। प्राचीन तेलुगू के समान ही इसमें कुछ व्यंजन नहीं मिलते। परन्तु स्वरों में दीर्घता का महत्व प्राचीन तेलुगू की अपेक्षा इसमें गौड़ रूप से होता है। इसके अतिरिक्त शब्द भण्डार एवं वाक्य संरचना की दृष्टि से भी यह प्राचीन तेलुगू के ज्यादा निकट है। समय के साथ-साथ रायगढ़ जिले में पाये जाने वाले सबरिया परिवार जो उड़ीसा के निकट है पर उड़िया और छत्तीसगढ़ी दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है वहीं सादरी-कोरवा बोली के प्रभाव के कारण सबरिया लोग ‘य’ के स्थान पर ‘स’ का प्रयोग करते है। सबरिया बोली में बहुतेरे शब्दों में ‘उ‘ का प्रयोग होता है। यथा-नाक के लिए मुक्कु, आंख-कुन्नु, बाल-जुहु, पैर-कालु, पेट-कोडकु, नख-गोरु, दांत-पोन्नु, हड्डी-मुड़सु, चमड़ी-तोलु, इसी प्रकार नातेदारी शब्दों में समधी-येरकु, मामा-ममाडु, बेटा-कोड़हु, बेटी-कुन्तु, पति-भगुडु। पशुओं के नाम में बैल-खेद्दु, गाय-आयेद्दु, बकरा-म्याधोतु, भैंसा-ग्याभोतु, गौरेया-फिस्गु, गिद्ध-रामोन्दु। प्राकृतिक वस्तुओं में पेड़-सेट्टु, पानी-नीलु, तालाब-सेरु, बादल-मेगु, सूर्य-पोद्दु, तारे-कोकलु, दिन-युगलु, रात-माघलु, ठंड-सिलकालू, गरमी-एन्डाकालु, बरसात-बरसाकालु। भोजन सामग्री में भात-कुडू, साग-पुच्चू। सबरियों में रिश्ते-नातों के विभेद बहुत व्यापक न होने के कारण उनकी बोली में तत्सबंधी शब्द विविधता सीमित है। अतः प्राथमिक रिश्तों के लिए ‘पद‘ (बडा) तथा ‘‘चेन‘‘ (छोटा) शब्दों को जोड़कर संबंध व्यक्त किये जाते हैं। इनकी बोली में अप्पा शब्द बड़ी बहन, बुआ मौसी, ताई एवं साली के लिए प्रयुक्त किया जाता है। बदलते परिवेश, बढ़ती आबादी, गावों में खुली जमीन का सिकुड़ता क्षेत्र ने इन्हें स्थानीय लोगों के लगातार संपर्क में रहने और घुलने मिलने की स्थिति पैदा कर दी है। इस बोली पर हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी भाषियों से परस्पर बढ़ते सम्पर्क के कारण इन दोनों भाषाओं का प्रभाव बढ़ रहा है और इससे मूल सबरिया बोली का प्रचलन घटता जा रहा है।

सब्बल और बोली के अलावा कुछ ऐसे विशेष गुण हैं, जो सबरिया जाति की विशिष्ट पहचान बनाये रखने में सहायक हैं, यथा- चूहा शिकार, सांप की चमड़ी निकालना और कर्ज चुकाने के मामले में ईमानदारी। सबरिया बसाहट के आसपास की बैंक शाखाओं से संपर्क करने पर पता चला कि ये आवश्यकता होने पर भी कर्ज लेने से हिचकिचाते हैं और शासकीय लक्ष्य पूरा करने हेतु बैंकों के विशेष प्रयास करने पर ही कर्ज लेते हैं। इन्हें साग-भाजी (बाड़ी), मुर्गीपालन एवं बकरीपालन हेतु कर्ज दिया गया है। मुर्गीपालन में इन्हें विशेष लाभ की प्राप्ति नहीं होती। मांस इनका प्रमुख भोजन है। छोटे पक्षियों, खरगोश, बनबिलाव, लोमड़ी इत्यादि की लगातार कम होती उपलब्धता तथा शिकार पर कठोर प्रतिबंध के कारण इन्हें मांस मिलने में परेशानी होती है और इससे भी इनका मांस भक्षण बाधित हो रहा है। ऐसी स्थिति में अपने मांस भक्षण की आवश्यकता-पूर्ति वे शासकीय योजनान्तर्गत कर्ज ले कर पाली गई मुर्गियों से करते हैं। बकरा पालन में एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि जांजगीर के निकट नवागढ़ ब्लाक में स्थित सबरिया डेरा में इन्होंने एक अत्यंत व्यवहारिक समस्या की जानकारी दी कि उन्हें बैंक से 10 बकरियां के साथ एक जमुनापारी बकरे का जोड़ा कर्ज पर दिया जाता है। जमुनापारी बकरे और बकरियां छोटी-छोटी झांड़ियों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। विभिन्न योजनाओं के तहत मैदानों/भाठा से ऐसी छोटी झांड़िया गायब हो गई है। मैदानों में घास दुर्लभ है क्योंकि ये मैदान लाल मुरुम के हैं। अतः इस समस्या के समाधान के रूप में सबरिया बकरे-बकरी के चारे के लिए पेड़ की डालियां काटकर एक खाट को खड़ी कर छोटी झाड़ी की ऊंचाई पर लटकाकर रखना होता है तभी बकरे बकरियां चारा खाते है। इसके अभाव में कई बकरे-बकरियां असमय काल कवलित हो गये। बैंक का कर्ज पटाने में सबरिया सबसे अधिक मुस्तैद व ईमानदार हैं। शायद ही कोई सबरिया बैंक के दस्तावेजों में डिफाल्टर पाया गया है। इसके पीछे उनका यह दृढ़ विश्वास है कि यदि वे कर्ज लेते हैं और न चुकाने पर उन्हें कर्ज देने वाले के घर में कुत्ते, बैल या अन्य किसी पशु के रूप में जन्म ले कर कर्ज की भरपाई करनी पड़ेगी।

फिर भी सवाल है कि सबरिया वस्तुतः हैं कौन? पहचान की दिशा में बढ़ने के लिए उपादान एवं संकेत सीमित हैं, परन्तु इसी अभाव में इन्हीं सीमित पहचान चिन्हों को व्यापक व्यावहारिक और तार्किक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। बोली और सब्बल के अलावा दो ही ऐसे तथ्य पहचान खोज यात्रा के दौरान मिले जो इस दिशा में संकेत करते हैं। लगभग 35 साल पहले जांजगीर से केरा जाने वाले मार्ग पर नवागढ़ के पास स्थित सबरिया डेरा में निवास करने वाली 90-92 वर्ष की वृद्धा सबरिया ने बहुत खोदकर और विभिन्न प्रकार से पूछताछ करने पर इस प्रश्न के उत्तर में, कि वे हैं कौन, बताया कि अपनी जाति के बारे में बचपन में वृद्धों से सुनी कहानी का उसे एकमात्र शब्द याद है वह है कि वे ‘‘तल पैटु वाल्लवुम’’ हैं। इस तेलुगू शब्दका अर्थ है- तल अर्थात ‘सर‘, पैटुवाल्ल अर्थात ‘ढोने वाले‘ और वुम अर्थात ‘हैं‘।

दक्षिण के कुछ भाग में पाये जाने वाले विभिन्न श्रमिक जातियों में इस बात का विशेष महत्व है कि वे बोझ किस प्रकार उठाते हैं। सिर पर, पीठ पर, कन्धों पर अथवा कमर पर। बोझ उठाने का यह तरीका न सिर्फ उन्हें एक विशिष्ट उपजाति/जाति समूह के सदस्य के रूप में उनका स्थान व पहचान निर्धारित करता है वरन् जाति संस्तरण में दूसरे ढंग से बोझा उठाने वालों की तुलना में उनका उच्च अथवा निम्न स्थान निर्धारित करता है। वृद्धा की पुरानी पीढ़ी ने अपने जाति नाम पर विशेष जोर देने की बजाय उसे सिर्फ यह याद रखना महत्वपूर्ण समझा कि वे कार्य क्या करते हैं और कैसे अर्थात वे बोझा उठाते हैं और वह भी सिर पर। संभवतः इस उम्मीद के साथ कि कभी उन्हें अपने मूल स्थान पर जाना पड़े तब वहां के जातीय संस्तरण में उन्हें अपना निर्धारित स्थान और सम्मान प्राप्त हो सके। केवल यह बताने से कि वे तल-पैटु-वाल्लवुम हैं।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सबरियों के लिए लगभग सभी एक ही बात याद करते हैं कि वे पुराने समय से ही मिट्टी काटने संबंधी कार्य दक्षतापूर्वक करते रहे हैं, विशेषकर पुराने समय में जब बड़े तालाब,गांव के जमींदार अथवा ग्रामवासियों (गांवजल्ला) द्वारा खुदवाया जाता तब दूर-दूर से खोजकर सबरिया लोगों को बुलवाया जाता। दस-पंद्रह सबरिया परिवार तालाब खोदने के लिए निर्धारित स्थान पर आते, अस्थायी सबरिया डेरा बन जाता और वे दूसरे मजदूरों की तुलना में ज्यादा सफाई और तेजी से काम पूरा करते थे। तेजी से काम करने की वजह होती, सबरिया स्त्री और पुरूष दोनांे साथ काम करना तथा उनकी शारीरिक मजबूती और श्रम। सबरिया पुरुष, साबर से अत्यंत कुशलता और तेजी से मिट्टी काटते और सबरिया औरतें उसे सामान्य से अधिक भराव वाली विशिष्ट टोकरियों में लेकर शीघ्रता से दूर फेंक आती। टोकरी को विशिष्ट इसलिये कहा गया है क्योंकि सबरिया जाति द्वारा तालाब खोदने की जानकारी देते समय सभी ने सबरिया औरतों द्वारा सिर पर उठाये जाने वाले टोकरी का विशेष उल्लेख किया। सामान्य टोकरियां ‘‘झउहा’’ से आकार में यह लगभग 2) गुनी बड़ी होती है और जिसे सबरिया औरतें अत्यंत आसानी से सिर पर ढोती थीं।

इसके अलावा एक विशेष जानकारी और प्राप्त हुई कि छत्तीसगढ़ के गांवों में तालाब का विवाह कराने की प्रथा है जिसमें निश्चित पूजा संस्कारां के बाद तालाब के बीचों-बीच एक स्तंभ स्थापित कर दिया जाता है। मान्यता यह भी है कि तालाब के बीच स्तंभ स्थापित करने का कार्य सिर्फ सबरिया जाति के लोगों द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। उपरोक्त तथ्यों के सहारे पहचान करने के प्रयास में एक अद्भुत संयोग यह है कि ये सारे तथ्य दक्षिण की एक जाति ‘बेलदार’ के लक्षणों और विशिष्टता से पूरी तरह मेल खाते हैं। यह एक अतिरिक्त संयोग है कि जिस प्रकार सब्बल धारण करने के कारण स्थानीय भाषा में ऐसे लोगों को सबरिया कहा गया वहीं लोहे की ही एक छड़ (बेलंे) रखने और उसे अपने औजार के रूप में उपयोग करने के कारण दक्षिण में पाई जाने वाली जाति को बेलदार कहा गया। बेलदार भी मिट्टी खोदने एवं घर बनाने संबंधी कार्य करते हैं। प्राचीन काल में तालाब खोदने और मिट्टी से नमक शोधन का कार्य भी करते थे।

पुराने संदर्भों से पता चलता है कि सन् 1911 में लगभग 25000 बेलदार निमाड़, वर्धा, नागपुर, चांदा और रायपुर जिलों में बस गये। मूलतः बेलदार के अलावा नूनिया, भूरहा और सांसिया जाति को भी बेलदार माना जाता है। इस तरह यदि पत्थर एवं मिट्टी के काम करने वाले जातियों के सदस्यों की संख्या लगभग 35000 पहुंच जाती है तो संभव है कि बेलदार जाति मूलतः आर्यों से संबंधित हो, जैसे मूरहा- बिंद जनजाति से, मटकुड़ा (मिट्टी खोदने वाले) गोंड़ अथवा परधान से, (छत्तीसगढ़ी) सासिया और लरिहा अथवा उरिया मूलतः कोल भूइयां और उरांव से संबद्ध माने जाते हैं। कोल, मिट्टी खोदने और घर बनाने के काम में दक्ष माने जाते हैं। 

छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले बेलदारों को ओडिया, लरिहा, कुंचबंधिया, मटकुड़ा और कारीगर समूहों में बांटा जाता है। इसमें उरिया और लहरिया मूलतः उड़ीसा निवासी हैं जो बाद में छत्तीसगढ़ में बसे हैं। ओडिया निचले मद्रास प्रान्त में घर बनाने वाले कारीगर हैं, जो अपने बारे में यह बताते हैं कि जब एक बार इन्द्र ने राजा सगर का पवित्र घोड़ा चुरा कर पाताल लोक में रख लिया तो राजा सगर के हजार पुत्रों ने पृथ्वी में बड़े-बड़े गड्ढे खोदे और जब वे अंततः पाताल लोक पहुंचे तब वहां निवास कर रहे कपिल मुनि के क्रोध से जलकर भस्म हो गये। तदन्तर जब सगर के हजार पुत्रों ने अपनी प्रेतयोनि से छुटकारा चाहा तब कपिल मुनि ने यह कहा कि उनकी संतानें पृथ्वी पर हमेशा गड्ढा खोदती रहेंगी और इन गड्ढो का प्रयोग तालाब के रूप में होगा। उनके द्वारा खोदे गये ऐसे तालाबों का विवाह संस्कार संपन्न कराने पर सगर पुत्रों की आत्मा को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलेगी। इस कथा के आधार पर ओडिया अपने आप को राजा सगर के पुत्रों के वंशज मानते हैं और यह भी कहते हैं कि तालाब खोदने के पश्चात् यदि उसका विवाह संस्कार जब तक इनके द्वारा ही संपन्न नहीं करवाया जाता, तालाब अपवित्र रहता है।

ओड़िया जाति की एक देवी रींवा राज्य में है जिसके ध्वज को केवल ओडिया ही स्पर्श करते हैं। किसी अन्य जाति के लोंगों द्वारा उसे स्पर्श करने पर उस व्यक्ति को दैविक क्षति शारीरिक रूप में उठानी पड़ती है। किसी भी व्यक्ति के यह कहने पर कि वह बेल जाति का सदस्य है उसे वह ध्वज स्पर्श करने को कहा जाता है। ध्वज को स्पर्श करने पर उस पर कोई विपदा न पड़ने पर अन्य बेलदार उसे भाई के रूप मे स्वीकार करते हैं। इस साम्य के आधार पर माना जा सकता है कि सबरिया मूलतः ओडिया बेलदार ही हैं जिनका काम मिट्टी के बड़े-बड़े तालाब खोदना तथा उनका विवाह संस्कार पूर्ण कराना था? छत्तीसगढ़ के लोक कथा गायक देवारों द्वारा गाये जाने वाले दशमत ओड़निन की गाथा भी इससे जुड़ जाती है।

उपरोक्त तथ्यों के आधार प्रतीत होता है कि सबरिया मद्रास के निचले प्रांत के बेलदार हैं। लेकिन ये अपना मूल स्थान छोड़कर छत्तीसगढ़ किसी प्रयोजन से आये और फिर यही के होकर रह गये। मद्रास से छत्तीसगढ़ की यात्रा और तब से अब तक हुए सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन बीच की कड़ियां अधूरी हैं। इन कड़ियों और उस पहचान की रोशनी में शासन अनुसूचित जाति की सूची में इन्हें शामिल कर इन्हें अपना जीवन स्तर सुधारने में इस प्रकार सहयोग दे ताकि ये अपनी मौलिकता बनाये रखते हुए भी छत्तीसगढ़ के निवासी बने रह सकें। अगर अब भी ऐसा प्रयास नहीं हुआ तो इनकी धुंधलाती पहचान समय के साथ खो जावेगी। 

आशा है कि सबरियों की पहचान की दिशा में यह एक सार्थक प्रयास होगा। सबरिया लोगों को अपने मूल स्थान को खोजने, अपने आपको पहचान कर व्यवस्था में अपना स्थान निर्धारित कराने में संभव है आगे भी वर्षों इंतजार करना पड़े। शायद तब तक, जब किसी दिन इनके ही बीच एक ‘एलेक्स हेली’ पैदा हो जो अपनी जड़ों को ढूंढ निकाले।

(तस्वीरें दसेक साल पहले जांजगीर जिले के ग्राम जरवे के सबरिया डेरा की हैं। पावर प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहित हो जाने के कारण तब वे अपना डेरा छोड़ने की तैयारी में थे।) 

राजेश कुमार सिंह जी (26.04.1956-26.02.2018), मेरे सहोदर अग्रज थे। 

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प्रसंगवश, हरिभूमि समाचार पत्र, रायपुर में 11 अप्रैल 2007 को प्रकाशित समाचार। पत्रकार श्री प्रमोद ब्रह्मभट्ट ने आपसी चर्चा की इस जानकारी को समाचार पत्र के लिए उपयोगी मानते इस रूप में प्रकाशित किया था- 

छत्तीसगढ़ के क्षेत्र विशेष के खुले मैदान में घांसफूस का ‘कुंदरा‘ बनाकर रहने वाले आदिम जाति सबरियों का डेरा प्रकाश में आया है। टूंड्रा प्रदेश के एस्कीमों की तरह निवास करने वाले आदिम जाति के सबरिये बिलासपुर जिले के पामगढ़ तहसील में शिवनाथ महानदी संगम के तट पर ग्राम कमरीद के निकट निवास करते हैं। वर्तमान में इस आदिम जाति के तीन से चार डेरे ग्रामः कमरीद के भांठा में विद्यमान है।

उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार के अभिलेखों में इस बात का उल्लेख है कि पूर्व में खानाबदोश जाति के सबरिये ‘कुंदरा‘ में निवास करते थे। ये वर्तमान में मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं। परंतु संस्कृति विभाग के पुरातत्वीय सर्वेक्षण ने इस उल्लेख को गलत पाया। पुरातत्वीय सर्वेक्षण टीम के प्रमुख राहुल सिंह ने बताया कि पुरातत्वीय सर्वेक्षण में परंपरा, किंवदंतियां, सांस्कृतिक परिवेश तथा विरासत के अंशों को भी सर्वेक्षण में शामिल किया जाता है। इसी सर्वेक्षण के तहत यह तथ्य प्रकाश में आए हैं। श्री सिंह के अनुसार कुंदरा संभवतः कंदरा का अपभ्रश है। ये आदिम जाति सांस्कृतिक तौर पर छत्तीसगढ़ियों से अलग होने के कारण खुले मैदान में घांसफूस का इग्लू की तरह ‘कुंदरा‘ बनाकर निवास करते हैं। इनके कुंदरे में एक छोटा सा दरवाजा होता है तथा अंदर से कुंदरा सात से आठ इंच जमीन के अंदर खुदा होता है।

ये सबरिया जाति के लोग तेलगु भाषी हैं। इनके आराध्य सांप हैं परंतु ये सांप और चूहों का मांस चाव से खाना पसंद करते हैं। चूंकि सांप इनके देवता हैं इसलिए ये सांप को मारते नहीं लेकिन उसकी खाल निकालकर चमडा निकाल कर सांप को छोड़ देते हैं जब सांप मर जाता है तो उसे खा लेते हैं। सबरियों का प्रमुख औजार सब्बल होता है। कहा जाता है कि अब से एक हजार वर्ष पूर्व कल्चुरी शासनकाल में ये जाति आंध्र प्रदेश की पत्थर खदानों से काला ग्रेनाइट पत्थर से शिल्प बनाने के लिए छत्तीसगढ़ आए थे। मूलतः खदान श्रमिक ये सबरिया आदि जाति सब्बल और उसके उत्तोलक (लीवर) की तरह व्यवहार करने में निपुण होती है। इस जाति में कितना भी बडा पत्थर ही उसे एक आदमी के अलावा दूसरे आदमी की मदद से उठाना तौहीन माना जाता है। ‘कुंदरा‘ में निवास करने के पीछे इनकी शुद्ध वायु की अवधारणा है। यदि इनका कोई सदस्य बीमार पड़कर मर जाता है तो ये मानते हैं कि मौत के देवता ने घर पहचान लिया है इसलिए ये आदिम जाति उस कुंदरा को छोड़कर दूसरी जगह खुले मैदान में फिर कुंदरा बना लेते हैं।

चूंकि सबरिया जाति का कोई स्थायी निवास नहीं होता इसलिए इन खानाबदोशों की किसी सरकारी योजना में शामिल नहीं किया जा सकता है। इनको इनकी संस्कृति के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं है। शासकीय अभिलेखों में कभी इन्हें अनुसूचित जाति, कभी जनजाति में रखा जाता है। खरौद, रहौद और कमरीद में निवास करने वाले अन्य सबरियों में पंच, सरपंच तथा डॉक्टर, इंजीनियर भी बन चुके है परंतु उनके कुछ वंशज अभी ‘कुंदरा‘ संस्कृति में जी रहे हैं।