Tuesday, October 4, 2011

लोक-मड़ई और जगार

(इस पोस्‍ट पर टिप्‍पणी अपेक्षित नहीं)

सांस्कृतिक अस्मिता के गौरव-प्रदेश छत्तीसगढ़ में इस वर्ष (सन 2004) का नवम्बर-दिसम्बर माह एक विशेष संदर्भ में उल्लेखनीय है। छत्तीसगढ़ राज्य की चौथी वर्षगांठ पर राज्‍य स्‍थापना दिवस 1 नवंबर, राज्योत्सव से आरंभ होकर वैसे तो यह मड़ई-मेला और जगार का समय है, लेकिन लोक-मड़ई और जगार का जिक्र यहां उत्सव-मात्र के संदर्भ में नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ में लोक संस्कृति और परम्परा पर केन्द्रित प्रकाशन के गम्भीर प्रयासों के लिए है।

रावत नाच महोत्सव का आयोजन बिलासपुर के शनिचरी में पारंपरिक रूप से आयोजित होने वाले मातर-मड़ई का परिष्कृत रूप है। यह आयोजन रावत नाच महोत्सव समिति, बिलासपुर द्वारा प्रतिवर्ष किया जाता है। आयोजन समिति द्वारा महोत्सव के साथ 10वें वर्ष 1987 से 'मड़ई' पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया गया।

'मड़ई' के आरंभिक अंकों में अधिकतर यादव कुल की संस्कृति और परंपरा, रावत नाच और उससे संबद्ध विभिन्न पक्षों पर स्थानीय और आंचलिक लेखकों की रचनाएं हैं, किन्तु साल में एक बार प्रकाशित होने वाली इस निःशुल्क पत्रिका ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति के विभिन्न पक्षों को गंभीरता से उजागर करने में धीरे-धीरे अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। आगे चलकर पत्रिका में छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य क्षेत्रों से संबंधित लेख और लोक संस्कृति के महत्वपूर्ण अध्येताओं, विशेषज्ञों के लेखों का समावेश होने लगा और लोक संस्कृति पर गम्भीर विमर्श भी 'मड़ई' में प्रकाशित हुए।

'मड़ई' के ताजे 18वें अंक (वैसे इसे वर्ष-6, अंक-1 बताया गया है) का कलेवर पिछले अंकों से भिन्न है। इसका स्वरूप राष्ट्रीय लोक संस्कृति की पत्रिका का हो गया है, जिसमें देश के विभिन्न अंचल की लोक-सांस्कृतिक परम्पराओं से संबंधित लेख प्रदेशवार शामिल किए गए हैं और एक रचना 'वेस्‍टइंडीज की कविताएं' भी है, जिससे मड़ई का वितान अब छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं रहा, लेकिन मड़ई के अंकों में प्रकाशित छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति की रचनाओं के कारण अब सुलभ न होने के बावजूद आरंभिक अंक पठनीय, उपयोगी और संग्रहणीय हैं। इस अंक के संपादक के रूप में डॉ. कालीचरण यादव और संपादन में डॉ. राजेश्‍वर सक्‍सेना के अलावा 10 और नाम हैं।

लोक मड़ई उत्सव समिति, आलीवारा, राजनांदगांव द्वारा 'लोक मड़ई' का प्रकाशन सन्‌ 2000 से आरंभ हुआ। प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली यह निःशुल्क पत्रिका, उत्सव आयोजन के साथ जुड़ी है। पत्रिका के आरंभिक अंकों में लोक संस्कृति के विभिन्न वैचारिक पक्षों के साथ छत्तीसगढ़ की लोक-कला के कलाकारों, विधाओं, संस्कृति और शिल्प पर अंचल के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों की भागीदारी रही। 'लोक मड़ई' लगातार निखरती गई और 2002 के अंक से नई लीक पड़ी। इस अंक में स्फुट रचनाओं के साथ पत्रिका का महत्वपूर्ण भाग, 'विवाह' के सांस्कृतिक पक्ष पर पठनीय रचनाएं हैं।

'लोक मड़ई' का पिछले साल का अंक 'हरियाली' पर केन्द्रित रहा। ठेठ कृषक संस्कृति के त्यौहारों का विशिष्ट छत्तीसगढ़ी स्वरूप सावन अमावस्या की 'हरेली' जैसे एक विषय पर केन्द्रित पत्रिका का यह स्वरूप निःसंदेह अब अधिक उपयोगी हो गया है और इस वर्ष समिति के सदस्य और रचनाकारों के लगभग पूरे साल भर के उद्यम के परिणामस्वरूप पत्रिका का ताजा अंक तैयार हुआ है जो देश के विभिन्न अंचलों में प्रचलित प्रसिद्ध लोकगाथा जसमा ओड़न के छत्तीसगढ़ के अपने निजी लोकगाथा स्वरूप दसमत ओड़निन, 'दसमत कैना' पर एकाग्र है। इसकी तैयारी के पीछे की दृष्टि और मेहनत, अंक में स्वयं उजागर है।

जगार का तात्कालिक संदर्भ है कि बस्तर के पारंपरिक 'लछमी जगार' का आयोजन, इस वर्ष के अंतिम सप्ताह में कोण्डागांव क्षेत्र में खोरखोसा ग्राम में किया जा रहा है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस जगार का सबसे महत्वपूर्ण अंश 'नारायण राजा और महालखी का विवाह' 30 दिसम्बर को दोपहर 12 बजे से रात 9 बजे तक चलेगा। बस्तर की लोक गाथाओं के गंभीर अध्येता श्री हरिहर वैष्णव द्वारा कराया जा रहा यह आयोजन अपने आपमें विशिष्ट है, क्योंकि यह संकल्प ऐसे व्यक्ति का है जो इस परंपरा के द्रष्टा ही नहीं, भोक्ता भी हैं।

प्रसंगवश बस्तर में तीन अन्य गाथाएं भी प्रचलित हैं- 'तिजा जगार' 'आठे जगार' और 'बाली जगार'। इस परिप्रेक्ष्य में 'लछमी जगार' की मौखिक परम्परा का लिप्यंतर और प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। बस्तर की धान्य देवी की कथा 'लछमी जगार' का संक्षेपीकरण, अनुवाद, एवं संपादन हरिहर वैष्णव द्वारा सी.ए.ग्रेगॅरी के सहयोग से किया गया है। जिसके प्रकाशन में आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी का सहयोग है।

इस ग्रंथ में पूरी गाथा को 4 खण्ड और 36 अध्यायों में समेटा गया है। ग्रंथ का परिचय हिन्दी और अंग्रेजी में है और गाथा हल्बी, हिन्दी व अंग्रेजी में समानान्तर रूप से तीन कॉलम बनाकर छापी गई है। ग्रंथ परिचय में जगार अनुष्ठान, उसके आयोजन भूगोल, गायक, वाद्ययंत्र, गीत, कथा, प्रतीक/मिथक, मूल्य और आनुष्ठानिक स्वरूप की चर्चा है। ककसाड़ प्रकाशन, सरगीपालपारा, कोण्डागांव जैसे अजाने से स्थान से प्रकाशित यह सचित्र ग्रंथ छत्तीसगढ़ में हो रहे गम्भीर, स्तरीय और सुरूचिपूर्ण प्रकाशन का मानक स्थापित करता है। बस्तर की संस्कृति और परम्पराओं के प्रलेखन-प्रकाशन में हरिहर वैष्णव द्वारा संपादित 'बस्तर का लोक साहित्य' भी विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें मिथक, कथा, गीत, गाथा, मुहावरे और पहेलियां मूल रूप में हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित हैं।

छत्तीसगढ़ की संस्कृति के अध्ययन और प्रकाशन के दौर में यह चर्चा इस क्षेत्र में हुए और हो रहे अन्य कामों को खारिज करने के लिए कतई नहीं है, बल्कि यह रेखांकित करने के लिए है कि छपाई आसान हो जाने के दौर में छत्तीसगढ़ की संस्कृति के कथित विशेषज्ञ और स्वयंभू दावेदारों के संख्‍या-बल, उस भीड़ और उसके दबाव में गुम होने से मुकाबिल कोशिशों में से कुछ-एक मड़ई, लोक मड़ई और जगार हैं।

टीप -
ब्‍लाग युग में लिखने, काट-छांट, फेयर करने, छपने भेजने, न छपने, रचना वापस आने- न आने का अनुभव कैसे हो। अपनी कहूं तो न छपने का अनुभव, छपने की तुलना में कम से कम दस गुना अधिक है। रचना न छपती, वापस आती, तो पहला हफ्ता संपादक को गरियाने में बीतता, अगले कुछ दिन 'जुगाड़ का जमाना है' पर विशद चर्चा होती, इसी तरह कोई महीने भर बाद ध्‍यान जाता कि रचना फिर से पढ़ ली जाए, तब ज्‍यादातर समझ में आ जाता कि संपादक का निर्णय गलत न था। फिर अक्‍सर रचनाएं फाड़ कर फेंक दी जातीं और कुछ मोहवश या यूं ही बची रह जातीं। अब ऐसा भी होने लगा है कि अपना लिखा कुछ, जो कहीं छपने लायक नहीं लगता लेकिन ब्‍लाग के लिए अनुकूल जान पड़ता है। रचना, किसे और कैसे भेजें, उसे ही क्‍यों यह भी प्रश्‍न होता और कुछ रचनाएं इस उधेड़बुन में भी छूटी रह जातीं। कम्‍प्‍यूटर पर लिखी, अब तक अप्रकाशित पड़ी रह गई यह समीक्षा, बस मोहवश, अब अपने ब्‍लाग पेज पर प्रकाशित करने की सुविधा के कारण इरादा बना कि इस्‍तेमाल कर ली जाए। बताने का एक कारण कि कई बार रचना तैयार होने के पहले समीक्षा-समीक्षक तय होते हैं लेकिन यहां अब कहने की जरूरत नहीं रही कि इन तीनों प्रकाशन से जुड़े लोगों से परिचित अवश्‍य हूं, पर कोई वादा नहीं था कि ऐसा कुछ लिखूंगा।

28 comments:

  1. पढ़ लिया अब चूंकि टिप्पणी निषेध है तो इसके सम्मान में बिना बोले ही कुछ जा रहा हूँ -

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  2. पढ़ लिया है, न लिखने का आदेश मान भी मान लिया।

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  3. पढ़ा किंतु आदेशानुसार टिप्पड़ी हेतु मौन स्वीकार करता हूँ।

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  4. पढ़ लिए। 2004 का लिखा है शायद…

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  5. ब्‍लागर की ये मजाल कि टिप्‍पणी निषेध (आदेश) कर सके, करनी हो तो डब्‍बा (कमेंट बाक्‍स) ही गोल क्‍यों न कर देगा.
    मैंने 'अपेक्षित नहीं' कहा है, बासी सा है बस इसलिए, धन्‍यवाद.

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  6. जानकारी के लिए आभार

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  7. 'मंडई' का नाम सुना तो था, मगर पढ़ नहीं पाया. इसे प्राप्त कैसे किया जा सकता है ?

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  8. सादर नमन ||

    http://neemnimbouri.blogspot.com/2011/10/blog-post.html

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  9. सांस्‍कृतिक परम्‍परा से अवगत भी करा रहे हैं और टिप्‍पणी अपेक्षित नहीं इसका बोर्ड भी लगा रहे हैं। मैंने तो यह सूचना देखी ही नहीं, लेकिन लोगों की टिप्‍पणी से समझा कि कुछ न कुछ मैंने छोड़ दिया है। पत्रिका के लिए शुभकामनाए।

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  10. मड़ई छत्तीसगढ की उत्सव परम्परा है।

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  11. ऐसा कुछ नहीं है कि छिपाया जाए...ब्लॉगिंग का असली मतलब ही सीधा संवाद है और वह पूरा हो रहा है...बढ़िया प्रयास !

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  12. आलेख अच्छा लगा, टीप भी।

    ब्लॉग जगत ने इतना तो साहस दे ही दिया कि मैंने न छपने लायक कई रचनाओं को भी चेप दिया है।

    (थोड़ा सुधार किया है)

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  13. बढिया जानकारी.... आभार

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  14. बढिया जानकारी.... आभार

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  15. 'मड़ई के ताजे 18वें अंक से इसका स्वरूप राष्ट्रीय लोक संस्कृति की पत्रिका का हो गया है, जिसमें देश के विभिन्न अंचल की लोक-सांस्कृतिक परम्पराओं से संबंधित लेख प्रदेशवार शामिल किए गए हैं.'पूरी तरह सहमत हूँ.चर्चा और अभिलेखन का सुन्दर प्रयास है.

    लोक मडईसे अवगत नहीं था और लक्ष्मी जगार से भी अपरिचित था.शुक्रिया

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  16. विजया दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं। बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक यह पर्व, सभी के जीवन में संपूर्णता लाये, यही प्रार्थना है परमपिता परमेश्वर से।
    नवीन सी. चतुर्वेदी

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  17. अच्छी जानकारी मिली .. मड़ई का ताज़ा अंक ढूंढ रहा हूँ.

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  18. नया ज्ञान.
    विजयादशमी पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं।

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  19. नई जानकारी. ऐसे प्रयास देश भर में किये जाने की जरुरत है. मिथिला में होने वाली नौटंकी और रामलीला को समाप्त होते देख कर लौटा हूं. उनका स्थान परदे वाला सिनेमा ने ले लिया है.

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  20. लोक-संस्कृति की ये जनकारियाँ बहुत महत्व रखती हैं.आभार !

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  21. टिप्पणी अवश्य अपेक्षित नहीं है, किन्तु धन्यवाद ज्ञापित करने का अन्यत्र उपाय नहीं दिख रहा मुझे।
    अतः आभार स्वीकारें।

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  22. पठनीय सामग्री कभी पुरानी नहीं लगती है

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