यहां प्रसंग इस क्षेत्र के एक अन्य प्राथमिक, प्रामाणिक और व्यापक होने के कारण महत्वपूर्ण किंतु अब तक अप्रकाशित, पालेश्वर प्रसाद शर्मा के शोध प्रबंध ‘छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली‘ का है। यह शोध सन 1972 में पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा के निर्देशन में किया गया। कुल 676 पृष्ठों में मुख्य भाग 502 पेज तथा 174 पेज परिशिष्ट के हैं। इस अप्रकाशित शोध-प्रबंध के कुछ अंश प्रकाशित हैं और बहुत सारी जानकारियां विभिन्न अध्येताओं-लेखकों की रचनाओं में शामिल कर ली गई हैं।
01 मई 1928 - 02 जनवरी 2016 |
सन 1990 में उनकी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास एवं परम्परा‘ का प्रकाशन, रचना प्रकाशन, इलाहाबाद से हुआ। यह पुस्तक म.प्र. साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित है। पुस्तक का पहला अध्याय-भूमिका तथा दूसरा अध्याय-धार्मिेक एवं सांस्कृतिक जीवन, वस्तुतः आंशिक परिवर्तन के साथ उनके शोध-प्रबंध का पहला अध्याय एवं ग्यारहवां अध्याय है। इसके पश्चात सन 1995 में भारतेन्दु साहित्य समिति, बिलासपुर द्वारा ‘डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा अभिनन्दन ग्रन्थ‘ प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तिका के संपादक प्रो. रामनारायण शुक्ल थे। इस पुस्तिका में संपादक श्री शुक्ल का ‘डॉ. पालेश्वर शर्मा और उनका शोध प्रबंध‘ परिचयात्मक लेख शामिल है।
पुस्तिका का पहला लेख डॉ. रामकृष्ण तिवारी का ‘डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्माःविचार एवं व्यक्तित्व‘ है। इस लेख में डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा की जन्मतिथि 2 अक्टूबर 1928 तथा उनके पी-एच. डी. का सन 1973 बताया गया है, संभवतः यह तिथि शोध-उपाधि की है। उनके जन्म तथा शोध तिथि के संबंध में स्पष्टीकरण आवश्यक है कि इसी पुस्तिका में शामिल विद्याभूषण मिश्र के लेख में उनकी जन्मतिथि 1 मई 1928 दी गई है, गत वर्ष प्रकाशित ‘डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा स्मृति ग्रंथ के जीवन परिचय और लेखों में भी उनकी यही जन्मतिथि है, पारिवारिक स्रोतों से की गई पुष्टि के अनुसार यही उनकी वास्तविक जन्मतिथि है। इसी प्रकार उनके पी-एच. डी. शोध-प्रबंध की मूल प्रति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर ग्रन्थागार में उपलब्ध है। ग्रंथालय के प्रभारी श्री सुपर्ण सेनगुप्ता जी के माध्यम से इस शोध-प्रबंध के अवलोकन का अवसर मुझे मिला, जिसमें तिथि 2-8-72 अंकित है।
शोध प्रबंध के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य, जानकारियों का उल्लेख आवश्यक है। बिलासपुर क्षेत्र में प्रचलित व्यावहारिक तथा पारिभाषिक संकलित शब्दों की संख्या शोध-प्रबंध में दी गई तालिका के आधार पर यहां अध्याय के साथ कोष्ठक में दी गई है, जिसका योग सूची में 8904 (? 9104) है, शोध-प्रबंध में ये शब्द अधो-रेखांकित हैं।
शोध-प्रबंध के‘पहला अध्याय - भूमिका‘ के ‘अनुसंधान कार्य की सीमाएँ‘ उपशीर्षक में तालिका बना कर बिलासपुर क्षेत्र में प्रचलित व्यावहारिक तथा पारिभाषिक शब्दों की संख्या दी गई है, जो यहां कोष्ठक में अध्याय के शीर्षक के साथ दी जा रही है। शोध-प्रबंध का पहला अध्याय ‘भूमिका‘ है, जिसमें (246 शब्द) छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक, भौगोलिक परिचय, लोग, जातियां, भाषा-बोली, शोध-प्रविधि और पूर्व में किए गए कार्यों की जानकारी है। दूसरा अध्याय ‘भूमि, खेत और गांव‘ में (782 शब्द) भूमि के प्रकार, खेतों के नामों का तथा गॉंवों के नामों का वर्गीकरण है। तीसरा अध्याय ‘खेती के साधन और उपकरण‘ का (379 शब्द) है। इस अध्याय में खाद, सिंचाई के साधन व तरीके तथा कृषि कार्य के उपयोग में आने वाले उपकरण की जानकारी है। चौथा अध्याय खरीफ (सियारी) प्रमुख अन्न तथा उपान्न (847 शब्द) की जुताई-बुआई और धान के प्रकार, जोंधरी, कोदो और कुटकी सहित फसल संबंधी प्रचलित हाना है। पाँचवाँ अध्याय ‘रबी (उन्हारी) प्रमुख द्विदल तथा अन्न-उपान्न‘ (489 शब्द) है, जिसमें राहेर, तिउरा, चना, उरिद, मसुरी, मूंग, गहूं, अंडी, तिल्ली, पटुआ और माखुर का विवरण है। छठाँ अध्याय ‘साग-सब्जियॉं तथा फल‘ में (763 शब्द) विभिन्न मौसम के साग, जंगली फल और भाजी, फल, कुसियार, आदा अउ हरदी, फूट अउ कलिंदर, पताल, पान का विवरण है।
सातवाँ अध्याय ‘खेती से संबंधित पशु-पक्षी‘, जिसमें (698 शब्द) पालतू पशु तथा वन्य पशु-पक्षी की उल्लेख है। साथ ही पशु संबंधित प्रचलित हाना भी है। आठवाँ अध्याय ‘खेती की सुरक्षा‘ (261 शब्द) है। इसमें फसल को हानि पहुचाने वाले पशु, साँप, मुसुआ, कीड़े, रोग और निराकरण का उपाय दिया गया है। नवाँ अध्याय ‘प्रकृति, जलवायु संबंधी शब्द‘ का (124 शब्द) हैै, जिसमें बादल, वर्षा और जलवायु, ऋतु, नक्षत्र माह आदि तथा ऋतुगीत-बारामासी है। दसवाँ अध्याय में (2414 शब्द) ‘कृषक जीवन के अन्य व्यवसायी एवं उनके उत्पाद‘ की विस्तार से चर्चा है, जिसमें 26 शीर्षकों में विभिन्न बर्गों-कार्यों का विवरण है। ग्यारहवाँ अध्याय ‘धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन‘ (2101 शब्द) है, जिसमें संस्कार, त्यौहार, पूजा-प्राश्श्चित, टोटका, अपशकुन, गाली, चउॅॅंक, पकवान तथा दैनिक व्यवहार में प्रचलित शब्द, भूत-प्रेत और खेलों के प्रकार को भी शामिल किया गया है।
इसके पश्चात परिशिष्ट 1 से 7 में क्रमशः शब्दकोश, मुहावरे, लोकोक्तियां, लोक-गीत, लोक-कथाएँ, पहेलियाँ तथा ग्रंथ सूची है।
इस शोध-प्रबंध के ‘दूसरा अध्याय - भूमि, खेत और गाँव‘ के पृष्ठ 69 से 75 तक का अंश यहां प्रस्तुत है-
भूमि के प्रकार निम्नलिखित हैं -
(१) मटासी भूमि में धान की खेती अच्छी होती है, किन्तु इसमें उन्हारी की फसल साधारण होती है। इसका रंग पिउरा या पीला है। इसमें पानी जमा रखने की क्षमता होती है। मटासी के दो प्रकार होते हैं। किसानों की भाषा में इन प्रकारों को लम्बर एक (नम्बर एक) या पंडरी मटासी (श्वेत मटासी) और लंबर दू (नंबर दो) कहते हैं। पंडऱी मटासी में भूरे रंग की मिट्टी का मिश्रण रहता है। उर्वरता पर्याप्त होने के कारण इसे मटासी नम्बर एक की भूमि कहते हैं। अधिक उपजाऊ जमीनों को लम्बरी भुइयाँ (नंबरी भूमि) कहते हैं।
(२) कन्हार या कन्हारी (काली मिट्टी) खेती के लिये श्रेष्ठ मानी जाती है, इसी से हाना (कहावत) प्रचलित है- कन्हार जोंते अऊ कुल बिहावै- कन्हार भूमि जोतना तथा कुलीनवंश की कन्या ब्याहना उचित होता है।
कन्हार मिट्टी काली होती है और इसमें पानी सोखने की क्षमता रहती है। कन्हार से भी दो प्रकार होते हैं। भुरुआ कन्हार (भूरे रंग की) और तेलिया कन्हार (अधिक काले रंग की भूमि)। यह मिट्टी इतनी उर्वरा होती है कि इसे किसान लोग धनहा (धान के योग्य) कहते हैं। इसमें उन्हारी भी उतनी ही पैदा होती है। उर्वरता के अनुसार इस भी नंबर एक तथा नंबर दो के क्रम में आँक़ा जाता है।
(३) डोरसा (दो रसा या दोमट) मटासी तथा कन्हार के मिश्रण से बनती है। इस भूमि में सियारी तथा उन्हारी दोनों पैदा होती हैं। उर्वरता तथा जल सोखने की क्षमता के अनुसार इस भूमि को भी नंबर एक दो का क्रम दिया जाता है।
(४) घोर्रहा भूमि कंकरीली होती है, इसी से इसे गोटकर्रहा (गोटी मिश्रित) भी कहते हैं। इसमें सियारी तो होती है, किन्तु उन्हारी की उपज कमजोर होती है।
(५) कुधरारू भूमि में रेत की मात्रा होती है। कुधरा (रेत) होने के कारण ही यह कुधरारू कहलाती है, इसमें धान की फसल अधिक होती है।
(६) कछरी या कछारी भूमि में रेत की मात्रा अधिक होती है, इसीलिए इस भूमि में धान की फसल अधिक अच्छी नहीं हो पाती, किन्तु उन्हारी के लिए यह भूमि अच्छी होती है।
कछार के दो प्रकार होते हैं- (अ) पाल कछार तथा (ब) पटपर कछार, पाल कछार नदी की रेत तथा मिट्टी से बना कछार है जो सागभाजी बोने के लिए उपयुक्त होता है। पटपर कछार में रेत की मात्रा सर्वाधिक होती है, अतः वह कन्द, घुइयाँ और तरबूज की खेती के लिए ठीक होता है।
(७) आबपासी व और आबपासी (आबपाशी व गैरआबपाशी) सिंचाई के आधार पर सभी खेतों को वर्गीकृत किया जा सकता है, जिन खेतों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है उन्हें आबपासी के खेत, तथा जिनके लिए सिंचाई की सुविधा नहीं है, उन्हें गैर आबपासी खेत कहते हैं।
(८) परिया (परती) उस भूमि को कहते हैं, जिसमें कोई अन्न नहीं बोया जाता तथा वह भूमि व्यर्थ पड़ी रहती है।
(९) गौचर तथा बीड़ के मैदान - प्रायः प्रत्येक गांव में ढोर डांगर (डंगर) के चरने के लिए जो चरागाह सुरक्षित रखे जाते हैं उन्हें गौचर, तथा चारे के लिए घास और खदर घास (छप्पर के लिए लम्बी घास) के लिये सुरक्षित मैदानों को बीड़ कहा जाता है।
(१०) जिस मिट्टी में कंकड़ की मात्रा थोड़ी अधिक होती है उसे कंकरहा कहते हैं। आकृति में बड़े कंकड़ होने पर भूमि को गोटकर्रहा कहा जाता है। पत्थर पाये जाने के कारण भूमि को पथरहा कहते हैं।
(११) जिस भूमि में बड़े बड़े ढेले रहते हैं, उसे ढेलहा कहा जाता है। ढेलहा भूमि में खेती के लिए मिट्टी तैयार करने में अधिक श्रम लगता है।
(१२) भूमि की थोड़ी ऊंचाई होने के कारण उसे टिकरा या टिकरिहा भुइयां कहते हैं। टिकरा में अलसी, अरहर, कोदो, कुटकी बोते हैं।
(१३) जहां कुसियार (गन्ना) की खेती होती है उस बरछा तथा भूमि को बरछहा भुइयां कहते हैं। बरछा में साग विशेषकर चेंच भाजी बो देते है। बरछहा चेंच-भाजी सुस्वादु होती है।
(१४) पर्याप्त उर्वर तथा बंधी हुई भूमि बंधिया कहलाती है। बंधिया जमीन गेहूं तथा चने की उपज के लिए प्रसिद्ध होती है।
(१५) जिस जमीन में प्रकृति द्वारा गढे़ हो जाते हैं, उसकी भरकहा कहते हैं। भरकहा जमीन पशुओं के लिए बड़ी खतरनाक होती है।
(१६) फटने वाली जमीन उरकहा कहलाती है। परती कन्हार उरकहा होती है।
(१७) अधिक जल की मिट्टी गल जाती है, ऐसी गल जाने वाली मिट्टी की भूमि को गरनहा कहते हैं।
(१८) जिन खेतों में चना, गेहूं बोया जाता है, उन्हें भर्री है। भर्री में सियारी नहीं बोयी जाती।
(१९) जिस खेत में गांव का खाद युक्त पानी एकत्र होता है उसे गोरसा या रसनहा भूमि कहते हैं। रसनहा भुइयां खेती के लिये अच्छी होती है, क्योंकि इस भूमि में कम श्रम में ही अधिक अन्न उत्पन्न होता है।
(२०) खलिआन, (खलिहान) या कोठार (कोष्ठागार) वह स्थान है, जहां खेतों से अन्न लाकर अम्बार लगाते हैं, और वहीं दौनी करते हैं। इन स्थानों में भी फसल बोई जाती है। इन्हें बियॉंरा या बियारा कहते हैं ।
(२१) नदी के किनारे की भूमि रेतीली होने के कारण और बाढ़ के द्वारा खाद पाने के कारण साग-सब्जी बोने के लिये उपयुक्त होती है उसे झाँंप कहते हैं।
वर्षा की धारा के प्रवाह में पड़ने वाले खेत बहरा कहलाते हैं। बहरा की विशेषता भूमि की गहराई भी है, जिसके कारण वर्षा का जल संचित रहता है। बहरा के समीप दोनों पक्ष को पखिया (पक्ष) कहते हैं।
जिन खेतों की ओर धार होने के कारण वर्षा की धारा बहती है उन्हें किसान नार कहते हैं। इस बहाव से लगे हुए खेतों के समूह को भी नार कहा जाता है। जिस जमीन की स्थिति नहरी सिंचाई से ऊपर होती है और नहर का पानी उस भूमि में चढ़ नहीं पाता उसे टांगर कहते हैं। खेत या गाँसा या पखार किधर है यह जानना किसान के लिए सर्वथा आवश्यक होता है।
खेत की ऊपरी जमीन के हिस्से को पखार तथा नीचे की जमीन के भाग को गांसा कहते हैं। पानी हमेशा पखार से गांसा की ओर बहता है। प्रायः पखार की अपेक्षा गांसा की ओर अधिक अन्न उत्पन्न होता है। खेत में पानी भरने के लिए खेत में मुंही (मुंह) बनाते हैं। खेत में पानी भरने के लिये पखार मुंही को पहले खोलते हैं, और अधिक वर्षा में खेत में पानी कम करने के लिए गांसा मुंही को फोड़ते हैं।
सिंचाई की दृष्टि से जिस खेत में पहले पानी पहुंचता है उसे मुंही वाला खेत कहते हैं और उसके नीचे के खेत को मुंहीतर खेत कहते हैं। जिन खेतों को सिंचाई मिलती है उन्हें पल्लो खेत कहते हैं, रोपा के लिए जिस खेत या भूमि में बीज बोया जाता है उसे थरहौटी कहते हैं।
धान की अच्छी फसल पाने के लिए खेतों में खन्ती (खुदाई) की जाती है, और मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों को खेतों की मेड़ों पर रख दिया जाता है जिस ढेलवानी कहते हैं। खेत गहरे होते हैं तो फसल भी अच्छी होती है। और मेड़ों पर ढेलवानी के कारण अरहर की फसल भी अच्छी होती है। हाना है ‘जे मां बूड़य हांड़ी, तेमां होवय खांडी‘ (जिस खेत में हंडी डूबने लायक पानी हो उस खेत में कई खण्डी धान उत्पन्न होगा।)
गर्भ धारण की क्षमता के कारण खेत गभार कहलाते हैं। इन खेतों का मूल्य अधिक होता है। मेड़ (सीमा बनाने तथा पानी रोकने के लिए मिट्टी का घेरा) बनाकर खेत तैयार किया जाता है।
खाले या खाल्हे का अर्थ नीचे, तरी याने तले तथा सही या साही परिचय बोधक होता है।
इसी प्रकार इस शोध-प्रबंध के ‘छठाँ अध्याय - साग सब्जियां तथा फल‘ के पेज 194 से 201 तक का अंश यहां प्रस्तुत है-
साग-सब्जी
छत्तीसगढ़ में कुछ विशेष जाति के लोग हैं, जो साग-सब्जी की खेती करते हैं। इनमें मरार, पटेल, माली, सबरिया, गोंड़, धांगड़, बिंझवार, सौंरा आदि प्रमुख हैं।
सब्जी की खेती - कोला (घर, रसोई से लगा बगीचा), बारी, कछार, झाँप (नदी का तट), खेत, कोठार, टिकरा, भर्री, बरछा (गन्ने का खेत) बगैचा में की जाती है। सब्जी की खेती के लिए पशुओं से रक्षा का प्रबंध करना अत्यंत आवश्यक होता है।
इसके लिए बाग-बगीचे के चारों ओर घेरा करते है। सम्पन्न कृषकों द्वारा घेरा, कच्ची पक्की दीवार, तार की जाली आदि के द्वारा किया जाता है। साधारणतया गरीब किसान सरहद के चारों ओर की मेढ़ ऊंची उठाते हैं। इसे खवा (भित्ति) उठाना, खवा देना, खवा बनाना कहते है। खवे के ऊपरी सिरे पर मिट्टी के गीले लोंदे रखे जाते है, एवं उन्हें मिला दिया जाता है। इन पर छोटे छोटे कांटों की टहनियां आपस में सटाकर खोंस देते हैं। इसके लिए प्रमुखतः बोइर (बेर), बमरी (बबूल), चीड, बनबोइर (बनबेर) मकोइया, गटारन (बेंत जैसा एक कंटीला पौधा), छींद, आदि के काटों का इस्तेमाल करते हैं। इन कांटों को मजबूती के लिए दोनों ओर कमची से बांध देते है, जिसे कांटा लगाना, कांटा गड़ियाना, कांटा खोंचना, कांटा बांधना, कमची- बांधना, कांटा बतनियाना (रस्सी से बांधना) कहते है। खवा का आधार चौड़ा एवं ऊपरी छोर क्रमशः सकरा होता है। जिस कभी कभी चिकना भी कर दिया जाता है। इसे खवा चिकनाना कहते है। बरसात में खवे की रक्षा के लिए उस पर पालानी (खदर का छप्पर) बांध देते है।
कहीं कहीं बिना खवा बनाये ही कांटों की बड़ी डाल को मेंड़ में साबर (सब्बल) से खोदकर गाड़ देते है, एवं उसकी मजबूती के लिए कांटों को बांस या बांस की कमची या अन्य पतली डाल से बतनिया देते हैं। बांस की पतली टहनियां भी काम में लाई जाती है। इस क्रिया को बाड़ी रूंधना कहते हैं।
सरहद में कुछ पौधों को उगाकर मी बाड़ी रूंधने का काम लिया जाता है।
बेसरम, रूसा, मेंहदी, कनेर, गंगा-अमली, बतराज, थूहा, गटारन, मकोइया आदि के पौधे बाड़ी के चारों और लगाते हैं।
बरसात के सिवाय अन्य मौसम के लिए सिंचाई की व्यवस्था करना दूसरी मुख्य आवश्यकता है। इसके लिए खेत में कच्चा या पक्का कुआं, झिरिया (नदी में कच्चा खोदा गया सोता) नदी नाले की धार बांधकर तालाब, डबरी आदि का पानी एकत्र कर टेंडा या छापा (पानी फेंककर सींचना) मारकर या नाली, टार के माध्यम से सिंचाई की जाती है।
पानी का बिखराव समस्त भूमि पर आसानी से करने के लिए आवश्यकतानुसार भूमि के धरातल को ऊंचा-नीचा करके पलिया (क्यारी) बना लेते हैं।
जमीन की भरपूर जुताई है की जाती है, ताकि मिट्टी भुरभुरी बन जाती है। ढेले फोडे़ जाते हैं, छोटे-मोटे गड्ढ़े पाट दिये जाते हैं, अनावश्यक पौधों को जड़ समेत खोदकर घास आदि निकाल दी जाती है।
खेत की भुरभुरी मिट्टी में पानी के बहाव को ध्यान में रखते हुए छोटी बड़ी क्यारियां (पलिया), डुहरू (छोटी नाली) मांदा (पतली मेड़), थवना (थाला) बनाये जाते हैं। प्रमुख नाली को टार तथा छोटी नाली को डुहरू तथा पौधे लगाने अथवा बीज डालने के लिए बनाये गये शाल को थवना कहते हैं। पौधों में मिट्टी चढ़ाने की क्रिया की मांदा चढ़ाना कहते हैं। क्यारियों को पलिया कहते हैं। पौधे को जमीन से ऊपर उठाने के लिए मिट्टी हटाने या मिट्टी चढ़ाने की क्रिया पेड़ टारना है। मिट्टी को भुरभुरी करने की क्रिया को माटी गुररना कहते हैं।
साग बोना तथा तोड़ना -
साग बो देने पर बीजहा बिसाके (खरीदकर) परियार के (साफ करके) बीजहा हावै, बीजहा छींच दे, पौधा उगने पर, बीजा जामगे, आंकुर आगे, दुपन्नी मेलथे, गैफरी मेलत हावै, फोंकक आवत हे, भाजी काफी फैलने पर भाजी बने भदराय हे, भाजी फदक गे, चला भाजी खोंट लेवा, भाजी ल टोरा, फल धारण करने पर जिया धरत हे, जीकी धरत हे, लोवा धरत (फूल में फल), फूल ल झन टोरिहा, डोंहडी फुलत है, फोंक ल टोरिहा, बने साग फरगे हे, रखवारी करे ला लागही, बारी राखे जाहा, चोर, बंदर, गाय, बैल और अन्य जंतुओं से रक्षा के लिए बारी में रखवाली आवश्यक है।
साग के प्रकार-
पानी की सिंचाई लब्ध होने पर अब साग बारहों महीने बोया जा सकता है। बारामासी साग का लाभ अधिक मूल्य पाना है, फिर मी साग के ऋतुओं अनुसार भेद हो सकते हैं।
(१) बरसाईत के साग
(२) जड़कल्ला के साग
(३) घाम दिन के साग
इसी प्रकार इसके दो और प्रकार है, भाजी तथा जंगली साग। जंगली सागके लिए बोने और रक्षा करने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता ।
(१) बरसात या बरसाईत के साग-
रमकेरिया (भिण्डी), तरोई (तोरई), मरारी तरोई, हंसा तरोई, डोंड़की तरोई, घिया तरोई, झुमकी तरोई, चिकनी तरोई, बरबट्टी, कोंहड़ा या मखना, रखिया, कुंदरू, भांटा-गोलवा, काछी, भेजराभांटा, मुरई, करेला (बड़े तथा छोटे), खेंड़हा, खेखसा, कोंचई, करौंदा, कर्रौआ, गंवार फल्ली, खीरा आदि ।
(२) जाड़ा या जड़कल्ला के साग-
आलू, सरगुजिहा आलू, लाल आलू, इलाहाबादी आलू, पटना के आलू, फूल गोभी, गांठ गोभी, पताल, भांटा, लौकी, परोड़ा (सफेद चचेड़ा), गाजर, सेमी, बामी सेमी, हाथीपांजर सेमी, बटराली सेमी, मुनगा, बोदी - बीजा, या फुनगा, डांगकांदा, बरैजहा कांदा, जिमीकांदा, ताई (चौड़ी फली) खुरसा, मटर, तिवरा के लमेना, बटुरा के फत्ली आदि ।
(३) गर्मी या घाम के दिनों के साग
कटहर, करेला, गोंदली (प्याज), सकरकंद हैं।
पहले कहा जा चुका है, कि अब पानी की सुविधा तथा साग के मूल्य को देखकर बारहमास सब्जी उगाई जाती है। छत्तीसगढ़ में विशेषकर बिलासपुर से बाहर काफी मात्रा में साग-सब्जी भेजी तथा बेची जाती है। इसमें कोंचई (घुंइया) सबसे अधिक प्रसिद्ध है- इसके प्रकार-
(१) साकिन कोंचई
(२) पेंडारू कोचई
(३) देसी कोचई
(४) बिलासपुरिहा कोचई (इसमें खुजलाहट नहीं होती)
भाजी भी किसी भी ऋतु में बोई तथा खाई जाती है। विशेषकर जाड़े में भाजी का महत्व तथा मूल्य अधिक रहता है। कुछ साग सर्वथा जंगली या स्वयं उत्पन्न होते हैं। इनमें सब्जी तथा भाजी दोनों सम्मिलित हैं।
जंगली फल तथा भाजी-
खेखसा, कर्रौंआ, ठेलका, पुटु, बनकुंदरू, बनरमकेरिया, बनकरौंदा, चरौंटा भाजी, करील (बांस की कोंपल काटकर उसमें खमीरा पैदा किया जाता है। इसका स्वाद सट्टा होता है)।
छतीसगढ़ में प्रचलित अन्य सागों के नाम नीचे दिये जा रहे हैं- बिरहुल का फूल, पोई फूल, धंवई फूल, नीम फूल, अमलीफूल, ढेंस कांदा, तथा पीकी (तालाब से) मुनगा, फूट, भसकटैया, केथला, पिहरी, डूमर, बिही, अंवरा, बोहार फूल, बोहारफर, आदा, मउहा, कुर्रू, कोसम, कसही, खड़हार, भेलवाफूल, कोंचई नेर्रा।
भाजी -
छत्तीसगढ़ में भाजी तथा फल को सुखाकर ग्रीष्म ऋतु में या जब आवश्यक हो, खाते हैं। उसे सुसकी या खोइला कहते हैं। सुसकी (शुष्क) भाजी के नाम निम्नलिखित हैं- तिवरा भाजी, बटुरा भाजी, सरसों भाजी, पोई, धोपा, खेखसा, मखना, चरौंटा, मुनगा, तिनपनिया, नोनिया, गोल, रोपा, मुंगलानी, चेंच, खेंड़ा, सुनसुनिया, कोचई, चना, कुरम्हा, दानसुइया, ढेई, गुमी, कोइलारी, लाल, चौराई, पालक, मुरई, मेथी, पथर्री या (पिथौरी) प्याज, कांदा भाजी, करेला, सेमी, भथुआ, बोहार माजी, अमारू पटुवा,मुढ़ी, गुर्रु, चांटी, उल्ला, केना, कोआटेनी, कुकुरजिया, फांगभाजी, मिर्चा भाजी, कोंजियारी भाजी, गाड़ामेरी, सियाड़ाफ़र, पिरता भाजी।
सुसकी या सुखरी (शुष्क की हुई) खोइला-
बुंदेला, तिउरा, चना, भांटा-खोइला, मुनगा, सेमी, तरीइ्र, ढैंस, डूमर, गोभी, पीपरी, बड़सुखरी, रमकेरिया। कोचई, मखना, करेला, आलू, गंवारफल्ली, बोइर, मुरइै, खेंढ़वा, (करील की सुखरी) आदि।
भाजी और साग बिक्री -
हटरी या हाट के लिए किसान साग भाजी तोड़ता या तोड़वाता है, और थोक या चिल्हर बेचता है। किसान से थोक में साग-सब्जी खरीद कर कुछ लोग उसे उपभोक्ताओं को मुनाफा लेकर बेच देते हैं, एवं इस धन्धे द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं। ऐसे लोगों को दलाल, कोंचिया, कोचनिन कहते है, और इस प्रथा को दलाली करना या कोचियाई करना कहते है।
शब्दावलियां ये हैं- चार आना के कुढ़ा गदोये हावन, मलोवन कतेक देबे, किलों के भाव बेचबे, पुरौनी (उपरौनी) डार, घर के उपजारे जिनिस अतका महंगी झन दे, मोर बारी के उपजोये नो है, कोचियाई आने हांवन, परता नइ परत ए, आवा साग भाजी ले लेवा ओ, लान तो ओ का साग धरे हावस। (चार आने की ढेरी की है, पूरे साग का दाम. क्या है? किलो के भाव में बेचेगा, उपरौनी दे, घर की उपज है, इतना महंगा मत दे, मेरे बगीचा का नहीं है, चिल्हर बेचने लाया हूं, भाव नहीं पटता, साग लो साग, साग ला तो क्या क्या है?)
भाजी तो बासी दिखत हावे, कबके टोरे बाय, शनिचरी बाजार दिन के तो मोल लेहे हावौं, पैसेच के देबे कि खेजा के घलोक देथस। चाऊर के लेबे कि धान के, चिटुक बैन दे। तैं हर तो निचट महंगुलहिन लागथ हस, हाथ ल हला के दुएच डेंटरा झर्रा देथस, भांटा हर कड़हा हावै, कुंदरू हर पकपका गये है, करेला हर किरहा हावै, तोर मन परत हावे त ले जोर जबरान नई ए, दे पैसा ल जल्दी दे बेरा होवथ हावै (भाजी बासी है, कबकी तोड़ी गई है? शनिवार बाजार में खरीदा है, पैसा या धान किसमें भाजी बेचेगी? चावल या धान किससे खरीदोगे? थोड़ी भाजी और दो, तू महंगा बेचने वाली है, भाजी की दो डाल और दे, भटा सड़ा है, कुंदरू पक गया है, करेले में कीड़े हैं, तुझे लेना है तो लो, जबर्दस्ती नई है। पैसा जल्दी दे, समय हो रहा है।
चित्र परिचय- बिलासपुर में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के साथ नवंबर 2000 में कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, डॉ. प्रभुलाल मिश्र तथा डॉ. लक्ष्मी शंकर निगम वक्ता थे। वरिष्ठ आइएएस अधिकारी और पुरा-कला अध्येता डॉ. के.के चक्रवर्ती जी ने दौरे पर बिलासपुर से गुजरते हुए इस आयोजन के लिए समय निकाला था और संक्षिप्त वक्तव्य भी दिया था। यह तस्वीर संभवतः इसी आयोजन की है, जिसमें मेरे आमंत्रण पर पधारे सर्वश्री केशव शुक्ला जी, रामलाल कश्यप जी, रोहिणी कुमार बाजपेयी जी और पालेश्वर प्रसाद शर्मा जी दिखाई पड़ रहे हैं।
दूसरी तस्वीर स्वयं में स्पष्ट है, यह तहरीर उनकी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास एवं परम्परा‘ के आरंभिक पृष्ठ पर मेरे पास सुरक्षित है।
प्रसंगवश- डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा (औपचारिक-सार्वजनिक अवसरों पर उनके लिए मेरा संबोधन ‘सर‘ या ‘सरजी‘ होता था और निजी-आत्मीय प्रत्यक्ष के दौरान ‘महराज‘) के शोध-प्रबंध का अध्ययन करते हुए लगा कि बाद के बहुत सारे ऐसे शोध-प्रकाशन हैं, जिनमें न सिर्फ उनके काम का आधार लिया गया है, बल्कि उपयुक्त उल्लेख के बिना उसका इस्तेमाल कर लिया गया हैै। तब आवश्यक लगा था कि उनके शोध-प्रबंध का परिचय, कुछ अंश को मूल सहित दर्ज किया जाए। इस तैयारी में लग गया था तब तक लगभग साल भर पहले रूद्र अवस्थी जी का पत्र मिला, जिसमें डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा स्मृति ग्रंथ की योजना की जानकारी देते हुए लेख का आग्रह किया गया था, इस संबंध में श्री अभिजीत तिवारी से भी चर्चा हुई, किंतु निजी परिस्थितियों और लंबे प्रवास के कारण चाह कर भी तैयारी को अंतिम रूप न दे सका। अब पुनः यह अवसर बना जब समन्वय साहित्य परिवार छत्तीसगढ़ के प्रांतीय अध्यक्ष डॉ. देवधर महंत जी से चर्चा के दौरान मैंने कुछ प्रसंगों और इस बहाने पितृ-पुरुषों का स्मरण किया, उन्होंने इसका उल्लेख करना प्रासंगिक माना, अतएव।
सर्वश्री मुंगेली वाले रामगोपाल तिवारी जी के पुत्र, कुटुमसर और भीमबेटका एस बेल्ट के खोजकर्ता भूगोलविद डॉ. शंकर तिवारी/छितानी मितानी दुबे परिवार के श्री राजाबाबू दुबे/ विधायक, खादी बोर्ड के अध्यक्ष रहे इतिहास-पुराविद श्री रोहिणी कुमार बाजपेयी और टिकरापारा, यूथ हॉस्टल वाले श्री व्यंकटेश तैलंग, मेरे पिता श्री सत्येन्द्र कुमार सिंह के सहपाठी थे और मैं उन सबका सदैव इनका स्नेह-भाजन रहा। डॉ शंकर तिवारी पर केंद्रित प्रदर्शनी एवं विचार गोष्ठी का आयोजन 11 अप्रैल 2003 को बिलासपुर में किया गया था।
सरजी और विनय पाठक जी से अक्सर मुलाकात बिलासा कला मंच के कार्यक्रमों और सोमनाथ यादव जी के कार्यालय में हो जाती थी। उक्त आयोजन की रूपरेखा निर्धारित करने में सरजी से मार्गदर्शन मिला।
आयोजन में प्रदर्शनी का शुभारंभ सुबह 11 बजे हुआ और सायंकाल निर्धारित विचार गोष्ठी के लिए गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरिजेश पंत थे तथा प्रमुख वक्ता पुराजीव एवं पुरातत्व विज्ञानी डॉ. जी.एल बादाम, बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष श्री सतीश जायसवाल और डॉ. शंकर तिवारी के शिष्य तथा भोज मुक्त विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. एस.एल. कोका थे।
(संभवतः इसी) आयोजन के उद्घाटन सत्र के लिए हमलोग चाहते थे कि बिलासपुर के संस्कृति-मूर्धन्य एक साथ मंच पर हों, मगर कई लोगों ने उन सबके बीच आपसी मनमुटाव की बात कहते हुए हतोत्साहित किया जा रहा था। इस पर भी उन्होंने प्रेरित किया और यह संभव हुआ कि मंच पर डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा, श्यामलाल चतुर्वेदी जी, डॉ. विनय पाठक और नंदकिशोर तिवारी जी जैसे विद्वानों का मंच पर एक साथ शोभायमान होने का दुर्लभ संयोग बना।
आयोजन के समापन में वेद परसदा, मस्तूरी के सांस्कृतिक कला-दल के रहंस की प्रस्तुति तय हुई, मस्तूरी वाले संगीत-शिक्षक श्री विष्णु प्रसाद निर्णेजक और मुड़पार वाले श्री मनीष सिंह का सहयोग मिला। व्याख्यान, संस्मरण और वैचारिक सत्र शाम तक पूरा हो चुका था, मगर रहंस का दल नहीं पहुंचा, तब मोबाइल फोन का चलन कम था। दल से संपर्क नहीं हो पा रहा था। सरजी, सोमनाथ जी के साथ राय हुई, जिसमें बद्रीसिंह कटहरिया जी और सनत तिवारी जी सहभागी बने और इन दोनों ने मंच संभाल लिया ताकि रहंस दल के आते तक दर्शक-वृंद के लिए ‘फिलर‘-स्थानापन्न प्रस्तुति की जाए और तात्कालिक योजना के अनुरूप कटहरिया जी और सनत तिवारी जी ने मंच संभाल लिया, दर्शकों को बांधे रखा। यहां तक कि रहंस की टीम आ जाने पर भी दर्शकों ने उनकी प्रस्तुति जारी रखने की फरमाइश करने लगे। ऐसे कई अवसरों पर उनका मार्गदर्शन और प्रेरणा मुझे मिली। इसके साथ उनके लेखन या किसी विचार से असहमति होने पर जब भी मैंने अपनी बात उनके समक्ष रखी, उन्होंने सदैव पूरी बौद्धिक-तार्किक उदारता के साथ अपने से इतर पक्ष को महत्व दिया।
नोट - यहां शोध-प्रबंध का अंश तिरछे अक्षरों /इटैलिक फांट/ में है, जिसे मूल से नकल करते हुए यथावत रखने की यथासंभव सावधानी बरती गई है। मूल में टाइपिंग की कुछ अशुद्धियों को दुरुस्त किया गया है। किसी गंभीर लेखन-उद्धरण या शोध संदर्भ-उल्लेख का प्रयोजन हो तो मूल का अवलोकन आवश्यक होगा।
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