Monday, September 22, 2025

प्रतिभू स्मृति कथा

आखिरी पन्नों पर ‘कोरे पन्ने‘ बार-बार आता है, जो किताब के शीर्षक ‘स्मृतिशेष कथा अशेष‘ के उपयुक्त है। पहले दो पर्व पीठिका की तरह, तृतीय पर्व दंगोें, विभाजन, विस्थापन-पलायन, शरणार्थी-तनाव का है और चौथा प्रभावित पूरे समुदाय के खोना-पावना वाला, उसके वापस पटरी पर आने वाला। पुस्तक ‘पूर्वी बंगाल के विस्थापित हिन्दुओं की औपन्यासिक गाथा‘ है, जिसमें हिंदू-मुस्लिम दंगा प्रसंगों के साथ विभाजन की गाथा है, स्वाभाविक ही कई अंश संवेदनशील हैं, मगर पूर्वाग्रह न हों तो बेहद संतुलित। लेखक ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है कि हिन्दू-मुस्लिम अंतर्संबंधों तथा अंतर्विरोधों को उकेरने का कारण वैमनस्यता फैलाने वाले तत्वों की पड़ताल का है। जाति-धर्म के उन्माद में भाषा का कारक किस तरह प्रभावी हो सकता है, यहां उभारा नहीं गया है, मगर महसूस किया जा सकता है।

कथा-सूत्र के लिए पात्र ‘जतीन बाबू (लेखक स्वयं?) की डायरी‘ वाला उपयुक्त तरीका अपनाया गया है। जो अपने दीर्घ अनुभवों को कलमबद्ध करने को लालायित हैं, किसी और के लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों को विगत से सबक लेने के लिए, डायरी लिखते हैं, जिसमें आत्मावलोकन है और स्वचिंतन भी। एक अंश जहां लगता है कि लेखक अपने भाव सीधे अभिव्यक्त कर रहा है- ‘बंगालियों द्वारा, खासकर पूर्वी बंगाल से विस्थापित बंगालियों द्वारा, ऐसी कोई तिथि या दिन स्वस्फूर्त हो नहीं तय की गई, जो समर्पित हो कष्ट और अमानुषिक यातना की उन यादों को। यह पूरे बंग समाज के लिए गंभीर आत्मचिंतन का विषय है कि क्यों वेदना के करुण देशराग को गाने का कोई मुहूर्त, कोई तिथि नहीं है। उस देशराग को, जिसने न केवल पूरे बंगाल को वरन निखिल विश्व के बंगालियों को और पूरे देश को प्रभावित किया?‘

ऐसा उपन्यास तब निकल कर आता है, जब लेखक को पाठक का ध्यान तो हो, मगर साहित्यिक प्रतिष्ठा पाने का दबाव न हो। प्रतिभू, कहानियां, उपन्यास से इतर लेखन भी करते रहे हैं, मगर अपनी लेखकीय सहजता पर कायम हैं, जो मुझ जैसे पाठक को उनके लेखन के प्रति आकर्षित करता है। प्रतिभू स्वयं को साहित्यकार नहीं मानते, बैंकिग पेशे से जुड़े रहे, पेशेवर लेखक-साहित्यकार होते तो मुझे लगता है कि कथा-क्रम का विकास करते हुए सूत्र के लिए प्रेम-कहानी का ताना-बाना लेते। उन्होंने ऐसा नहीं किया है, जबकि हरिप्रिया-पीयूष के साथ यह प्रेम-प्रसंग में यह संभावना थी। निहायत घरू-पारिवारिक माहौल के दैनंदिन जीवन की आशा-आकांक्षा और कुछ आशंकाओं को आधार बनाया है। लगता है यह स्वाभाविक है और यह इसी तरह आए, अलग से कोई पाठक-प्रलोभन न हो, गैर-पेशेवर होने के कारण आसानी से हो पाया है।

Saturday, September 6, 2025

टैगोर का छल

रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर/ठाकूर या पूर्वज ‘कुशारी‘) का जन्म 6 मई 1861 को, उनकी पत्नी भवतारिणी उर्फ मृणालिनी देवी (विवाह पश्चात नाम) का जन्म 1 मार्च 1874 को, विवाह 9 दिसंबर 1883 को हुआ। उनकी संतानों क्रमशः मधुरिलता-बेला, रथीन्द्रनाथ-रथी, रेणुका-रानी, मीरा-अतासी तथा शमीन्द्रनाथ-शमी (बंगाली परंपरा का भालो-डाक नाम) का जन्म 1886 से 1896 के बीच हुआ, इसके बाद मृणालिनी देवी अस्वस्थ होती रही, 22 दिसंबर 1901 को ब्रह्म विद्यालय (शांति निकेतन स्कूल) की स्थापना के बाद गंभीर रूप से अस्वस्थ हुईं और 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हुई। 1902 से 1907 के बीच पत्नी मृणालिनी के अलावा पुत्री रेणुका, पिता देवेन्द्रनाथ, छोटे पुत्र शमीन्द्रनाथ की तथा इसके बाद 1918 में बड़ी पुत्री मधुरिलता की मृत्यु हुई।

मृणालिनी की मृत्यु के अगले दिनों में पत्नी की याद में टैगोर ने लगभग प्रतिदिन कविताएं लिखीं, इन 27 कविताओं का संग्रह मोहितचन्द्र सेन के सम्पादकत्व में, रवीन्द्र काव्यग्रन्थ के छठे भाग में और ‘स्मरण‘ शीर्षक से स्वतंत्र काव्यग्रन्थ के रूप में मृणालिनी की मृत्यु के बारह वर्ष बाद 1914 में प्रकाशित हुईं। इस क्रम में टैगोर का अन्य संग्रह ‘पलातका‘ 1918 में प्रकाशित हुआ, लगभग 146 पंक्तियों, 11 पैरा और 830 शब्दों की लंबी, संग्रह की चौथी कविता ‘फाँकि‘ है। इस कविता में पात्र बीनू की अस्वस्थता, उसके साथ ‘मैं‘ की रेलयात्रा और बिलासपुर रेल्वे स्टेशन, झामरु कुली की पत्नी हिन्दुस्तानी लड़की रुक्मिनी का उल्लेख है। कविता में ‘बिलासपुर स्टेशन‘ नाम तीन बार इस तरह आता है। कविता ‘फाँकि‘ लगभग 45 साल पहले इन पंक्तियों- ‘बिलासपुर स्टेशन से बदलनी है गाड़ी, जल्दी उतरना पड़ा, मुसाफिरखाने में पड़ेगा छः घंटे ठहरना‘ के साथ चर्चा में आई।

26 दिसंबर 1983 को ए.के. बैनर्जी मंडल रेल प्रबंधक, बिलासपुर के पद पर आए। वे साहित्य में रुचि रखने वाले और प्रसिद्ध फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी के दामाद थे। बिलासपुर पदस्थापना के साथ उन्हें टैगोर की कविता ‘फाँकि‘ याद आई और उन्होंने बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के मुख्य प्रवेश के बाईं ओर प्लेटफार्म 1 पर, वीआइपी वेटिंग लाउंज के साथ कविता की इन पंक्तियों को रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्र के साथ खास फलक बनवा कर समारोह पूर्वक स्थापित किया। यह आकर्षण का कारण बना और इसकी चर्चा बिलासपुर और खासकर पेंड्रा में होने लगी, जिसमें टैगोर के बिलासपुर होते पेंड्रा जाने, वहां पत्नी का इलाज, पेंड्रा में ही उनकी पत्नी की मृत्यु और उसके बाद अकेले वापस लौटने की बात होने लगी, जिसका आधार यह कविता थी। कविता में आए नाम बीनू को टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी और ‘मैं‘ को साहित्यिक अभिव्यक्ति के पात्र प्रथम पुरुष के बजाय टैगोर स्वयं के साथ निर्मित और घटित स्थिति मान लिया गया।


वेब पर मीडिया के विभिन्न यूट्यूब रिपोर्ट/स्टोरी तथा महीनों पेंड्रा में इलाज और इस दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी-बीनू का देहांत हो गया ... इसी सैनेटोरियम में रविंद्रनाथ की पत्नी के शरीर को मिट्टी दी गई और समाधि बनाई गई ... जैसी ढेरों खबरें मिल जाती हैं। अब बिलासपुर स्टेशन पर पूरी बांग्ला कविता हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद सहित लगाई गई है, जिस पर अंकित है- ‘यह कविता कविगुरु श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन 1918 में बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में लिखी गई।

और फिर 10.12.2012 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 5 रुपये का डाक टिकट, बिलासापेक्स, विशेष आवरण सहित जारी हुआ, जिसमें अंकित है- ‘रविन्द्र नाथ टैगोर एवं उनकी धर्म पत्नी श्रीमती मृणालिनी देवी सन् 1900 में अपनी एक यात्रा के दौरान बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में छः घंटा रुके। उन्होंने इसका वर्णन अपनी एक कविता में किया है।‘ एक कविता में किया है।‘ जिला अस्पताल सैनेटोरियम परिसर परिसर में रविन्द्र नाथ टैगोर वाटिका, संग्रहालय निर्माण एवं गुरुदेव की मूर्ति का अनावरण, दिनांक 07.05.2023 को होने का शिलान्यास शिलापट्ट लगा है और जुलाई 2023 में परिसर के बरगद के पेड़ को काटने का विरोध हुआ कि टैगोर इस पेड़ के नीचे बैठते थे।

कविता के रचना काल, स्थान और बिलासपुर यात्रा के वर्ष की विसंगतियों के बावजूद यह बात चल पड़ी। मगर इसके पहले 2008 में ही ऐसा माना जाने लगा था, इसी साल रमेश अनुपम संपादित ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै‘ पुस्तक का पहला संस्करण आया, जिसकी तीसरी आवृत्ति, 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तक के प्रवासी खंड में रवींद्रनाथ टैगोर की कविता फॉकि (बांग्ला), उत्पल बॅनर्जी के हिंदी अनुवाद ‘छलाना‘ (न कि छलना या छलावा) सहित प्रकाशित है, साथ ही लंबी पाद-टिप्पणी है, जिसमें बताया गया है कि कविगुरु मृणालिनी देवी को लेकर छत्तीसगढ़ आये। छत्तीसगढ़ का पेंड्रारोड उस समय क्षय रोग चिकित्सा के लिए संपूर्ण एशिया में विख्यात था।‘ ... उस जमाने में (सन 1901) में ... वे पेंड्रारोड में दो महीने तक रुके ... मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु में कविगुरु को अकेले छोड़कर अनंत में विलीन हो गईं। पेंड्रारोड का विश्वविख्यात टी.बी. सैनेटोरियम तथा यहां की जलवायु भी मृणालिनी देवी को मृत्यु के चंगुल से नहीं बचा सका।

यहां भी पेंड्रा यात्रा-प्रवास का वर्ष 1901, तथा ‘मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु‘ जैसी विसंगति है। मगर इन सबके बीच यह मान लेना कि बीनू, रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का नाम हैं (जो किसी स्रोत से पुष्ट नहीं होता), ‘फाँकि‘ कविता का ‘मैं‘ स्वयं कवि है और यह संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति है, के औचित्य पर विचार करने के लिए टैगोर से संबंधित अधिकृत और विश्वसनीय स्रोतों को देख लेना आवश्यक है, ऐसे स्रोतों में आए संबंधित कुछ उल्लेख आगे दिए जा रहे हैं-

रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रथीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘ऑन द एजेस ऑफ टाइम‘ के विश्व-भारती द्वारा प्रकाशित जून, 1981 के द्वितीय संस्करण, पेज-52 पर मृणालिनी देवी को शांति निकेतन से इलाज के लिए कलकत्ता लाने, डॉक्टरों द्वारा आशा छोड़ देने के साथ मां मृणालिनी देवी की मृत्यु के दौरान सभी पांच संतानों का वहां होने का उल्लेख है।

कृष्ण कृपलानी (टैगोर की तीसरी बेटी मीरादेवी की बेटी नंदिता के पति) की बहु-प्रशंसित ‘रबीन्द्रनाथ टैगोर, ए बॉयोग्राफी‘ 1980 का संस्करण विश्व-भारती कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। पेज 201 पर उल्लेख है कि शांति निकेतन में नया निवास मिलने के कुछ माह बाद ही मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार हुईं और उन्हें कलकत्ता लाया गया, जहां 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हो गई।

विश्व भारती द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के पत्र-व्यवहार के प्रथम खंड (तीसरा संस्करण बंगाब्द 1400 यानि 1993-94) में मृणालिनी देवी को लिखे पत्र हैं, इस पुस्तक के अंत में मृणालिनी देवी के जीवन की प्रमुख तिथियां-घटना दी गई हैं, जिसके अनुसार उन्हें 12 सितम्बर 1902 इलाज के लिए कलकत्ता लाया गया। 23 नवम्बर 1902 जोरासांको महर्षि भवन में निधन हो गया।

1998 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रीय जीवनचरित श्रृंखला में कृष्ण कृपलानी की पुस्तक का अनुवाद रणजीत साहा प्रकाशित ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक जीवनी‘ में पेज 116-117 पर ‘शांतिनिकेतन में, अपना नया घर पाने के कुछ ही दिनों के अंदर रवीन्द्रनाथ की पत्नी मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं । उन्हें कलकत्ता ले जाया गया और जहां 23 नवंबर 1902 को उनका निधन हो गया। ... ‘किसी पेशेवर नर्स को बहाल न कर उन्होंने लगातार दो महीने तक रात और दिन उनकी सेवा की। उन दिनों बिजली के पंखे नहीं हुआ करते थे और उनके समकालीन साक्ष्यकारों ने इस बात को दर्ज करते हुए बताया है कि हर घड़ी कैसे उनके सिरहाने उपस्थित रवीन्द्रनाथ हाथ में पंखा लिए हुए लगातार धीरे धीरे झलते रहे थे। जिस रात को उनका निधन हुआ, वे पूरी रात अपनी छत की बारादरी के ऊपर नीचे घूमते रहे और उन्होंने सबसे कह रखा था कि उन्हें कोई परेशान न करे।‘

रंजन बंद्योपाध्याय की पुस्तक ‘आमि रवि ठाकुरेर बोउ‘ का शुभ्रा उपाध्याय द्वारा किया हिंदी अनुवाद ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी‘ (मृणालिनी की गोपन आत्मकथा) प्रकाशित हुई है। पुस्तक के परिचय (2013) में स्पष्ट किया गया था- ‘मृणालिनी अपनी गोपन आत्मकथा में क्या लिखतीं? इस उपन्यास में वही सोचने की कोशिश की गई है।‘ मगर इस पुस्तक का ‘उपसंहार‘ उल्लेखनीय है, जिसमें बताया गया है कि मृणालिनी देवी को चिकित्सा के लिए 12 सितंबर 1902 को कलकत्ता ला कर जोड़ासाँको में रवीन्द्रनाथ की लालबाड़ी के दूसरे तल पर एक कमरे में रखा गया। ... मृणालिनी की स्थिति 17 नवंबर को आशंकाजनक हो गई। 23 नवंबर, 1902 को जोड़ासाँको की बाड़ी में मृणालिनी के जीवन का अवसान हुआ। दो महीने ग्यारह दिन उन्हें कलकत्ता में मृत्युशैया की यंत्रणा भोगनी पड़ी।

विकीपीडिया तथा द स्कॉटिश सेंटर आफ टैगोर स्टडीज के वेबपेज के अनुसार- मृणालिनी देवी 1902 मध्य में बीमार पड़ गईं, जबकि परिवार शांतिनिकेतन में एक साथ रहता था। इसके बाद, वे और रवींद्रनाथ 12 सितंबर को शांतिनिकेतन से कलकत्ता चले गए। डॉक्टर उनकी बीमारी का निदान करने में विफल रहे और 23 नवंबर की रात को 29 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे रथिंद्रनाथ ने बाद में अनुमान लगाया कि उनकी मां को एपेंडिसाइटिस था।

रामानंद चटर्जी द्वारा संपादित रवीन्द्रनाथ टैगोर के सत्तरवें जन्मदिन पर 1931 में प्रकाशित ‘द गोल्डन बुक आफ टैगोर‘ में ‘ए टैगोर क्रानिकल: 1861-1931‘ में मृणालिनी देवी से विवाह और उनकी मृत्यु का उल्लेख है, मगर मृत्यु का स्थान नहीं दिया गया है। इसी तरह 1961 में सत्यजित राय ने फिल्म्स डिवीजन के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर पर 51 मिनट का वृत्तचित्र बनाया है, जिसमें उनके विवाह तथा पत्नी की मृत्यु का उल्लेख है, स्थान का नहीं। इन स्रोतों में मृत्यु के स्थान का उल्लेख न होने का कारण यही हो सकता है कि मृणालिनी देवी की मृत्यु उनके मूल स्थान के अलावा कहीं अन्य नहीं हुई थी। यों 'साक्ष्य का अभाव अनुपस्थिति का साक्ष्य नहीं माना जाता' फिर भी उल्लेखनीय है कि माधवराव सप्रे ने पेंड्रा से जनवरी 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ पत्रिका निकालना शुरू किया, यह पत्रिका दिसंबर 1902 तक निकलती रही। टैगोर के पेंड्रा की अवधि भी 1902 के अंतिम कुछ माह माना जाता है, ऐसे में सप्रे जी की पत्रिका में इसका कोई उल्लेख न होना प्रासंगिक तथ्य है।

इस तारतम्य में पेंड्रा रेल लाइन और सैनेटोरियम संबंधी तथ्यों की पड़ताल प्रासंगिक होगी, इनमें-

1910 के बिलासपुर जिला गजेटियर पेज 336 पंडरीबन या पेंड्रा, जमींदारी में सैनेटोरियम का उल्लेख नहीं है, मगर पेज 248 पर मेडिकल शीर्षक के अंतर्गत पेंड्रा अस्पताल में पुरुष एवं महिला के लिए दो-दो बिस्तर वाले अस्पताल की जानकारी है। पेज 69 पर क्षयरोग का उल्लेख है, मगर सैनेटोरियम का नहीं, जबकि मुंगेली और चांपा के कुष्ठ आश्रम का उल्लेख है। पेज 338 पर उल्लेख है कि एक जोगी और उसके दो विशाल सर्पों ने ‘खोडरी टनल‘ काटने पर आपत्ति की और उनके शापवश बड़ी संख्या में मजदूर रोगग्रस्त हो कर मर गए।

1923 के ‘बिलासपुर वैभव‘ पेज 73 पर व्यापार के अंतर्गत उल्लेख है कि ‘सन् 1891 में जबसे कटनी लाइन खुली है ...‘ पेज 105 पर पेंडरा शीर्षक के अंतर्गत उल्लेख है कि गौरेला और पेंडरा के बीच मिस लांगडन का क्षयरोगाश्रम है। पुनः पेज 136 पर ‘पेंडरा जमींदारी का जलवायु शीतल है। इसे बिलासपुर जिले की पंचमढ़ी समझिये। गौरेला और पेंडराके बीच मिस लांगडनका क्षयरोगाश्रम देखने योग्य है।‘

1978 के बिलासपुर जिला गजेटियर में पेज 244 बिलासपुर रायपुर सेक्शन 1881 में, बिलासपुर रायगढ़ सेक्शन 1890 में, बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन 1861 में (!) आरंभ होने का उल्लेख है। साथ ही पेज 519 पर क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित तथा मध्यप्रदेश सरकार और प्रादेशिक रेड क्रास सोसाइटी से सहायता प्राप्त सैनेटोरियम तथा टी.बी. के इलाज के लिए माकूल जलवायु का उल्लेख है।

राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम के वेबपेज की जानकारी के अनुसार देश का पहला ओपन एयर सैनेटोरियम अजमेर के पास तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 में स्थापित हुआ। ऐसी स्थिति में पेंड्रा में आबोहवा बदलने के लिए मरीजों का आना संभव है मगर उपरोक्त उद्धरणों के आधार पर निष्कर्ष आसानी से निकालता है कि सैनेटोरियम 1910 से 1923 के बीच (वस्तुतः 1916) बना।

कटनी रेलखंड पर गाड़ी परिचालन 1891 में आरंभ होने की जानकारी मिलती है, मगर इसके साथ दुविधा रह जाती है कि रेलवे रिकार्ड्स में 1907 में पहले-पहल भनवारटंक टनेल डाउन का निर्माण हुआ तथा इस खंड में रेल लाइन के दोहरीकरण का कार्य 1960-65 के बीच हुआ और भनवारटंक टनेल अप यानि इस लाइन पर नये दूसरे बोगदा का निर्माण 1965-66 में होना, पता चलता है। ऐसी स्थिति में 1907 के पहले बिलासपुर से पेंड्रा का रेल लाइन संपर्क कैसे संभव हुआ होगा?

अंततः ‘फाँकि‘ कविता की पहली पंक्ति ‘बिनुर बयस तेइश तखन‘ यानि नाम बीनू और उसकी उम्र तेइस कहा गया है, यह दोनों ही बातें टैगोर की पत्नी मृणालिनी से मेल नहीं खातीं, क्योंकि भवतारिणी उर्फ मृणालिनी का अन्य नाम बीनू था ऐसा पुष्ट नहीं होता (अन्य संबोधन ‘छोटो बोउ‘, ‘छूटी‘ या ‘छुटि‘ जैसा पत्रों में संबोधन है) और इस समय यानि 1902 में मृणालिनी (जन्म 1874, कहीं 1872/1876 मिलता है) की उम्र 23 वर्ष भी नहीं बैठती। पत्नी के निधन की कविताएं ‘स्मरण‘ में हैं और ‘फाँकि‘ कविता 1918 में प्रकाशित संग्रह ‘पलातका‘ में शामिल है, और इस कविता की रचना तिथि न होने से इसे 1918 या उसके कुछ पहले की रचना मानना उचित होगा। प्रसंगवश, टैगोर अपने पत्रों में बहुधा ‘भाई‘ संबोधन का प्रयोग करते थे, अपनी पत्नी के लिए भी- ‘भाई छुटि‘। संभवतः यह कालिदास का प्रभाव था- जहां रघुवंश में ‘वैदेहिबन्धोः हृदयं विदद्रे- वैदेही-बन्धु राम का हृदय फट गया।‘ प्रयोग है और ऐसा ही अन्यत्र मेघदूत में यक्ष, यक्षिणी के लिए करता है- ‘विधिवशात् दूरबन्धुः- भाग्यवश जिसका बंधु (प्रियजन) दूर है।

संजुक्ता दासगुप्ता, टैगोर साहित्य की गंभीर अध्येता और अंगरेजी अनुवादक हैं। उनकी पुस्तक ‘इन मेमोरियम स्मरण एंड पलातका‘ 2020 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है, जिसमें मृणालिनी देवी की याद में टैगोर द्वारा लिखी ‘स्मरण‘ की 27 कविताएं का तथा ‘पलातका‘ की 15 कविताओं का अंगरेजी अनुवाद है। पलातका की कुछ अन्य कविताओं सहित फांकी के लिए अनुवादक की टिप्पणी प्रासंगिक और मारक है, जिसमें वे कहती हैं कि ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था आजीवन कठोर कारावास की तरह प्रतीत होती है जहाँ घरेलू श्रम और प्रजनन श्रम को आश्रित महिलाओं के वांछित लक्ष्य और मिशन के रूप में महिमामंडित किया जाता है। मुक्ति, चिरादिनेर दागा, फांकी, निष्कृति, कालो मेये, हारिये जाओ जैसी कविताएँ लैंगिक मुद्दों के प्रति मुखर अभिव्यक्ति हैं।‘

कविता में बिलासपुर स्टेशन का नाम है, मगर वहां से गाड़ी बदल कर आगे जाने की बात के साथ पेंड्रा का नाम नहीं आया है। 1902 में पेंड्रा में अस्पताल जरूर था, जैसा कि 1909-10 के गजेटियर से पता लगता है। साथ ही देश का पहला सैनेटोरियम तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 स्थापित होने का तथ्य असंदिग्ध है। ‘द इंडियन मेडिकल गजट, जुलाई 1945, पेज 369 से निश्चित जानकारी मिल जाती है कि पेंड्रा सैनेटोरियम स्थापना वर्ष 1916 है, यह पेंड्रा के लोगों की स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज साधू बाबू अर्थात् मन्म्थनाथ बैनर्जी के साथ जुड़ा है, वे कलकत्ता, प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में उपाधिधारी थे और पढ़ाई में सुभाषचंद्र बोस से एक कक्षा आगे होना बताया करते थे। टीबी के इलाज के लिए 1917 में सैनेटोरियम लाए गए बताए जाते हैं और फिर स्वस्थ हो कर पूरा जीवन यहां बिताया। साधू बाबू की मृत्यु 8 अगस्त 1982 को हुई। 16 जुलाई 1954 को शिलान्यास हुआ पेशेन्ट्स रिक्रिएशन हॉल अब उनके नाम पर साधू हॉल नाम से जाना जाता है।

पेंड्रा निवासी एक अन्य बुद्धिजीवी डॉ. प्रणब कुमार बैनर्जी लगभग 25 वर्ष की उम्र में 1961 में यहां आए, 2018 में उनकी मृत्यु हुई। वे साधू बाबू से नियमित संपर्क में रहे थे, उन्होंने ही अविवाहित रहे साधू बाबू को मुखाग्नि दी थी। डॉ. प्रणब जी से व्यक्तिगत संपर्क के दौरान मैंने टैगोर के पेंड्रा प्रवास के बारे में जिज्ञासा की थी, उन्होंने स्वयं अपनी तथा साधू बाबू से होने वाली उनकी चर्चाओं में ऐसी किसी बात को अपुष्ट माना था, अब पुनः डॉ. प्रणब के पुत्र प्रतिभू जी ने भी बताया कि ऐसी कोई बात अपने पिता से उन्होंने नहीं सुनी।

कटनी रेलखंड पर 1891 में रेल परिचालन की जानकारी मिलती है साथ ही बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन, जिसके बीच बोगदा और पेंड्रारोड स्टेशन है, 1861 (!) में आरंभ होने का उल्लेख मिलता है किंतु बोगदा निर्माण 1907 में होने का तथ्य, विसंगतियों के कारण पहले पेंड्रा-बिलासपुर के रेल से से जुड़ा होना स्पष्ट नहीं होता और संदेह का कारण बनता है।

इस तरह टैगोर का पत्नी के इलाज के लिए 1902 में पेंड्रा आना और यहां उनकी पत्नी की मृत्यु की बात, मात्र एक काव्य रचना के आधार पर स्वीकार किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता और विशेषकर तब, जब सारे प्रामाणिक स्रोतों में इसके विपरीत तथ्य हैं। यों यह रचना विवरण-मूलक है किंतु ‘मैं‘ बीनू के साथ, बिलासपुर स्टेशन पर गाड़ी बदल कर कहां जा रहा है या वापसी में ‘मैं‘ के अकेले होने का कारण, बीनू को कहीं छोड़ आना है या बीनू की मृत्यु? यह कुछ कविता में नहीं आता, इसलिए भी इसे आत्मकथ्यात्मक यात्रा-विवरण मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और जैसा कहा जाता है- ‘साहित्य का ‘मैं‘ सदैव बहुवचन ही होता है।‘ इस कविता के ‘मैं‘ को भी इसी तरह देखना चाहिए। 

मेरा अनुमान है कि किसी व्यक्ति ने बिलासपुर हो कर आगे जाने की ‘फाँकि‘ कविता से मिलती-जुलती अपनी रामकहानी टैगोर को सुनाई होगी, उसकी पीड़ा को अपने अनुभवों के साथ जोड़ कर टैगोर ने इस कविता को रचा होगा, जिसमें ‘मैं‘ के कारण इसे स्वयं उनका संस्मरण मान कर, पत्नी के इलाज के लिए स्वयं उनके बिलासपुर होते पेंड्रा आने और यहां पत्नी के निधन की बात प्रचलित हो गई, जो पूरी तरह काव्यात्मक अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए, क्योंकि तथ्यों से मेल नहीं खाती।

प्रसंगवश-

0 कविता ‘फाँकि‘ में बिलासपुर का नाम आया है। यों छत्तीसगढ़ में ही एकाधिक बिलासपुर हैं, अन्य प्रदेशों के इस स्थान-नाम में हिमांचल का जिला मुख्यालय बिलासपुर प्रमुख है, मगर पुराना जंक्शन वाला रेल्वे स्टेशन होने के कारण छत्तीसगढ़ का यही बिलासपुर होना निश्चित किया जा सकता है। इसके साथ कविता में रुक्मिणी के चले जाने के संदर्भ में तीन अन्य स्थान-नाम ‘दार्जिलिंग, खसरुबाग और आराकान‘ आए हैं। उसका यह प्रवास संभवतः मजदूरी के लिए हुआ। बिलासपुर अंचल से श्रमिक पुराने समय से प्रवास पर ‘कमाने-खाने‘ जाते रहे हैं, उनमें कुछ लौट कर आ जाते हैं और बड़ी संख्या है, जो प्रवास के बाद वहीं टिक जाते हैं। इस क्षेत्र से कालीमाटी अर्थात जमशेदपुर, जहां अब सोनारी में छत्तीसगढ़ियों की बड़ी बस्ती है, ‘कोइलारी-कलकत्ता के अलावा कंवरू-कौरूं यानि असम प्रवास होता रहा है। संभव है उस दौर में अधिकतर प्रवास कविता में आए तीनों स्थान-नामों में होता रहा होगा।

0 कविता ‘फाँकि‘ में रुक्मिनी को ‘हिन्दूस्तानि मेये’ कहा गया है। जैसा बांग्ला-जन द्वारा गैर-बांग्ला भारतीय के लिए सामान्यतः इस्तेमाल किया जाता है, जो सहज प्रवाह में यहां भी आया है। बिलासपुर स्टेशन पर लगे अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी लड़की‘, संजुक्ता दासगुप्ता के अंगरेजी अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी गर्ल‘ है, मगर उत्पल बॅनर्जी ने इसका ‘गैर बंगाली लड़की‘ किया है। इस पर विचार करें- गैर बंगाली यानि जो पूर्व-पश्चिम बंगाल निवासी या बांग्लाभाषी न हो, होगा। यों हिंदुस्तानी का अर्थ बंगाल से इतर हिंदुस्तान निवासी ध्वनित होता है किंतु हिंदुस्तानीभाषी अर्थ नहीं निकलेगा, क्योंकि ‘बंगाल से इतर ‘हिंदुस्तान‘ में हिंदुस्तानी के अलावा अन्य भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। इस संदर्भ में कुबेरनाथ राय के निबंध ‘धुरीमन बनाम परिधिमन‘ का एक अंश उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- ‘बंकिम ने ‘वन्देमातरम्‘ में केवल सप्तकोटि बंगालियों की बंगमाता को ही गरिमा से अभिषिक्त किया। जब इस गीत का अखिल भारतीय उपयोग होने लगा तो ‘सप्त‘ को बदल कर ‘त्रिंशकोटि-कण्ठ-निनाद-कराले‘ कर दिया गया।‘

0 इस कविता में एक पंक्ति है- ‘बिनुर येन नतुन करे शुभदृष्टि हल नतुन लोके‘- बीनू शादी के बाद ससुराल से पहली बार रेल यात्रा पर निकली है, पति से कभी-कभार मुलाकातें, दबी-घुटी हंसी और बातें ही हो पाती थीं, अब उन्मुक्त माहौल और मानों ‘शुभदृष्टि‘, यानि वह ‘दृश्य‘ जिसमें नववधू विवाह के अवसर पर पान के पत्तों से चेहरा ढकी होती है, फेरों के बाद पहली बार पत्ते हटा कर, अपने होने वाले पति को पहली बार देखती है। ‘शुभदृष्टि- इस कविता में आई बांग्ला संस्कृति का नाजुक संवेदनापूर्ण मर्मस्पर्शी अर्थपूर्ण शब्द-प्रयोग।

0 ‘स्मरण‘ की दो कविताओं का हिंदी अनुवाद-

जीवित रहते उसने मुझे
जो कुछ दिया,
उसका बदला चुकाऊँगा, लेकिन
अभी समय नहीं है।
उसके लिए रात सुबह हो गई है,
हे प्रभु, तूने आज उसे ले लिया है।
मैंने उसे तेरे चरणों में,
कृतज्ञतापूर्वक भेंट किया है।
मैंने उसके साथ जो भी बुरा किया है,
जो भी गलतियाँ की हैं,
उसकी क्षमा मैं आपसे माँगता हूँ,
आपके चरणों में डालता हूँ।
जो कुछ उसे नहीं दिया गया,
जो कुछ मैं उसे देना चाहता हूँ,
उसे आज प्रेम के हार के रूप में
आपकी पूजा की थाली में रखता हूँ।
- - -
एक दिन इसी दुनिया में,
तुम एक नवविवाहिता के रूप में मेरे पास आईं,
अपना काँपता हुआ हाथ मेरे हाथों में रख दिया। 
क्या यह भाग्य का खेल था, क्या यह संयोग था?
यह कोई क्षणिक घटना नहीं है,
यह अनादि काल से चली आ रही योजना है।
दोनों के मिलन से भर जाऊँगा मैं,
युगों-युगों से इसी आशा में हूँ मैं।
मेरी आत्मा का कितना हिस्सा तुमने लिया है,
कितना दिया है इस जीवन धारा को?
कितने दिन, कितनी रातें, कितनी शर्म, कितनी हानि, कितनी जय-पराजय
मैं लिखता रहा हूँ,
मेरे थके हुए साथी क्या करेंगे,
सिवाय मेरे अपने शब्दों के!

0 सस्ता साहित्य मंडल द्वारा इन्द्र नाथ चौधुरी के प्रधान संपादकत्व में 2013 में प्रकाशित रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली का खण्ड-42, ‘मेरी आत्मकथा‘ है, जिसमें मुख्यतः टैगोर के जीवन के आरंभिक वर्षों की विदेश यात्रा व प्रवास तथा साहित्यिक गतिविधियों का उल्लेख है। इसमें पेज 209-210 पर ‘स्त्री‘ कह कर अपनी पत्नी से संबंधित रोचक जिक्र आया है- एक तरुण, जो कहता है कि आपकी स्त्री पूर्वजन्म की मेरी माता है, ऐसा मुझे स्वप्न में दिखाई पड़ा है ... इतना ही नहीं कुछ दिनों बाद ‘एक लड़की का (मेरी स्त्री के पूर्व जन्म की लड़की का) एक पत्र मिला ...।‘ इस संदर्भ में उल्लेखनीय कि पता लगता है टैगोर प्लेन्चिट से मृत आत्माओं का आह्वान किया करते थे।

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शब्द-कौतुक

0 बांग्ला पलातका, जैसा मिलता-जुलता मराठी शब्द पळपुटा है, जिसका अर्थ वैसा ही है और छत्तीसगढ़ी का पल्ला भागना, पल्ला तान देना वही अर्थ देता है, इससे लगता है कि शब्द का मूल एक ही होगा।

0 1910 के बिलासपुर गजेटियर में पेंड्रा के साथ ‘पंडरीबन‘ नाम आया है, यह रोचक संकेत का आधार है। सामान्यतः पेंड्रा या पेन्डरा, पिंडारियों से संबंधित शब्द माना जाता है, यह उपयुक्त नहीं जान पड़ता। पंडरीबन शब्द का बन स्पष्टतः वन, वृक्ष-बहुलता का शब्द है और पंडरी को रायपुर के पंडरीतलई, पेंडरवा, पेंड्री, पंर्री, पांडातराई, पंडरीपानी जैसे शब्दों के साथ समझने के प्रयास में इसका अर्थ सफेद (पांडुर) या स्वच्छ-उजला निकलेगा। छत्तीसगढ़ से संबंधित ‘गोरे‘ फादर लोर या वेरियर एल्विन को और अन्य विदेशी पादरियों आदि को पंडरा साहब कहा जाता रहा है। इस आधार पर संभव है कि इस क्षेत्र में सफेदी लिए तना-छाल वाले वृक्ष- धौंरा, केकट या कउहा की अधिकता रही हो, यों कुरलू या कुल्लू, कुसुम, अकोल, मुढ़ी, कलमी, सिरसा, करही, परसा, सेमल, खम्हार, पीपल, पपरेल का तना भी सफेदी लिए होता है, मगर जंगली नही और झुंड में नहीं होता। पंडरा, चूने का संकेत भी देता है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ी में सामान्यतः धौंरा (धवल) शब्द है, जिससे धौंराभांठा, धवलपुर, धौरपुर जैसे स्थान-नाम बनते हैं। पंडरभट्ठा स्थान-नाम स्पष्ट ही चूना पत्थर का खदान है। पेंड्रा से चूना निर्यात की जानकारी भी मिलती है, यह दूर की कौड़ी मानी जा सकती है फिर भी ... और इसी तरह गौरेला को गौ-रेला, यानि गायों की पंक्ति-झुंड या रेला बताया जाता है तो इसे गौर (वर्ण), चूने या सफेदी से जोड़ कर भी देखा जा सकता है।

0 इसी क्रम में भनवारटंक, का भनवार बहुत अजनबी शब्द है, और हिंदी में उच्चारित होने वाला टंक अंगरेजी में ‘टी-ओ-एन-के‘ लिखा जाता है। संभावना बनती है कि यह भंवर यानि बड़ी मधुमक्खी से आया हो और अंगरेजी स्पेलिंग के कारण इस तरह बदल गया हो। खोडरी, स्पष्ट ही खड्ड, खोड़रा, अर्थात गड्ढा का अर्थ देता है और खोंगसरा, जैसा एक अन्य स्थान -नाम खोंगापानी है, इसमें सरा-पानी, स्पष्ट है और खोंग का आशय व्यवधान-रुकावट या गहराई के लिए है।

टीप- इस मसौदे को तैयार करने में उपरोक्त उल्लेखित के अतिरिक्त रायपुर, भिलाई के महानुभावों और कोलकाता, विश्वभारती से संबंधित लोगों से संपर्क किया गया। विश्वभारती, शांति निकेतन द्वारा मार्च 2019 में "Rabindranath Tagore and Travel" कान्फ्रेंस का आयोजन किया गया था, संयोजक प्रो. सोमदत्ता मंडल और उनके सहयोगी डॉ. सौरव दासठाकुर थे, टैगोर की संभावित बिलासपुर यात्रा के बारे में इनसे जानकारी लेने का प्रयास किया साथ ही विश्वभारती के ही श्री राहुल सिंह, सुश्री सुर्हिता बसु से भी मेल-दूरभाष पर संपर्क किया। वहां के प्रो. अमित सेन ने सहयोग करते हुए टैगोर की जीवनी और यात्राओं के विशेषज्ञों से जानकारी जुटा कर अवगत कराने का आश्वासन दिया है। इन सबके पीछे मेरा प्रयास है कि टैगोर के बिलासपुर आने का कोई भी संकेत मिल पाता है अथवा नहीं, या ऐसी संभावना का पता करने का प्रयास जिसके कारण उनकी कविता में बिलासपुर का नाम आया है। साथ ही इससे संबंधित आपत्ति, आलोचना, संदेह पैदा करने और स्थानीय तथ्यों की जानकारी-सामग्री जुटाने में रायपुर, बिलासपुर और पेंड्रा से जुड़े बुद्धिजीवियों, मीडिया-परिचितों से सहयोग मिला। 

इस पोस्ट का मुख्य अंश 31 अगस्त को ‘द वायर‘ हिंदी में इस प्रकार पेश हुआ था। साथ ही नीचे इस पोस्ट से संबंधित फेसबुक की 29 अगस्त तथा 1 सितंबर की मेरी तथा 30 अगस्त की रमेश अनुपम जी की बातें- 

रमेश जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय और सौहार्दपूर्ण संबंध है। उनका शिष्ट-शालीन व्यक्तित्व, अकादमिक अध्यवसाय की गहराई और समझ सुस्थापित है। फिर ऐसी बातें, जिसमें मुद्दे के बजाय व्यक्तिगत आक्षेप है, यद्यपि उन्होंने अपनी पोस्ट में किसी का नामोल्लेख नही है, इसलिए संभव है कि वह किसी अन्य के लिए की गई टिप्पणी हो, लोगों ने उसकी ओर ध्यान दिलाया, देख कर लगा कि वह टिप्पणी किसी अन्य के लिए हो तो समान रुप से मेरे प्रति भी की गई संभव है। शायद उन्होंने तात्कालिक उत्तेजना और भावावेश में आ कर लिखा है, यह भी संभव है कि उनका फेसबुक अकाउंट हैक कर उसका दुरुपयोग हम दोनों के बीच मनमुटाव पैदा करने के लिए किया गया हो। दोहराव, मगर प्रासंगिक होने के कारण यहां आवश्यक है अतएव-

अकादमिक शोध-अध्ययन, तथ्यों और उपलब्ध-प्राप्त अधिकतम संभव सूचनाओं का पूरी पारदर्शिता के साथ इस्तेमाल कर निष्कर्ष निकालना होता है, न कि सही-गलत फैसला करना या साबित करना।

किसी गंभीर व्यक्ति की पोस्ट की उपेक्षा, उसे नजरअंदाज करना, उसके अपमान जैसा है यह मानते, उनकी बातों से असहमति के बावजूद पूरा सम्मान देते बतर्ज गांधी ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है‘ के इस्तेमाल की धृष्टता करते हुए कह सकता हूं कि ‘मेरा लेख ही उनकी बातों का जवाब है।‘

पोस्ट पर यह टिप्पणी आई है। मनीष दत्त जी अब हैं नहीं।
सतीश जायसवाल जी अब भी सक्रिय हैं,
टिप्पणी में आई बात- पुष्टि/खारिज कर सकते हैं।


Saturday, August 16, 2025

जन गण मन, दयाल महरानी और राजपुत्र चिरंजीव

गांव-गोष्ठी जमी है, राज-सुराज की बातें हो रही हैं- मैंने ‘गॉड सेव द किंग‘ का तीन वर्शन सुना है, एक हमारी माताजी सुनाती थीं, वे गोला गोकर्णनाथ पढ़ती थीं, वहां प्रार्थना उर्दू में होती थी- ‘खुदाया जॉर्ज पंजुम की हिफाजत कर, हिफाजत कर।‘ इसी उच्चरण में, पंचम नहीं पंजुम। बाद में वे फतेहपुर आ गईं, वहां आर्य समाजी माहौल के स्कूल में हिंदी की प्रार्थना होती- यशस्वी रहें हे प्रभो हे मुरारे, चिरंजीवी राजा और रानी हमारे। छत्तीसगढ़ के स्कूलों में ठेठ किस्म की प्रार्थना होती थी- ‘ईश राजा को बचाओ, हमारे राजा की जै, इस राजा को बचाओ।‘- लगभग एक सदी पुरानी, सुनी-सुनाई याद रह गई ये बातें, हमारे लिए सहज उपलब्ध, आसान और भरोसेमंद गंवई गूगल रवीन्द्र सिसौदिया जी बताते हैं। याद किया जाने लगा, उस दौर की ऐसी और भी कई रचनाएं हैं। मुझे भारतेन्दु का पद याद आता है- ‘राजपुत्र चिरंजीव’। बात आई-गई से आगे भी बढ़ी, इस तरह- 

भारतेन्दु के ‘राजपुत्र चिरंजीव’ के पहले गुलामी के दौर के साहित्य और साहित्यकारों में एक छत्तीसगढ़ के पंडित सुंदरलाल शर्मा को याद करते चलें। उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा जाता है। 
हस्तलिखित जेल पत्रिका का चित्र,
दो भिन्न स्रोतों से

1881 में जन्मे पं. सुंदरलाल, 1922 से 1932 के बीच एकाधिक बार कैद किए जाने की जानकारी मिलती है, जेल से ही ‘श्री कृष्ण जन्म स्थान समाचार पत्र‘ हस्तलिखित सचित्र पत्रिका निकाली, जिसके एक अंक का चित्र उपलब्ध होता है, इस पर अंकित है- ‘चैत्र-वैशाख, छठवां अंक प्रथम वर्ष 1923?‘ मगर इसके पहले इन्हीं ने 1902 में रचित और 1916 में प्रकाशित ‘विक्टोरिया-वियोग और ब्रिटिश-राज्य-प्रबन्ध-प्रशंसा‘ पुस्तक में निवेदन किया था कि ‘राज-भक्ति-प्रचार करने के पवित्र उद्देश्य को लेकर मैंने इसकी रचना की थी। यदि उसमें सफलता हुई, तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूंगा। महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा में की गई इस काव्य रचना में विभिन्न विभागों- पुलिस, अदालत, रेल, तार, डाक, पाठशाला, सड़क, अस्पताल, म्युनिसिपैलिटी, पलटन, जहाज, कल कारखाना, नल, बागीचा, सराय और कुँआ, सेटलमेन्ट, नहर, तालाब, अकालप्रबन्ध, पुल, कृषि-बैंक, धर्म्म, दुष्ट-दलन, रामराज्य, कोर्ट्स आफ़् वार्ड्स- के शीर्षक से काव्य रचा गया है। 

जगतसेठ अमीचंद अंग्रेजों का साथ देने के लिए इतिहास-प्रसिद्ध हैं, जिनके वंशज भारतेंदु हरिश्चंद्र हुए। 1876 में भारतदुर्दशा‘ नाटक छपा, अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा‘ नाटक प्रसिद्ध है ही। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली-4 में संपादक ने लिखा है- ‘राजभक्ति की भावना भारतेन्दु में कूट-कूटकर भरी हुई है। ... महारानी विक्टोरिया के परिवार में किसी को छींक भी आई तो भारतेन्दु ने कविता लिखकर उसके स्वास्थ्य की कामना की है। यह बात अलग है कि छींक स्वाभाविक प्रक्रिया में आई है पर भारतेन्दु के लिए तो वह अवसर ही बनी है।‘ ऐसी कुछ कविताएं हैं- ‘श्री राजकुमार सुस्वागत‘, ‘प्रिंस ऑफ वेल्स के पीड़ित होने पर कविता‘, या वाइसराय लार्ड रिपन के प्रति कविता ‘रिपनाष्टक‘। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली के ‘राजभक्ति की कविताएं‘ खंड के अंतर्गत उनकी ऐसी 15 कविताएं संकलित हैं। उनकी कविताओं के लिए यह भी कहा गया है कि उनमें ‘राज-भक्ति‘ की कविताओं की काफी संख्या है। आश्चर्यजनक तथ्य है कि उनकी स्वतंत्र कविताओं में एक भी कविता ऐसी नहीं है जिसे देशभक्ति की कविता कहा जा सके। 

यह सुनते हुए तब के उन संदर्भों की ओर ध्यान जाता है- भारतेंदु ने सन 1874 में ‘बालबोधिनी‘ पत्रिका में प्रकाशित पौराणिक पात्र मदालसा की कथा को ‘मदालसोपाख्यान‘ शीर्षक से पुनः सन 1875 में पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया था। पुस्तिका के आरंभ में विवरण था कि इसे पुस्तिका रूप में श्रीयुत प्रिस आव वेल्स बहादुर के शुभागमन के आनन्द के अवसर में बालिकाओं में वितरण के अर्थ अलग छपवाया गया। और यह भी कि ‘जिस लड़की को यह पुस्तक दी जाय उस से अध्यापक लोग 5 बेर कहला लें ‘‘राजपुत्र चिरंजीव‘‘। 

1883 में भारतेन्दु के फ्रेडरिक के. हेनफोर्ट के नाम संबोधित अधूरे पत्र में उनके द्वारा ब्रिटिश राष्ट्रगीत का अनुवाद, इस प्रकार शुरू होता है- प्रभु रच्छहु दयाल महरानी, बहु दिन जिए प्रजा सुखदानी, हे प्रभु रच्छहु श्रीमहरानी, सब दिस में तिन की जय होइ, रहै प्रसन्न सकल भय सोइ, राज करे बहु दिन लों सोई, हे प्रभु रच्छहु श्रीमहरानी। 

दूसरी तरफ 1874 में उन्होंने लिखा- बीस करोड़ (वाली आबादी के) भारतवर्ष को पचास हजार अंगरेज शासन करते हैं ये लोग प्रायः शिक्षित और सभ्य हैं परंतु इन्हीं लोगों के अत्याचार से सब भारतवर्षीयगण दुखी हैं। 

यों तो उनके लेखन में खास बनारसी ठाट और मौज के कहने ही क्या, ‘लेवी प्राण लेवी‘ जैसे शीर्षक से टिप्पणी लिखी और उसकी एक प्रासंगिक बानगी ‘स्तोत्र पंचरत्न‘ का ‘अंगरेज स्तोत्र‘ है, देखिए- ‘अस्य श्री अंगरेजस्तोत्र माला मंत्रस्य श्री भगवान मिथ्या प्रशंसक ऋषिः जगतीतल छन्दः कलियुग देवता सर्व वर्ण शक्तयः शुश्रुषा बीजं वाकस्तम्भ कीलकम् अंगरेज प्रसन्नार्थे पठे विनियोगः।’ 

रवींद्रनाथ टैगोर रचित हमारे राष्ट्रगान पर वाद-विवाद होता रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पर लिखे ‘जन गण मन अधिनायक जय हे‘ लेख में स्पष्ट किया है कि- कवि ने बड़ी व्यथा के साथ श्री सुधारानी देवी को अपने 23 मार्च 1939 के पत्र में लिखा था कि ‘‘मैंने किसी चतुर्थ या पंचम जार्ज को ‘मानव इतिहास के युग-युग धावित पथिकों की रथ यात्रा का चिर-सारथी‘ कहा है, इस प्रकार की अपरिमित मूढ़ता का सन्देह जो लोग मेरे विषय में कर सकते हैं उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्मावमानना है।‘‘ 

इस लेख में आगे स्पष्ट किया गया है कि- ‘असल में सन् 1911 के कांग्रेस के माडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दम्पति की विरुदावली कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होंने इस आशय की रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना भी की थी, पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। कांग्रेस का अधिवेशन 'जन गण मन' गान से हुआ और बाद में सम्राट दम्पति के स्वागत का प्रस्ताव पास हुआ। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिन्दी गान बंगाली बालक-बालिकाओं ने गाया था, यही गान सम्राट की स्तुति में था। ... विदेशी रिपोर्टरों ने दोनों गानों को गलती से रवीन्द्रनाथ लिखित समझकर उसी तरह की रिपोर्ट छापी थी। इन्हीं रिपोर्टों से आज का यह भ्रम चल पड़ा है।‘ प्रसंगवश, ‘गॉड सेव द क्वीन‘ राष्ट्रगान का अनुवाद बिशप कॉलेज, कलकत्ता के मिर्ज़ा मोहम्मद बाकिर खान ने अरबी और फ़ारसी में किया। अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसका अनुवाद कराया गया। पथुरियाघाट वाले टैगोर परिवार के शौरींद्र मोहन ने नागर कीर्तन शैलियों पर आधारित इस राष्ट्रगान के कम से कम बारह विभिन्न रूप तैयार किए थे।

यों वार्तालाप, कथन, वक्तव्य, अभिव्यक्ति, या किसी साहित्यिक रचना के साथ आवश्यक नहीं कि वह, या उसमें इस्तेमाल किया गया शब्द, सदैव विचारधारा प्रमाणित करता हो, विशेषकर संवेदनशील साहित्यिकों के साथ ऐसा तय कर दिया जाना, समाज में अब आम है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ‘माफीनामे‘ पर भी एकांगी टिप्पणियां होती रही हैं। मनोभाव और उसके अनुरूप या परिस्थितिगत अभिव्यक्ति स्वाभाविक है, मगर वह लिखी-छपी जाकर और अब सोशल मीडिया में दर्ज हो कर गफलत के लिए इस्तेमाल किया जाना आसान हो गया है।

टीप - ‘द वायर‘ हिंदी ने इसे बेहतर संपादित स्वरूप में यों पेश किया है।

Tuesday, July 15, 2025

साहित्य, कला, संस्कृतिधर्मी सूची

कला-साहित्य से जुड़े छत्तीसगढ़ के महानुभावों की एकत्रित जानकारी-सूची की तलाश होती रहती है। मेरी जानकारी में ऐसे कुछ संग्रह हैं, जिनका परिचय यहां है- 


छत्तीसगढ़ के माटी चंदन‘ छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह, चित्रोत्पला लोककला परिषद्, रायपुर म.प्र. द्वारा, नगर निगम, रायपुर के सहयोग से 1996 में प्रकाशित हुई, जिसके संपादक राकेश तिवारी हैं। 136 पेज की इस पुस्तक की भूमिका हरि ठाकुर जी ने लिखी है। पुस्तक में 128 कवियों का सचित्र परिचय उनकी प्रमुख कविता सहित दिया गया है। 

साहित्य-संस्कृति-निदर्शनी, संदर्भ छत्तीसगढ़‘ का प्रकाशन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ, संस्कृति विभाग के अंतर्गत (छत्तीसगढ़ शासन) 2007 में हुआ। 198 पेज की पुस्तक के संपादक मंडल में बबनप्रसाद मिश्र, पी. अशोक कुमार शर्मा और के.पी. सक्सेना ‘दूसरे‘ का नाम है तथा सहयोग में तुंगभद्र राठौर, डॉ. तपेश चन्द्र गुप्ता, संजय सिंह ठाकुर, हितेशकुमार साहू, अरविंद साहू, किशोर ठाकुर, रामेश्वर वैष्णव, हेमंत माहुलिकर, विकास जोशी, सतीश देशपांडे, सतीश मिश्र, विपीन पटेल हैं। 

इस पुस्तक के पेज-47 पर हमारे गौरव में 54 नामों की सूची इस प्रकार है- 
1) महाप्रभु वल्लभाचार्य, 2) गुरु घासीदास, 3) गोपालचन्द्र मिश्र, 4) माधवराव सप्रे, 5) बन्सीधर पाण्डे, 6) वीरनारायण सिंह, 7) पं. रविशंकर शुक्ल, 8) ठाकुर प्यारेलाल सिंह, 9) डॉ. खूबचन्द बघेल, 10) बैरिस्टर छेदीलाल, 11) पं. सुन्दरलाल शर्मा, 12) ठाकुर जगमोहन सिंह, 13) लोचनप्रसाद पाण्डेय, 14) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, 15) चन्दूलाल चन्द्राकर, 16) लाल प्रद्युम्न सिंह, 17) पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी, 18) मुकुटधर पाण्डेय, 19) गजानंद माधव मुक्तिबोध, 20) बल्देवप्रसाद मिश्र, 21) बाबू रेवाराम, 22) राजा लक्ष्मी निधि राय, 23) पं. हीरालाल काव्योपाध्याय, 24) हरि ठाकुर, 25) लखनलाल गुप्ता, 26) नारायण लाल परमार, 27) जगन्नाथ प्रसाद भानु, 28) कोदूराम दलित, 29) डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, 30) पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र, 31) भगवती सेन, 32) बद्रीविशाल परमानंद, 33) मिनीमाता, 34) यति यतन लालजी, 35) महाराजा प्रवीरचंद, 36) पं. विष्णुकृष्ण जोशी, 37) दाऊ कल्याण सिंह, 38) महन्त लक्ष्मीनारायणदास, 39) महन्त वैष्णवदास, 40) धर्मदास, 41) स्वामी आत्मानंद, 42) समर बहादुर सिंह, 43) श्रीकांत वर्मा, 44) गुलशेर अहमद शानी, 45) डॉ. प्रमोद वर्मा, 46) मायाराम सुरजन, 47) देवदास बन्जारे, 48) डॉ. अरुणकुमार सेन, 49) रम्मू श्रीवास्तव, 50) स्व. राम चंद्र देशमुख 51) स्व. छेदीलाल पाण्डेय, 52) डॉ. हनुमन्त नायडू, 53) स्व. नंदूलाल चोटिया, 54) स्व. लतीफ घोंघी. 

इस पुस्तक में साहित्यकार शीर्षक अंतर्गत रायपुर के 266 नाम, भिलाई-दुर्ग के 181, राजनांदगांव के 45, महासमुंद के 31, पिथौरा के 6, महासमुंद के 22 नाम, धमतरी के 48, कबीरधाम के 11, कांकेर के 6, बिलासपुर के 92, जगदलपुर के 27, जांजगीर-चांपा के 26, कोरबा के 68, कोरिया के 7, अम्बिकापुर के 31, रायगढ़ के 56 तथा जशपुर के 5 नामों की सूची है। 

संगीत विधा शीर्षक अंतर्गत रायपुर, बिलासपुर और कोरबा के 12 नामें की सूची है। 

पत्रकारों की सूची अंतर्गत रायपुर के 105 नाम, पुनः 137 नाम हैं। एजेंसियां शीर्षक अंतर्गत 12 नाम, राष्ट्रीय समाचार पत्र में 11 नाम, प्रादेशिक समाचार पत्र में 10 नाम हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के 33, प्रेस फोटोग्राफर- 21, कार्टूनिस्ट- 8 नाम हैं। बिलासपुर के पत्रकार शीर्षक अंतर्गत 218 नाम, मीडिया के 28 नाम हैं। रायगढ़ के पत्रकार में 17, जशपुर- 5, कवर्धा- 19, महासमुंद- 4, बागबाहरा महासमुंद- 7, भिलाई के 86, दुर्ग जिला के 43, तथा राजनांदगांव के 35 नाम हैं। बिलासपुर संवाददाता शीर्षक अंतर्गत के 13 नाम हैं। कोरबा जिले के पत्रकारों की सूची में 38 नाम, जांजगीर-चांपा समाचार पत्रों के प्रतिनिधि- 13, जिला जनसंपर्क कार्यालय जांजगीर-चांपा- 1, जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों के संपादक- 6, रायगढ़ में अन्य दैनिक समाचार पत्रों, एजेंसियों के प्रतिनिधि- 20, धमतरी जिला के पत्रकार-9, अम्बिकापुर जिला के पत्रकार-6, पिथौरा-5, सरायपाली-5 नाम हैं। 

शासकीय कार्यालयों में से जनसंपर्क संचालनालय-25 नाम, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व-11, छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल-9 नामों की सूची है। 

रंगमंच शीर्षक अंतर्गत 361 नाम, कलाकारों का नाम शीर्षक अंतर्गत 716 की सूची है। चित्रकारी शीर्षक अंतर्गत 19, राज्य के बाहर के प्रसिद्ध कलाकार में 48 नाम हैं। शिल्पकारों की सूची एवं पता शीर्षक में धातु शिल्प- 59, लौह शिल्प 45, पाषाण शिल्प 4/5, काष्ठ शिल्प 35, गोदना शिल्प 4, मृदा शिल्प 30, ढोकरा शिल्प 10 नाम हैं। 

पुस्तक के पेज 192 से 198 तक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की भिलाई के सृजनपीठ केन्द्र में रखी प्रतिमा के तथा पीठ के आयोजनों के छायाचित्र हैं।

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थरहा, छत्तीसगढ़ की भाषा एवं संस्कृति की साहित्यिक धरोहर, संकलन नरेन्द्र वर्मा, (संपर्क फोन-9425518050) ऋषभ प्रकाशन, भाटापारा से 2014 में प्रकाशित हुई है। अपनी बात में लिखा है- 

‘इस दुष्कर कार्य में मुख्य प्रेरणा स्रोत रहे अग्रज श्री शिवरतन जी शर्मा विधायक भाटापारा एवं मेरे श्वसुर डॉ. टेकराम वर्मा। श्री रघुनाथ प्रसाद पटेल भाटापारा, श्री लूनेश वर्मा रायपुर, श्री रविन्द्र गिन्नौरे भाटापारा, श्री संजीव तिवारी दुर्ग, डॉ. बलदेव रायगढ़, श्री संतराम साहू भाटापारा, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष पं. दानेश्वर शर्मा, सचिव पद्मश्री डॉ. सुरेन्द्र दुबे, श्री उमेश मिश्रा, श्री आदर्श दुबे, सुषमा गौराहा, श्री लामेश्वर उरांव, श्री लोकेन्द्र वर्मा, डॉ. विनय पाठक बिलासपुर, श्री चेतन भारती रायपुर, सुधा वर्मा रायपुर, नीलिमा साहू रायपुर, श्री महावीर अग्रवाल श्री प्रकाशन दुर्ग, श्री चन्द्रशेखर चकोर रायपुर, श्री हरिश्चंद्र वाद्यकार बिलासपुर, श्री बुधराम यादव बिलासपुर, श्री अरूण कुमार यदु बिलासपुर, श्री गिरधर गोपाल, देशबन्धु लायब्रेरी (मायाराम सुरजन फाऊंडेशन रायपुर द्वारा संचालित), पं. रविशंकर वि. वि. रायपुर के श्री अहमद अली खान, श्री भगवानी राम साहू सवपुर, श्री डी. पी. देशमुख दुर्ग, श्री संतोष कुमार चौबे मारो, श्री सुशील भोले रायपुर, श्री सुशील यदु रायपुर का पुस्तक निर्माण में सहयोग हेतु विशेष आभारी हूँ। डॉ. सुधीर पाठक अंबिकापुर, श्री मंगत रविन्द्र कापन, श्री हरिहर वैष्णव कोण्डागांव, श्री धनराज साहू बागबाहरा, श्री रामनाथ साहू देवरघटा (डभरा), आप सभी ने मुझे जानकारी उपलब्ध कराई, आप लोगों का विशेष धन्यवाद। समाचार पत्रों में देशबन्धु, नवभारत, दैनिक भास्कर, समवेत शिखर, हरिभूमि, पत्रिका, अमृतसंदेश, पत्रिकाओं में छत्तीसगढ़ी सेवक, छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर, बरछा-बारी, वेव पत्रिका गुरतुर गोठ डॉट कॉम का भी विशेष आभारी हूँ। श्रीमती गीता-अनिल अग्रवाल, श्रीमती लक्ष्मी-रामकुमार स्वर्णकार, श्रीमती गीता-गजानंद सेलोटे, श्री अजय ‘‘अमृतांशु‘‘, माता श्रीमती इन्दु वर्मा, पिता श्री माधो प्रसाद वर्मा, पत्नी श्रीमती विद्या वर्मा (श्रीमती तीर्थ कुमारी वर्मा) बहन श्रीमती प्रमिला-गणेशराम वर्मा, बहन श्रीमती निर्मला-बृजराज वर्मा, अनुज श्री सुरेन्द्र दमयन्ती वर्मा, अनुज श्री विरेन्द्र-किरण मानसरोवर, सुपुत्र ऋषभ वर्मा, प्यारी बिटिया धात्री वर्मा, ओजस्विता वर्मा एवं इष्ट मित्रों का भी आभारी हूँ, जिनके सहयोग से इस पुस्तक ने मूर्त रूप लिया। 

प्रथम सूची, पुस्तकों के नाम हिन्दी वर्णक्रम के अनुसार, जिसके अंतर्गत क्रमांक 1 से 1543 तक, प्रकाशन वर्ष, पुस्तक का नाम, लेखक का नाम, प्रकाशक, मूल्य और पृष्ठ, स्तंभों में जानकारी संकलित की गई है। क्रमांक 1544 से 1558 तक डॉ. सुधीर पाठक, अम्बिकापुर द्वारा प्राप्त सरगुजिहा साहित्य सूची में हिन्दी पद्य साहित्य तथा 1559 से 1581 तक हिन्दी साहित्य गद्य संकलित है। 

द्वितीय सूची, साहित्य की विधाओं के अनुसार, जिसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी निबंध संकलन- 18, छत्तीसगढ़ी नाटक- 35, छत्तीसगढ़ी एकांकी- 10, छत्तीसगढ़ी उपन्यास- 26, छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह- 49, छत्तीसगढ़ी लघु कथा संग्रह- 3, आत्मकथा- 1, संस्मरण- 2, व्याकरण- 16, छत्तीसगढ़ी शब्दकोश- 12, छत्तीसगढ़ी अनुवाद- 12, छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य- 3, छत्तीसगढ़ी व्यंग्य- 9, छत्तीसगढ़ी हाना/कहावत/लोकोक्तियां- 10, छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश- 4, छत्तीसगढ़ी वर्ग पहेली- 1, छत्तीसगढ़ी चुटकुले- 1, चिकित्सा- 2, साहित्यकारों की डायरेक्टरी- 1 है। 

आगे छत्तीसगढ़ी पद्य साहित्य के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह- 261, छत्तीसगढ़ी खंड काव्य- 43, छत्तीसगढ़ी महाकाव्य- 3, छत्तीसगढ़ी भक्ति गीत- 26, छत्तीसगढ़ी काव्य नाटिका- 2, छत्तीसगढ़ी लंबी कविता- 6, छत्तीसगढ़ी नई कविता- 5, छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य- 12, छत्तीसगढ़ी लोकगीत- 20, छत्तीसगढ़ी गजल- 5, छत्तीसगढ़ी हाइकु- 4, छत्तीसगढ़ी हास्य व्यंग्य पद्य- 8, लोकमंत्र- 1, छत्तीसगढ़ी अनुवाद- 34, छत्तीसगढ़ी चम्पू काव्य- 27, छत्तीसगढ़ी भाषा एवं उसका इतिहास- 19, हिन्दी- छत्तीसगढ़ी, गद्य-पद्य- 20, जीवनी/व्यक्तित्व एवं कृतित्व- 164, आत्मकथा- 3, संस्मरण- 1, लेख/निबंध संग्रह- 23, अभिनन्दन ग्रंथ- 11, शोधग्रंथ- 59, इतिहास- 74, भूगोल- 61, धार्मिक- 53, पुरातत्व- 13, स्थापत्य कला- 1, चित्रकथा हिन्दी- 23, लोक कथा- 30, दंत कथा- 1, साक्षात्कार- 1, पर्यटन- 17, लोक कला- 4, लोक खेल- 2, रंगमंच- 1, फिल्म- 1, कानून- 2, छत्तीसगढ़ की जानकारियां- 76, छत्तीसगढ़ की नदियां- 7, पहाड़- 1, पक्षी- 1, पत्र- 1, पुस्तकों की सूची- 2, छत्तीसगढ़ का एटलस- 2, अनुवाद- 2, समीक्षा- 3, लोक साहित्य- 9, स्मारिका- 6, अनुसूचित जाति एवं जनजातीय- 30, अंग्रेजी- 33, अन्य- 105 है। 

तृतीय सूची, साहित्यकारों के नाम अनुसार के अंतर्गत साहित्यकार के नामों के अनुसार पुस्तकों की सूची में 1 से 1545 तक, डॉ. सुधीर पाठक, अम्बिकापुर द्वारा प्राप्त सरगुजिहा साहित्य सूची में 1546 से 1583 तक, सरगुजा से प्रकाशित पत्रिकाएं 1 से 10, छत्तीसगढ़ से पूर्व एवं वर्तमान में प्रकाशित पत्रिकाएं 1 से 44 तक है। 

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कला परम्परा का सम्पादन डी पी देशमुख, भिलाई (संपर्क फोन-9407984727, 9425553536) द्वारा किया जाता है, इसके अंकों की जानकारी इस प्रकार है- 

कला परम्परा, छत्तीसगढ़ के छत्तीस रत्न, प्रवेशांक, 28 मई 2001, पेज-85 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-1, अंक-2, वर्ष-2011 
कला परम्परा, कला बिरादरी-2, अंक-3, वर्ष-2012 
कला परम्परा, पर्यटन एवं तीरथधाम, अंक-4, वर्ष-2013, पेज-198 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-2, अंक-5, वर्ष-2014, पेज-524 
कला परम्परा, छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार, अंक-6, वर्ष-2015, पेज-497 
कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी-2, अंक-7, वर्ष-2017, पेज-558 
लोक नाट्य सुकवा, अंक-8, वर्ष- जुलाई 2017 
कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी, अंक-9, वर्ष-2018, पेज-286 
लोक नाट्य चन्दा, अंक-10, वर्ष-2019, पेज-558 
पुरातत्व, पर्यटन एवं तीरथधाम, अप्रकाशित, अंक-11

इनमें से प्रसंगानुकूल प्रवेशांक में 36 कलाकारों का सचित्र परिचय है, जिनमें क्रमानुसार नाम हैं- मंदराजी दाऊ, रामचन्द्र देशमुख, महासिंह चन्द्राकर, हबीब तनवीर, शरीफ मोहम्मद, मदन निषाद, रहीम खान अनजाना, झुमुक दास बघेल, न्याईक दास मानिकपुरी, खुमान साव, झाडूराम देवांगन, सुरुज बाई खांडे, लक्ष्मण मस्तुरिहा, तीजन बाई, शेख हुसेन, भुलवा राम यादव, गोविन्द राम निर्मलकर, फिदा बाई, माला बाई, कोदूराम वर्मा, प्रेम साइमन, रामहृदय तिवारी, देवदास बंजारे, पुनाराम निषाद, भैया लाल हेड़ऊ, शिवकुमार दीपक, केदार यादव, भूषण नेताम, रामाधार साहू, कविता वासनिक, दीपक चन्द्राकर, साधना यादव, कुलवंतीन बाई मिर्झा, पद्मावती, कुलेश्वर ताम्रकार, कमल नारायण सिन्हा। अंक के अंत में संपादकीय सहकर्मी मनोज अग्रवाल और सहदेव देशमुख का सचित्र संक्षिप्त परिचय है। 

कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-1, अंक-2, वर्ष-2011 की प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी, इसके बारे में जानकारी सम्पादक डी पी देशमुख जी से मिली। 

कला परम्परा, कला बिरादरी-2, अंक-3, वर्ष-2012 में लोककला, रंगमंच, सिने कलाकार- 438 नाम हैं। सुगम शास्त्रीय गीत, संगीत, नृत्य गजल-भजन गायन- 135 नाम हैं। चित्रकला, शिलपकला, हस्तशिल्प, फोटोग्राफी- 154 नाम हैं। बाल-कलाकारों के 91 नाम हैं। उल्लेखनीय कि इसमें नामों के साथ सचित्र संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-2, अंक-5, 1001 महानुभावों की सचित्र जानकारी का संग्रह है। इस पुस्तक में पेज 507 से 524 तक कला परम्परा-2 (साहित्य बिरादरी-1 वर्ष 2011) शीर्षक अंतर्गत 175 महानुभावों केनाम, डाक पता तथा फोन नंबर सहित दिया गया है। इसके बैक फ्लैप पर मनोज अग्रवाल, प्रधान संपादक और रश्मि पुरोहित, कार्यकारी संपादक नाम सचित्र परिचय दर्ज है। 

कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी-2, अंक-7, वर्ष-2017 में कला एवं साहित्य साधक अंतर्गत 2222 महानुभावों की सचित्र जानकारी का समावेश है। साथ ही कला परम्परा के संयोजक शीर्षक अंतर्गत जिनके चित्र व नाम फोन नंबर सहित हैं- राजनांदगांव के श्री गोविंद साव, श्रीमती शैल किरण साहू, छुरिया के श्री शैल कुमार साहू, खैरागढ़ के डॉ. राजन यादव, गंडई पंडरिया के डॉ. पीसी लाल यादव, डोंगरगढ़ के श्री मनुराज त्रिवेदी, डोंगरगांव के श्री अजय उमरे, अम्बागढ़ चौकी के श्री कमलनारायण देशमुख, मोहला के श्री देव प्रसाद नेताम, मानपुर के श्री यशवंत रावटे, पंडरिया के श्री महेन्द्र देवांगन ‘माटी‘, कवर्धा के श्री कौशल साहू ‘लक्ष्य‘, गुंडरदेही के श्री दुष्यंत हरमुख, श्री पुनऊ राम साहू, बालोद के श्री सीताराम साहू ‘श्याम‘, बालोद के श्री जगदीश देशमुख, डौंडीलोहारा के श्री सुभाष बेलचंदन, दल्लीराजहरा के श्री परमानंद करियारे, धमतरी के श्री कान्हा कौशिक, नगरी के डॉ. आर.एस. बारले, मगरलोड के श्री पुनूराम साहू ‘राज‘, कुरुद के श्री इन्द्रजीत दादर ‘निशाचर‘, राजिम के श्री तुकाराम कंसारी, गरियाबंद के श्री गौकरण मानिकपुरी, डॉ. ईश्वर तारक, चारामा के श्री दिनेश वर्मा, भानुप्रतापपुर के श्री गनेश यदु, कांकेर के श्री अजय कुमार मंडावी, श्री राजेश मंडावी, कोन्डागांव के डॉ. राजाराम त्रिपाठी, जगदलपुर के डॉ. कौशलेन्द्र, श्री विजय सिंह, श्री भरत गंगादित्य, दन्तेवाड़ा की श्रीमती कंचन सहाय वर्मा, बचेली के श्री आशीष कुमार सिंह और किरन्दुल के श्री देवेन्द्र कुमार देशमुख। 

टीप- डॉ. सुधीर शर्मा ने स्मरण कराया कि ऐसे ही संकलन ललित सुरजन जी ने ‘रचना समय‘ और डॉ.निरुपमा शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ महिला रचनाकार कोश‘ प्रकाशित कराया था। ऐसी समंकित सूची, जो समय-समय पर अद्यतन की जाती रहे, तैयार कर वेब पर सार्वजनिक किए जाने पर शासन, विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाएं विचार कर सकती हैं।

Wednesday, June 4, 2025

संग्रहालय और कथा-कथन

इस वर्ष 2025 में अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर संचालनालय पुरातत्व, अभिलेखागार और संग्रहालय, रायपुर में 16 से 18 मई को संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसके लिए निर्धारित विषयों में से The Importance of Storytelling in Future Museum Experiences पर मुझे कुछ बातें कहना था, साथ ही आयोजकों द्वारा लिख्ति परचे की अपेक्षा थी। निजी कारणवश आयोजन में उपस्थित न हो सका, मगर परचा तैयार कर चुका था। इस अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका में मेरे परचे को परिचय सहित शामिल किया गया है- 

राहुल कुमार सिंह 
# जन्म- 1958, अकलतरा, छत्तीसगढ़ निवासी। पुरातत्व की उच्च शिक्षा प्राप्त, स्वर्ण पदक सहित। राज्य सरकार में 36 वर्षों तक सेवा। फेलो, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज। 500 से अधिक स्थलों का पुरातत्वीय-सांस्कृतिक सर्वेक्षण किया, जिनमें ताला, डीपाडीह, गढ़धनोरा, भोंगापाल, डमरू आदि उत्खनन तथा लालबाग, इंदौर, गूजरी महल, ग्वालियर, ओरछा अनुरक्षण-विकास परियोजनाओं में महती भूमिका।
# मौलिक कृतियाँ: ‘एक थे फूफा‘ उपन्यासिका, ‘सिंहावलोकन‘ तथा ‘छत्तीसगढ़ का लोक-पुराण (समग्र शिक्षा के लिए चयनित) निबंध संग्रह, ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘, ‘ताला का पुरा-वैभव‘ (सहलेखन)। हंस, इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी आदि प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानी, निबंध प्रकाशित। 
# राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत बच्चों के लिए द्विभाषी संस्करण की सात पुस्तकों का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद। नाटक ‘जसमा ओड़न‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद (अप्रकाशित)। प्रामाणिक अभिलेखीय ग्रंथ ‘उत्कीर्ण लेख‘ का परिवर्धन। शोध-पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक सदस्य। 
# पुरस्कार/सम्मान: बिलासा सम्मान 2008, श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक 2011, पुरी पीठाधीश्वर द्वारा 2013 में ‘धरती-पुत्र‘ सम्मान तथा 2019 में इंडिया टुडे संस्कृति सम्मान। 
# संप्रति: प्रमुख, धरोहर परियोजना, बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर। शैक्षणिक, प्रशासनिक संस्थानों में प्रशिक्षण-विशेषज्ञ। संस्कृति विषयक स्वाध्याय और वेब-अभिलेखन। 

भविष्य के संग्रहालय अनुभव में कथा-कथन 

इस कहानी में पहले 2011 के अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस की याद, जिसका विषय था ‘संग्रहालय और स्मृति: चीजें कहें तुम्हारी कहानी। आज उस दिवस का भविष्य है, जब यह कहानी कही जा रही है, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को समृद्ध और रोचक बनाने में सहायक हो सकेगी। यों हमारी परंपरा रही है, वैदिक संवाद-प्रसंग कथा का रूप ले लेते हैं, उपनिषद और महाकाव्य होते पौराणिक कथाओं का विशाल भंडार है, वहीं बृहत्कथा, कथासरित्सागर और जातक कथाओं के साथ पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियां हैं। दरअसल अधिकतर किस्से, ऐतिहासिक तथ्यों में सिमटने से बची रह गई घटना-स्थितियों को रोचक बनाकर याद रखने में मददगार होते हैं, ज्यों तुक छंदोबद्ध कविता और गीत। 

यहां कहानी, संग्रहालयों की और इस महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर की। सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के एक नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। 

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार का कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है। 

सन 1936 के प्रतिवेदन, (द म्यूजियम्स आफ इंडिया- एसएफ मरखम एंड एच हारग्रीव्स) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से कम?) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है। 

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता। 

सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है। 

संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है। 

रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंदकृष्ण रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए। 

इस संस्था से जुड़कर विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने 1955-57 के दौर में सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। इस संग्रहालय से जुड़े कई अल्प वेतन भोगी सदस्यों की निष्ठा और योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता, जिनमें से कुछ नाम- जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश आदि हैं। 

एक कहानी महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय के अनूठे काष्ठस्तंभ लेख की। वर्तमान सक्ती जिले में महानदी और मांद के संगम पर स्थित चन्दरपुर के निकट ग्राम किरारी की इस कहानी में कोई दो हजार साल पुरानी यादें हैं, जिस काल की लिपि इस काष्ठस्तंभ पर उत्कीर्ण है। वह पन्ना फिर खुला सन 1921 में, जब गांव के हीराबंध तालाब सूखने पर, खाद के लिए तालाब की मिट्टी निकालते हुए यह काष्ठस्तंभ मिला। धूप और नमी पाकर लकड़ी चिटकने से खुदे हुए अक्षर टूटने लगे, मगर गनीमत कि इस लिपि से अनजान होने के बावजूद स्थानीय पं. लक्ष्मीप्रसाद उपाध्याय ने इसकी यथादृष्टि नकल उतार ली। नकल उतारने वाले का लिपि से अनजान होना ही उस नकल की विश्वसनीयता का आधार बना और लकड़ी के दरकने से बिगड़ गए अक्षरों के बावजूद भी पं. लक्ष्मीप्रसाद द्वारा बनाई लगभग 349 अक्षरों की नकल के आधार पर इस अभिलेख का पाठ डा. हीरानंद शास्त्री ने तैयार किया (Epigraphia Indica Vol. XVIII, 1925-26, Page- 152-157), जो साहित्य-प्रेमियों में पुत्र सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ के पिता के रुप में जाने जाते हैं। इस लकड़ी को तब जानकारों ने बीजासाल बताया। कहानी आगे बढ़ी।

1947 में पुरातत्व के महानिदेशक डा. एन.पी. चक्रवर्ती ने इस लकड़ी के परीक्षण के लिए वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून भेजा। वहां इसका परीक्षण एस.एस. घोष ने किया और अपने अध्ययन का परिणाम Ancient India No. 6, January 1950, Page- 17-20 में प्रकाशित किया, जिसमें पाया गया कि यह लकड़ी बीजासाल नहीं बल्कि महुआ ‘मधुका लैटीफोलिआ‘ है। वनस्पति विज्ञान के साथ पुराने शास्त्रीय ग्रंथों के संदर्भों की दृष्टि से इस स्तंभ को समझने का प्रयास करते हुए, घोष का यह शोध-लेख भी विशिष्ट महत्व का है। उन्होंने इस स्तंभ के यज्ञ-यूप, वाजपेय-अनुष्ठान, तालाब-स्तंभ, जय-स्तंभ और ध्वज-स्तंभ होने की संभावना की ओर ध्यान दिलाया है। यह अध्ययन इस स्तंभ पर खुदे अक्षरों और तालाब से प्राप्ति के आधार पर प्रयोजन निर्धारण की दृष्टि से पुराविदों के लिए महत्वपूर्ण था ही, अध्ययनकर्ता घोष ने टिप्पणी की कि यह काष्ठ-तकनीशियनों के लिए भी रोचक है, क्योंकि लकड़ी, महुआ मिट्टी-पानी को सहन कर सकने वाला, मजबूत स्तंभ और अक्षर उकेरने के लिए भी उपयुक्त होता है।

इस अनूठे पुरावशेष की जानकारी पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने सर जान मार्शल को भेजी। फलस्वरूप इसे तब मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर के शासकीय संग्रहालय ले जाया गया, जिसका सुरक्षित रह गया अंश अब इस संग्रहालय की अभिलेख दीर्घा में प्रदर्शित है। 

कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, लेकिन हकीकत का बयान इन कहानियों के बिना कैसे संभव हो!

एक और हकीकत का अफसाना- कोई 30 साल पहले किसी दिन बिलासपुर, गोंड़पारा यानि राजेंद्रनगर वाले अपने दफ्तर में मेज पर के कागज-पुरजों की छंटाई करते हुए एक परची मिली, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, जिज्ञासा हुई कि अजनबी सी यह किसकी लिखावट है। पूछने पर बताया गया कि कुछ दिन पहले एक किशोर आया था, उसने यह छोड़ा था, बताना भूल गए थे। मेरी पूछताछ का कारण था कि पुरजे पर की लिखावट, पुरानी नागरी लिपि की नकल है, साफ तौर पर पहचानी जा सकती थी। तुरंत हरकत जरूरी हो गया। कार्यालय के सहयोगियों ने याद कर बताया कि रमेश जायसवाल नाम था, सिंधी कालोनी में कहीं रहता था। उसकी खोज में निकले, ज्यादा मशक्कत नहीं हुई, रमेश मिल गए। बताया कि मामा के यहां समडील गए थे, तांबे के स्लेट पर लिखावट की जानकारी मिली, देखने गए और कुछ हिस्से की नकल बना ली थी, वही पुरजा छोड़ कर आए थे। 

अगले ही दिन सुबह रमेश को साथ ले कर समडील जा कर गांव के देव-स्थलों, खेत-खार देखते लखन पटेल के घर पहुंचे। लखन ने ताम्रपत्र सहजता से दिखा दिया, फोटो और नाप-जोख भी करने दिया। बातें होने लगी। इस पर उसने बताया कि उसके कोई आल-औलाद नहीं थी। कुछ बरस पहले खेत जोतते यह मिला, उसे वह घर ले आया, पूजा-पाठ की जगह पर रख दिया। इसके बाद संतान प्राप्ति हुई, तब से इस ताम्रपत्र की पूजा-प्रतिष्ठा और बढ़ गई। ताम्रपत्र को संग्रहालय के लिए प्राप्त करना था, लेकिन लगा कि मामला संवेदनशील है, नियम-कानून के लिए बेसब्री करना ठीक नहीं होगा और करना भी हो तो, अभी वह अवसर नहीं है। 

वापस बिलासपुर लौटकर इस ताम्रपत्र के मजमून पर मशक्कत शुरू हुई। कार्यालय के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री पैकरा साथ नहीं जा पाए थे, अफसोस करने लगे और जा कर स्थल और ताम्रपत्र देखने की इच्छा व्यक्त की। लोक-व्यवहार वाले कामों में श्री पैकरा की कार्य-कुशलता को मैंने अधिकतर अपने से बेहतर पाया है। मैंने उन्हें काम सौपा कि वहां जाएं तो स्वयं भी ग्राम और स्थल निरीक्षण का एक नोट बनाएं (उद्देश्य था कि पहले गांव और लोगों से मिलते-जुलते स्वयं वहां से आत्मीयता महसूस करें) और लौटने के पहले ताम्रपत्र देखने लखनलाल से मिलने जाएं। साथ ही यों मुश्किल है, लेकिन प्रयास करें (ऐसी चुनौती से उनका उत्साहवर्धन होता है) कि बिना किसी दबाव के ताम्रपत्र संग्रहालय के लिए प्राप्त हो जाए। 

पैकरा जी तालाब, डीह, खेत-खार करते गांव में घूम-फिर कर लखनलाल के पास पहुंचे। लखनलाल ने ताम्रपत्र दिखाया और उसके साथ का किस्सा पूरे विस्तार से सुनाया। ताम्रपत्र मिले हैं तब से जमीन खरीद ली, लंबे समय बाद संतान हुआ। कुछ गांव वाले भी आ गए। उन्हें लगा कि इस ‘बीजक‘ में जरूर किसी खजाने का पता है, जिसके चक्कर में आया कोई फरेबी है। उत्तेजित गांव वालों को श्री पैकरा ने समझाइश और थोड़ी अमलदारी का रुतबा बताया। बातचीत होने लगी। पैकरा जी ने अपना पूरा नाम बताया अमृतलाल, संयोग कि लखनलाल के पिता का नाम भी अमृतलाल ही था। लखनलाल को फैसला करते देर न लगी। पुरखों का आशीर्वाद, वंश चलाने अब बाल-बच्चे, लोग-लइका तो आ ही गए हैं और पिता-पुरखा के सहिनांव पिता-तुल्य अमृतलाल इस ताम-सिलेट को लेने आ गए हैं। सहर्ष ताम्रपत्र पैकरा जी को सौंप दिया। 

ताम्रपत्र, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। रमेश जायसवाल, बिलासपुर निगम के पार्षद बने, जन-सेवा में लगे हैं। श्री पैकरा अब मुख्यालय रायपुर में उपसंचालक पद का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। समडील के तत्कालीन सरपंच विष्णु जायसवाल जी के पुत्र हेमंत जी से पता लगा, लखनलाल जी घर-परिवार सहित राजी-खुशी हैं। जैसे उनके दिन फिरे, सबके फिरें। 

तो किस्सा कोताह यह कि संग्रहालय में वस्तु-प्रादर्शों के साथ ऐसी कहानियां भी संजोई जाती रहें, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को और भी जीवंत रखे।

Saturday, May 31, 2025

माँ दंतेश्वरी

ओमप्रकाश सोनी, सुकमा, बस्तर में इतिहास के प्राध्यापक हैं, उनके माध्यम से माँ दंतेश्वरी से जुड़ी कुछ बातें कहने का अवसर बना। अब वह उनकी पुस्तक ‘बस्तर साम्राज्ञी माँ दंतेश्वरी (इतिहास और पुरातत्व)‘ में 'भूमिका' के रूप में प्रकाशित है-

भूमिका 

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) एवं द्वारका, सात अति पवित्र तीर्थ प्रसिद्ध हैं। चार धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग के अलावा बार्हस्पत्यसूत्र में आठ-आठ शैव, वैष्णव और शाक्त सिद्धिदायक तीर्थों की सूची मिलती है। सात नगरियों की तरह गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी- सात नदियां अति पवित्र मानी गई हैं। वैदिक सप्त सिंधु का आशय संभवतः इन सात नदियों से नहीं है, मगर प्रसंगवश ‘हिंदु‘ (हप्त हिन्दु) शब्द सिंधु नदी से संबंधित भौगोलिक क्षेत्र के रूप में पांचवीं सदी इस्वी पूर्व से प्रचलित रहा है, जिससे इंडोई और इंडिया शब्द आया। पाणिनी ने भी सिन्धु शब्द का प्रयोग देश के अर्थ में किया है। 

ऐसी कई सूचियां और उनके माहात्म्य मिलते हैं। सती की कथा और उसके अंगों के गिरने के स्थान पर बने शक्तिपीठों की संख्या ‘तन्त्रचूडामणि‘ में बावन, ‘शिवचरित्र‘ में इक्यावन, ‘देवीभागवत‘ में एक सौ आठ दी गई है और ‘कालिकापुराण‘ में छब्बीस उपपीठों का वर्णन है पर साधारणतया पीठों की संख्या इक्यावन स्वीकृत है। दंतेवाड़ा, बस्तर की दंतेश्वरी, सती के दांत गिरने का स्थान और उस पर स्थापित शक्तिपीठ के रूप में मानी जाती हैं। 
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद छत्तीसगढ़ की 14 देशी रियासतों में से कांकेर को जोड़ कर बस्तर जिला बना। यहां से अतीत की ओर लौटें तो नागयुग में ‘मासुनिदेश‘, ‘चक्रकोट‘ तथा ‘भ्रमरकोट‘, नलयुग में ‘निषधदेश‘, गुप्तकाल ‘महाकान्तार‘, महामेघ-शक-सातवाहन काल में ‘विद्याधराधिवास‘, ‘मलयमहेन्द्रचकोरक्षेत्र‘, ‘महावन‘, मौर्यकाल में आटविक राज्य, इससे और पहले ‘अश्मक‘, ‘स्त्रीराज्य‘ या उसका हिस्सा रहा। सबसे पुराना नाम दण्डकारण्य पता लगता है। 

मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। इस क्रम में अध्येताओं ने रामवनगमन पथ के साथ दण्डकारण्य-बस्तर में लंका की खोज का प्रयास किया है। रामकथा का शूर्पणखा और सीताहरण प्रसंग दण्डकारण्य से जुड़ा है। मगर ध्यान रहे कि केशकाल-बाराभांवर की भंगाराम-तेलीन सत्ती मां (अब प्रचलित भंगाराम को बंगाराम या वारंगल-ओरंगाल से आई मानते भोरंगाल-भंगाराम भी कहा गया है।) हैं और सुकमा की रामाराम, चिटमटिन देवी हैं। पौराणिक दण्डकारण्य या दण्डक वन, सामान्यतः दक्षिणापथ का विस्तृत भूभाग प्रतीत होता है, इसी के अंतर्गत ऐतिहासिक महाकांतार-बस्तर भी है। यह रोचक है कि ‘दण्ड‘ को राजाओं द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली लौकिक शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा गया है। राम के धनुष का नाम ही कोदण्ड है तथा वह दण्ड ही है जो प्रतीक रूप ध्वज (यथा- मयूरध्वज, सीरध्वज-जनक, कपिध्वज-अर्जुन) को धारण करता है। 

प्रथम राजा पृथु के दण्डकारण्य में अभिषेक का उल्लेख मिलता है। कहा गया है- 
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। 
अर्थात दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है। 

कथा में पृथु ने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का भी बोध कराया। 

इस अंचल की परंपरा में मयूरध्वज की कथा के सूत्र विद्यमान हैं। जैमिनी अश्वमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी यह कथा थोड़े फेरबदल से आई है, जिसमें ब्राह्मण को दान देने के लिए राजा-रानी अपने पुत्र को आरे से चीरने लगते हैं। इस कथा का असर बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम (1861-1868) ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। बस्तर का प्रसिद्ध दशहरा, देवी द्वारा महिषासुर के वध का अर्थात पाशविक वृत्तियों पर विजय का उत्सव है, जिसके प्रतीक रूप में भैंसों की बलि दी जाती थी। दशहरा के लिए फूलरथ और रैनीरथ निर्माण में केवल बसूले के प्रयोग की परंपरा रही है। 

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में ..1859 का संघर्ष ‘कोई विद्रोह‘ नाम से जाना जाता है, जिसमें फोतकेल, कोतापल्ली, भेज्जी और भोपालपट्टनम के जमींदारों ने जंगल काटने का विरोध किया। आंदोलन का नारा- ‘एक साल पेड़ के पीछे एक आदमी का सिर‘ से इसकी उग्रता का अनुमान किया जा सकता है। ऐसा ही एक अन्य उल्लेख ‘ताड़-झोंकनी‘ (1775), दरियावदेव-हलबा योद्धाओं का मिलता है, जिसमें काटे गए ताड़ वृक्षों को हाथ से झेलते, वृक्ष के नीचे दब कर हलबा वीरों की मृत्यु हो गई थी। 

महाभारत के नलोपाख्यान कथा में कलि-वास वाले पक्षी-रूपी पांसे, नल का एकमात्र वस्त्र ले कर उड़ जाते हैं तब अनावृत्त नल, दमयंती को ऋक्षवान पर्वत को लांघकर अवंती देश जाने वाला मार्ग, विंध्य पर्वत, पयोष्णी नदी, महर्षियों के आश्रम, दक्षिणापथ, विदर्भ और कोसल जाने का मार्ग बताते हैं। 

इस भौगोलिक विवरण से पड़ोसी विदर्भ की राजकुमारी दमयंती और निषध देश के साथ बस्तर का कुछ-कुछ रिश्ता बनता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे राकेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ (2018) में इसका परीक्षण करते हुए लिखते हैं- अनुमान लगता है कि निषध राज्य जबलपुर के पूरब में आज के छत्तीसगढ़ राज्य अथवा प्राचीन दक्षिण कोसल और उसके आस-पास रहा होना चाहिए। प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम ने पहले ही मोटे तौर पर इससे मिलता-जुलता अनुमान लगाया है। मगर पांचवीं सदी इस्वी के नल राजवंश के अभिलेख, सोने के सिक्के और गढ़धनोरा, भोंगापाल जैसे कला केंद्रों से उनका सीधा जुड़ाव इस भूभाग से प्रमाणित होता है। आर्यावर्त और दक्षिणापथ के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी महाकांतार-बस्तर है ही। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के दक्षिणापथ विजय अभियान में कोसल के महेन्द्र के बाद महाकांतार के व्याघ्रराज का उल्लेख है। 
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कहा गया है कि विधाता ने इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चंद्र एवं कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की। अन्य देवता अलक्ष्य हैं, मगर राजा को हम देख सकते हैं ... राजा में विष्णु का अंश होगा। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- राज्याभिषेक के बाद मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। पुराने नाटकों में राजा को देव संबोधित किया गया है, कुषाण राजाओं ने स्वयं को देवपुत्र कहा है। मगर दूसरी तरफ राजनीतिप्रकाश में कहा गया है कि ‘स्वयं प्रजा विष्णु है।‘ राजा और सम्राट शब्द पर विचार करें- राजा-राजन् शब्द राज् अर्थात ‘चमकना‘ से आया माना जाता है और कहीं इसे रंज अर्थात (प्रजा को) ‘प्रसन्न करना‘ के अर्थ में देखा गया है। सम्राट शब्द का आशय है, क्षेत्र-विशेष, जिसके पूर्णतः अधीन हो। इसी प्रकार एक मत है कि राजन शब्द के मूल में ‘राट‘ है, जिससे राष्ट्र और सम्राट बनता है। 

काछिनमाता, माणिक्येश्वरी, सती आदि का समाहार स्वरूप दंतेश्वरी देवी बस्तर सामाज्ञी भी हैं। ज्यों ओरछा के दशरथनंदन राम‘राजा‘ हैं। अंग्रेजी में ‘ट्यूटरली डेइटी‘ यानि ऐसा देवता या आत्मा है जो किसी विशिष्ट स्थान, भौगोलिक विशेषता, व्यक्ति, वंश, राष्ट्र, संस्कृति या व्यवसाय का संरक्षक हो। शास्त्रीय ग्रंथों में राज्य की दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत और राजा के देवत्व का उल्लेख आता है। ठाकुरदेव, बड़ादेव, बुढ़ादेव गांव के मालिक-देवता और दुल्हादेव, गृहस्वामी माने जाते हैं। इस तरह राजा और देव अभिन्न हो जाते हैं। 

राजा के दैवी उत्पत्ति में, बस्तर के राजा आदिवासी-देवसमूह की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी के प्रमुख-पुजारी होने के नाते ईश्वर का अवतार माने जाते थे। प्रवीरचंद्र भंजदेव इसके साथ ‘माटी पुजारी‘ अर्थात बस्तर के सभी छोटे-बड़े देवी-देवताओं के सबसे मुख्य पुजारी माने जाते थे। स्वाभाविक ही वे अपनी पुस्तिका का शीर्षक ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘ (1966) रखते हैं, वहीं कांकेर के ‘राजा‘ डॉ.आदित्य प्रताप देव अपनी पुस्तक ‘किग्स, स्पिरिट्स एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ (2022) के पहले अध्याय के लिए ‘द किंग एज ‘‘आइ’’ शीर्षक रखते हैं और मड़ई-दशहरा जैसे उत्सव-परंपराओं के दर्शक, सहभागी होते केंद्रीय पात्र बनते, मानों खुद की तलाश करने विवश होते हैं, राजा में देवत्व आरोपण पर कुछ यूं लिखते हैं- ‘‘राजा के आंगा देव होने के नाते पुराने राजमहल के ‘छोटे पाट‘, पूरे राज्य के आंगा देवों और राजा, जिन्हें बहुधा स्वयं देव (भगवान) रूप माना जाता था, उनकी शक्ति को समस्या निवारण के लिए, अपने में समा लेने में सक्षम थे।‘‘ (बड़े पाट, स्थानीय शीतला माता मंदिर में स्थापित हैं।) 

11 वीं सदी इस्वी के मधुरान्तकदेव के ताम्रपत्र में मेडिपोट (मेरिया-नरबलि) का उल्लेख है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में 1842-63 का मेरिया विद्रोह भी दर्ज है। देवता को बलि दिए जाने के संदर्भ में दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा के द्विभाषी शिलालेख देखा जा सकता है, 18 वीं सदी इस्वी के आरंभिक वर्षों के दो पाषाण खंडों पर खुदा लेख दिकपालदेव से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि दंतावली देवी के मंदिर में संपन्न कुटुम्ब यात्रा अनुष्ठान में कई हजार भैंसे और बकरों की बलि दी गई, जिससे शंखिनी नदी का पानी पांच दिनों तक लाल कुसुम वर्ण हो गया। 

प्रवीरचंद्र भंजदेव परंपरा-आग्रही थे तो बलि जैसे मानवीय मसलों पर आधुनिक सुधारवादी भी थे। ऐसे एक प्रसंग का उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया जाता है कि सन् 1960 के आसपास उन्होंने दशहरे के अवसर पर बकरा-महिष की बलि का निषेध कर नारियल चढ़ाने की परिपाटी चालू की। इसे चुनौती सी देते हुए बलराम नामक एक व्यक्ति ने, आदिवासी मुखियों के साथ प्रवीर से कहा- ‘महाराज पुराने जमाने में तो राजा लोग फूल रथ के सामने नर-बलि देते थे। आप कम से कम बकरे की बलि तो देने दीजिए। नारियल-वारियल से काम कैसे चलेगा महाराज। कुछ तो विचारिये।‘ इस पर प्रवीर ने कहा, ‘तो ठीक है, जाकर फूल रथ के सामने बलराम को काट दो। 
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धर्मक्षेत्र-पवित्र नगरियों का माहात्म्य प्राचीन ग्रथों में कहा जाता रहा है। इस दिशा में आधुनिक गंभीर अध्ययनों में भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे विशेष उल्लेखनीय है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास‘ के तृतीय भाग में तीर्थप्रकरण के अंतर्गत गंगा, नर्मदा, गोदावरी के साथ प्रयाग, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, मथुरा, जगन्नथ, कांची, पंढरपुर की विस्तार से चर्चा की है साथ ही दो हजार से अधिक नामों की परिचयात्मक तीर्थसूची दी है। काणे कहते हैं- ‘तीर्थयात्रा को नये रंग में ढालना होगा।‘ 

माहात्म्य कहने का आधुनिक समाज-मानवशास्त्रीय स्वरूप ‘सेक्रेड काम्प्लेक्स‘ (पावन या पुनीत प्रखंड/पवित्र संकुल-परिसर) के रूप में स्थल-विशेष का अध्ययन है। पिछली सदी के पचास-साठादि दशक में गया निवासी भूगोल विषय के स्नातक एल पी विद्यार्थी ने गयावालों का अध्ययन कर ‘द सेक्रेड काम्प्लेक्स इन हिंदू गया’ (1961) के रूप में आगे बढ़ाया, जो मानवशास्त्रियों के पारंपरिक अध्ययन तरीकों से अलग पद्धतिगत अभिविन्यास निर्धारित करता, अपने तरह का आरंभिक अध्ययन है। इस क्रम में उन्होंने बनारस, भुवनेश्वर, देवघर और पुरी के अलावा अन्य मंदिरों और घाटों का भी अध्ययन किया। 

प्रसिद्ध मानवशास्त्री डीएन मजुमदार ने भी काणे की तरह वस्तुस्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए परंपरा के साथ समय की आवश्यकता के अनुकूल समझौते पर बल दिया है साथ ही विद्यार्थी के अध्ययन को रेखांकित करते हुए कहा है- ‘‘हमारे मंदिर और धार्मिक तीर्थस्थल हमारी विरासत हैं और भारत की पहचान को आकार देते हैं। उनसे जुड़ी लोक मान्यताएं, रीति-रिवाज और शिक्षा को अलग करना या पहचानना मुश्किल है। कहानी केवल शास्त्रों में और मंदिर कला और वास्तुकला में ही नहीं है, बल्कि लोक और रीति-रिवाजों में भी है जो शहरों और मंदिरों के ‘पवित्र परिसर‘ में अभिन्न रूप से बुने हुए हैं। डॉ. विद्यार्थी ने मंदिरों के सामाजिक संगठन का वर्णन करने के लिए पवित्र केंद्र, पवित्र खंड, पवित्र समूह, पवित्र क्षेत्र, पवित्र भूमि, पवित्र भूगोल जैसे शब्दों का उपयोग किया है। वह तीर्थस्थल के पवित्र परिसर का वर्णन करते मानते हैं कि ऐसी अवधारणा भारत में आदिवासी धर्मों पर भी लागू होती है, जिसमें उनके पवित्र उपवन, पवित्र प्रदर्शन और पवित्र अनुष्ठान शामिल हैं।‘‘ 

सेक्रेड काम्प्लेक्स के अध्ययन का क्रम डॉ. माखन झा ने आगे बढ़ाया तथा ‘काम्प्लेक्स सोसायटीज एंड अदर एंथ्रोपोलॉजिकल एसेज‘ (1991) आदि कई प्रकाशन सामने आए। डॉ. माखन झा का छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना, उन्होंने 1969-70 में रतनपुर और आसपास के क्षेत्र का व्यापक-गहन सर्वेक्षण किया और अपने विभिन्न प्रकाशनों में उसे शामिल किया। डी.एन. मजुमदार की बस्तर आवाजाही अकलतरा निवासी इंद्रजीत सिंह के माध्यम से हुई। डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोधग्रंथ ‘‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ (1944), किसी भारतीय द्वारा बस्तर पर किया गया पहला शोधकार्य है। 

धार्मिक-तीर्थस्थल, पर्यटन स्थलों से कई मायनों में अलग होते हैं। मंदिर के साथ इतिहास, आस्था और परंपरा की महीन परतें होती हैं, ये परतें न सिर्फ महीन होतीं, बल्कि आपस में घुली-मिली भी होती हैं। इन्हें परखने के लिए उसका अंग बन जाना, आत्मीयता से अवलोकन कर तटस्थ अभिलेखन संभव होता सकता है। प्राचीन मंदिर, धार्मिक आस्था के साथ-साथ शिक्षा, चिकित्सा, लोक-कल्याण और संस्कृति के केंद्र होते थे, जहां जन-समुदाय एकत्र हो घुलता-मिलता था। अतएव वहां भाषा-संस्कृति के ऐसे बहुतेरे ऐतिहासिक तथ्य होते हैं जिनका महत्व समय-सापेक्ष और काल-स्वीकृत हो कर परंपरा में बदल जाने के कारण होता है। ऐसी आस्था, जिसका आधार मात्र धार्मिक नहीं, जो समष्टि से विकसित है, सभ्यतागत ढांचे के भाग के रूप में समय के साथ पुष्ट होती है। इस क्रम में नवाचार भी जुड़ता जाता है, ज्यों इस वर्ष 2025 में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई में पहुंचे 994 देव-विग्रहों का परिचय पत्र बनाया गया, जिसमें उनका नाम-पता, पुजारी का नाम और मोबाइल नंबर के साथ सिरहा, वादक-वृंद और झंडा पकड़ने वाले का नाम दर्ज किए जाने का समाचार है। 

केदारनाथ ठाकुर बस्तर भूषण 1908 में राजबाड़ा के अंदर स्थित दंतेश्वरी मंदिर के साथ दंतेवाड़ा के दंतंश्वरी मंदिर का विवरण मिलता है, उन्होंने ‘दन्तेश्वरी मंदिर के तेवहार‘ शीर्षक के अंतर्गत चैत्र से फालगुन तक सभी बारह माह की गतिविधियों का लेखा दिया है। यही इस पुस्तक की पीठिका या प्रस्थान बिंदु है, इस उद्यम में तीर्थयात्री के साथ पर्यटक और अध्येता की भूमिका का सम्यक निर्वाह हुआ है, इसलिए यह माहात्म्य, सेक्रेड काम्प्लेक्स के शोध के साथ वस्तुतः स्थल-पुराण है, जिसमें स्थान-विशेष की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाओं, जातीय परंपराओं और वहां के समाज का भी वर्णन है। 
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डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि शाक्त केंद्र दंतेवाड़ा का मंदिर नाग युग में ‘दत्तवाड़ा‘ नाम से विकसित हो चुका था। उन्होंने ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘-चतुर्थ खण्ड (2007) में नाटककार अर्जुन होता रचित उड़िया कृति ‘बस्तर विजय‘ (1941 में प्रकाशित), डॉ. चित्तरंजन कर द्वारा अनुदित, को शामिल किया है। नाटक का अंतिम अंश इस प्रकार है- महाराजा- हाँ, और एक बात। मंत्री महाशय! बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी की कृपा ही बस्तर-विजय का मूल है। गाँव-गाँव में, घर-घर में उनकी पूजा का आयोजन करो। राज्य में प्रचार करो, सभी उनकी ‘बस्तरेन‘ नाम से पूजा करेंगे ... ... ... 
... ... ... 
‘जय माँ बस्तरेन् की जय‘ 

-राहुल कुमार सिंह 
प्रमुख, धरोहर परियोजना 
बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर

Sunday, May 4, 2025

महाभारत, भारत और भरत

श्रीमद्भगवतगीता (गीता) और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर‘ में शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री जी ने इसे ‘हमारी सनातन बुद्धिमत्ता और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता‘ कहा है। इस खबर पर कहा जा सकता है कि किसी भी सूची की विश्वसनीयता और महत्व, उसकी प्रविष्टियों से होता है और इन दो प्रविष्टियों से ‘रजिस्टर‘ की दर्ज संख्या के साथ विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। रामचरितमानस, पंचतंत्र और आचार्य आनंदवर्धन कृत सहृदयालोक जैसी प्रविष्टियां इस रजिस्टर में पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं। 1992 में स्थापित इस रजिस्टर का मुख्य उद्देश्य दस्तावेजी धरोहरों का संरक्षण है। गीता के साथ विशेष उल्लेखनीय कि वह हमारी परंपरा में भी ‘स्मृति प्रस्थान‘ है। 

तीन प्रस्थानों- श्रुति, स्मृृति और न्याय में दूसरा, यानि स्मृति प्रस्थान, गीता है। श्रुति, उपनिषद हैं, जो वेद-समष्टि के भाव-बोध को, स्थायी मूल्यों को, शब्दों में लाने का उद्यम, अवधारणा हैं। इसलिए सर्वकालिक हैं। स्मृति, व्यक्ति के द्वारा समष्टि के लिए की गई श्रुति-अवधारणा की व्याख्या है, समयानुकूल, प्रसंगानुकूल आकृति-विन्यास है और ‘ब्रह्मसूत्र‘ न्याय अवधारणाओं का विश्लेषण, मीमांसा। श्रुति की अभिव्यक्ति- भाषा, चित्र, गीत में हो सकती है, अविच्छिन्न का ऐसा अंश, जिसमें प्रकृतिगत पूर्णता है, संस्कार की परतें उसे एकांगी बनाती हैं, उनसे उबर कर बोध की अपनी मूल प्रवृत्तियों को पहचाना जा सकता है। 

महाभारत के छठवें- भीष्म पर्व से जय (महाभारत) युद्ध आरंभ होता है। दसवें दिन के युद्ध में भीष्म के शर-शैया पर आ जाने के बाद संजय कुरुक्षेत्र से लौटे हैं। व्यास के धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान करने के प्रस्ताव पर धृतराष्ट्र कुटुम्बीजनों का वध न देखना पड़े, मगर युद्ध का सारा वृतांत जानें, ऐसी इच्छा व्यक्त करते हैं। इस पर सूत गवल्गण पुत्र संजय को स्वयं व्यास दिव्य दृष्टि संपन्न हो कर सर्वज्ञ होने का वर देते हैं कि वह युद्धभूमि की सारी बातें, जो उसके प्रत्यक्ष न हो अथवा वह मन में ही क्यों न सोची गई हो, जान लेगा। संजय स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवाद को सुना। धृतराष्ट्र प्रश्न करते हैं संजय उनका समाधान करते हैं, इसलिए ‘गीता‘ लाइव, रीयल टाइम नहीं, बल्कि संजय द्वारा देखा-जाना-बूझा, सुनाया गया स्मृति-प्रतिवेदन है। 

स्मृति का एक रिफ्रेशर स्वयं महाभारत, आश्वमेधिक पर्व में अनुगीता पर्व है, जिसमें गीता के 700 श्लोक से लगभग ड्योढ़ी, 1027 श्लोक की अनुगीता है। अनुगीता में अर्जुन को कृष्ण गले लगाते, मगर फटकारते हैं कि उसने गीता का उपदेश याद नहीं रखा। साथ-साथ कृष्ण यह भी स्वीकार करते हैं कि वह पूरा स्मरण न हो पाने के कारण उसे उसी रूप में दुहरा देना अब उनके वश में भी नहीं है। ध्यातव्य कि अनुगीता, स्मृति प्रस्थान गीता की प्रसंगानुकूल व्याख्या है, इसलिए दुहराई नहीं गई, (दुहराने का औचित्य भी न होता) और आकार बढ़ गया है। 

गांधी, हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) से, खासकर उनकी पुस्तक ‘सिविल डिसओबिडिएन्स‘ से प्रभावित थे वहीं थोरो भारतीय दर्शन और चिंतन के समर्थक, उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वॉल्डन‘ में कहा है- ‘प्राचीन खंडहरों की तुलना में भगवद्गीता कितनी अधिक महिमामयी है।‘ गीता पर बाल गंगाधर तिलक जैसे विद्वानों की टीका के अलावा गांधी की ‘अनासक्ति योग‘ प्रसिद्ध है। गांधी का संदर्भ लें तो उनके ‘हिन्द स्वराज‘ श्रुतित्व, आत्मकथा स्मृतित्व, पत्रादि अन्य लेखन में न्यायत्व है। गांधी, हिन्द स्वराज में कोई परिवर्तन नहीं करते बल्कि वर्षों बाद के भी किए गए सवालों का जवाब देते हैं कि ऐसी बात वे पहले ही हिन्द स्वराज में कह चुके हैं। जैसा कहा जाता है कि आवश्यक होने पर संविधान की व्याख्या में उसकी ‘श्रुतिगत‘, प्रस्तावना-आधार मददगार होगी। 

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नाट्यशास्त्र को पंचम वेद भी कहा गया है। नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के बारे में कथा बताई जाती है देवताओं के अनुरोध पर ब्रह्मा ने ऋग्वेद के पाठ्य, सामवेद के गीत, यजुर्वेद के अभिनय तथा अथर्ववेद के रस तत्त्व से इस पंचम वेद को रचा, कथा का आशय नाटक परंपरा का मूल चारों वेद ही हैं। चार उपवेदों अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और आयुर्वेद से संबद्ध नाट्यवेद, सर्वश्राव्य, अर्थात जो सभी वर्णों के लिए हो, इस पांचवे वेद की सृष्टि हुई। 

नाट्यशास्त्र का रचयिता मुनि भरत को माना जाता है। यहां भरत, भारत और भारती इन तीन शब्दों पर विचार कर लें। भारत का एक अर्थ अभिनेता भी है और भरत को भी व्यास की तरह व्यक्ति-विशेष नहीं जातिवाचक माना जाता है। कुबेरनाथ राय भरत को कल्पित या कुल-नाम मानते हुए, भरतों को कला-रसिक, साहित्य, कथा, और अभिनयपटु बताते हैं और इस तरह कला, संगीत, साहित्य की ‘वाग्देवी‘ सरस्वती का नाम भारती सटीक बैठता है। नाट्यशास्त्र के पैंतीसवें अध्याय के एक श्लोक का संदर्भ भी प्रासंगिक होगा, जिसमें भरतों (नटों) के प्रकार बताते हुए कहा गया है- ‘जो नाटक के अभिनय में अकेला धुरी की तरह हो, अनेक भूमिकाएं करके नाटक का उद्धार करने वाला हो, भाण्ड और उपकरण भी संभालता हो, वह भरत है। 

स्मरणीय कि नाट्यशास्त्र का पाठ बहुत बाद में प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ का उल्लेख तो मिलता था, लेकिन ग्रंथ उपलब्ध नहीं था। 1789 में सर विलियम जोन्स ने मूल संस्कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‘ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कराया, तब उसकी भूमिका में नाट्यशास्त्र के उपलब्ध न होने का अफसोस भी जताया। होरैस हेमैन विल्सन ने मूल संस्कृत नाटकों के आधार पर दो खंड तैयार किए, जिसका प्रकाशन 1827 में हुआ। विल्सन, जोन्स के शकुंतला नाटक के क्रम में एच.टी. कोलब्रुक 1808 के शोध लेख और जे. टेलर द्वारा अनूदित नाटक प्रबोध चंद्रोदय 1811 की चर्चा करते हुए विभिन्न टीकाकारों द्वारा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का संदर्भ लिए जाने एवं उक्त के उपलब्ध न होने का उल्लेख करते हैं। अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर नाट्यकला के तीन प्रकारं- नाट्य, नृत्य और नृत्त को स्पष्ट करते हुए उल्लेख करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इनमें अभिनय और भाषा के साथ किया जाने वाला ‘नाट्य‘ ही वास्तविक नाटक है, ‘नृत्य‘, भाषा (संवाद) के बिना, मूकाभिनय का हाव-भाव है और ‘नृत्त‘, नर्तन-मात्र है। तथा देवताओं के सामने प्रदर्शन के लिए गंधर्व और अप्सराओं को भरत ने प्रशिक्षित किया। 

विल्सन के बाद नाट्यशास्त्र के कुछ फुटकर अंश प्रकाश में आए, मगर समग्र रूप 1894 में पहली बार प्रकाशित हुआ। इसने न सिर्फ भारतीय रंगमंच, बल्कि पूरी दुनिया के रंगकर्म को प्रभावित किया। नाट्यशास्त्र का प्रामाणिक संस्करण अभिनवगुप्त की टीका अभिनवभारती सहित चार खंडों में 1926 से 1964 के बीच प्रकाशित हुआ। अब 2024 में पहली बार अधिकारी विद्वान आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा किया गया इसका संपूर्ण हिंदी अनुवाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है। आचार्य त्रिपाठी, साहित्य के पांच ग्रंथों में ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र के साथ नाट्यशास्त्र की गणना करते हैं। 

नाट्यशास्त्र के लिए कहा जाता है कि संसार का ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग, कर्म नहीं जो इस नाट्य में गुंफित न हो जाता हो। 37 अध्याय वाले इस नाट्यशास्त्र के आरंभिक अध्याय में नाट्योत्पत्ति और मंडपविधान विवरण है। अगले अध्यायों में रस सिद्धांत- मुद्राएं, अभिनय, भाव और रस, वाणी, छंद, काव्यशास्त्र, वाद्य-संगीत, नृत्य आदि की विशद व्याख्या है। अंत में यह भी कहा गया है- ‘नाट्यवेद में शिक्षित प्रहसनों का अभिनय करने लगे ... उन्होंने मिलकर ग्राम्य धर्म से युक्त शिल्पक का प्रयोग किया, जिसमें ऋषियों पर सामूहिक रूप से व्यंग्य था। ... और शास्त्रकार की उदारता, कि कहता है- ‘जो यहां नहीं कहा गया, उसे लोक की अनुकृति करके जान लेना चाहिए।‘