Sunday, September 14, 2025

लोक में राम

‘सतत छत्तीसगढ़‘ पत्रिका के ‘लोक में राम‘ विशेषांक विमोचन एवं सम्मान समारोह के अवसर पर मुझे कार्यक्रम के पीठिका-वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। वहां समय-सीमा का ध्यान रखते हुए अपनी बात संक्षेप में कही, मगर इसके लिए तैयारी में जिन मुख्य बिंदुओं पर बात करने की योजना थी, वह यहां-


सीय राममय सब जग जानी। करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।

पहले लोक और राम, इन दोनों शब्दों पर थोड़ा विचार कर लें। ‘लोक‘ का अर्थ ‘फोक‘ जैसा सीमित नहीं, व्यापक रूप से यह ‘लौकिक‘ दृश्यमान जगत का पर्याय है, जिससे अवलोकन बनता है और आंचलिक भाषाओं, जैसे भोजपुरी में लउकता- दिख रहा है या दिखाई पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ी में यदा-कदा इस्तेमाल होता है, लउकत-गरजत, यानि बादल का गरजना और बिजली की चमक। यह इसलिए कि अंधेरी रात में बिजली चमकती है तो सारा दृश्य क्षण भर के लिए प्रकाशमान हो जाता है, ‘लउक‘ जाता है। छत्तीसगढ़ी में ऐसा ही एक अन्य प्रयोग है- ‘लोखन-लोकन या लउकन ले बाहिर‘, यह ऐसी बात के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष न किया जा सके, इसलिए अजीब, अनहोनी, अविश्वसनीय के आशय में भी प्रयुक्त होता है। अंगरेजी का ‘लुक‘ भी इसी मूल से आता है और त्रिलोचन, राजीवलोचन का ‘लोचन‘ तो है ही।

इसके साथ बंगला कृत्तिवास रामायण और निराला के ‘राम की शक्तिपूजा‘ का स्मरण करते चलें, जिसके आरंभ में राम-राजीवनयन और रावण-लोहितलोचन कहे गए हैं। और उत्कर्ष में राम याद करते हैं ‘कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन‘ और अपना एक नयन देकर एक सौ आठ में एक कम पड़ रहे नीलकमल की पूर्ति करने को उद्यत होते हैं। यहां शास्त्रीय संदर्भ की ओर ध्यान जाता है- पुरुषों को सप्त-पद्मांग माना जाता है, एक मुख, दो आंखें, दो हाथ और दो पांव, मगर नारायण विशिष्ट ‘अष्ट-पद्मांग‘ हैं, जिनकी नाभि, सृजन-पद्म है। इसी कविता में उल्लेखनीय पद है ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन‘, यहां ऐसा जान पड़ता है कि पूजा के लिए आंख बंद कर, आंतरिक शक्तियों का स्मरण और उन्हें जागृत करने का संकेत है, कि आंखें बंद करने, खो देने, न रहने पर दृश्यमान लौकिक जगत के व्यापार से मुक्त अंतःकरण उन्मुख होना है, जिससे शक्ति की मौलिक कल्पना संभव होगी।

कृत्तिवास रामायण, तमिल कम्बन रामायण और तुलसी मानस, आंचलिक भाषाओं में रचित सोलहवीं सदी की लगभग समकालीन रचनाएं हैं, इस संदर्भ में माधव कंदली के ‘सप्तकांड‘ असमी रामायण को याद कर लेना चाहिए, जिन्हें आधुनिक आर्य-भाषाओं का प्रथम काव्य माना गया है। इसमें सीता का नख-शिख वर्णन, रीतिकालीन नायिकाओं की तरह या कालिदास के कुमारसंभव की पार्वती से प्रभावित जैसा है, जो श्रद्धा-भक्ति भाव को आहत करने वाला हो सकता है। कवि माधव स्वयं को ‘अहर्निशि चिंता राम राम‘ करने वाले और अपने बारे में कहते हैं- ‘कविराज कंदली आमा के से बूलिकय, कविलो हो सब जन बोधे। रामायण सुपयार श्री महामानिक्य थे, वाराहराजाय अनुरोधे।‘ यों स्पष्ट है- मुझे कविराज कंदली बुलाते हैं। मैं सब लोगों के बोध का कवि हूं, वाराह राजा महामाणिक्य के अनुरोध पर रामायण रच रहा हूं। असम अंचल के वाराही राजाओं में दो के नाम ‘माणिक्य‘ मिलते हैं, दोनों का काल चौदहवीं सदी होने के कारण माधव के असमी रामायण का काल भी सहज यही निर्धारित किया जा सकता है। माधव के नाम के साथ ‘कंदली‘ उपाधि जान पड़ती है, कंदल करने वाला कंदली हुआ जिसका अर्थ ‘वाद करने वाला‘ या ‘काव्य-शास्त्र चर्चा करने वाला‘।

छत्तीसगढ़ी में पूछा जाता है- घर निकलत तोर ददा मर गे, अधमरा हो गे तोर भाई जी, आधा बीच म तोर नारी के चोरी, काम बिगाड़े तोर दाई जी। लोक के ठेठपन वाले इस सवाल के साथ रामचरित के प्रति जिज्ञासा पैदा की जाती है।

दूसरा शब्द ‘राम‘, जिसकी विस्तार से चर्चा कामिल बुल्के ने की है और इसका रोचक शास्त्रीय निरूपण कुबेरनाथ राय ने किया है। यहां संक्षेप में, ‘राम‘ शब्द ऋग्वेद में एक राजा के व्यक्ति नाम की तरह आया है, उसे दुःशीम पृथवान और वेन नामक राजाओं की तरह प्रशंसनीय दानवीर बताया गया है तथा इक्ष्वाकु उल्लेख इस प्रकार है- ‘यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान् मराय्येधते‘, अर्थात् जिसकी सेवा में धनवान और प्रतापवान इक्ष्वाकु की वृद्धि होती है। इस संज्ञा वाले अन्य पात्र वैदिक-पौराणिक साहित्य मेें भी हैं। ‘राम‘ शब्द विभिन्न एशियाई भाषाओं में है, अधिकतर सकारात्मक आशय वाला। वैदिक साहित्य के ‘राम‘ का शाब्दिक अर्थ रम्य, रमणीय या सुखद जैसा है। राम का एक अर्थ सुखद -आदर्श पुत्र भी माना गया है। इस शब्द को रां या रांड्ा से भी जोड़ा जाता है, जिसका अर्थ ‘लाल‘ है। इसी से रंज या गुस्से में लाल होना निकलता है या ‘जियो मेरे लाल‘ या लल्ला, जहां लाल का अर्थ पुत्र है और दूसरी तरह छत्तीसगढ़ी का लाल के लिए समानार्थी शब्द ‘रंगहा‘, जहां रंग का मतलब ही लाल है। संभव है कि यह खून के रंग के कारण समानार्थी हुआ हो, जैसे अपने पुत्र-पुत्री वंशजों को ‘अपना खून‘ कहा जाता है। 

सब जग सीयराम मय है, यहां सीता-राम के विवाह-संयोग को युग-संधि प्रसंग की तरह देखा जा सकता है। मानव सभ्यता के क्रम में खाद्य-संग्राहक आखेटजीवी काल को त्रेतायुग और कृषिजीवी गोपालक काल का जोड़ द्वापर के साथ बिठाया जाता है। त्रेता के धनुर्धारी राम (परशुधारी एक अन्य परशु‘राम‘), शिकारी हैं और सीता, कृषि-कर्म, हल जोतने से उत्पन्न हैं, द्वापर के गोपालक कृष्ण और हलधर एक अन्य बल‘राम‘ से जुड़ती हुई, यों भी सीता के पिता विदेहराज जनक, सीरध्वज हैं यानि जिनके ध्वज पर सीर-हल हो, मानों वह कृषक समाज के झंडाबरदार हों। गौरी-पूजन के लिए फुलवारी में आई जनकतनया की विशिष्ट ‘शुभदृष्टि‘ का नाजुक प्रसंग है- ‘सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।। रामकथा का बालकांड मांगलिक है ही, वैवाहिक-मंगल, रामकथा का अनूठा नाटकीय-तत्व युक्त प्रसंग भी यही है। छत्तीसगढ़ के पुराने कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय की रचना है ‘मैथिली मंगल‘। उन्होंने सरल भाव से व्यक्त किया है कि जबलपुर के राजा गोकुलदास के यहां विवाह का कल्पनातीत वृहद आयोजन देख कर उनके मन में आया कि राम-सीता का विवाह कितना दिव्य रहा होगा और उसे किस तरह से शब्दों में, काव्य में उतारा जा सकता है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की ही एक अन्य उल्लेखनीय और मनोरम रचना गिरधारीलाल रायकवार जी रचित हल्बी नाटक ‘सीता बिहा नाट‘ है। इस नाटक के संदर्भ में 1998 में मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित (तत्कालीन मंत्री हमारे गृह जिले के डॉ. चरणदास महंत) डॉ. हीरालाल शुक्ल संपादित-संयोजित हल्बी, माड़िया और मुरिया रामकथा के तीन भारी-भरकम खंडों का उल्लेख आवश्यक है, जिनमें गिरधारीलाल जी की यह रचना शामिल है। हमारी संस्कृति में जन्म-मृत्यु के अनिवार्य संस्कार के अलावा विवाह ही सबसे मांगलिक और शास्त्रीय आधार वाला संस्कार है, उल्लेखनीय कि ‘विवाह सूक्त‘ वैदिक ग्रंथों के ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में अपनी विशिष्टताओं सहित शामिल है। एक अन्य उल्लेख, छत्तीसगढ़ सम्मिलित मध्यप्रदेश के दौरान भोपाल में 1970 में ‘रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति’ का गठन किया गया, जिसके संस्थापक हमारे गृहग्राम अकलतरा निवासी पं. रामभरोसे शुक्ल के मानस-मर्मज्ञ पुत्र पं. गोरेलाल शुक्ल जी (आईएएस) थे और भोपाल के इस मानस भवन से तुलसी मानस भारती (मासिक) पत्रिका का प्रकाशन पं. शुक्ल के प्रधान संपादकत्व में आरंभ हुआ।

इस क्रम में छत्तीसगढ़ के राम-साहित्य साधकों का स्मरण आवश्यक है, उन बहुतेरों में से कुछेक-

डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, तुलसी-दर्शन और मानस में रामकथा, जैसी पुस्तकों के लेखक हैं। डॉ. मिश्र की नातिन सुश्री आभा तिवारी की 2021 में प्रकाशित पुस्तक ‘डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र‘ में जानकारी दी गई है कि 1911 के लुइजि पियो टैसीटोरी और 1918 के जे.एन. कार्पेन्टर के बाद बलदेव प्रसाद मिश्र का तुलसीमानस पर तीसरा, हिन्दी में लिखा प्रथम शोध प्रबंध ‘तुलसी दर्शन मीमांसा‘ 1938 में नागपुर विश्वविद्यालय की डी.लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था। डॉ. मिश्र की 122 जयंती पर आयोजित ऑनलाइन परिसंवाद के वक्तव्यों को डॉ. चन्द्र शेखर शर्मा द्वारा संकलित-संपादित कर 2020-21 में पुस्तिका के रूप में ‘मानस के राजहंस, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र‘ शीर्षक से प्रकाशित कराया गया है। इस पुस्तिका में आई जानकारी के अनुसार डॉ. मिश्र के शोध-प्रबंध पर परीक्षक रामचंद्र शुक्ल ने लिखा- ‘उन्होंने वैदिक, पौराणिक और भक्ति-साहित्य के विशाल भण्डार से सामग्री संकलित करके बड़े विवेक के साथ उसका उपयोग किया है। उनका शोध-प्रबंध महान अध्वसाय और व्यापक अध्ययन का परिणाम है।‘ इसी स्रोत का एक अन्य उद्धरण और भी महत्व का है, महावीर प्रसाद द्विवेदी के पत्र का हवाला इस प्रकार है- ‘तुलसी-दर्शन‘ की कापी आपने क्या भेजी मुझे संजीवनी का दान दे डाला। मैं मुग्ध हो गया। आप धन्य हैं। ऐसी पुस्तक लिखी जैसी तुलसी पर आज तक किसी ने न लिखी और न ही आशा है कि आगे कोई लिखेगा। आपने इस विषय में जो विद्वता प्रदर्शित की है वह दुर्लभ है। भैया मिश्र जी मैं रामायण का भक्त हूँ-मुझे मेरे मन की पुस्तक लिखकर भेजी, धन्यवाद। भगवान आपका कल्याण करें।‘ गगर यह कुछ पढ़ते-लिखते मन में सवाल अटका रह जाता है कि इसका मूल स्रोत/दस्तावेज, सुरक्षित और कहीं उपलब्ध हैं?

रायपुर में नृतत्वशास्त्र के प्राध्यापक रहे डॉ. ठाकोरलाल भाणाभाई नायक ने जनजातीय समुदाय में प्रचलित रामकथाओं का सर्वेक्षण कर प्रकाशित कराया था, जिसमें अगरिया जनजाति में प्रचलित रामकथा तथा ‘भिलोदी रामायण‘ की चर्चा है। डॉ. नायक के संपादन में आदिमजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्था, छिन्दवाड़ा से 1964 में छत्तीसगढ़ से जुड़े मुडला अंचल में परधानों की गीतकथा ‘रामायनी‘ का प्रकाशन हुआ था। 

हरि ठाकुर ने ‘छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास‘ शीर्षक लेख द्वारा इस विषय का विस्तार से परिचय दिया था। उनकी 1990 की डायरी में 47 रामकथा-साहित्य की सूची है, जो महाकवि नारायण के रामाभ्युदय महाकाव्य से आरंभ होती है, मगर क्रमांक में आरंभिक 10 इस प्रकार हैं- 1 राम प्रताप-महाकवि गोपाल, 2 तास रामायण-ठाकुर भोला सिंह बघेल, 3 छत्तीसगढ़ी रामचरितनाटक- उदयराम, 4. मैथिली मंगल-शुकलाल प्रसाद पाण्डेय, 5 कोशल किशोर-डा. बलदेव प्रसाद मिश्र, 6 छत्तीसगढ़ी रामायण-पं. सुन्दरलाल शर्मा, 7 वैदेही-विछोह- कपिलनाथ कश्यप, 8 राम विवाह- टीकाराम स्वर्णकार, 9 राम केंवट संवाद-पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र 10 राम बनवास- श्यामलाल चतुर्वेदी (पूरी सूची अन्यत्र उपलब्ध है)।

मुकुटधर पांडेय ने छत्तीसगढ़ी का सामर्थ्य प्रमाणित किया है कालिदास के ‘मेधदूत‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर और मानस के उत्तरकांड का भी छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया है और हेमनाथ यदु ने किष्किंधाकोड का छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया।1992-93 में ‘छत्तीसगढ़ी सरगुजिया गीत नृत्य रामायण‘ प्रकाशित हुई, जिसके संगृहिता लेखक समर बहादुर सिंह देव जी हैं, इस पुस्तक की पहली प्रति तत्कालीन राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा जी को प्रेषित की गई थी, जिसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने इस संग्रह को महत्वपूर्ण मानते हुए इसकी प्रशंसा की थी। अंबिकापुर के ही रामप्यारे ‘रसिक‘ की पुस्तिका सरगुजिहा रामायण है।

इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात डॉ. मन्नूलाल यदु जी ने रामकथा पर कई छोटी-बड़ी पुस्तकों का प्रकाशन कराया। श्री प्रहलाद विशाल वैष्णव ‘अचिन्त‘ का तीन भागों में ‘रमाएन‘ क्रमशः 2013, 2015 तथा 2016 में प्रकाशित हुआ है, पुस्तक के शीर्षक के साथ जिसे ‘श्रीराम कहानी छत्तीसगढ़ी पद‘ कहा गया है। मेरी जानकारी में आए दो अन्य ग्रंथों का उल्लेख- रामसिंह ठाकुर द्वारा रामचरित मानस का हल्बी पद्यानुवाद और हमारे गृह-ग्राम निवासी गुलाबचंद देवांगन का ‘छत्तीसगढ़ी रमायेन‘। यह क्रम लंबा है, इसे यहां विराम देते हुए आगे बढ़ते हैं।

राम के वन-गमन से जुड़े दो रोचक प्रसंग हैं जिसमें पहला भास के ‘प्रतिमा‘ नाटक का है। भास के इस नाटक की विलक्षण नाटकीयता बार-बार चमत्कृत करती है। नाटक के आरंभ में राम के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है ‘सामयिक अभिनय‘ दिखाने की तैयारी हो रही है। सीता की सेविका संयोगवश अशोकपत्र के बजाय वल्कल वस्त्र ले आती है। सीता पहले तो उसे लौटाने को कहती हैं, मगर उनकी इच्छा वल्कल धारण कर देखने की हो जाती है। तभी राज्याभिषेक के लिए बज रहे बाजों की आवाज अचानक थम जाती है और पात्र चेटी कहती है कि मैंने ऐसा सुना है कि राजकुमार का तिलक कर महाराजा वन में चले जायेंगे। इधर महाराजा ने राम का राज्याभिषेक स्थगित कर वन के लिए विदा कर दिया। अब राम सीता से मिलने आते हैं, दासी कहती है राजकुमार आ रहे हैं, आपने वल्कल नहीं उतारा! राम और सीता के बीच वार्तालाप होता है और राम कहते हैं मेरी अर्द्धांगिनी होकर तुमने पहले ही वल्कल पहन लिया, तो समझो मैंने भी पहन लिया। दूसरा रोचक प्रसंग अध्यात्म रामायण का है, जिसमें राम द्वारा सीता को छोड़ कर वन गमन जाने की बात पर सीता का तर्क, आपने बहुत-से ब्राह्मणों के मुख से बहुत-सी रामायणें सुनी होंगी, बताइये, इनमें से किसी में भी क्या सीता के बिना रामजी वन को गये हैं? प्रसंगवश राम वनगमन पर अकादमिक-शोध दृष्टि से आरंभिक लेख एफ.इ. पार्जिटर का है, जो ‘द जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड‘ के अप्रैल 1894 अंक में पेज 231-264 पर प्रकाशित हुआ था।

कालिदास के रघुवंश का आरंभ सदाचारी राजा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा की संतान-कामना से होता है और समापन दिलीप-राम के उन्तीसवीं पीढ़ी वंशज दुराचारी अग्निवर्ण के संतानोत्पत्ति प्रसंग से होता है, यहां अनूठापन है कि अग्निवर्ण की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसकी पत्नी को गर्भ धारण किए देखकर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया। मान लें कि ऐसा गर्भस्थ शिशु को राजसिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में अनुमान करते किया गया हो, किंतु यह निश्चयपूर्वक संभव नहीं था कि गर्भस्थ शिशु पुत्र ही होगा, पुत्री नहीं साथ ही किसी महिला के राज्याभिषिक्त होने का यह प्रसंग विशिष्ट है।

वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड के तिहत्तरवें सर्ग में शंबूक वध प्रसंग में ‘अप्राप्तयौवनं बालं पंचवर्षसहस्रकम्‘ आया है, यानि पांच हजार वर्ष का बालक, जिसे यौवन प्राप्त नहीं हुआ है‘ चौंकाता है। मगर इसकी व्याख्या में बताया जाता है कि वर्ष का अर्थ यहां दिन समझना चाहिए। इस प्रकार बालक की आयु होगी तेरह वर्ष साढ़े आठ माह। बालकांड के प्रथम सर्ग में रामचंद्र दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च’ इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करने का उल्लेख आता है, इन वर्षों को दिन मानने पर अवधि लगभग साढ़े तीस वर्ष होगी और इसमें राज्याभिषेक के समय उनकी आयु के इकतालीस वर्ष जोड़ दें तो राम की आयु साढ़े इकहत्तर वर्ष बनती है। यहां उल्लेखनीय कि युद्धकांड के अंतिम एक सौ अट्ठाइसवें सर्ग में ‘‘राज्यं दशसहस्राणि प्राप्य वर्षाणि राघवः‘ आता है यानि राघव ने राज्य पा कर दस सहस्र वर्षों तक राज्य किया, यहां टीकाकार दस को ग्यारह बोधक मान लेते हैं। 

सीता रसोई से जुड़ी दो कथाएं, जिनका संदर्भ मेरी जानकारी में किसी ग्रंथ में नहीं, इन्हें मैंने लोक में प्रचलित सुना है। पहली, जिसमें कहा जाता है कि रामभक्तों को कटहल नहीं खाना चाहिए, क्योंकि भगवान राम ने स्वयं अपने भक्तों को इसे खाने से मना किया है। हुआ यों कि रामचंद्र को सदल-बल ससुराल में भोज का न्योता मिला। भोज में सारी ऋक्ष-सेना को तो जाना ही था। रामचंद्र जी को चिंता हुई कि पंगत में बैठे बंदर किस तरह पंगत-अनुशासन का पालन करते हुए भोजन करेंगे। हनुमान से मशविरा हुआ और नेता जामवंत को जिम्मा सौपा गया। जामवंत ने वानर-यूथ को समझाया कि पंगत में मेरी ओर नजर रखना, जैसा मैं करूं, तुम सब भी वही करना, अनुकरण करना। पंगत बैठी, भोज आरंभ हुआ। अनुशासनबद्ध बंदर कसमसाते रहे, भोजन स्वादिष्ट मगर उसमें उन्हें कोई आनंद नहीं, खाने से अधिक ध्यान जामवंत पर। भोज में कटहल की सब्जी परोसी गई थी। जामवंत कटहल का बीज खाने के लिए उसे बीच से दो भाग करते हैं और पका गूदा निकालने के लिए नीचे से दबाते हैं, यहीं गड़बड़ हो जाती है, बीज का गूदा उछल जाता है, इस चूक को संभालने के लिए जामवंत बीज के उछले टुकड़े को लपकने की कोशिश करते हैं, जो और भारी चूक साबित होता है। सारे बंदरों को लगता है कि कटहल के बीज को इसी तरह खाना है, बस उछल-कूद शुरू और सारी पंगत, सारा भोज मटियामेट। ससुराल में जगहंसाई हो जाती है। और फिर रामचंद्र जी का अपने भक्तों के लिए फरमान जारी ... 

दूसरी कहानी पाक-पारंगत सीता जी की, जिसमें सारे ऋषि-मुनियों को भोज पर आमंत्रित किया गया है। पाकशाला की सारी जिम्मेदारी स्वयं सीता जी ने अपने पर ले रखी है। तरह-तरह के सुस्वादु व्यंजन। पंगत बैठती है, सारे आगंतुक एक-एक व्यंजन का स्वाद लेकर भोज का आनंद लेने लगे। सभी ‘आइटम‘ एक से बढ़ कर एक। एक अपवाद थे, जिन्होंने परोसा गया सारा भोजन-व्यंजन एक साथ मिला दिया था, ‘सड्ड-गबड्डा‘ और ‘जेंव‘ रहे थे। जिन्होंने देखा, भृकुटि तन गई, ऐसे सुस्वादु व्यंजनों के साथ ऐसी जाहिलाना हरकत! हालत आ गई कि उनसे पूछ लिया गया कि आप ऐसा गड़बड़ क्यों कर रहे हैं?, ऐसे में व्यंजनों के स्वाद का क्या ही पता लगेगा, सारी रसोई का अपमान है यह। उन्होंने कहा- मैं पूरा स्वाद लेकर खा रहा हूं, दरअसल दाल में शायद चुटकी भर नमक कम है। सब लोग हैरान। बात सीता जी तक पहुंची। सीता ने उन ऋषि को आ कर प्रणाम किया और बताया कि मेरी रसोई की सच्ची परीक्षा इन्होंने ही की है, वास्तव में दाल बनाते हुए नमक कम पड़ गया था, जब तक नमक आता, तब तब पंगत बैठने लगी तो जितना नमक था, एक चुटकी कम, उतना ही डालकर दाल बनी और परोस दी गई। टीकाकार बताते हैं कि भोजन का षटरस संतुलन वही है, जब वह समरस हो। तब लगता है कि गांधी के अस्वाद में शायद समरसता का रामरस होता था। 

एक बार कुंभकर्ण ने रावण से पूछा- तुम माया द्वारा राम का वेश धारण करके क्यों नहीं सीता को छलपूर्वक भोगते हो? रावण का उत्तर था- क्या करूं, रामरूप धारण करने पर, मेरी वासना ही शांत हो जाती है, सारी कामतृषा ही समाहित हो जाती है। और अब में तो रूप धरने की भी जरूरत नहीं, ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।‘ 

इसी तरह हरि अनंत, हरि कथा अनंता ..., राम चरित सत कोटि अपारा ... ... ... तो फिर इसी तरह सीता की रसोई हो न हो, षटरस-समरस हो न हो, रामनाम रस पीजै मनवा ... 


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प्रसंगवश- वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड, तिरानबेवें सर्ग में पात्र-रूप में स्वयं वाल्मीकि द्वारा कुशीलव- कुश और लव को ‘कृत्स्नं रामायणं काव्यं गायतां परया मुदा‘ संपूर्ण रामायण-काव्य का गान करने के लिए कहने-गायन करने का उल्लेख आता हैं। ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जहां ठिठकना होता है, उनमें से एक अरण्यकांड के नवें सर्ग में सीता का कथन है- दूसरों के प्राणों की हिंसारूप जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं। वही दोष आपके सामने भी उपस्थित है ... मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूं तथा यह शिक्षा भी देती हूं कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना वैर के ही दण्डकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। वाल्मीकि रामायण का ही अन्य प्रसंग बहुत रोचक और विशिष्ट है। सुंदरकांड के तीसवें सर्ग में हनुमान-सीता के बीच वार्तालाप का प्रसंग, चूंकि उनका आपस में परिचय नहीं होता, हनुमान सोचते हैं कि वानर होकर भी मैं संस्कृत वाणी का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे छद्मवेशधारी रावण समझ लेंगी, ऐसी दशा में मुझे अयोध्या के आसपास की साधारण जनता वाली सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए, फिर भी मेरे वानर-रूप मुख से मानवोचित भाषा सुन कर वे भयभीत हो जाएंगी, अंततः बहुत सोच-विचार कर हनुमान ने रास्ता निकाल लिया। 

कुछ अन्य बिंदु संक्षेप में- मानस रामकथा, शिव-पार्वती संवाद या प्रश्नोत्तर, जिज्ञासा-समाधान है। देवताओं में शिव बड़े किस्सागो हैं। सबसे पुरानी लौकिक कथा ‘वृहत्कथा’ भी शिव द्वारा पार्वती को सुनाए गए किस्से है। यहां पार्वती रामकथा से परिचित तो हैं, लेकिन उनके मन में कई जिज्ञासा-शंका है, जिसे दूर करने के लिए वे शिव जी से, उन शंकाओं का समाधानकारक रूप में रामकथा सुनना चाहती हैं। 

एक प्रसंग लंका विजय के बाद सबको विदा करते हुए हनुमान की बारी आने का है। रामचंद्र जी हनुमान के प्रति शायद सर्वाधिक ‘थैंकफुल‘ हैं। वे अपनी भावना हनुमान से व्यक्त करने के लिए सोचते हुए ठहर जाते हैं। बहुत बारीक बात आती है, रामचंद्र जी कहना चाहते हैं कि मुझ पर आए संकट में जिस तरह तुम सहायक बने वैसा तो और कोई हो नहीं सकता। हनुमान ‘तुम मम भरत सम भाई’ और ‘तुम मम प्रिय लछिमन ते दूना‘ हैं ही। उन्हें लगता है यह कहना कि कभी इतना बड़ा कोई संकट तुम पर आए तो ..., मगर इसमें तो कहीं न कहीं अपने प्रिय के प्रति अनिष्ट की आशंका है, जो कतई ठीक नहीं, इसलिए रामचंद्र जी निःशब्द हैं। 

इस नोट की तैयारी में गीता प्रेस गोरखपुर से छपे मानस के संस्करणों से पूर्व के प्रकाशन, जिनमें काशी नागरी प्रचारिणी सभा का प्रकाशन मुख्य है, के बारे में सभा के प्रधानमंत्री श्री व्योमेश शुक्ल से कई महत्वपूर्ण जानकारी मिली। माताप्रसाद गुप्त के पाठालोचन का काम फिर से देखने का अवसर बना। मूल तक तो पहुचना और पहुच गए तो अपने समझ की सीमा है, मगर पता लगता है कि तुलसीमानस के अलग-अलग पाठ-पांडुलिपियां हैं, ज्यों वाल्मीकि रामायण के मुख्य तीन- दाक्षिणात्य, गौडीय और पश्चिमोत्तरीय पाठ हैं।

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