सीय राममय सब जग जानी। करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। 
पहले लोक और राम के याम-आयाम, पर कुछ विचार कर लें। ‘लोक‘ का अर्थ ‘फोक‘ जैसा सीमित नहीं, व्यापक रूप से यह ‘लौकिक‘ दृश्यमान जगत का पर्याय है, जिससे अवलोकन बनता है और आंचलिक भाषाओं, जैसे भोजपुरी में लउक-दिख रहा है। छत्तीसगढ़ी में यदा-कदा इस्तेमाल होता है, लउकत-गरजत, यानि बादल का गरजना और बिजली की चमक। यह इसलिए कि अंधेरी रात में बिजली चमकती है तो सारा दृश्य क्षण भर के लिए प्रकाशमान हो जाता है, ‘लउक‘ जाता है। छत्तीसगढ़ी में ऐसा ही एक अन्य प्रयोग है- ‘लोखन-लोकन या लउकन ले बाहिर‘, यह ऐसी बात के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष न किया जा सके, इसलिए अजीब, अनहोनी, अविश्वसनीय के आशय में भी प्रयुक्त होता है। अंगरेजी का ‘लुक‘ भी इसी मूल से आता है और त्रिलोचन, राजीवलोचन का ‘लोचन‘ तो है ही।। 
लोक-दृष्टि और राम को वाल्मीकि ने जोड़ा है कि- ‘यश्च रामं न पश्यत्तु यं च रामो न पश्यति। निन्दितः सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हते।। कुछ-कुछ ‘राम को न देखा तो ..., राम ने न देखा तो क्या देखा‘ जैसा। 
दूसरा शब्द ‘राम‘, जिसकी विस्तार से चर्चा कामिल बुल्के ने की है और इसका रोचक शास्त्रीय निरूपण कुबेरनाथ राय ने किया है। यहां संक्षेप में, ‘राम‘ शब्द ऋग्वेद में एक राजा के व्यक्ति नाम की तरह आया है, उसे दुःशीम पृथवान और वेन नामक राजाओं की तरह प्रशंसनीय दानवीर बताया गया है, इसे करपात्री जी ने रामायण के ही राम माना है। तथा इक्ष्वाकु उल्लेख इस प्रकार है- ‘यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान् मराय्येधते‘, अर्थात् जिसकी सेवा में धनवान और प्रतापवान इक्ष्वाकु की वृद्धि होती है। इस संज्ञा वाले अन्य पात्र वैदिक-पौराणिक साहित्य मेें भी हैं। 
भद्रो भद्रया सचमानः आगात, स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन, रूशर्द्भिर्वर्णेरभि राममस्थात्।। (ऋग्वेद 10-3-3)
इस एक वैदिक ऋचा में संपूर्ण रामकथा संक्षेप में आ जाती है, ऐसी व्याख्या भी प्रचलित है- भजनीय रामभद्र, भजनीय सीता द्वारा सेवित होते हुए उनके साथ वन में आए। सीता को चुराने के लिए राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में रावण आया। वह सीता को चुरा कर ले गया। राम द्वारा रावण के मारे जाने पर अग्नि देवता राम की पत्नी सीता के साथ राम के सामने तेज के साथ उपस्थित हुए और असली सीता को उन्हें सौंप दिया। 
एक बार कुंभकर्ण ने रावण से पूछा- तुम माया द्वारा राम का वेश धारण करके क्यों नहीं सीता को छलपूर्वक भोगते हो? रावण का उत्तर था- क्या करूं, रामरूप धारण करने पर, मेरी वासना ही शांत हो जाती है, सारी कामतृषा ही समाहित हो जाती है। और अब में तो रूप धरने की भी जरूरत नहीं, ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।‘
इसी तरह हरि अनंत, हरि कथा अनंता ..., राम चरित सत कोटि अपारा ... और ‘यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत् तिष्ठति मेदिनी। यावच्च मत्कथा लोके ... जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, जब तक पृथ्वी रहेगी, संसार में यह कथा प्रचलित रहेगी...‘ 
तो फिर इसी तरह सीता की रसोई हो न हो, षटरस-समरस हो न हो, रामनाम रस पीजै मनवा ... 
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राम का नाम लिख दो, 
कैसा भी पत्थर तैर जाता है, 
पार लग जाता है, 
जैसे मेरी यह चौपदी।
 
 
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