Sunday, October 19, 2025

ठाकुरबाड़ी

गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर का कुटुंब वृत्तांत है, अनिमेष मुखर्जी की ‘ठाकुरबाड़ी‘ इस किताब का पता लगने और हाथ में आने के बाद पन्ना खोलते हुए जैसा सोच रहा था, किताब वहीं से शुरू हुई, लगा कि लेखक ने माइंड रीड कर लिया है, वस्तुतः, यही समकालिक-विस्तार है। खुलासा यह कि मैं अपने बंगाली परिचितों के लिए सोचा-कहा करता हूं कि वे टैगोर, बोस, विवेकानंद और सत्यजित रे के लिए इतने आब्सेसिव क्यों हो जाते हैं, मेरी ऐसी सोच के पीछे यह होता है कि हम भी उन्हें कम नहीं मानते भाई। तो इस किताब ‘शुरू होने के पहले‘ की शुरुआत है- ‘यार तुम बंगाली लोग टैगोर को लेकर इतना ऑब्सेसिव क्यों होते हो? अगर आप एक बंगाली है, तो संभव है आपने यह सवाल कई बार सुना हो। अगर आप बंगाली नहीं हैं, कि संभव है कई बार आपका मन हुआ हो यह सवाल पूछने का।‘ 

पूरी किताब एक रोचक शोध-पत्र है, ऐसी कि हर पैरा में सूक्ति या उक्ति या कोई चौंका सकने वाली ऐसी रोचक जानकारी, जो संभव है कि आपको रही हो मगर पक्का स्रोत पता न होने के कारण मन में स्मृति में अधकचरी की तरह दर्ज हो। शुरू में ही बात आती है कि टैगोर ने किसानों के लिए माइक्रो-फ़ाइनेंस क्रेडिट सिस्टम की शुरुआत। जिसका उद्देश्य किसानों को साहूकारों के चक्र से बचाना था। लगभग 150 साल बाद इसी कॉन्सेप्ट को आधार बनाकर मोहम्मद यूनुस ने अर्थशास्त्र का नोबेल जीता। यूनुस ने कहीं ज़िक्र तक नहीं किया कि वे जिस विचार के लिए पुरस्कार ले रहे हैं, उसका मौलिक विचार उनका राष्ट्रगान लिखने वाले कवि का है। ... कर्जा लेने वाले ज्यादातर किसान मुसलमान थे और साहूकार हिंदू। कहा गया कि गुरुदेव हिंदुओं का हित मारकर मुसलमानों का भला कर रहे हैं। विडंबना यहीं ख़त्म नहीं होती, बंगाल में वामपंथ बुद्धिजीविता के नाम पर खूब फला-फूला। इन वामपंथियों ने अपने सबसे बड़े बुद्धिजीवी प्रतीक को हमेशा, ज़मींदार और ग़रीबों का दुश्मन दिखाकर प्रचारित किया। 

‘घ्राणेन अर्ध भोजनम्‘ से जाति-धर्म च्युत होता राढ़ी, कुशारी, पीराली, ठाकुर, टैगोर परिवार ऐसी सामाजिक जकड़बंदियों से मुक्त हो कर किस तरह सकारात्मक आधुनिकता की ओर बढ़ता है, जिसमें जोड़साँको और ठाकुरबाड़ी है तो इसके समानांतर पाथुरियाघाट भी है, और चोरबागान जैसी छोटी शाखाएं भी, ढेर सारी करनी और कुछ-कुछ करम-गति भी है, यह सब विस्तार और बारीकी से जानना रोचक है। इसी परिवार की विधवा महिला रामप्रिया अदालत गईं, यही विवाद ठाकुर परिवार के बंटवारे का कारण बना और माना जाता है कि विधवा के संपत्ति हक का अदालत तक पहुंचा यह पहला मामला है। 

पत्नी मृणालिनी के अलावा, दिगंबरी देवी, इंदिरा देवी, ऐना-अन्नपूर्णा-नलिनी, विक्टोरिया की नारी कथा-व्यथा के चटखारे के बीच सामान्यतः यह नहीं उभर पाता कि इसी परंपरा में सरला देवी चौधरानी, महात्मा गांधी और विवेकानंद, दोनों जिनके प्रशंसक थे। गांधी ने उन्हें स्प्रिचुअल वाइफ कहा, खादी के लिए मॉडलिंग कराया और विवेकानंद उन्हें साथ विदेश लेकर जाना चाहते थे। यही सरला अपने बेटे की शादी इंदिरा (गांधी) से कराना चाहती थीं। इसी क्रम में शिवसुंदरी देवी टैगोर, स्वर्णकुमारी, कादंबरी, नीपोमयी देवी, प्रज्ञासुंदरी देवी, सुनयनी और ज्ञानदा यानी ज्ञाननंदिनी देवी टैगोर भी हैं। तब साड़ी को परंपराओं के विरुद्ध और अश्लील मानने वाले समाज में ज्ञानदा के छद्मनाम से विज्ञापन छपा, जिसमें बताया गया था कि आधुनिक महिला के साड़ी पहनने का तरीका क्या है, जो ब्लाउज़, शमीज़, पेटीकोट, ब्रोच और जूतों के साथ साड़ी पहनती हैं। ज्ञानदा ने ही अंग्रेज़ी तारीख के हिसाब से जन्मदिन मनाने की शुरुआत की, जिसमें केक कटता था और हैप्पी बर्थ डे विश किया जाता था। सिनेमा और थियेटर में टैगोर परिवार की तमाम बहुएँ खुल कर काम करती थीं। 

पुस्तक का खंड 2 ‘कोलकाता से अलीनगर‘ में क्लाइव और पलासी की बात में पाठक यों डूब जाता है कि टैगोर से ध्यान हट जाता है, इसे लेखन का बहकना मान लें, जैसा लेखक खुद मानते हैं, तो भी यह बहकाव बाहोशोहवास है। बुनी हुई हवा कहलाने वाला ढाका का मलमल, जगत सेठों की रईसी, घसीटी बेगम, सिराजुद्दौला की बेगम लुत्फ़-उन-निसा, जिसके लिए प्लासी के नशे में चूर जाफ़र और उसके बेटे ने प्रस्ताव भिजवाया कि बाप-बेटे किसी एक से शादी कर लो, मुर्शिदाबाद में ‘नमकहराम ड्योढ़ी‘ कहलाने वाली जाफ़र खान की इमारत, 1610 में दुर्गा पूजा का आरंभ, भारत की पहली न्यायिक हत्या मानी गई महाराजा नंदकुमार की फांसी। यह खंड कहावत पर समाप्त होता है कि- ‘प्लासी के बाद नवाबों को धोखा मिला, क्लाइव को पैसा और जनता को अकाल मिला। 

सूचना/सूक्ति की तरह आए कुछ वाक्य- ‘भारतीय जाति व्यवस्था उससे कहीं ज़्यादा जटिल है, जितनी सोशल मीडिया पर दिखती है।‘ ... ‘भारतीय ज़मींदारों और बाबुओं की संपत्ति उसी पैसे पर टिकी हुई थी जो भारत में नील की खेती में बुने हुए शोषण और चीन को अफ़ीम की लत लगवाकर आ रहा था।‘ ... ‘जो पैसे का बंदरबाँट ईस्ट इंडिया कंपनी ने किया उसे मैनेज करने में पढ़े-लिखे बंगाली काम आए और इन बंगाली बाबुओं ने भी इस प्रक्रिया में काफ़ी पैसा कमाया। यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने और फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए।‘ ... ‘राजनीति जब इतिहास का इस्तेमाल करती है, तो कई बार पुराने खलनायकों को नायक बना देती है। फिर शताब्दी भर बाद लोग बहस करते रहते हैं कि फ़लाँ, नायक था या खलनायक।‘ ... ‘माना जाता है कि अंग्रेज़ों ने भारतीय क्लर्क्स के लिए बाबू शब्द इसलिए इस्तेमाल करना शुरू किया, क्योंकि यह नकलची बंदरों ‘बबून‘ से मिलता-जुलता था।‘ ... ‘उस ज़माने में राजा राम मोहन राय समेत कई प्रगतिशील विद्वान काले जादू और तंत्र-मंत्र में यकीन रखते थे और इस पर शोध करते थे।‘ ... ‘बेचारा हर समय खोया-खोया और उदास रहता था। रह-रहकर दर्द भरी आहें भरता और दारू में दवा की तलाश करता। ज़माने को पता है कि ऐसे लक्षण दुनिया भर में एक ही बीमारी के होते हैं। लोगों ने फौजी से पूछा कि दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है। तो उसने बताया कि उसके अपने देश में उसे किसी कन्या से प्रेम था।‘ ... मेरी और अधिक पसंद की बातें हैं, जिन्हें किताब में ही सिमटे रहने दे रहा हूं।

टैगोर और उनके परिवार पर न जाने कितना विपुल उपलब्ध है, मुझ जैसे गैर-बंगला पाठक के लिए भी हिंदी और अंग्रेजी में ढेरों सामग्री है, जिसमें डूबें तो लगता है कि इसके बाद भी क्या पढ़ना रह जाएगा। आप ऐसा सोचते हों या इन सबसे कोई नाता न हो तब भी यह पुस्तक पठनीय है। टैगोर जानकारों को भी लगेगा कि ऐसी कोई बात नहीं जो कुछ अलग/बेहतर न कही जा सके, अल्टीमेट कुछ भी नहीं। सब कुछ होना बचा रहेगा ... की तरह। यह किस तरह चौंकाने वाली जानकारी है कि टैगोर ने बॉर्नविटा, गोदरेज साबुन, लिपटन चाय जैसे उत्पादों के लिए न सिर्फ मॉडलिंग की, उनके लिए कॉपी भी लिखी। 

टैगोर ने बुढ़ापे में नंदलाल बसु से कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में जितने भी चित्र बनाए, उनमें कादंबरी की आँखे बनाने की ही कोशिश की। ... उनका प्रसिद्ध गीत है, ‘खैला भाँगार खैला खेलबी आए।‘ यानी आओ खेल ख़त्म कर देने का खेल खेलते हैं। 

कुल जमा, किताब मुझे ‘अच्छी लगी‘ कहना काफी नहीं होगा यह कहना जरुरी है कि किताब ‘अच्छी है‘। किताब से प्रभावित हूं, अतिशयोक्ति हो सकती है, यह भी संभव है कि असर कुछ समय बाद कम हो जाए, लेकिन पूरी जिम्मेदारी से अनुशंसा कर सकता हूं कि सुरुचिसंपन्न पाठक किताब के लिए ‘पैसा वसूल‘ जैसी चालू बात नहीं कह सकेगा। हां! किताब का अनुवाद, हो सकता है टेगोर पर हिंदी से बंगला होने के कारण खुले मन से स्वीकार न हो, मगर अंगरेजी अनुवाद का सवागत, शायद मूल हिंदी से अधिक होगा।

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