‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ कहे जाने वाले भोरमदेव में शब्दों के साथ भटक रहा हूं। यह भटकना, रास्ता भूलना नहीं, रास्ते की तलाश भी नहीं, बल्कि मनमौजी विचरण है। भोरमदेव, शब्द पर बहुत सी बातें कही-लिखी गई हैं, भोरमदेव, बरमदेव है, ब्रह्म, बूढ़ादेव, बड़ादेव, इतने मत-मतांतर कि भरम होने लगे। अलेक्जेंडर कनिंघम 1881-82 में गजेटियर के हवाले से कहते हैं- The Great Temple of Boram Deo, or Buram Deo। भोरम के करीब का छत्तीसगढ़ी शब्द है, भोरहा यानी भ्रम, संदेह या भूल। शायद इसी भूल-भटक में राह सूझे, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़कर, उसके आसपास, अगल-बगल। कुछ नादान तोड़-फोड़ करनी हो तो ‘भो!रम देव‘, ‘भोर-म-देव‘, हे देव, भोर होते ही तुझमें मेरा मन रमा रहे।
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| भोरमदेव मंदिर |
भोरमदेव, स्मारक का नाम है न कि गांव का। इस स्मारक के साथ मड़वा महल और छेरकी महल भी हैं, गांव हैं- छपरी और चौंरा। इनमें छपरी का छापर, छावनी या छप्पर नहीं, बल्कि सलोनी मिट्टी से आया होगा, इसी तरह चौरा का ताल्लुक कबीरपंथी मान्यताओं से जुड़ा होना चाहिए। एक गांव लाटा है, जिसे लाटा-बूटा या लता-नार से संबंधित माना जाना है, मगर यह भी ध्यान रहे कि लाटा, गुफा, सुरंगनुमा, संकरे-बंद घिरे स्थान का- जहां लेट कर, सरक कर, रेंग कर जाना पड़े, का भी पर्यायवाची होता है। भोरम और हरम शब्द आसपास हैं, पास ही गांव है ‘हरमो‘, ईंटों वाली महलनुमा संरचना ‘सतखंडा हवेली‘ के कारण यह गांव चर्चित है। इसे कुछ ‘हरम‘ से जोड़ कर देखते हैं तो दूसरी ओर एक आस्था ‘महाप्रभु वल्लभाचार्य‘ से जुड़ी है, जिससे संबद्ध कर हरमो को ‘हरि-नू‘, गुजराती ‘हरि का‘ भी मानने वाले हैं। इतिहास में काल-निर्धारण की दृष्टि से यह क्षेत्र फणिनाग, कलचुरि वंशजों, मंडला के गोंड़ तथा मराठों से जुड़ता है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में योद्धा स्मारक और सती स्मारक प्रतिमाएं शक्ति संतुलन के लिए होने वाले युद्धों का प्रमाण हैं।
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| सतखंडा हवेली, हरमो |
यह कछारी जमीन वाला इलाका है। जंगल-पहाड़ नदी-नाले और बांध-तालाब से बची रेतीली जगह- कछार, जिस पर छोटी और कंटीली झाड़ियों वाली वनस्पति, कछार में टिकने के लिए जड़ें मजबूत होनी चाहिए। कछार, धान के लिए उपयुक्त नहीं, लेकिन धान से ही तो काम नहीं चलता। जलधाराओं के नजदीक और पानी उतर जाने पर पाल कछार और उससे दूर पटपर कछार। यहां एक और कछार है- सरकी कछार, इस नाम की कई शास्त्रीय व्याख्या होती है, यह भी माना जाता है कि छेरकी ही सरकी बन गया, संभव है, क्योंकि स-द, छ-स होता रहता है, ज्यों रायपुर के पास का गांव छेरीखेड़ी-सेरीखेड़ी। सरकी का जोड़ साकना है यानी रेंगना या खिसकना, छत्तीसगढ़ी का सलगना- पेट के बल सरक-सरक कर चलान, सरीसृप की तरह। मगर यह भी संभव जान पड़ता है कि यह सरकी-चटाई या टाट (ज्यों टाटीबंद) यानि समतल-पटपर का समानार्थी है मगर ‘दादर‘ से कुछ अलग।
संकरी नदी पर दुरदुरी आता है, जो तुरतुरिया, खरखरा, सुरसुरी की तरह पानी के बहाव से होने वाली ध्वनि से बना शब्द है। मगर यह सोचने का रास्ता दिखाता है कि जलधारा का बहाव कैसा है, स्थान पथरीला, रेतीला, चौड़ा-संकरा, छोटा-लंबा, कम-अधिक ऊँचाई वाला, धाराओं में बंटा हुआ या अन्य कुछ। जिस तरह का नाम है, यानि नामानुरूप ही ध्वनि सबको सुनाई देती है या इस पर सुनने वाले और आंचलिक भाषा का भी प्रभाव होता है। जलधाराओं की बात हो तो गंगा का स्मरण होता ही है और गंगा के लिए कहा जाता है- ‘गं गं गच्छति गंगा‘।
बजरहा यादव जी ठेठवार मिले, मैं पूछता हूं- देसहा, कनौजिया, कोसरिया, झेरिया, बरगाह, महतो? मुस्कुरा कर छोटा सा ‘पॉज‘ देते मेरे इस ‘ज्ञान‘ ध्वस्त करते हुए गर्व से बताते हैं-दुधकौंरा। दुधकौंरा सुनकर पहले तो दूधाधारी-दुग्धआहारी याद आया फिर ठेठवारों के ‘कौंराई‘ का। मैं भी हार मानने को तैयार नहीं, कभी पाली-कटघोरा की ओर किसी कौंराई ठेठवार से मिला था, कौंराई से तुक जमाने की कोशिश करता हूं, वे टस से मस नहीं होते। मड़वा महल में बैठे हैं, आसपास छेरी चराते हैं। अब इन दोनों महलों मड़वा और छेरकी की ओर ध्यान जाता है। महल, पत्थरों वाली पक्की इमारत के कारण नाम पड़ा होगा और मड़वा, इस मंदिर के साथ जुड़ी रोचक बात कि मंदिर के सामने का स्तंभयुक्त मंडप, शादी के मड़वा जैसा है साथ ही इस स्मारक का एक नाम ‘दूल्हादेव’ मंदिर प्रचलित रहा है। इस मंदिर की बाहिरी दीवार पर जंघा में विभिन्न मिथुन मूर्तियां हैं, कुछ अजूबी भी। गर्भगृह के सामने से बाईं ओर परिक्रमा शुरू करें तो, काम-कला वाली मिथुन प्रतिमाओं का ‘अजीबपन‘ बढ़ता जाता है और आखीर पहुंचते तक शिशु को जन्म देती नारी प्रतिमा है। मिथुन प्रतिमाओं के कारण ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के नाम से इसकी ख्याति रही, खजुराहो काम-कला वाली मिथुन मूर्तियों का पर्याय बन गया। मंडपयुक्त संरचना, मड़वा वाले इस महल की मूर्तिकला से यह मान लिया गया है कि इस मंदिर की दीवार पर विवाह उपरांत गृहस्थ जीवन के काम पुरुषार्थ के लिए ‘कामसूत्र‘ का शिल्पांकन किया गया है, जो नर-नारी समागम-संसर्ग से संतानोत्पत्ति करते वंशवृद्धि के ज्ञान देने वाली मूर्तियों में जीवंत प्रशिक्षण वाली पाठशाला जैसा है। कहा जाता है, यहां भाई-बहन का साथ जाने का निषेध है, मगर ऐसा अब तक नहीं सुना कि विवाह के बाद इस मंदिर के दर्शन और परिक्रमा करने का नियम है।
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| पश्चिमाभिमुख मडवा महल मंदिर दक्षिणी जंघा पर प्रतिमाएं |
कछार और छेरकी या छेरी यानि बकरी-बकरे को जोड़ कर सोचने का प्रयास करता हूं। छेरकी महल के लिए कहा जाता है कि छेरी चराते हुए, बरसात हो जाने पर बकरी चराने वाले चरवार इस मंदिर में शरण लिया करते थे, संभव है मगर लगता है कि इस कछारी इलाके में गोपालक भी बड़ी तादाद में बकरा-बकरी पालन करते हैं इसलिए छेरी-चरवार हैं। फिर बात आती है कि क्या कछार और छेरी का रिश्ता शब्द ‘छ-र‘ से आगे भी कुछ है। गोवंश और अजवंश के एक खास अंतर की ओर ध्यान जाता है। अजवंश की उपरी और निचली, दोनों दंतपंक्तियां होती हैं, जबकि गोवंश की उपरी दंतपंक्ति नहीं होती, इसलिए दोनों की चराई में अंतर होता है। संभव है कि सामान्य मैदानी घास-पात गोवंश के चरने भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त होता हो और कछारी भूमि की वनस्पति अजवंश, बकरे, घोड़े और हिरण परिवार के जीवों के लिए। ‘हरिन छपरा‘ गांव भ दूर नहीं है। खैर! अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र न हो तो उस पर बहुत बातें करना अपनी जांघ उघाड़ने जैसा है, फिर भी इतना तो मुंह मारा ही जा सकता है।
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| छेरकी महल मंदिर |
यहां एक परत और है, छेरकी महल के आसपास लीलाबाई यादव जी मिल जाया करती थीं और पूछने पर धाराप्रवाह कहानी सुनाती थीं- देवांसू राजा बिना महल के राखय छेरिया, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरी-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आही अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हियाय हे। त आघू छेरी के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भुईयां म गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरी लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे।
मैदानी छत्तीसगढ़ के गांवों में गुड़ बनाने के लिए सामुदायिक गन्ने की पैदावार, सामुदायिक रूप से बरछा में ली जाती थी। बरछा, तालाब के नीचे की भूमि होती थी। अब भोरमदेव, कवर्धा क्षेत्र की एक पहचान शक्कर कारखाना और गन्ना उपजाने वाले इलाके की भी है। यहां संकरी नदी है। छत्तीसगढ़ में सांकर, संकरी जैसी संज्ञाधारी कई-एक हैं, जिनमें ओड़ार संकरी, संकरी-भंइसा, संकरी-कोल्हिया जैसे ग्राम नाम और संकरी नदी को इन सब के साथ जोड़ कर देखना होगा। संकरी, वर्णसंकर है? सांकर यानी संकल-जंजीर है? संकरा यानी कम चौड़ा है? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘अलकर सांकर‘। संकरी नदी के करीब का एक नाम चैतुरगढ़-कटघोरा-कोरबा वाली शंकरखोला की जटाशंकरी-अहिरन। इस तरह संकरी, शिव-शंकर के पास भी है। और क्या इसका शर्करा-शक्कर से जुड़ा होना संभव है। पुराने अभिलेखों में शर्करापद्रक, शर्करापाटक, शर्करामार्गीय जैसे स्थान-क्षेत्र नाम आते हैं, ये नाम क्या शक्कर से संबंधित हैं या नदी के रेत-कण को महिमामंडित किया गया है- बुझौवल तो है ही, ‘बालू जैसी किरकिरी, उजल जैसी धूप, ऐसी मीठी कुछ नहीं, जैसी मीठी चुप।‘
जेन अभ्यास होता है, जिसमें सारे विचार ‘मू‘ के अव्यक्त में पहुंचकर मौन हो जाते हैं, ‘चुप‘।






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