‘युवा पीढ़ी गुमराह है, भाषा पर संकट है, रसातल में जा रहा है समाज, भ्रष्टाचारियों का राज है, हमारी विरासत नष्ट हो रही है, पर्यावरण खराब हो रहा है, जल-जगल-जमीन कुछ नहीं बचेगा‘ मानों आकाशवाणी हो रही हो या कोई मदारी डुगडुगी बजा रहा हो, बरबादी का मंजर दिखाने वाला हो या धर्मगुरू, जो कहे कि बस अब मेरी शरण में ही आ कर तुम बच सकते हो। वस्तुतः ऐसी सोच थके-पिटे-हारे की लाचार गुहार है।
संभव है कि उन्हें वास्तव में ऐसा लगता हो, घबरा रहे हों, भयभीत हों, तो स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि इस दिशा में, स्थिति को सुधारने मे लिए वे स्वयं क्या कर रहे हैं। जो बिगड़ते हालात के प्रति सजग है, उसे हालात ठीक रखने के लिए सबसे आगे आ कर पहल करनी चाहिए। मगर शायद बस, जजमेंटल हो कर, जज का महत्व पाने की आकांक्षा, देखो मैंने कहा था न। भाव कुछ इस तरह होता है कि मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूं, सजग हूं, देख पा रहा हूं और तुम बेखबर, देख नहीं पा रहे हो, मैं दिखा रहा हूं, तुम जुट जाओ ठीक करने में, मैं देखता रहूंगा और तुम्हें टोकता सुधारता रहूंगा और कुछ सुधरे तो तैयार रहूंगा, यह कहते कि मैं ही वह महान हूं, जिसने इस ओर ध्यान दिलाया था, इसलिए सारा श्रेय मेरा है, मैं ही वह युग-पुरुष हूं, मेरा सम्मान करो।
किसी कवि की रचना है-
यकायक पता चला कि टोकनी नहीं है
पहले होती थी
जिसमें कई दुख और
हरी-भरी सब्ज़ियाँ रखा करते थे
अब नहीं है...
दुख रखने की जगहें
धीरे-धीरे कम हो रही हैं।
इन पंक्तियों को इस तरह पूरा करना चाहूंगा-
या दुख बढ़ रहे हैं?
अब, न तब से अलग होता, न जब से।
वह मन का हिंडोला है,
जिसमें हम झूलते होते हैं।
स्थितियों में बदलाव संभव है। यह मानी हुई बात है कि परिवर्तन लगातार होता रहता है, हो रहा है। भौतिक प्रगति के दौर में इसकी गति तेज हुई है, साधन-माध्यम बदले हैं, इसलिए दैनंदिन जीवन-शैली में परिवर्तन आवश्यक हो गया है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि सब ठीक नहीं चल रहा है। यदि सब ठीक चलता रहे तो फिर हमारी, हमारे उद्यम, हमारे पुरुषार्थ की कोई जरूरत ही नहीं रही। हम स्थिर हो जाएंगे हमारी सार्थकता और प्रासंगिकता इसी में है कि हम जो समझ पाए कि ठीक नहीं चल रहा है उसे ठीक करने में सक्रिय रहें, उसी में जीवन का संगीत सुनें-बुनें। यह भी विचाारणीय होता है कि क्या हम स्वयं से, अपने घर, अपने पास-पड़ोस की व्यवस्था से संतुष्ट हैं?
युवा पीढ़ी के लिए विशेष रूप से कहना चाहूंगा कि मेरी मुलाकात युवाओं से लगभग लगातार होती रहती है या उनके संपर्क में रहता हूं, जिनकी आयु 20 से 40 साल के बीच है। पढ़ने, लिखने और समझ में वे मेरी पीढ़ी या मेरी पिछली पीढ़ी से किसी मायने में कम नहीं हैं। इसे आप अपने घर-परिवार के बच्चों से मोबाइल और कम्प्यूटर के लिए मदद लेते हुए, उनकी प्रशंसा करते हुए महसूस कर सकते हैं। नई पीढ़ी के सामने नई, कई अलग चुनौतियां होती हैं, जिनका सामना पुरानी पीढ़ी को कभी नहीं करना पड़ा होता है। नई पीढ़ी, बदली हुई परिस्थिति के लिए अनुकूल पीढ़ी है। पिछली पीढ़ी को सहज निर्वाह के लिए, खुद पहल कर नई पीढ़ी से तादात्म्य बिठाना होगा, वरना एकाकी रह जाना उसकी नियति होगी।
इसलिए लगता है कि ‘गुमराह, संकट, नष्ट, बरबादी‘ वाली चिंता जाहिर करने, घोषणा करने वाले अपनी सीमाओं में रह गए हैं, ककून-बंद। उन्हें कोई भी परिवर्तन डराता है और उसमें वे बरबादी देखते हैं। ऐसे चुक गए लोगों के प्रति सहानुभूति ही हो सकती है।
पुनश्च- प्रसंगवश, श्रीमद्भागवत के प्रथम अध्याय के श्लोक 28 से 36 का अंश-
अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालने में लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभी का परिग्रह करते हैं। घरों में स्त्रियों का राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभ से लोग कन्या विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषों में कलह मचा रहता है। महात्माओं के आश्रम, तीर्थ और नदियों पर यवनों (विधर्मियों) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टों ने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं। इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही है।
नई पीढ़ी के सामने समकालीन युग की अपनी समस्याएं हैं जिन से जीतने में सक्षम है. उनकी क्षमता का परीक्षण कुछ भविष्यवक्ता प्रकार वाले, डूम्सडे वाले बुद्धिजीवी पुरानी गलतियों/ कसौटी ओं पर करते हैं और इसलिए वह गलत चीज है और नई पीढ़ी से उनकी दूरी बनती जाती है...
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