Tuesday, December 31, 2024

दूधाधारी मंदिर के भित्ति चित्र

यहां प्रस्तुत लेख पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, मध्यप्रदेश की शोध पत्रिका ‘पुरातन’ के अंक-4, 1986 में पृष्ठ 114-116 पर प्रकाशित हुआ है। श्री सोबरन सिंह यादव, राज्य शासन के पुरातत्व विभाग में पदस्थ रहते, रायपुर से सेवानिवृत्त हुए, उनके लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है- 

दूधाधारी मंदिर में मराठा कालीन "भित्ति चित्र" 
सोबरन सिंह यादव 

दूधाधारी मंदिर, रायपुर नगर के पश्चिम में महाराजबंद नामक प्राचीन तालाब के किनारे विद्यमान है. इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी के मध्य हुआ. उस समय यहाँ के राजा जैतसिंह थे उन्होंने भोंसला के राजगुरु स्वामी बलभद्रदास को निमंत्रित कर मठ और मंदिर के निर्माण हेतु भूमि और द्रव्य प्रदान किया था. स्वामी जी केवल दूध का आहार करते थे फलतः यह मठ और मंदिर दूधाधारी के नाम से प्रसिद्ध हुआ1. सन् 1873-74 में बेगलर ने इस अंचल के पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान इस मंदिर का भी निरीक्षण किया था. उनके अनुसार मंदिर के पुजारियों ने मंदिर को इतनी दूर से देखने दिया कि उसकी परछाई अथवा हवा तक मंदिर को स्पर्श न कर सके2 संमवतः इसलिए वे इस मंदिर के भित्तिचित्तों के बारे में नहीं लिख सकें. इस मंदिर के सभा मण्डल को रामायणी एवं कृष्णलीला इत्यादि के चित्रों से अलंकृत किया गया है. 

इस अंचल में भित्तिचित्र के सबसे प्राचीन उपलब्ध नमूने सरगुजा जिले की जोगीमारा गुफा में है भित्तिचित्र ही नहीं अपितु यहाँ भारत की प्राचीनतम नाट्यशाला भी है. इसी गुफा में (तृतीय शती ई.पू.) अथवा उसके बाद के चित्र अंकित हैं, जो ऐतिहासिक काल की भारतीय चित्रकला के प्राचीनतम नमूने हैं. 

दूधाधारी मंदिर के भित्तिचित्रों में नायक-नायिकाओं के वस्त्राभूषण एवं भवन इत्यादि में यद्यपि मराठों की छाप दृष्टिगत् होती है तथापि कहीं-कहीं इन्हीं चित्रों में नायिकाओं को वहीं राजस्थानी चोली- लहंगा एवं ओढनी में दर्शाया गया है, जो राजस्थानी शैली का निजस्व है. अर्थात् यहां के चित्रों पर राजस्थानी शैली प्रभावित है. ऐसे उदाहरण भी मिलते है जब कि मराठों ने राजस्थान से कलाकार आमंत्रित कर उनसे चित्रकारी का कार्य कराया3. बाजीराव पेशवा (1774-1791) ने पूणे के अपने "शनिवार वाड़ा" वाले प्रसाद को चित्रित कराने के लिये जयपुर से "भोजराज" चित्रकार को बुलाया था4. इस प्रकार से यहां भी संभव है कि भोसलों ने राजस्थानी कलाकार से इस मंदिर के सभा मण्डप को चित्रित करवाया हो. 

चित्रकला की विशेषता - यहां के चित्रों में सामान्यता रामायण एवं कृष्णलीला के दृश्यों का चित्रण मिलता है. चित्रों की रेखाएं एवं आकृतियां जड़ होती गई है; विषय वस्तु को विस्तार से दर्शाया गया है. आकृतियों की प्रधानता एवं प्रकृति से उनका संबंध नायिकाओं के केशविन्यास में फूलों की वेणी, नयनों के स्थान पर नाक में बड़ी पोंगरी, कहीं-कहीं नायिकाओं को कांछी (साड़ी) में दर्शाया जाना है, पुरूष नायकों को मराठा शैली की पगड़ी में दर्शाया जाना इत्यादि उक्त सभी विशेषताएँ हम इस मंदिर में भित्ति चित्रों में देख सकते हैं. इसके अतिरिक्त चेहरों पर अपभ्रंश शैली की स्पष्ट छाप है. रंग विधान चटकीला होने पर भी बहुवर्ण नहीं है. रामायण के कथानक में चित्रकार को जीवन के विभिन्न दृश्य चित्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ. आकृतियाँ महत्व के अनुसार छोटी-बड़ी है. दृश्य को सुविधानुसार ज्यामितिक आकृतियों में बांट दिया गया है. बुन्देल चित्रकला की भांति यहां भी चित्रों में लाल रंग का प्रयो- करके नायिका भेद दर्शाया गया है. 

यह चित्र मंदिर की दांयी दीवार के ऊपर चित्रित है जहां चित्रकार द्वारा सीता स्वयंवर का दृश्य दर्शाने का प्रयास किया है चित्र में राजा जनक का प्रासाद का दृश्य मुगल शैली से प्रभावित प्रतीत होता है प्रासाद के गवाक्षों में जनकपुरी की नारियां स्वयंवर का दृश्य देख रही है. चित्र के सबसे नीचे पांच मानव आकृतियां धनुष लिए खड़ी है इन सभी चित्रों में मराठाकालीन चोगा तथा मराठा पगड़ी चित्रित की गई है. इन चित्रों के सम्मुख श्री रामचन्द्र जी द्वारा धनुष के तोड़े जाने का दृश्य है. श्रीराम के पार्श्व में लक्ष्मणजी खड़े है एवं इनके पीछे गुरू विश्वामित्र बैठे है जिनकी दाढ़ी इत्यादि देखने से लगता है कि वह मानों कोई मौलवी का चित्र हो. इसके ऊपर सीताजी अपनी सहेलियों के साथ श्रीराम को वरमाला पहना रही है. यहां के चित्तों की जो जमीन है वह लाल रंग में दर्शायी गई है एवं उसके ऊपर सामान्यतः चार रंगों का प्रयोग मिलता है. 

उक्त चित्र के पार्श्व में इस चित्र का चित्रण किया गया है. यहां पर राम-रावण युद्ध का चित्र दर्शाया गया है. यह चित्र काफी धूमिल हो चुका है क्योंकि इसके रंग की परतें निकल गई हैं. नीचे दायी ओर दशमुखी रावण को अपने रथ पर दर्शाया गया है जिसके मुख के ऊपर की परत निकल गई है. दांयी ओर रामचन्द्र जी को रथ के ऊपर दर्शाया गया है. दोनों के रथों का आकार भी भिन्न है. इन दृश्यों के ऊपर बांयी ओर राक्षस सेना एवं दांयी ओर वानर सेना का चित्रण है. हनुमानजी एक विशाल राक्षस को ऊपर उठाए है जिसके ऊपर एक छोटा वानर दर्शाया गया है. वानरों को श्वेत वर्ण में एवं राक्षसों को श्याम वर्ण में दर्शाया गया है. नीचे का हिस्सा ठीक न होने के कारण उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है. 

मंदिर के प्रदक्षिणा पथ के निकट यह चित्र है. जहां कि राधा-कृष्ण का चित्रण चित्रकार द्वारा किया गया है. चित्र के नीचे का हिस्सा क्षतिग्रस्त है. ऊपर श्याम वर्ण में कृष्ण हैं एवं उनके दांयी ओर संभवतः राधा-कृष्ण आलिंगन युक्त है दोनों ओर दो परिचारिकाएं पंखा लिये हुए है. राधा एवं दोनों परिचारिकाओं के वस्त्राभूषण, केश विन्यास सभी मराठों के अनुरूप है. इस चित्र में भी जमीन भाग लाल रंग में दर्शाया गया है. 

एक चित्र इस मंदिर के बगल में निर्मित बालाजी मंदिर के बाहरी दीवार पर चित्रित है जहाँ कृष्ण जी को नीलवर्ण में दर्शाया गया है. सुदामाजी सिहासन पर बैठे हुए है एवं कृष्ण उनके पांव पखार रहे है. बगल में संभवतः रुकमणी रानी उनकों वस्त्रादि दे रही है. यहां पर नारियों के वस्त्राभूषण केश विन्यास आदि सभी मराठी है. इस चित्र में जमीन को लाल रंग में न दर्शाकर चित्रकार ने आसमानी रंग में दर्शाया है. यह चित्रण भी जगह-जगह से खराब हो रहा है. 

इसके अतिरिक्त इस बालाजी मंदिर के मण्डप में भी कई प्राचीन भित्ती चित्र थे किन्तु यहां के महंत जी द्वारा उनको नष्ट करके आधुनिक चित्र बनवा दिए गए हैं. मात्र दो या तीन छोटे-छोटे चित्र गर्भगृह के ललाट बिम्ब पर विद्यमान है. जहां कि मध्य में चतुर्भुजी गणेश है. उनके दांयी एवं बांयी ओर राम लक्ष्मण एवं सीताजी को दर्शाया गया है. इसी ललाट बिम्ब पर एक दम बांयी ओर के किनारे पर संभवतः भरत मिलन का दृश्य प्रतीत होता है. सीताजी को मराठा प्रकार के वस्त्राभूषणों से कलाकार ने सजाया है. इसके साथ ही एक दम दांयी ओर के चित्र में जोकि स्पष्ट नहीं है "गजेन्द्र मोक्ष" का दृश्य है जहां कि एक सफेद हाथी, विष्णु भगवान के सम्मुख अपना मस्तक उनके चरणों में रखकर धन्यवाद दे रहा है. पीछे धुंधला सरोवर दृश्य हैं. इस प्रकार वर्तमान में जितने भी चित्र बच रहे है वे अतीत में चित्रकला की क्या स्थिति थी, उस समय की धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति क्या थी, एक झांकी प्रस्तुत करने के लिये पर्याप्त हैं. इसके साथ ही दूधाधारी मंदिर के मंडप में कई ओर चित्र है जिनके कि रंग की पपड़ी आदि निकलने के कारण क्षतिग्रस्त हो चुके हैं. किन्तु हम यहां के भित्तिचित्रों में राजस्थानी शैली, बुन्देलखण्ड शैली एवं मराठों की छाप इन तीन शैलियों की छाप पाते हैं. 

यदि पहाड़ी चित्रकला में वहां का प्राकृतिक एवं मानव सौंदर्य परिलक्षित है, अथवा राजस्थानी चित्रों में स्थानीय वेशभूषा मुखाकृतियों पर मुगल प्रभाव स्पष्ट है, बुन्देलखण्ड की चित्रकला में मौलिकता एवं सहजता बलिष्ठ होने के कारण यह अन्य कलमों से अलग अपना स्थान बनाने में समर्थ हुई है. इसके विपरीत मंदिर के इन भित्तिचित्रों में हम राजस्थानी एवं मुगल तीन अंगों का हस्तक्षेप देख सकते है. संभवतः कलाकार राजस्थान का होने के कारण उसने अपनी मौलिकता चित्रों में कहीं-कहीं दे दी है. यद्यपि यहां के चित्र मराठा शासकों के मार्गदर्शन में बनाए गए थे. इसलिए बहुतायत स्थानों पर मराठों के अनुरूप चित्रों को हम देख सकते हैं. निष्कर्ष यह है कि वर्तमान में जितने भी चित्र बच रहे हैं वे इस अंचल के चित्रकला के इतिहास में महत्वपूर्ण उदाहरण हैं जिनका कि रसायनीकरण कर सुरक्षित किया जाना आवश्यक है. 

संदर्भ- 

    1. गुप्त प्यारेलाल -- प्राचीन छत्तीसगढ़ पृ. 156. 
    2. बेग्लर जे. डी. -- आर्कियालाजिकल सर्वे आफ इंडिया पृ. 167. 
    3. रायकृष्ण दास -- भारत की चित्रकला पृ. 7. 
    4. वही पृ. 74.

Monday, December 30, 2024

बजरंगबली मंदिर, सहसपुर

यहां प्रस्तुत लेख इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की शोध पत्रिका ‘कला-वैभव’ के अंक-17 (2007-08) में पृष्ठ 92-95 पर प्रकाशित हुआ है। डॉ के.पी. वर्मा के इस लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है-

बजरंगबली मंदिर, सहसपुर में अंकित विशिष्ट शिल्पांकन 
-डॉ. के. पी. वर्मा* 
*रसायनज्ञ-संचालनालय, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग, रायपुर (छ.ग.) 

ग्राम सहसपुर, दुर्ग जिले (छ.ग.) का साजा तहसील के दक्षिणी सीमांत में 21° 33' उत्तरी अक्षांश तथा 81° 17' दक्षिणी देशांतर स्थित है। ग्राम-सहसपुर, दुर्ग जिला मुख्यालय से दुर्ग-बेमेतरा रोड़ पर धमधा से आगे मुख्य सड़क पर स्थित ग्राम देवकर से बायें तरफ लगभग 3 कि. मी. की दूरी पर पक्के सड़क मार्ग पर स्थित है। रायपुर से भी धमधा होकर सहसपुर पहुंचा जा सकता है, जिसकी कुल दूरी लगभग 58 कि. मी. है। इस ग्राम में बस्ती के पूर्वी किनारे पर दो प्राचीन मंदिरों का समूह विद्यमान है, जिसमें से बड़ा, शिव मंदिर तथा छोटा बजरंगबली मंदिर कहलाता है। दोनों ही मंदिर पूर्वाभिमुखी हैं तथा इन दोनों मंदिरों को वर्ष 1973 में ग्रामीण बाल समिति द्वारा चंदा एकत्रित करके सीमेंट प्लास्टर से पूर्णरूपेण ढक दिया गया था। छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग द्वारा वर्ष 2007-08 में बजरंगबली मंदिर, सहसपुर का संरक्षण कार्य सम्पन्न कराया गया है, जिससे मंदिर में उत्कीर्ण विशिष्ट प्रतिमायें प्रकाश में आई। इनमें से शेषशायी विष्णु, अष्टभुजी नटराज, रतियुगल के साथ मृदंगवादक, बालि-सुग्रीव युद्ध, हनुमान, राम-सुग्रीव एवं तारा का अंकन, सरस्वती, नर्तकियों द्वारा शैल नृत्य, मण्डप के वितान में नर्तक दल, मृदंगवादक, मिथुन दृश्य तथा द्वारशाखा में नवग्रह का अनियमित अंकन प्रमुख है। इनमें से प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण प्रतिमाओं का विवरण निम्नानुसार है- 

शेषशायी विष्णु- यह प्रतिमा मंदिर के शिखर भाग में सामने तरफ मण्डप तथा शिखर के संधि भाग के तथा गवाक्ष के ऊपर स्थित है। इस प्रतिमा में विष्णु के सिर पर सप्तफण शेषनाग, चतुर्भुजी, गदा और शंख है। विष्णु शेषशैया में लेटे हुए प्रदर्शित हैं, जिनके नीचे बैठे हुये गरुड़ तथा दायें पैर के बगल में लक्ष्मी विराजमान हैं। छत्तीसगढ़ में शेषशायी विष्णु की कुल चार प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिनमें से एक लक्ष्मण मंदिर, सिरपुर की द्वारशाखा के सिरदल में, दूसरी प्रतिमा राजीवलोचन मंदिर राजिम की द्वारशाखा के सिरदल में, तीसरी प्रतिमा जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, राजनांदगांव तथा चौथी प्रतिमा महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में प्रदर्शित है। इनमें से लक्ष्मण मंदिर तथा राजीवलोचन मंदिर को छोड़कर शेष दोनों विलग प्रतिमाये हैं जो काले प्रस्तर से निर्मित हैं। 

अष्टभुजी नटराज - यह प्रतिमा मंदिर के शिखर भाग में सुकनासिका के दायें पार्श्व में सबसे ऊपर की पंक्ति में मध्य में स्थित है। शिव नृत्य मुद्रा में हैं तथा ऊपरी दोनों हाथ से सर्प को पकड़े हैं। दायें निचले हाथ में डमरू तथा दायें तरफ मुंडमाल धारण किये हैं। शिव के दायें तरफ नीचे कोने में एक मृदंगवादक तथा बाये कोने में नंदी का अंकन है। 

रतियुगल - यह प्रतिमा मंदिर के शिखर में दायें तरफ सुकनासिका के पार्श्व में नटराज शिव के नीचे एक पंक्ति में मृदंगवादक के साथ दाहिने किनारे पर प्रदर्शित है जिसमें बायें किनारे पर मल्लयुद्ध उसके बाद तीन मृदंगवादक तथा दायें कोने में रतियुगल का अंकन है जिसमें से निचले भाग में अंकित नारी का उदर भाग खण्डित है। छत्तीसगढ़ में रतियुगल की कुल 3 प्रतिमायें ज्ञात हैं जिसमें से एक प्रतिमा जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर में प्रदर्शित है तथा दूसरी प्रतिमा अभी हाल में ही फणिकेश्वर नाथ महादेव फिंगेश्वर, जिला रायपुर के दक्षिणी भित्ती के जंघा भाग में उत्कीर्ण है तथा तीसरी यह प्रतिमा है। 

बालि-सुग्रीव युद्ध - मंदिर के शिखर भाग में सुकनासिका के बायें पार्श्व में एक पंक्ति में दायें से बायें की तरफ क्रमशः हनुमान, हनुमान का लघु रूप दण्डवत करते हुये, सुग्रीव तथा राम के साथ एवं एक नारी का अंकन है, जिसके पीछे वानरमुखी नारी प्रतिमा संभवतः बालि की पत्नि तारा बालि को सुग्रीव से युद्ध न करने के लिये मना करने पर बालि द्वारा नहीं माना गया जिससे चिन्तन मुद्रा में तारा दोनों हाथ गालों में रखे हुये स्थित है जिसके पीछे एक वानर प्रतिमा का अंकन है। 

यह प्रसंग रामचरित मानस के किष्किंधाकाण्ड1 में स्पष्ट रूप से वर्णित है। इस प्रकार का प्रसंग छत्तीसगढ़ में शिवमंदिर चंदखुरी, जिला-रायपुर की द्वार शाखा के सिरदल में उत्कीर्ण है, जिसमें बालि-सुग्रीव युद्ध का अंकन है। इसी प्रकार देऊर मंदिर, मल्हार2, जिला बिलासपुर परिसर में रखे हुये प्रस्तुत स्तंभ में, लक्ष्मणेश्वर मंदिर खरौद3 जिला-जांजगीर चांपा के अंतराल भाग में स्थापित स्तंभों में चारों तरफ रामायण से संबंधित दृश्य में अशोक वाटिका में सीता तथा हनुमान, बालि-सुग्रीव युद्ध का दृश्य अंकित है। इनके अलावा छत्तीसगढ़ में विष्णु मंदिर, जांजगीर4 की जंघा की बाह्य भित्ति में, शिवमंदिर देवबलोदा5, जिला-दुर्ग, शिव मंदिर गंडई6, जिला राजनांदगांव की बाह्य भित्ति में, शिव मंदिर घटियारी7, जिला राजनांदगांव से प्राप्त अशोक वाटिका में सीता तथा हनुमान का दृश्य एवं राम तथा हनुमान का अंकन मिलता है। इसके अलावा डीपाडीह8 जिला सरगुजा स्थित सामतसरना मंदिर के मण्डप में प्रदर्शित प्रतिमा के पादपीठ में बालि तथा सुग्रीव के युद्ध का अंकन मिलता है।

सरस्वती - यह प्रतिमा शिखर भाग के शुकनासिका में बायें पार्श्व में सबसे नीचे की पंक्ति में मध्य में उत्कीर्ण है। द्विभुजी सरस्वती खड़ी हुई दोनों हाथों से वीणा धारण किये हुये प्रदर्शित हैं जिनके बायें तरफ निचले कोने में सरस्वती का वाहन हंस अंकित है। प्रतिमा गले में माला, पैरों में कड़ा, कटिसूत्र आदि आभूषण धारण किये हुये है। छत्तीसगढ़ के मंदिर स्थापत्य में शिव मंदिर गनियारी9 जिला बिलासपुर, विष्णु मंदिर, नारायणपाल10, जिला बस्तर, छेरकी महल, जिला कवर्धा11 आदि मंदिरों में प्राप्त हुई है। 

महाभारत12 में सरस्वती श्वेतवर्ण वाली, श्वेत कमल पर आसीन, अक्षमाला, पुस्तक तथा वीणा लिये हुये प्रदर्शित की गई हैं। सरस्वती विद्या तथा संस्कृत की देवी कही गई हैं। बौद्ध तथा जैन धर्म वाले भी उसकी पूजा करते हैं। बौद्ध इन्हें मंजुश्री की आत्मा स्वीकार करते हैं लेकिन ब्राह्मण धर्म में कभी इनका संबंध ब्रह्म से तो कभी विष्णु से बतलाया गया है। साधारणतः ये कमल के पुष्प पर बैठी हुई तथा वीणा बजाती हुई दिखाई जाती हैं। हंस इनका वाहन है जो पैरों के समीप स्थित रहता है। विष्णुधर्मोत्तर13 सरस्वती को चार भुजा युक्त एवं सभी आभूषणों से सुशोभित बतलाया है। चारों भुजाओं में से दाहिने दोनों हाथों में पुस्तक तथा अक्षमाला एवं बायें दोनों हाथों में वीणा तथा कमण्डल धारण किये हुये बतलाया है। सहसपुर स्थित सरस्वती प्रतिमा चतुर्भुजी है जिसके बायें तरफ नीचे पैर के समीप बैठा हुआ हंस ऊपर को मुख किये हुए प्रदर्शित है। सरस्वती अपने दायें ऊपरी हाथ में अक्षमाला तथा निचले हाथ से वीणा को पकड़े हुये एवं बायें ऊपरी हाथ में पुस्तक तथा निचले हाथ से वीणा धारण किये हुये प्रदर्शित हैं। प्रतिमा के गले में उत्तरीय, सिर में मुकुट, कर्णकुण्डल, हाथों तथा पैरों में कंगन आभूषण हैं। 

मण्डप के वितान में नर्तक दल - मण्डप का आकार गुम्बजाकार है जिसके वितान में कुल आठ परते हैं जिनमें से निचली कुल 5 परतें सादी हैं। इसके ऊपर छठवें परत में एक उभारदार तथा गड्‌ढ़ों के मध्य पान के पत्ते की आकृति निर्मित है। सातवें परत में मात्र एक पंक्ति में लता वल्लरी का अंकन है। इसके ऊपर आठवें परत में चारों तरफ वलयाकार आकृति में मिथुन दृश्य अंकित हैं तथा सबसे ऊपरी एवं मध्य भाग में गोलाकार आकृति में चतुर्भुजी कृष्ण (बांसुरी वादक) का अंकन है जिसके चारों किनारे पर 5 सखियों का अंकन है। कृष्ण के वाह्य परत में एक प्रतिमा लेटी हुई प्रदर्शित है जो मृदंग बजा रहा है। इसके सिरों भाग तरफ नौ नर्तक दल, क्रमशः एक पुरुष तथा एक नारी, नृत्य करते हुये दृष्टव्य हैं तथा पैर की तरफ 5 पुरुष, मृदंग तथा अन्य वाद्य बजा रहे हैं तथा उनके बायें तरफ चार मिथुन आकृतियां निर्मित हैं। इस प्रकार का मण्डप के वितान में मिथुन दृश्य तथा कृष्ण का सखियों सहित अलंकरण छत्तीसगढ़ का एक मात्र उदाहरण है।

नवग्रह - इस मंदिर में द्वारशाखा के ऊपर सिरदल में एक पंक्ति में त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का अंकन है। इस द्वारशाखा की प्रमुख विशेषता है कि विष्णु के दायें तरफ एक अलग खण्ड में सोम तथा महेश के बायें तरफ सूर्य, ब्रहमा तथा शिव के मध्य बायें तरफ के खण्ड में तीन ग्रह एवं शिव तथा विष्णु के मध्य के खण्ड में कुल 4 ग्रहों का अंकन है जिसमें से मध्य में राहु एवं केतु का अंकन है तथा दोनों किनारे पर एक-एक और ग्रह प्रदर्शित हैं। सामान्यता कलचुरि कालीन मंदिरों की द्वारशाखा में नवग्रह का सीधा अंकन सोम से प्रारंभ होकर राहु केतु तक मिलता है लेकिन सहसपुर स्थित इन दोनों ही मंदिरों में नवग्रह का अंकन विपरीत क्रम में है। शिव मंदिर, सहसपुर14 में राहु-केतु से प्रारंभ होकर सोम-सूर्य में समाप्त होता है जबकि बजरंगबली मंदिर में नवग्रहों का क्रम अनियमित है।

योद्धा प्रतिमा - यह प्रतिमा शिखर में शुकनासिका के दायें तरफ सम्मुख भाग में ऊपरी पंक्ति में अलिंद में द्विभुजी योद्धा प्रतिमा अंकित है जो अपने दोनों हाथों से चार आयुध चलाते हुये दृष्टव्य हैं। वह अपने दायें हाथ से धनुष तथा तरकस पकड़े हुये हैं एवं तलवार चलाते हुये दृष्टव्य है। प्रतिमा कमर से वस्त्र कसे हुये, वीर वेश में उग्ररूप में प्रदर्शित है। जैसा कि इस क्षेत्र में सहसपुर-लोहारा विकासखण्ड में एक उत्कीर्ण लेख युक्त प्रतिमा प्राप्त हुई है जो यशोराज सहस्त्रार्जुन की है। चूंकि उस समय फणिनागवंशी शासकों का राज्य था। अतः उसी की स्मृति में इस प्रतिमा को उत्कीर्ण किया गया हो जो वीर सहस्त्रार्जुन की हो सकती है। क्योंकि यह मंदिर परवर्तीकाल के फणिनाग शासकों के काल में लगभग 13 वीं शती ई. में निर्मित प्रतीत होता है।

इस प्रकार इस शोधपत्र के माध्यम से यह प्रमाणित होता है कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र में रामायण तथा महाभारत काल की घटनाओं को स्थापत्य कला में प्रमाण स्वरूप अंकित किया गया है जो उस काल से लेकर आधुनिक काल तक के स्थापत्य एवं कला में विद्यमान हैं तथा बजरंग बली मंदिर सहसपुर, जिला दुर्ग जो कि कलचुरि शासकों के अधीनस्थ शासन कर रहे फणिनागवंशी शासकों के काल में 13-14 वीं शती ई. में निर्मित है, इससे भी स्पष्ट प्रमाण के रूप में विद्यमान है। 

संदर्भ सूची - 

1.बाजपेयी, शिवाकांत सिरपुर, पुरातत्व एवं पर्यटन, 2005 पृ.18 
2. शर्मा, सीताराम, भोरमदेव क्षेत्र, पश्चिम-दक्षिण कोसल की कला 1990, पृ. 108 
3.राम चरित मानस, किष्किंधाकाण्ड 
4.कला-वैभव, अंक 16, (2006-07) मंदिरों की नगरी, खरोद : स्थापत्य व काला पर प्रकाश, डॉ. के. पी. वर्मा, पृ.114 
5 जाज्वल्या, 2003, जांजगीर का विष्णु मंदिर, श्री राहुल कुमार सिंह, पृ.15 
6. शर्मा, सीताराम, भोरमदेव क्षेत्र, पश्चिम-दक्षिण कोसल की कला 1990, पृ. 89 
7. पुरातन अंक 9, घटियारी और कटंगी क्षेत्र की प्रतिनिधि प्रतिमाओं का शिल्प शास्त्रीय विवेचन, सीताराम दुबे, पृ.100 
8. कला-वैभव, अंक 15 (2005-06), डीपाडीह का मूर्ति शिल्प वैभव, जी. एल. रायकवार, पृ.172 
9. कला-वैभव, संयुक्तांक 13-14 (2003-04) शिव मंदिर, गनियारी, डॉ. के. पी. वर्मा, पृ.95 
10. बस्तर की स्थापत्य कला, डॉ. के. पी. वर्मा पु. 114, शताक्षी प्रकाशन, रायपुर, वर्ष 2009 
11. लेखक द्वारा वर्ष 2008 में किए गए रसायनिक संरक्षण कार्य के दौरान ज्ञात। 
12. महा. शांति 122, 25-27 
13. स्मिथ बी. ए. जैन, स्तूपजा ऑफ मथुरा, पृ. 56 
14. इंदुमती मिश्रा, प्रतिमा विज्ञान, 169-171 द्वितीय संस्करण, 1987

Sunday, December 29, 2024

देव बलौदा में महाभारत प्रसंग

यहां प्रस्तुत लेख इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की शोध पत्रिका ‘कला-वैभव’ के अंक-17 (2007-08) में पृष्ठ 86-87 पर प्रकाशित हुआ है। श्री रायकवार के इस लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है-

दक्षिण कोसल की शिल्पकला में महाभारत के प्रसंग 
- श्री जी. एल. रायकवार*
*दूरभाष नं. 0771/2429109 (निवास) 

दक्षिण कोसल की स्थापायकता में रूपायित महाकाव्यों के कालजयी कथानकों के अंकन की परम्परा अत्यन्त मनोरंजक तथा कौतूहलवर्धक है। ईसवी पूर्व तृतीय-द्वितीय सदी से दक्षिण कोसल का इतिहास पुरावशेषों के माध्यम से प्रकट होने लगता है। इस अंचल की शिल्पकला का विकसित स्वरूप छठवी-सातवीं सदी ईसवी के ताला, मल्हार, राजिम, सिरपुर एवं अन्य स्थापत्य संरचनाओं में प्रस्फुटित है। इस काल में शरभपुरीय एवं सोमवंशी शासकों के द्वारा पुष्पित पल्लवित कला-परम्परा मंदिर स्थापत्य, विहार, प्रतिमाएं, मृण्मयी कला एवं धातु प्रतिमाओं में असीम सौन्दर्य तथा कला के मान्य सिद्धान्तों के अनुसार रूपायित है। रतनपुर के कलचुरि, कवर्धा के फणिनाग एवं बस्तर के छिंदक नाग शासकों के काल में कला-संस्कृति का स्वरूप स्थिर होने लगता है। इस काल में रामायण तथा महाभारत के पात्रों के जीवन से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं को शिल्पियों ने वर्ण्य विषय के रूप में स्वीकार कर मूर्तरूप प्रदान किया है। 

भारतीय कला के आधार तल में दार्शनिक चिन्तन, पौराणिक कथा एवं लोक-जीवन का समुच्चय है। कठोर पाषाण, ईंट, मिट्टी, काष्ठ, धातु एवं अन्य माध्यमों पर अभिव्यक्त कला से हमें तत्कालीन धारणाओं तथा मान्यताओं के साथ-साथ कला-अभिरुचि एवं शिल्पीय मौलिकता के दर्शन होते हैं। भारतीय कला एवं संस्कृति को प्रभावित करने वाले घटकों में धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय आर्ष ग्रन्थों के अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण साहित्य तथा धर्मशास्त्रों का कला एवं संस्कृति के पल्लवन में अतिशय योगदान है। 

शिल्पकला में महाभारत के प्रसंगों के निरूपण में दक्षिण कोसल के शिल्पियों ने देवालयों में स्थान निर्धारण तथा अभिधेय को न्यूनतम लक्षणों सहित प्रदर्शन के लिये स्वतंत्र रहा है। एकमात्र राजीव लोचन मंदिर को छोड़कर सोमवंशी काल के समस्त मंदिरों के मंडप भग्न है। राजीव लोचन मंदिर के मंडप में महाभारत के अप्रतिम योद्धा कर्ण तथा अर्जुन का शिल्पांकन मंडप में प्रवेश क्रम के प्रथम भित्तिस्तंभ में आमने- सामने संयोजित हैं। कर्ण तथा अर्जुन की अर्धस्तंभ पर रूपायित मानवाकार प्रतिमाएं प्रथम पंक्ति के क्रमशः बायें तथा दायें ओर दृष्टव्य हैं। उनके आयुधों में लम्बवत् विशाल धनुष, कंधे पर तूणीर तथा कटि में कटार का अंकन है। इनमें से एक प्रतिमा के वक्ष पर, आवृत कवच से कर्ण का अभिज्ञान सुस्पष्ट है। साथ ही साथ अधिष्ठान पर अश्व रूपायित है। कर्ण के पहचान से सम्मुख स्थित प्रतिमा का अभिज्ञान अर्जुन सुनिश्चित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सिरपुर स्थित स्थानीय संग्रहालय में सिरपुर के भग्नावशेषों से संग्रहीत कर्ण और अर्जुन की खंडित प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। इन प्रतिमा खंडों के अधिष्ठान में रथ भी रूपायित है। प्राप्त अवशेषों से सोमवंशी काल के वैष्णव मंदिरों के मंडप पर कर्ण और अर्जुन के रूपांकन की सुदीर्घ परम्परा पुष्ट होती है। 

कलचुरि कालीन कर्ण और अर्जुन की प्रतिमाएँ मारो (दुर्ग जिला), विजयपुर (बिलासपुर जिला) तथा मल्हार (बिलासपुर) से प्राप्त हुई हैं। उपरोक्त प्रतिमायें द्वार-शाखा की भाग हैं। शहडोल जिले के अनूपपुर के सन्निकट ग्राम सामतपुर स्थित लगभग बारहवीं सदी ईसवी के एक मंदिर का प्रवेश द्वार परिपूर्ण है। प्रवेश द्वार के ऊपरी हिस्से में दायें ओर सूर्य सहित कर्णं तथा बायें ओर इन्द्र सहित अर्जुन का अंकन है। विषय वस्तु के निरूपण में सामतपुर से प्राप्त अवशेष सुदृढ़ परम्परा और शिल्पीय कौशल का सुन्दर उदाहरण है। कर्ण और अर्जुन युक्त द्वार शाखा सरगुजा जिले के महेशपुर में भी प्राप्त हुई हैं। महेशपुर से ज्ञात विवेच्य प्रतिमायें त्रिपुरी के कलचुरियों के काल, लगभग 11 वीं सदी ईसवी में निर्मित हैं। विवेच्य प्रतिमाओं के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि शिल्पियों ने कर्ण और अर्जुन के प्रतिमा लक्षण में आयुध क्रम के अंतर्गत धनुष-बाण, तूणीर और अधिष्ठान में अश्वों के अंकन को मान्य किया है। 

कर्ण और अर्जुन के युद्ध से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण दृश्य देवबलोदा के शिव मंदिर में प्रदर्शित है। महाभारत के कर्ण पर्व पर आधारित कर्ण-अर्जुन के मध्य युद्ध का यह सर्वोत्तम दृश्य है। इस शिल्पकृति में दायें ओर अर्जुन तथा बायें ओर कर्ण रथारूढ़ बाण प्रहार करते हुये प्रदर्शित हैं। अर्जुन के रथ पर कपिध्वज है। कर्ण के द्वारा संधारित बाण पर अश्वसेन नाग का अंकन है। कर्ण और अर्जुन के द्वैरथ संग्राम में अर्जुन का प्रबल शत्रु अश्वसेन नाग की भूमिका तथा उपस्थिति का विशद वर्णन कर्ण पर्व में प्राप्त होता है। अश्वसेन नाग तथा कर्ण के मध्य संवाद में कर्ण की युद्धनीति, शालीनता तथा पराक्रम का उज्ज्वल पक्ष ज्ञात होता है। 

महाभारत के युद्ध में क्रूरतम विभीषिका के अंतर्गत दुःशासन का वध नारी के अपमान के भयंकर प्रतिशोध का परिणाम माना जाता है। दक्षिण कोसल की शिल्प कला में फिंगेश्वर (रायपुर जिला) के फणिकेश्वर महादेव के मंदिर के जंघा भाग में यह कक्षा रूपावित है। फणिकेश्वर मंदिर लगभग 14 वीं सदी ईसवी में क्षेत्रीय कलचुरि शासकों के काल में निर्मित है। प्रतिमा फलक में बायें ओर युद्धरत एक योद्धा भूमि पर लुंठित है तथा दूसरा योद्धा उस पर हाथों से प्रहार कर रहा है। लुंठित पुरुष के समीप गदा भूमि पर पड़ा हुआ है। ऊपरी मध्य भाग में एक बाहु पृथक से दिखाई पड़ रही है और फलक के अंतिम बायें भाग में एक नारी खड़ी हुई है। इस दृश्य में भीम के द्वारा दुःशासन के भुजा को उखाड़कर फेंकने, उसके हृदय का रक्तपान और उसके रक्त से द्रौपदी के केश प्रक्षालन की समस्त घटनाक्रम की शिल्पकृति में जिस कौशल से प्रदर्शित किया गया है वह दक्षिण कोसल के शिल्पी के निरंतर साधना का प्रतिफल है। भारतीय शिल्प कला में दुःशासन वध का यह एक मात्र ज्ञात शिल्प कृति है। प्रतिमा फलक में सीमित दृश्यांकन से कौरव-पांडवों के मध्य आयोजित द्यूत प्रसंग, दुःशासन के द्वारा द्रौपदी के केश पकड़कर सभा के मध्य पसीटते हुये लाना तथा भीम के द्वारा भीषण प्रतिशोध की घटना कौंध जाती है। महाभारत के कथानक को मौलिक कल्पना से सीमित स्थल में सहज रूप से रूपायित करने में शिल्पी की साधना अपूर्व है। 

दक्षिण कोसल में महाभारत कालीन पुरावत्वीय स्थल तथा अवशेष चिन्हांकित नहीं है तथापि महाभारत से संबंधित कथा तथा पात्रों के चरित्र गायन की मौखिक परम्परा अद्यतन इस अंचल में जीवित है जो 'पंडवानी' के नाम से जानी जाती है। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मंचों में पंडवानी के अनेक प्रदर्शन हुये हैं तथा इस विधा के गायन और अभिनय प्रस्तुति से कला मर्मज्ञ रोमांचित हुये हैं। छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन के सुप्रसिद्ध कला साधक पद्म विभूषण सुश्री तीजनबाई, श्री पूनाराम निषाद, श्रीमती रितु वर्मा, श्रीमती ऊषा बारले आदि प्राण-प्रण से इस परम्परा को सुरक्षित रखने तथा भावी पीढ़ी को उत्तराधिकार में सौंपने के लिये निस्वार्थ भाव से सचेष्ट हैं। 

अंततोगत्वा यह सुनिश्चित रूप से मान्य किया जा सकता है कि दक्षिण कोसल के सोमवंशी काल के स्थापत्य कला में कर्ण और अर्जुन के रूपांकन की परम्परा मान्य रही है। दक्षिण कोसल के कलचुरियों की कला में कर्ण और अर्जुन को द्वारशाखा पर रूपायित कर महत्व प्रदान किया गया साथ ही अन्य प्रसंगों को भी मूर्त करने में शिल्पी सफल रहे हैं। दक्षिण कोसल में महाभारत के शिल्पीय अभिव्यक्ति में मौलिकता, सजगता और कल्पना अद्वितीय है।

Friday, December 27, 2024

कोड़ेगांव सती लेख

यहां प्रस्तुत लेख इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की शोध पत्रिका ‘कला-वैभव’ के अंक-17 (2007-08) में पृष्ठ 107-108 पर प्रकाशित हुआ है। लेख के वाचन तथा भूमिका तैयार करने में सहयोगी अधिकारी श्री जी.एल. रायकवार की मुख्य भूमिका रही है। मूल शिलालेख का अवलोकन मेरे द्वारा नहीं किया गया है, वाचन श्री रायकवार द्वारा लिए तथा उपलब्ध कराए गए छायाचित्र के आधार पर किया जा कर पुष्टि कराई गई है। लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है- 

सारंगदेव के समय का कोड़ेगांव से प्राप्त सती लेख 
- श्री राहुल कुमार सिंह* 
* उप संचालक, संस्कृति विभाग, रायपुर (छ.ग.) 

छत्तीसगढ़ अंचल में महाषाणीय शवाधान संस्कृति के स्मृतिपरक अवशेषों के व्यापक क्षेत्र में बस्तर के वनांचल से लेकर दुर्ग धमतरी तक के मैदानी भाग में मानव संस्कृति की इस धारा में बस्तर अंचल के माड़िया गोंड़ जनजाति की शवाधान परम्परा में स्मृतिपरक काष्ठ स्तंभों में प्रकृति, प्रथा और दर्शन एक साथ समाहित रहते हैं। छत्तीसगढ़ के परवर्ती ऐतिहासिक काल के स्मृतिपरक अवशेषों में योद्धा प्रतिमाओं तथा सती प्रस्तर का अंकन विशेष लोकप्रिय रहा है। खड्ग-ढाल, धनुष-बाण और कटार से सज्जित योद्धा प्रतिमाएं अनेक स्थलों से प्राप्त हुई हैं। युद्ध में प्राणोत्सर्ग और आततायी दस्यु तथा नरभक्षी वन्य जन्तुओं से पीड़ितों की रक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग करने वाले शूरवीरों की प्रतिमाओं का अंकन तथा सम्मान लोक संस्कृति और परम्परा में प्रचलित रही है। ग्रामीण अंचलों में इस प्रकार की प्रतिमाओं की पूजा लोक देवता मानकर की जाती है, जिसमें पूर्ववत रक्षा की भावना सन्निहित होती है। 

छत्तीसगढ़ में प्राचीन सामाजिक प्रथाओं के अंतर्गत सती प्रस्तर, सती स्तंभ तथा शिलापट्ट बहुतायत से मिलते हैं। सामान्य रूप से इन्हें सती स्तंभ के रूप में अभिज्ञान किया जाता है। प्राचीन काल की कलाकृतियां होने से इन्हें पुरावशेषों के अंतर्गत भी रखा जाता है। सती प्रस्तरों का मुख्य लक्षण है- सूर्य, चन्द्र तथा भुजा सहित दायीं हथेली और दम्पति आकृति का रूपांकन। कुलीन, प्रतिष्ठित और धनाढ्य वर्ग से संबंधित अधिकांश सती प्रस्तरों पर लेख मिलते हैं। कुछ सती प्रस्तरों पर शिवलिंग अथवा विष्णु की आराधना रूपायित की जाती है। अधिकांश सती प्रस्तरों पर अंजलिबद्ध दम्पति युगल (पद्मानस्थ अथवा स्थानक) दिखाई पड़ते हैं। आकृति विहीन सती प्रस्तर भी प्राप्त होते हैं। ग्रामीण अंचलों में श्रद्धा से इनकी पूजा होती है। 

छत्तीसगढ़ अंचल से प्राप्त सती प्रस्तरों में जाति अथवा व्यवसाय मूलक प्रतीक चिह्न कोल्हू, हथौड़ी, कुदारी, अश्व भी पाये गए हैं। अभिलिखित सती प्रस्तरों में पारंपरिक रूप से स्वस्ति वाचन, स्थल, वंशावली (कुल पुरुषों के नाम), शासक का नाम, संवत, मास, तिथि, दिन तथा अंत में कुटुम्बियों के लिये शुभ भावना उत्कीर्ण की गई है। 

छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों में लगभग 11-12वीं सदी ईसवी के पश्चात् सती प्रस्तर मिलने लगते हैं। प्राचीन नगर, राजधानी, गिरि- दुर्ग, संगम स्थल, नदियों के तट पर स्थित ग्राम एवं सरोवर और धार्मिक स्थलों के आस-पास सती प्रस्तर विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। कुछ स्थलों के नाम के साथ सती नारी के त्याग, भक्ति, शौर्य तथा चरित्र, किंवदंतियों में जीवित हैं। अभिलिखित सती प्रस्तरों में सती नारी के लोकहित से संबंधित जानकारी के उल्लेख नहीं मिले हैं। राजिम तेलिन का नाम इस अंचल के महत्त्वपूर्ण धार्मिक एवं पुरातत्त्वीय स्थल राजिम और राजीव लोचन के साथ जुड़ा हुआ है। राजिम स्थित सती माता मंदिर के गर्भगृह की भित्ति में दो बड़े आकार के सती पट्ट जड़े हुए हैं। इनमें से एक राजिम तेलिन से संबंधित माना जाता है। दोनों सती प्रस्तरों में मानव आकृतियां एवं कोल्हू का अंकन है। 

सती प्रस्तरों की श्रृंखला में ग्राम कोड़ेगांव (बी) जिला धमतरी से प्राप्त अवशेष लेखन शैली की दृष्टि से विशिष्ट है। यह 57x47x20 से.मी. आकार का है। इसके ऊपरी भाग पर क्रमशः सूर्य, हथेली, कलश और चन्द्र का अंकन है। मध्य में प्रकोष्ठ के भीतर प‌द्मानस्थ दम्पति युगल प्रदर्शित हैं। प्रतीक चिन्हों के नीचे, प्रकोष्ठ के उभार पर लम्बवत एक पंक्ति का लेख अंकित है। शेष अंश प्रकोष्ठ के बायें तथा दायें स्तंभ पर ऊपर से नीचे की ओर दृष्टव्य है। यह सती प्रस्तर एवं लेख श्री संवत् 1435 के अनुसार ईसवी 1378 के लगभग निर्मित है। इसमें तत्कालीन शासक, स्थल तथा संवत की जानकारी होने से ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथा शोधपरक है। 

मूल पाठ 

प्रथम पंक्ति - स्वस्ती श्री सम्वत 1435। श्री सारंगदेव रा (.) काकैर दुर्गे होला साउ पुत्रधानु साउ सति हीराई सास्त 

बायां पार्श्व             दायां पार्श्व 

रलोक समै             भुरमा साउ पु (-) 
सुधी अ                  त् र ऐरू सेठी कृतिः
धीक -                   सुभं भ 
मासे                      वतुः 
(.....) स 
नीच 
रे 
मु 
ल 

शुद्ध पाठ 

स्वस्ति श्री संवत 1435। श्री सारंगदेव राजः कांकैर दुर्गे होला साउ पुत्र धानु साउ सती हीराय पास (प) रलोक समै (-) अधिक मासे (-) सनीचरे मुल भुरमा साउ पुत्र ऐरू सेठी कृतिः शुभं भवतु। अनुवाद स्वस्ति। श्री संवत 1435 में श्री सारंगदेव राजत्वकाल में कांकैर, दुर्ग (किला) के निवासी होला साहू के पुत्र धानु साहू की सास हीराई के परलोक गमन के समय (-) अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) (-) शनिवार के दिन भुरमा साहू के पुत्र ऐरू सेठी के द्वारा निर्मित की गई। शुभ (कल्याण) हो। 
अभिलेख का महत्त्व - यह अभिलेख शासक का नाम, स्थल नाम, जाति सूचक, संवत, मास, दिन एवं पुरुषोत्तम मास की जानकारी के कारण क्षेत्रीय इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस सती प्रस्तर में कलात्मकता भी प्रदर्शित है।

Sunday, December 1, 2024

बैरागी मनमीत

यही कोई आधी सदी पहले। मंचीय कवि-सम्मेलन के दौर में काका हाथरसी और नीरज के बाद नाम आता था, बालकवि बैरागी का, मगर यह भी कोई नाम हुआ, खैर। मालवी बैरागी जी कवि के अलावे मध्यप्रदेश में मंत्री भी रहे, 1969 में। उनकी आत्म-कथा ‘मंगते से मिनिस्टर‘ शायद अब भी अप्रकाशित है और दूसरा खंड, जिसकी योजना थी और शीर्षक तय था, मगर यह शायद लिखी ही नहीं गई- ‘मंत्री से मनुष्य‘। उनकी आत्म-कथा का एक अंश याद आता है- ‘मेरी माँ ने मुझे सबसे पहला खिलौना दिया, वह था- भीख मांगने का कटोरा, जो हमारे परिवार की आजीविका का साधन था।‘ ‘ईदगाह‘ का चिमटा बरबस याद आता है। उनके भाई विष्णु बैरागी रतलाम निवासी हैं, अपना घर बनाने के लिए बेहिचक मित्रों से आर्थिक सहयोग के आग्रह का पत्र लिखा, आशा से अधिक सहयोग मिला, अधिक को लौटा दिया और घर बन गया तो नाम रखा- ‘मित्र-धन‘।

1973, अकलतरा। गणेशोत्सव पर स्कूल में आयोजित कवि-सम्मेलन में शैल चतुर्वेदी आए थे, अकलतरा के अपने सहपाठी प्रताप सिंह जी को याद किया, गले मिले। माणिक वर्मा थे, सुनाया- ‘जिस शाम को तुम मिलती हो वो शाम हरी हो जाती है, जिस ठूंठ को छू देती हो, वो ठूंठ हरी हो जाती है‘, आदि। परंपरा थी कि मंच पर एक-दो स्थानीय कवियों से भी कविता पढ़वाई जाए। ऐसे एक कवि ने कविता पढ़ना शुरू किया, लोग बार-बार वही कविता सुनते रहे थे, हूटिंग होने लगी। बालकवि माइक पर आए और कहा कि जो घर-आंगन की तुलसी को नहीं पूज सकता वह वट-पीपल को क्या पूजेगा, बस सन्नाटा खिंच गया।

आज मैंने सूर्य से बस यूँ कहा, 
आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यूँ रहा? 
तमतमाकर वो दहाड़ा, मैं अकेला क्या करूँ? 
तुम-निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ? 
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो। 
संग्राम ये घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ, कुछ तुम लड़ो। 
उनकी ऐसी रचनाओं के साथ ‘तू चंदा मैं चांदनी...‘ लोकप्रिय हुआ था। तब बांग्लादेश युद्ध की स्मृति तब एकदम ताजा थी, बैरागी जी ने ‘लगे हाथ निपटा ही देते पिंडी और लाहौर को‘ सुनाया। बाद में उनकी ‘पनिहारी‘ की बारी आई। इसके पहले वे कुछ पंक्तियों से माहौल बनाते, जैसे- ‘मैं मरूंगा नहीं, क्योंकि ऐसा कोई काम करूंगा नहीं‘ और ‘मुझे सपने नहीं आते, क्योंकि मैं बुझकर नहीं थककर सोता हूं- ताली वाली ऐसी बातें। फिर पनिहारी, मगर उसके पहले चार पंक्तियां सुनाते, डिस्क्लेमर सहित कि नोट मत कर लेना, कुछ कर-करा लिया तो जिम्मेदार ठहराया जाऊंगा, वह पंक्तियां थीं- 

आज भले ही पत्थर बनकर तू मुझको ठुकराएगी, 
मुझे छोड़कर किसी और के नैनों में बस जाएगी, 
तुझसे जितना हो तू कर ले लेकिन ये भी सुन लेना, 
मैं तो पनघट तक आया था तू मरघट तक आएगी। 
हमने बैरागी जी की बात मानी, नोट नहीं किया, मगर दूसरी सुबह मिल जुलकर याद कर लिया, याद भी रखा, और संदेश की तरह नहीं, कविता की तरह यहां-वहां अपने काव्य-प्रेम और रसिकता के बतौर प्रमाण कहते-सुनाते रहे। फिर शुरू हुआ, पनिहारी। नवी उमारिया नवी डगरिया नवा पिया की नवी प्यारी (राम) नवी नगरी मैं नवी गगरी ले पनघट जईरी ओ पनिहारी। मालवी शब्दों को बीच-बीच में समझाते चलते, मगर रसिक श्रोता शब्दों के पार जा चुके होते, आह-वाह होता रहता।

बैरागी जी के इस राग-विराग, नींद और सपने पर अर्ली टु बेड ... के साथ कुछ अपनी बात। जल्दी नींद तभी आ सकती है, जब संतोष हो कि आज भर के लिए कुछ कमाई कर ली है और जल्दी नींद तभी खुलती है, जब फिर से नया कुछ करने का उत्साह हो, और कुछ नहीं तो सुबह जल्दी उठकर घंटे भर का योग-ध्यान, व्यायाम, पैदल-कसरत जैसा कुछ कर लिया जाए, लगे कि इतनी तो कमाई कर ही ली। जहां तक सपनों की बात है, सपने तो मन की चुगली हैं। मन से दोस्ती रखें, कुछ उसकी मान लें, कभी अपनी के लिए उसे मना लें। हर बार मनाही-मना ही न हो, न ही हमेशा मनमानी। यानि मन का और मन भर कर सकने की हसरत हो तो उसका हौसला और हिम्मत हो, उसका असर बर्दाश्त करने के लिए तैयार रहें, इतनी हैसियत भी हो।

चंचल मन दुश्मन नहीं बच्चा है, जिद करता है, शैतान है, मगर उसका साथ मौज है, वह आड़े-टेढ़े वक्त पर आपको बहलाता भी है। मन के गुलाम न हों, न ही लगाम कसे रहें। उससे दोस्ती करें, मन से अच्छा मीत और कोई नहीं। भगवद्गीता बताती है- उद्धरेदात्मनात्मानं... आत्मनो बन्धु..., शुद्ध मन ही जीवत्वाभिमानी बुद्धि का उपकारक मित्र है, आदि। और धम्मपद पहली ही पंक्ति में कहता है- मनोसेट्ठा मनोमया... यानि मन श्रेष्ठ है, स्वच्छ मन के वचन-कर्म का सुख कभी साथ न छोड़ने वाली छाया की तरह अनुगमन करता है।