बोली और भाषा में क्या फर्क है, लगभग वही जो लोक और शास्त्र में है। या कहें ज्यों कला का सहज-जात स्वरूप और मंचीय प्रस्तुतियां/आयोजन में या परम्परा-अनुकरण से सीख लिये और स्कूली कक्षाओं में सिखाए गए का फर्क। और यह उतना अनिश्चित भी माना जाता है, जितना नदी और नाला का अंतर। भाषा, मंदिर में पूजित विग्रह-मूर्ति का संग्रहालय में सज्जित और सम्मानित कर दिये जाने जैसा है, जबकि बोली ग्राम और लोक-देवताओं की तरह, जो कई बार अनगढ़, अनाकार, अनामित, मगर पूजित, श्रद्धा केंद्र होते हैं। श्रद्धालु अपनी गति-मति से अपना रिश्ता बनाए रखता है।
भाषा के लिए लिपि और व्याकरण अनिवार्य मान लिया जाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह पृथक लिपि हो और व्याकरण के बिना तो सार्थक अभिव्यक्ति, बोली हो या भाषा, संभव ही नहीं। हां! भाषा के लिए बोली की तुलना में मानकीकरण, शब्द भंडार और साहित्य अधिक जरूरी है। भाषा की आवश्यकता शास्त्र-रचना के लिए होती है। अभिव्यक्ति तो बोली से हो जाती है, साहित्य भी रच जाता है। वास्तव में बोली मनमौजी और कुछ हद तक व्यक्तिनिष्ठ होने से अधिक व्यापक होती है, वह संकुचित, मर्यादित और निर्धारित सीमा का पालन करते हुए भाषा के अनुशासन में बंधती है। बोली-भाषा की अपनी इस मोटी-झोंटी समझ में यह मजेदार लगता है कि अवधी, ब्रज 'भाषा' हैं और हिन्दी की पूर्वज, खड़ी 'बोली'। बोली, अधिक लोचदार भी होती है, शायद यह खड़ी-ठेठनुमा कम लोच वाली बोली, अपने खड़ेपन के कारण आसानी से भाषा बन गई।
फिलहाल यहां मामला छत्तीसगढ़ी का है और मैं चाहता हूं कि यह, भाषा के रूप में तो प्रतिष्ठित हो लेकिन उसका बोलीपन खो न जाए। पिछले दिनों खबर छपी- लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव-अनुरोध छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से प्राप्त हुआ है। इसी तरह अंगिका, बंजारा, बजिका/बज्जिका, भोजपुरी, भोटी, भोटिया, बुंदेलखंडी, धात्की, अंग्रेजी, गढ़वाली (पहाड़ी), गोंडी, गुज्जर/गुज्जरी, हो, कच्चाची, कामतापुरी, कारबी, खासी, कोदवा (कूर्ग), कोक बराक, कुमांउनी (पहाड़ी), कुरक, कुरमाली, लेपचा, लिम्बू, मिजो (लुशाई), मगही, मुंडारी, नागपुरी, निकोबारी, पहाड़ी (हिमाचली), पाली, राजस्थानी, संबलपुरी/कोसली, शौरसेनी (प्राकृत), सिरैकी, तेंयिदी और तुलु भाषा के लिए भी प्रस्ताव मिले हैं। स्पष्ट किया गया है कि आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए कोई मानदंड नहीं बताए गए हैं और इन्हें अनुसूची में शामिल करने की कोई समय सीमा निश्चित नहीं है। इस तारतम्य में छत्तीसगढ़ी बोलते-लिखते-पढ़ते-सुनते-देखते रहा, उनमें से कुछ उल्लेखनीय को एक साथ यहां इकट्ठा कर देना जरूरी लगा।
डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने 'छत्तीसगढ़ परिचय' में लिखा है- सरगुजा जिले के कोरवा और बस्तर जिले के हलबा के साथ कवर्धा के किसी बैगा और सारंगगढ़ के किसी कोलता को बैठा दीजिए फिर इन चारों की बोली-बानी, रहन-सहन, रीति-नीति पर विचार करते हुए छत्तीसगढ़ीयता का स्वरूप अपने मन में अंकित करने का प्रयत्न कीजिये। देखिये आपको कैसा मजा आयेगा!
दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा, बस्तर वाला 23 पंक्तियों का शिलालेख छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित नमूना माना जाता है। शासक दिकपालदेव के इस लेख में संवत 1760 की तिथि चैत्र सुदी 14 से वैशाष वदि 3 अंकित है, गणना कर इसकी अंगरेजी तिथि समानता 31 मार्च, मंगलवार और 4 अप्रैल, शनिवार सन् 1702 निकाली गई है। लेख की भाषा को विद्वान अध्येताओं द्वारा हिन्दी कहीं ब्रज और भोजपुरी प्रभाव युक्त, छत्तीसगढ़ी मिश्रित हिन्दी तो कहीं बस्तरी भी कहा गया है। यह मानना स्वाभाविक लगता है कि छत्तीसगढ़ में भी ब्रज का प्रभाव कृष्णकथा (भागवत और लीला-रहंस) से और अवधी का प्रभाव रामकथा (नवधा, रामसत्ता) परम्परा से आया है और लिखी जाने वाली छत्तीसगढ़ी अपने पुराने रूप में अधिक आसानी से पूर्वी हिन्दी समूह के साथ निर्धारित की जा सकती है।
यह भी उल्लेख रोचक होगा कि लेख वस्तुतः साथ लगे संस्कृत शिलालेख का अनुवाद है, इस तरह अनुवाद वाले उदाहरण भी कम हैं और लेख में कहा गया है कि कलियुग में संस्कृत बांचने वाले कम होंगे इसलिए यह 'भाषा' में लिखा है। लेख का अन्य संबंधित विषय स्वयं स्पष्ट है -
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शिलालेख का फोटो और उसी का छापा |
दंतावला देवी जयति॥ देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरही हैं ते पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिखे है। ... ... ... ते दिकपालदेव विआह कीन्हे वरदी के चंदेल राव रतनराजा के कन्या अजवकुमरि महारानी विषैं अठारहें वर्ष रक्षपाल देव नाम जुवराज पुत्र भए। तव हल्ला ते नवरंगपुरगढ़ टोरि फांरि सकल वंद करि जगन्नाथ वस्तर पठै कै फेरि नवरंगपुर दे कै ओडिया राजा थापेरवजि। पुनि सकल पुरवासि लोग समेत दंतावला के कुटुम जात्रा करे सम्वत् सत्रह सै साठि 1760 चैत्र सुदि 14 आरंभ वैशाष वदि 3 ते संपूर्न भै जात्रा कतेकौ हजार भैसा वोकरा मारे ते कर रकत प्रवाह वह पांच दिन संषिनी नदी लाल कुसुम वर्न भए। ई अर्थ मैथिल भगवान मिश्र राजगुरू पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपालदेव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।
रायपुर के कलचुरि शासक अमरसिंघदेव का कार्तिक सुदि 7 सं. 1792 (सन 1735) का आरंग ताम्रपत्रलेख का सम्मुख और पृष्ठ भाग, जिससे छत्तीसगढ़ की तत्कालीन दफ्तरी भाषा का अनुमान होता है।
यह ध्यान में रखते हुए कि लिखने और आम बोल-चाल की भाषा में फर्क स्वाभाविक है, संदर्भवश मात्र उल्लेखनीय है कि पुरानी छत्तीसगढ़ी के नमूनों में कार्तिक सुदी 5 सं. 1745 (सन 1688) का कलचुरि राजा राजसिंहदेव के पिता राजा तख्तसिंह द्वारा अपने चचेरे भाई रायपुर के राजा श्री मेरसिंह को लिखे पत्र (जिसकी नकल पं. लोचनप्रसाद पांडेय ने कलचुरि वंशज बड़गांव, रायपुर के श्री रतनगोपालसिंहदेव के माध्यम से प्राप्त की थी) और संबलपुर के दो ताम्रपत्रों (दोनों में 80 वर्ष का अंतर और जिसमें पुराना सन 1690 का बताया जाता है) का जिक्र होता है।
उज्ज्वल पक्ष है कि छत्तीसगढ़ी का व्यवस्थित और वैज्ञानिक व्याकरण सन 1885 में तैयार हो चुका था। जार्ज ग्रियर्सन ने भाषाशास्त्रीय सर्वेक्षण में इसी व्याकरण को अपनाते हुए इसके रचयिता हीरालाल काव्योपाध्याय के उपयुक्त नामोल्लेख सहित इसे सन 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की शोध पत्रिका में अनूदित और सम्पादित कर प्रकाशित कराया। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय द्वारा, रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में तैयार किए गए इस व्याकरण को, सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार शासन के आदेश से सन 1921 में पुस्तकाकार प्रकाशित कराया गया।
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद न्यायालय श्रीमान न्यायाधिपति उच्च न्यायालय, जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के विविध क्रिमिनल याचिका क्र. 2708/2001 में याचिकाकर्ता श्रीमति हरित बाई, जौजे श्री मेमलाल, उम्र लगभग 30 वर्ष, साकिन ग्राम कुर्रू, थाना अभनपुर तह/जिला रायपुर (छ.ग.) विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन, द्वारा - थाना अभनपुर, तहसील व जिला रायपुर (छ.ग.) अपराध क्रमांक- 210/2001 में आवेदन पत्र अन्तर्गत धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता - 1973 अग्रिम जमानत बाबत, निम्नानुसार आदेश हुआ-
दिनांक 8.1.2002
आवेदिका कोति ले श्री के.के. दीक्षित अधिवक्ता,
शासन कोति ले श्री रणबीर सिंह, शास. अधिवक्ता
बहस सुने गइस। केस डायरी ला पढ़े गेइस
आवेदिका के वकील हर बताइस के ओखर तीन ठन नान-नान लइका हावय। मामला ला देखे अऊ सुने से ऐसन लागत हावय के आवेदिका ला दू महिना बर जमानत मा छोड़ना ठीक रही।
ऐही पायके आदेश दे जात है के कहुँ आवेदिका ला पुलिस हर गिरफ्तार करथे तो 10000/- के अपन मुचलका अऊ ओतके के जमानतदार पुलिस अधिकारी लंग देहे ले आवेदिका ला दू महीना बर जमानत मे छोड़ देहे जाय।
आवेदिका हर ओतका दिन मा अपन स्थाई जमानत के आवेदन दे अऊ ओखर आवेदन खारिज होए ले फेर इहे दोबारा आवेदन दे सकथे।
एखर नकल ला देये जाये तुरन्त
यहां एक अन्य शासकीय दस्तावेज, संयोगवश यह भी अभनपुर तहसील के कुर्रू से ही संबंधित है। इस अभिलेख में कानूनी भाषा और अनुवाद की सीमा के बावजूद बढि़या छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल हुई है। यह तारीख 10/12/2007 बिक्रीनामा है, जिसे ''बीकरी-नामा'' लिखा गया है। इसी अभिलेख से-
बेचैया के नावः- 1/ चिन्ताराम उम्मर 65 बछर वल्द होलदास जात सतनामी रहवैया गांव जेवरा डाकघर- जेवरा थाना बेमेतरा अउ तहसील बेमेतरा जिला- दुरूग (छ.ग.)
परचा के नं -पी-202328
लेवाल के नावः- 1/ फेरूलाल उम्मर 65 बछर वल्द भकला जात -सतनामी रहवैया गांव पचेड़ा डाकघर - कुर्रू अउ तहसील - अभनपुर जिला- रायपुर (छ.ग.)।
बीकरी होये भुईंया के सरकारी बाजारू दाम बरोबर चुकाय गे हाबय। पाछु कहु बाजारू दाम कोनो कारन कम होही ते लेवाल ह ओला देनदार रईही बीकरी नामा मा सब्बो बात ल सुरता करके ईमान धरम से लिखवाये हावन लबारी निकले मा मै लेवाल देनदार रईही। बीकरी होय भुईंया हा शासन द्वारा भु दान म दे गे भुईंया नो हय। छ0ग0भू0रा0सं0 मा बनाये कानुन के धारा 165/6 अउ 165/7 के उलंघन नई होवत हे। सिलिंग कानुन के उलंघन नई होवत हे। बीकरी करे गे भुईंया हा- सीलींग अउ सरकारी पट्टा दार भुईंया नो है , बीकरी करे भुईंया मा कोनो जात के एकोठन रूख नईये। निमगा खेती किसानी के भुईंया आय। बीकरी करेगे भुमि मा तईहा जमाना से ले के आज तक खेती किसानी ही करे जावत हे। बीकरी शुदा भुईंया हा आज के पहीली कखरो मेर रहन या गहन नहीं रखे गेहे।
छत्तीसगढ़ी की वैधानिक स्थिति की चर्चा के पहले उसके मरम-धरम में रंगे-पंगे बद्रीसिंह कटरिया जी जैसे कुछ सुहृद-बुजुर्गों से सुनी बातें याद आती हैं-
ससुर खाना खाने बैठे, पानी-पीढ़ा जरूरी। बहू पहेली बुझाते अनुमति चाहती है-
‘बाप पूत के एके नांव, नाती के नांव अवरू।
ए किस्सा ल जान ले ह, तओ उठाह कंवरू।।
ससुर उसी तरह जवाब देते हैं-
जेकर पिए महिंगल होय, अउ चलावै घानी।
ए किस्सा ल जान ले ह, त ओ जाह पानी।
आशय कि खाना परोसते बहू देखती है कि पानी नहीं है, कहती है बाप और पूत का नाम एक (महुआ) मगर पोते का और कुछ (डोरी/टोरी- महुआ का फल), यह बूझ लें, तब कौर उठावें। ससुर जवाब में पहेली का हल उसी तरह बताते हुए पानी ले कर आने की अनुमति देते हैं कि जिसके पीने से व्यक्ति हाथी की तरह मतवाला हो जाता है (महुआ) और उसके लिए घानी चलती है (महुआ का फल-डोरी), यह बूझते पानी ले आओ।
बरसात, पनिहारिन और पानी पर बुझौवल है, जो कामुक नायक-नायिका के बीच हुए संवाद की तरह जान पड़ता है-
जात रहें तोर बर, भेंट डारें तो ला (छेंक ले हे मो ला)।
जाए दे तैं मो ला, ले आहंव तो ला।
बात कुछ इस तरह कि तुम्हारे लिए (पानी लेने के लिए) जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए, (बरसात ने) रास्ता रोक लिया, मुझे जाने दो गे, तो तुम्हें ले आऊंगी।
एक सवाल-जवाब इस तरह होता है-
‘दोसी अस न दासी, तैं का बर लगे फांसी।
नाचा ए न पेखन, तैं का ल आए देखन।
जिव जाही मोर, फेर मांस खाही तोर।‘
शिकारी ने बगुला फंसाने के लिए फिटका (फंदा) लगाया है और उसमें बतौर चारा, घुंइ को बांध रखा है। बगुला घुंइ को खाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, उसके मन में कुछ संदेह भी है, घुंइ से पूछता है कि तुम न दोषी हो न दासी, फिर इस तरह क्यों बंधी-फंसी हो। घुंइ जवाब देती है, यहां नाचा हो रहा है न पेखन (प्रेक्षण, कोई प्रदर्शन), फिर तुम क्या देखने चले आए और आगाह करती है, तुम मुझे खाना चाहते हो तो मेरी जान जाएगी, मगर (शिकारी) तुम्हारा मांस खाएगा।
शिकारी के जाल और पक्षियों का एक मार्मिक प्रसंग यह भी-
तीतुर फंसे, घाघर फंसे, तूं का बर फंस बटेर।
मया पिरित के फांस म आंखी ल दिएं लड़ेर।
शिकारी ने चिड़िया फंसाने के लिए जाल बिछाया। वापस आ कर देखता है कि उसमें तीतर, घाघर जैसी सामान्य आकार की चिड़िया फंस गईं हैं, मगर छोटे आकार का बटेर भी है, जो आसानी से जाल के छेद से बाहर निकल सकता था तो बटेर से पूछता है, तीतर-घाघर फंसे, लेकिन तुम कैसे फंस गए हो। साथ-साथ चरने वाले बटेर का जवाब कि तुम्हारे बिछाए जाल में नहीं, मैं तो साथी चिड़ियों के प्रेम-प्रीत में (कैसे साथ छोड़ दूं) आंखें बंद कर पड़ गया हूं।
छत्तीसगढ़ विधान सभा में शुक्रवार, 30 मार्च, 2001 को अशासकीय संकल्प सर्व सम्मति से स्वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्द्र सरकार से अनुरोध करता है कि संविधान के अनुच्छेद 347 के तहत छत्तीसगढ़ी बोली को छत्तीसगढ़ राज्य की सरकारी भाषा के रूप में शासकीय मान्यता दी जाए।'' तथा पुनः शुक्रवार, 13 जुलाई, 2007 को अशासकीय संकल्प सर्व सम्मति से स्वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्द्र सरकार से अनुरोध करता है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी भाषा को संविधान के अनुच्छेद 347 के तहत राज्य की सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी जाय।''
छत्तीसगढ़ राजभाषा अधिनियम, 1957 (क्रमांक 5 सन् 1958), (मूलतः मध्यप्रदेश राजभाषा अधिनियम, जो अनुकूलन के फलस्वरूप इस तरह कहा गया है) में ''राज्य के राजकीय प्रयोजनों के लिए राजभाषा'' में लेख है कि ''एतद्पश्चात् उपबंधित के अधीन रहते हुए हिन्दी, उन प्रयोजनों के अतिरिक्त, जो कि संविधान द्वारा विशेष रूप से अपवर्जित कर दिये गये हैं, समस्त प्रयोजनों के लिए तथा ऐसे विषयों के संबंध में, के अतिरिक्त जैसे कि राज्य-शासन द्वारा समय-समय पर अधिसूचना द्वारा उल्लिखित किये जाएं, राज्य की राजभाषा होगी।''
इसी राजपत्र में यह भी उल्लेख है कि ''मध्यप्रदेश आफिशियल लैंगवेजेज एक्ट, 1950 (मध्यप्रदेश की राजभाषाओं का अधिनियम, 1950) (क्रमांक 24, सन् 1950 तथा मध्यभारत शासकीय भाषा विधान, संवत् 2007 (क्रमांक 67, सन् 1950) निरस्त हो जाएंगे।''
छत्तीसगढ़ विधानसभा में 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ी राजभाषा विधेयक पारित हुआ, इसके पश्चात शुक्रवार, 11 जुलाई 2008 के छत्तीसगढ़ राजपत्र में छत्तीसगढ़ राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2007 को और संशोधित करने हेतु अधिनियम आया कि ''छत्तीसगढ़ राज्य के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा के रूप में हिन्दी के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी को अंगीकार करने के लिए उपबंध करना समीचीन है.'' और इसके द्वारा मूल अधिनियम में शब्द ''हिन्दी'' के पश्चात् ''और छत्तीसगढ़ी'' अंतःस्थापित किया गया। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि- ''छत्तीसगढ़ी'' से अभिप्रेत है, देवनागरी लिपि में छत्तीसगढ़ी।'' सन 2013 में 11 जुलाई को ही शासन ने अधिसूचना जारी कर प्रतिवर्ष 28 नवंबर को ‘‘छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस‘‘ घोषित किया है।
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तीन-एक साल पहले प्रकाशित पुस्तक, जिसमें ''दंतेवाड़ा के छत्तीसगढ़ी शिलालेख'' बताते हुए कोई अन्य चित्र, 1703 (शिलालेख का काल?, जो वस्तुतः सन 1702 है) अंक सहित छपा है। |
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नन्दकिशोर शुक्ल जी, पिछले चार-पांच साल में अपने निजी संसाधनों और संगठन क्षमता के बूते, लगातार सक्रिय रहते 'मिशन छत्तीसगढ़ी' के पर्याय बन गए हैं, कुछ गंभीर असहमतियों के बावजूद उनके ईमानदार जज्बे और जुनून का मैं प्रशंसक हूं। |
दक्षिण भारत के मेरे एक परिचित ने मुझे अपने परिवार जन से छत्तीसगढ़ी में बात करते सुना तो यह कहकर चौंका दिया कि लगभग साल भर यहां रहते हुए उनका छत्तीसगढ़ी से परिचय मोबाइल के रिकार्डेड संदेश और रेल्वे प्लेटफार्म की उद्घोषणा के माध्यम से हुआ जितना ही है तब लगा कि अस्मिता को जगाए-बनाए रखने के लिए गोहार और हांक लगाने का काम, अवसरवादी स्तुति-बधाई गाने वालों, माइक पा कर छत्तीसगढ़ी की धारा प्रवाहित करने वालों और उसे छौंक की तरह, टेस्ट मेकर की तरह इस्तेमाल करने वालों से संभव नहीं है। विनोद कुमार शुक्ल जी की कहावत सी पंक्ति में- ''छत्तीसगढ़ी में वह झूठ बोल रहा है। लबारी बोलत है।'' तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता के असली झण्डाबरदार ज्यादातर ओझल-से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।