दरार, की-होल या फांक से झांक लेना, कान लगा कर आहट लेना, चोरी-चोरी का अपना सुख होता है। निषिद्ध के प्रति उत्सुकता, उसका इंद्रिय-आस्वाद, मानवीय स्वभाव है। इस घिसी-पिटी बात के साथ, एक ताजे और बीच-बीच में उभरते विवाद पर कुछ बातें। फिनलैंड की युवा स्त्री प्रधानमंत्री चर्चा में हैं, कोलकाता के सेंट जेवियर्स की युवा असिस्टेंट प्रोफेसर की घटना भी याद की गई है, और रणवीर सिंह का न्यूड फोटो-शूट। मामला निजता और सार्वजनिक छवि-प्रस्तुति का है। इस पर नारी-विमर्श से अलग भी कुछ सोचने का प्रयास।
इस पर जहां से बात शुरू हुई है, वह पहली बात नर-नारी संदर्भ निरपेक्ष है। दूसरी बात कि नारी-देह के प्रति आकर्षण अधिक होता है, बाजार, विज्ञापन, मीडिया, फिल्मों में वह परोसा भी अधिक जाता हैै साथ ही नारी वैसी लोलुप नहीं होती, जितना पुरुष और होती भी हो तो यह प्रकट नहीं होता। तीसरी कि निसंदेह निजता पर सबका अपना हक होता है, होना चाहिए, उस पर सेंध मारना अनैतिक है, मगर स्थितियां अलग-अलग हो सकती है। व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) अपने निजी क्षणों को स्वयं सार्वजनिक करे या दूसरों द्वारा सार्वजनिक करने दे, उसे आपत्ति न हो। व्यक्ति के निजी क्षणों को उसकी सहमति के बिना सार्वजनिक किया जाए, और उसे फर्क न पड़े, वह खुश हो या आहत-नाराज हो। एक तरफ पत्र, डायरी का सार्वजनिक किया जाना और आत्मकथा के प्रसंगों के संदर्भ तो इसके साथ अनजान बन चतुराई से ‘लीक‘ भी विचारणीय है।
आउट-फिट पर ध्यान दें तो डिजाइनर ड्रेस, स्लीव-लेस, हाइ हिल, लिपस्टिक, ब्यूटी पार्लर के मामले में सामान्यतः स्त्रियां, पुरुषों से अलग होती हैं। लड़का से लड़की बनी एक ट्रांसजेंडर से पूछने पर कि ऐसा क्या और क्यों जरूरी हो गया था, उसने बताया कि मुझे बात-बात पर शर्म आती थी, मन होता था चूड़ी-बिंदी करूं, बाल बढ़ा लूं, सज-संवर कर रहूं। तो क्या लड़के और लड़की की सोच में मुख्य फर्क यही है। मान लिया जा सकता है कि उन्हें सिंगार-पटार या कहें दिखावा? अधिक पसंद होता है।
अन्य, विशेषकर जिससे लगाव हो, ऐसे पुरुष का सुख और संतुष्टि, नारी के लिए प्राथमिक होती है, ऐसा सामान्यतः देखने में आता है। सबल सक्षम समाज की आत्म निर्भर नारी में इसका उदाहरण प्रभा खेतान में दिखता है। पुस्तक ‘नागरसर्वस्वम्‘ की भूमिका में डा. रामसागर त्रिपाठी कहते हैं- ‘उसने स्त्री में लोकातीत लज्जा की भावना भर दी और उससे पुरुष विरत न हो जाए इसके लिए पुरुष को औद्धत्य और दर्प प्रदान कर दिया।‘ स्त्री और पुरुष की मर्यादा और मानकों पर चर्चा करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण उद्धरण आवश्यक होगा- ‘कहते हैं सभ्यता का आरम्भ स्त्री ने किया था। वह प्रकृति के नियमों से मजबूर थी; पुरुष की भाँति वह उच्छृंखल शिकारी की भाँति नहीं रह सकती थी। झोंपड़ी उसने बनायी थी, अग्नि-संरक्षण का आविष्कार उसने किया था, कृषि का आरम्भ उसने किया था; पुरुष निरर्गल था; स्त्री सुशृंखल। पुरुष का पौरुष प्रतिद्वन्दी के पछाड़ने में व्यक्त होता था, स्त्री का स्त्रीत्व प्रतिवेशिनी की सहायता में। एक प्रतिद्वन्द्विता में बढ़ा, दूसरा सहयोगिता में। स्त्री पुरुष को गृह की ओर खींचने का प्रयत्न करती रही, पुरुष बन्धन तोड़कर भागने का प्रयत्न करता रहा। ... पुरुष ने बड़े-बड़े धर्मसम्प्रदाय खड़े किये- भागने के लिए। स्त्री ने सब चूर्ण-विचूर्ण कर दिया- माया से । पुरुष का सबकुछ प्रकट था, स्त्री का सबकुछ रहस्यावृत। पुरुष जब उसकी ओर आकर्षित हुआ तब उसे गलत समझकर, जब उससे भागा तब भी गलत समझकर। उसे स्त्री को गलत समझने में मजा आता रहा, अपनी भूल को सुधारने की उसने कभी कोशिश ही नहीं की। इसीलिए वह बराबर हारता रहा। स्त्री ने उसे कभी गलत नहीं समझा। वह अपनी सच्ची परिस्थिति को छिपाये रही। वह अन्त तक रहस्य बनी रही। ... रहस्य बनी रहने में उसे भी कुछ आनन्द मिलता था। इसीलिए जीतती भी रही और कष्ट भी पाती रही।‘
हम उसी समाज से अपेक्षाएं रखते हैं, जिससे हमें अक्सर शिकायत बनी रहती है। समाज से अपनी पसंद और सुविधानुसार छूट नहीं ली जा सकती। समाज से अपेक्षाएं हैं तो उसी समाज की अपेक्षाओं के अनुकूल, समाज की इकाई को आचरण भी करना होगा। और यह वस्तुनिष्ठ, मशीनी नहीं होगा, परिवर्तनशील भी होगा। निसंदेह इस पर राय भिन्न होगी, संदर्भों के साथ, व्यक्तियों के साथ। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि सार्वजनिक जिम्मेदारी वाले व्यक्ति के साथ सीमाएं अलग होंगी, लेकिन इसकी न तो कोई आचार-संहिता संभव है, न ऐसा कोई निर्विवाद कानून। वात्स्यायन का शास्त्रीय अध्ययन, कालिदास का उत्कृष्ट साहित्य, खजुराहो की प्रतिमाएं, शिवलिंग, दिगंबर जैन साधु, नागा बाबा से ले कर सेंसर-बोर्ड, सभी को साथ रख कर स्वयं विचार करें कि किस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं, क्या ऐसी व्यवस्था दे सकते हैं, जो निर्विवाद न हो, लेकिन तार्किक और औचित्यपूर्ण हो।
सुनी-सुनाई। उच्च पद पर आसीन एक युवा महिला अधिकारी सोशल मीडिया पर अपनी आकर्षक तथा पति के साथ अंतरंग तस्वीरें लगाया करती थीं, ढेरों लाइक और कमेंट आते, वॉव, ब्यूटीफुल और कुछ इससे भी आगे, मगर तब तक मामला वर्चुअल होता। महिला अधिकारी का उत्साह बना रहा। किसी दिन उनके ‘चुगलखोर‘ स्टाफ ने बहुत संभाल कर बात कही, किसी और का नाम लेते, जिससे उसकी चर्चा हुई थी, इस सावधानी सहित कि मैडम खुश होंगी, तो शाबासी मिलेगी और बिगड़ गई तो अगले के मत्थे। मैडम को बताया कि अमुक मुझसे कह रहा था कि मैडम एक से एक फोटो लगाती हैं, मस्त, जोरदार। कुछ ठहर कर जोड़ना चाहता था, मुझे भी। मगर अब मामला वर्चुअल नहीं रहा, गाज गिरते देर नहीं लगी। मैडम फोटो अब भी लगाती हैं, कुछ अलग तरह की, लाइक-कमेंट भी कम हो गए, पता नहीं क्या सोचती होंगी। चिलमन से लगे छुपते-सामने आते जैसा कुछ या कि ‘अंदाज़ अपना देखते हैं आइने में वो, और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो।‘
बहरहाल, किसी संदर्भ-विशेष से अलग कभी इस पर सोच बनी थी कि ‘परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त‘ और हम सब सीसीटीवी की निगरानी में तो रहते ही हैं, दूसरों की नजर में बने रहना, ऐसी सोच कि कोई हमें देख रहा है, सुन रहा है, हमारी अंतरात्मा या उपर वाला ‘बिग बॉस‘, आचरण की शुचिता के लिए सहायक हो सकता है। वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्सर ‘संदेह‘ होता है फिर संदेह से बचना क्यों? ऐतराज क्या? स्थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या क्रि संदेह और अपवाद से।
आगे और कुछ पढ़ना चाहें तो ‘यौन-चर्चाःडर्टी पोस्ट‘ पर नजर डाल सकते हैं।
No comments:
Post a Comment