Sunday, September 29, 2024

परिन्दे

‘जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै।‘ निर्मल वर्मा को एक बार पढ़ने के बाद वहां फिर-फिर आना होता है। पिछले दिनों ‘परिन्दे‘, कव्वे और काला पानी‘ और ‘एक चिथड़ा सुख‘ पर फिर से लौटा। वैसे उन तक पहुंचने का मेरा रास्ता, उनके निबंधों से होकर जाता है। उन्हें पढ़कर भूल जाने से ऐसा अच्छी तरह हो पाता है, क्योंकि फिर जहाज पर तभी आएंगे जब जहाज छोड़कर जाएं, जाने-अनजाने भूले-भटके ठिकानों पर, एक बार, बार-बार।

पूरा पद है- मेरो मन अनत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै। निर्मल वर्मा का मन-परिन्दा नदी-समुद्र का नहीं पहाड़ का है। उनके पात्र उनकी ही तरह प्रवास के परिन्दों के मानिंद हैं, लगभग एकाकी। आप जितने अकेले होते हैं, अधूरे-से होते हैं, आसपास के अनजाने भी जाने-पहचाने लगने लगते हैं। जड़ों से दूर हों तब अपनी जड़ों से जुड़ाव अधिक महसूस होता है। जैसा वे कहते हैं- ‘होम-सिक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है।

परिंदों में ठहराव नहीं होता, गति, प्रवास और विस्थापन होता रहता है, इस हलचल का अपना लय होता है, कुछ-कुछ वैसा ही, जैसा वातावरण वे अपने लेखन में, खासकर परिन्दे कहानी में रचते हैं। भिन्न दृष्टिकोण और मनोमुद्रा, लीक से हटकर, प्रवास-विस्थापन में अधिक सक्रिय होती है, जिसके धुंघलके को वे अपने काव्यात्मक शब्दों में पकड़ते हैं।

विस्थापन से महसूस होने वाले खालीपन, रिक्ति की पूर्ति के लिए नये संबंध बनते हैं, उनके आपसी रिश्तों में यह बार-बार उभरता है। इस तरह उसके लिए दोनों दुनिया, माया-आभासी हो जाती है। अपनी जड़ों में जहां वह नहीं है, स्मृति में वहीं टिका हुआ है और जहां सशरीर है, वहां मन भटका हुआ है। संभवतः इसी दशा में मन की झलकियां कुछ-कुछ स्पष्ट होती हैं, जिसे वे पकड़ते हैं। शीर्षक याद आते हैं- ‘आंगन का पंछी और बनजारा मन‘, ‘बसेरे से दूर‘ आदि।

मनुष्य के आपसी संबंधों को अंतिम रूप से तय कर देना शायद कभी संभव नहीं। और वह स्त्री-पुरुष के बीच हो तो और भी अनिश्चित हो जाता है। वे संबंधों को यथातथ्य रखते हैं और दिखाते हैं कि नर-नारी के बीच के संबंधों के कितने आयाम हो सकते हैं। ‘परिन्दे‘ संग्रह की संग्रह की कहानियों में ‘डायरी का खेल‘ में भाई-चचेरी बहन, ‘माया का मर्म‘ में बच्ची और युवा हैं, जिसमें ‘मैं‘ कहता है- ‘वह मेरे लिए महज़ बच्ची न रहकर लता माथुर बन गई।‘ ‘तीसरा गवाह‘ में विवाहोत्सुक स्त्री पुरुष, ‘अँधेरे में‘ के माता-पिता और बीरेन चाचा, ('फ्लाबेज लेटर्स टु जॉर्ज सां‘ से जो परिचित नहीं, वह ठगा सा महसूस करेगा।) ‘पिक्चर पोस्टकार्ड‘ के कॉलेज सहपाठी, सितम्बर की एक शाम‘ का 27 वर्ष आयु का युवक और बहिन पात्र और इनके बीच राग के विभिन्न पहलू उभरते हैं।

परिन्दे

संग्रह की पहली कहानी ‘डायरी का खेल‘, जैसा खेल वे अक्सर खेलते हैं, उनके कहानीकार में चिंतक की झलक शुरु में ही मिल जाती है- ‘अतीत समय के संग जुड़ा है, इसलिए चेतना नहीं देता, केवल कुछ क्षणों के लिए सेंटीमेंटल बनाता है। जो चेतना देता है वह कालातीत है...‘। कहानी ‘माया का मर्म‘ जिस वाक्य पर पूरी होती है- "यहाँ से बहुत दूर, सात समुन्दर पार एक छोटा-सा देश है..." फिर कहानी शुरू हो जाती है... और मैं सुनने लगता हूँ।

‘तीसरा गवाह‘ की कहानी के लिए भूमिका बनाते हैं और उसमें लपेट कर पात्र रोहतगी साहब की जबानी कहानी कहते हैं, जिसमें कहानी, अपने मर्म के साथ आती है, पात्र कहता है- ‘प्रेम-अगर ऐसी कोई चीज है तो-बहुत महत्वहीन और आकस्मिक परिस्थितियों में आरम्भ होता है और उसका अन्त भी शायद बहुत ही छोटे और अर्थहीन कारणों से हो जाता है।‘ और कहानी के अंत में पहुंचकर लगता है कि फिल्म ‘तनु वेड्स मनु‘ इसी कहानी से प्रेरित है। इस कहानी का एक अंश- ‘जब तक कमरे में अँधेरा था, ठीक था, औपचारिकता के बन्धन दब गए थे। बत्ती जलते ही अन्धकार का मौन परिचय तीखी रोशनी में डूब गया और हम नये सिरे से अजनबी हो गए।‘ एक अन्य अंश के शायद पर ध्यान जाता है- ‘वह शायद ख़ुद भी नहीं दीखती, वह शायद ख़ुद भी नहीं देख पाती। भीतर कमरे से अम्मा की आवाज़ सुनाई दी। वह शायद जाग गई थीं।‘

‘पिक्चर पोस्टकार्ड‘ कहानी का अधिकतर वार्तालाप में है। इसमें कहानियों के लिए पात्र कहता है- ‘जब तक कहने के लिए कुछ सिग्नीफिकेंट (महत्वपूर्ण) चीज़ न हो, तब तक लिखने के क्या मानी रह जाते हैं?‘ उनके स्त्री-पुरुष पात्रों में भाई-बहन भी होते हैं, जैसे ‘सितंबर की एक शाम में‘, और उनमें संवेदना के सहज-जटिल आवेगों को वे उभारते हैं, इस कहानी में भाई बहन से कता है- ‘बच्ची, तुम इतनी बुजुर्ग कब से बन गई।‘ यह भी ‘घर छोड़कर भागने, घर वापस लौटने‘ की कहानी है।

‘परिन्दे‘ में प्रवास-विस्थापन के साथ रिश्तों और उम्र का संयोग है, मन की मनमौजी गति आसानी से पठनीय बन जाए, वैसा असंभव सा सहज निर्वाह है। मुख्य पात्र लतिका याद करते मानों कहानी का सार बता रही है- ‘हर साल सर्दियों की छुट्टियों से पहले ये परिन्दे मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बर्फ़ के दिनों की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जाएँगे...‘ या डॉक्टर कहता है- ‘मैं कभी कभी सोचता हूं इनसान जिन्दा किसलिए रहता है- ... हजारों मील अपने मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ-‘ या ‘अपने देश का सुख कहीं और नहीं मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो, अपने को हमेशा अजनबी पाओगे।‘

विस्थापन की यह भी अभिव्यक्ति है- ‘जिस स्थान पर खिलौना रखा होता, जान-बूझकर उसे छोड़कर घर के दूसरे कोने में उसे खोजने का उपक्रम करती। तब खोई चीज याद रहती, इसलिए भूलने का भय नहीं रहता था...‘बार-बार अलग-अलग यही बात उभरती रहती है। औ पात्रों के आपसी संबंधों के ताने-बाने- लतिका-ह्यूबर्ट लतिका-डॉक्टर मुखर्जी लतिका-मेजर गिरीश नेगी। प्रिंसिपल मिस वुड, जूली-कुमाऊँ रेजीमेंट का मिलिटरी अफसर, क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुकर्जी, मि. ह्यूबर्ट-लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जाएँगे?


कव्वे और काला पानी

कहानी ‘धूप का एक टुकड़ा‘ एकालाप है। किस्से गढ़ना बात बनाना ही तो है। यहां उस तरह से बनी भी है। वे जादूई वाक्य वे गढ़ते हैं, जैसे- ‘नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिककर रहे-तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर कब्रों के हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि कब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी खास अन्तर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझकर दूसरे की कब्र में घुसना पसन्द नहीं करेगा!‘ या कहानी ‘दूसरी दुनिया‘ में- ‘यह नहीं कि कमरे में हीटर नहीं था, किन्तु उसे जलाने के लिए उसके भीतर एक शिलिंग डालना पड़ता था। पहली रात जब मैं उस कमरे में सोया था, तो रात-भर उस हीटर को पैसे खिलाता रहा-हर आध घंटे बाद उसकी जठराग्नि शान्त करनी पड़ती थी। दूसरे दिन, मेरे पास नाश्ते के पैसे भी नहीं बचे थे। उसके बाद मैंने हीटर को अलग छोड़ दिया। मैं रात-भर ठंड से काँपता रहता, लेकिन यह तसल्ली रहती कि वह भी भूखा पड़ा है। वह मेज पर ठंडा पड़ा रहता- मैं बिस्तर पर और इस तरह हम दोनों के बीच शीत युद्ध जारी रहता।

कहानी ‘ज़िन्दगी यहाँ और वहाँ‘ में नायिका इरा यानी बिट्टी का मैं, नायक फैटी का मैं और कथाकार की आंख-मिचौली चलती रहती है। यहां भी यात्रा-प्रवास होता रहता है- ‘फिर गर्मियां आयीं और लोग बाहर जाने लगे-नैनीताल, मसूरी, शिमला-उन मौसमी परिन्दों की तरह...‘। पात्र बाइबल का एक वाक्य दुहराता है- ‘ जिसके पास है और ...जिसके पास नहीं है। अकेलेपन की जान-पहचान अनजाने जड़-चेतन से मैत्री व्यक्ति बच्चों से तो बच्चे खिलौनों-पेड़ पौधों, प्रकृति से जुड़ने लगते हैं। जो अपनी जिंदगी को ही कहानी की तरह रचता होता है, उसके साथ ऐसा होता है कि ‘सत्तानबे पृष्ठ पर सारा पन्ना खाली पड़ा था, सिर्फ ऊपर लिखा था-लाइफ हियर-ऐंड आफ्टर! और कैसी व्यथा है- ‘बैंक के जिस खाते मेंहमने अपना प्रेम जमा किया था,क्या उसमें से मैं एक पाई विश्वास नहीं भुना सकता?‘ दूसरी तरफ- ‘उन्होंने एक दोपहर एक-दूसरे से मुक्ति पाने की प्रार्थना की थी।‘ घर और घर छोड़ना यहां भी है।

‘सुबह की सैर‘ निहालचन्द्र का मौन एकालाप, जिसे कथाकार देख-सुन रहा है, बता रहा है। प्रवासी निहालचंद्र को ग्वालियर के जंगल याद आते हैं, लद्दाख की पोस्टिंग याद आती है। या ‘यह बहुत बड़ी सांत्वना थी। निहालचन्द्र सचमुच ही कहीं नहीं जा सकते थे। सिर्फ लौट सकते थे-हर दोपहर साल में तीन सौ पैंसठ बार। बेनागा, उम्र के आखिरी दिन तक। कथाकार बताता है- ‘फिर एक लंबी साँस खींची, जो ‘आह‘ और ‘हे ईश्वर‘ के बीच जैसी कराहट में बुझ गई। एक और अंश- ‘पता नहीं, यह बात वे अपने बेटे से कहते, जो विदेश में था, या अपनी पत्नी से, जो परलोक में थी या सचमुच प्रभु से, जो कहीं न था।‘

कहानी ‘आदमी और लड़की‘ में कहन का एक ढंग यह- ‘कमरे में अंधेरा उतना नहीं था, जितना रोशनी का अभाव...‘ या एक और ‘किताब का टाइटल पढ़ती, फिर डस्टर से उसे झाड़-पोंछकर दूसरी किताबों के सिरहाने टिका देती।‘ या ‘सफेद कुँआरा हाथ, जिसने अभी तक केवल सेकेंड-हैंड किताबों को छुआ था...‘रिश्तों का उलझाव यहां भी है- ‘लोग मुझे उसकी बेटी समझते हैं, उसने सोचा ... मुझे कभी उम्र याद नहीं आती ... मुझे पता भी नहीं चलता कि वह मुझसे कितना बड़ा है। उम्र के बारे में क्या सोचना?‘ लड़की सोचती है।‘

कहानी ‘कव्वे ...‘ के प्रवाह में पाठक इस तरह डूब सकता है कि कहानी का ओझल-सा सूत्र, इस तरह अनावश्यक हो जाता है कि वह न भी रहे तो कहानी रहेगी। कहानी का सूत्र, कागज में दस्तखत का है, कहानी में जिसे महत्व नहीं दिया गया है, यो ही सा उल्लेख आता है। और कव्वे ...! आधी कहानी हो जाने पर पहली बार आते हैं, पुरखों-पितरों की तरह? फिर वही टेक, दूसरों और अपनों का फर्क समझते विस्थापन का दर्शन है। अनजानी जगह आना, भुवाली लौटना और पात्रों का एकाकीपन बना रहता है। अकेलेपन की एक अभिव्यक्ति- 'उनके स्वर में कुछ ऐसी उदास निस्संगता थी, जो हमें आदमियों में नहीं-पेड़ और पत्थरों और पानी में मिलती है जो रिश्तों की लहूलुहान पीड़ा से बाहर जान पड़ती है-क्या यह निस्संगता उन्होंने पिछले वर्षों के अकेलेपन में अर्जित की थी?'

‘एक दिन का मेहमान‘ कहानी का मेहमान और कोई नहीं घर में रह रही महिला सदस्यों मां-बेटी का पति-पिता है। आना-जाना इस तरह है कि- ‘यू आर ए कमिंग मैन एंड ए गोइंग मैन।‘ स्त्री-पुरुष संबंधों का उलझाव और द्वंद्व यहां भी है और प्रवास भी- ‘सुनो, मैं अगली छुट्टियों में इंडिया आऊँगी-इस बार पक्का है।‘

किताब के कवर पर लेखक स्वयं चित्र चस्पां है, जिसमें वह कबूतरों, (न कि कव्वे) को दाना चुगा रहा है, चित्र का मेल संग्रह की कहानी ‘दूसरी दुनिया‘ से है, जिसमें कबूतर और दाना डालने का उल्लेख है। बताया गया है कि लेखक का यह चित्र, सौजन्य: गगन गिल, सेंट मार्क, वेनिस, 1991 का है। यह संस्करण 2017 का है, यह सुरुचिपूर्ण नहीं लगता।

एक चिथड़ा सुख

पसंदीदा किताबों का मसौदा भूल जाना ही बेहतर। ऐसा शायद तब होता है जब वह अच्छी तरह जज्ब हो जाए, स्मृति में बस ‘एक चिथड़ा सुख‘ की तरह अटका रहे। ‘थिगलियां‘ से निर्मल वर्मा को पढ़ने का मन न भरा, संयोग कि ‘एक चिथड़ा सुख‘ भी साथ था। उसका बस यही टूटा-फूटा याद था- दिल्ली, इलाहाबाद, नाटक, अकेलापन, आकस्मिक पात्रों और तरल बहते काल का असमंजस, डायरी-‘शब्द और स्मृति‘।

अब देख रहा हूं कि अनायास आते पात्र, कभी स्मृति में, कभी रूपक में, कभी कहानी के सच में। पात्रों का चरित्र और व्यवहार टूटा-बिखरा, अप्रत्याशित-सा। उनका ‘अस्तित्व‘ नाम में नहीं बंधा रहता, वे अधिकतर सर्वनाम- प्रथम, मध्यम और अन्य पुरुष होते ‘उसे, वह, मैं, उसका, उससे, कौन, किसे‘ में विचरते हैं, मानो पात्र तो मनोभावों को प्रकट करने के साधन-मात्र है। 

उपन्यास के आरंभ में ही- ’यह उसे अच्छा लगता। वह अपने कपड़े उतार देता ... वह रात को देर से लौटती थी। ‘... उसका ‘वह‘ धीरे-धीरे उसके ‘मैं‘ में बदलने लगता है (पेज-124)। ’उसे नहीं मालूम, वह उससे क्या चाहती थी? फोन पर उसने कुछ नहीं बताया (पेज-193)। ’मैं भविष्य से लौट आता हूं, पुनर्जीवित हो जाता हूं, अब मैं ‘वह‘ हूं ... (पेज-199)। ’उसने कागज को लपेटकर उसके हाथ में रख दिया-उसकी गीली हथेलियों के बीच, और वह उसे पकड़े रहा। उसने पूछा नहीं, कौन, किसे देना होगा? (पेज- 206-207)। ’वहां अब कोई नहीं था। कोई नहीं था। सिर्फ वह था जो अब ‘मैं‘ हूं ... (पेज-228)

कुछ अभिव्यक्तियां, खास निर्मल वर्मा वाली- ’लम्बी-लम्बी सांसें खींचने लगता। हवा उसके फेफड़ों में घूमने लगती। रात की बची-खुची नींद उन सांसों में बह जाती (पेज-9)। ’कुत्ते सहसा शान्त हो गए थे, हवा में झरती बारिश की अफवाह को उन्होंने भी सूंघ लिया था (पेज-32)। ’बार-बार अपने को समझाने लगा कि यह सिर्फ ड्रामा है, असली ड्रामा भी नहीं, सिर्फ एक खाली दुपहर का रिहर्सल (पेज-71)। ’दाढ़ी बढ़ी थी, वैसे नही, जिसे बढ़ाया जाता है, जैसे डैरी की दाढ़ी थी, बल्कि जिसे देख कर लगता था, जैसे वह शेव करना भूल गए हों (पेज-82)। ’भय नहीं, लेकिन भयभीत, खुशी नहीं, लेकिन भयभीत-सी खुशी, एक उज्ज्वल-सा विस्मय, जिसके हाशिये पर स्याही पुती रहती है। (पेज-128)

प्रवास औैर विस्थापन की फांक से वे सारे दृश्य रचते हैं। यहां घटनाएं न-सी हैं, और जितनी होती हैं वे भी सहज तारतम्यता के बजाय औचक रहस्यात्मकता वाली होती है। निर्मल वर्मा की तरह मचल कर लिखना फिर भी लिखे को संभाले रहना, उन्हीं के बस का हो सकता है। लिखावट में वे कहानी, उपन्यास, निबंध, यात्रा-संस्मरण वाले गद्यकार हैं, अपनी बनावट में कवि-चिंतक।

Sunday, September 22, 2024

निधीश की तमन्ना

फिल्मी गीत ‘जिंदगी इम्तिहान लेती है‘ में दोस्ती, दिल्लगी, प्रीत, बेबसी, आशिकी, मयकशी भी इम्तिहान लेती है। गीत से बाहर निकल आएं तो कुछ किताबें भी इम्तिहान लेती है, उनमें से एक यह निधीश त्यागी की ‘तमन्ना तुम अब कहां हो‘ है। मगर क्या यह इम्तिहान देना जरूरी है?, शायद नहीं, मगर मुझ छत्तीसगढ़िया के लिए हां, क्योंकि इस लेखक के छत्तीसगढ़ से रिश्ते के बारे में बताया गया है। किताब में रायपुर, बस्तर-जगदलपुर, विनोद कुमार शुक्ल(ा)? आते ही हैं, देशबन्धु अखबार (पत्रकारों की नर्सरी) में नौकरी का भी जिक्र है। और फिर लेखक ब्लॉग वाले दिनों के वर्चुअल परिचितों में हैं।

दौ सौ से कम पेज की पुस्तक में सौ से अधिक और अधिकतर वाक्य की तरह लंबे शीर्षकों के साथ बात कही गई है। एक शीर्षक में ‘एक लाइन में दिल तोड़ने वाली 69 कहानियां' हैं, सो अलग। कहीं डायरी जैसी अनौचारिक, मनमौजी, सहजता तो कहीं चिंतन। कवितानुमा गद्य, दार्शनिक उलटबांसियां। दो और कभी-कभी दो से भी अधिक वाक्य, जिन का वैध संबंध लिखने वाले के मन में तो होता होगा लेकिन पाठक को वह अवैध की तरह लगता है।

खबरों के अंश, जो छपने-छापने के लिए गैरजरूरी मान लिए जाते हैं, उनमें कहानियां उग आती हैं, यहां कई ऐसे प्रसंग हैं। ‘एक गुमशुदा दोस्त का पता मिलने पर‘ गद्य गीत है। ‘नैय्यरा नूर ...‘ के लिए कहने का ढंग उपयुक्त बन पड़ा है। ‘उसने दिल को ...‘ और ‘फिर फंस जाओ...‘ भेद में सौहार्द उभारने का प्रयास है। ‘उसने समंदर में ...‘ सुंदर निभा है।

‘खुशी को जिस... ‘ में ‘उसने‘ का प्रयोग देखिए- ‘उसने कहा उसे लौटना है। उसने पूछा कहां? उसने कहा-अब उसे पता है रास्ता खु़द के पास जाने का। उसने कहा...‘। ‘दिक्कत प्यर की...‘ का उसने देखिए- ‘उसने कहा-वह दूर जा रहा है। उसने कहा-ख़्याल रखना। उसने कहा-तुम भी। उसने कहा-ख़बर भेजते रहना अपनी। उसने कहा-वह जल्द लौटेगा। उसने कई लंबे ख़त लिखे। पर ख़राब नेट कनेक्शन की वजह से वे जा नहीं सके। उसका मोबाइल गुम गया और उसे उसका नंबर ही याद नहीं रहा।‘

‘शीशे की असलियत...‘ का एक दिलचस्प अंश- ‘उसे जैसे यक़ीन था कि अगर आप ज्यादा शिद्दत से दिलचस्प बातों को ढूंढ़ते हैं, तो वे आपको नहीं मिलती। नहीं मिलतीं इसलिए कि वे भी आपको ढूंढ़ रही होती हैं आपके पते पर, और आप उनके पते पर उन्हें ढूंढ़ रहे होते हैं। ‘लड़की देखते ही...‘ किसी बड़ी कहानी का बढ़िया प्लॉट, जल्दबाजी में मटियामेट हुआ है। वेब मैगजीन हीट की एम्मा, खबर-खुलासे के साथ संभावित कुछ अलग तरह के अंदेशों-खतरों के साथ दो शीर्षकों में आती है। ‘घरघराते हुए एयरकंडीशनर...‘ और ‘हाशिए से आता है...‘, असंबद्ध किस्म के वाक्यों का गुच्छा है, जिसमें छत्तीसगढ़- जशपुर, गरियाबंद आदि के साथ आता है।

कुल मिलाकर लगता है लेखक को जो अगला काम करने की तमन्ना है उसके लिए यहां कलम मांज रहा है।

Saturday, September 14, 2024

आईनाघर

प्रियंवद की कोई कहानी बहुत पहले पढ़ी थी, बस इतना ध्यान रह गया कि इस लेखक को आगे कभी पढ़ा जा सकता है। अब ‘आईनाघर‘ के दोनों भाग हाथ में हैं। इस पर ‘कथा समग्र‘, प्रियंवद की संपूर्ण कहानियां (रचनाकाल 1980 से 2007) भाग: 1 तथा भाग: 2 अंकित है। भाग: 1 के आरंभ में लेखक की ‘भूमिका‘ तथा भाग: 2 के परिशिष्ट में लेखक का वक्तव्य- ‘मैं औैर मेरा समय‘ (कथादेश-मार्च 1999) शामिल है। भाग: 1 की भूमिका में लेखक ने 1980 की अपनी पहली कहानी ‘बोसीदनी‘ का उल्लेख किया है, मगर वह इस भाग की 20 कहानियों में नहीं है। कहानियों का प्रकाशन संदर्भ- वर्ष सहित पत्र-पत्रिका की जानकारी, जाने क्यों कहानियों के साथ नहीं है। यह सूची भाग: 2 के अंत में परिशिष्ट-4 में है।

इस ‘कथा-समग्र‘ के दोनों भाग पर फरवरी, 2008 पहला संस्करण अंकित है, इससे पता लगता है कि यह टुकड़ों में नहीं, योजनाबद्ध और एक साथ प्रकाशित हुई है इसलिए पहले भाग में भूमिका के साथ इसकी योजना, रूपरेखा और साथ ही प्रत्येक कहानी के साथ अंत में प्रकाशन वर्ष सहित संदर्भ दिया जा सकता था। यह भी कि कहानियां लिखे जाने/प्रकाशित होने के क्रम में नहीं हैं और ऐसा नहीं है तो चालीस कहानियों में से कौन सी बीस, पहले भाग में और कौन सी बीस दूसरे में, इसके पीछे कोई सोच थी? यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है। ऐसा न होने का कारण जो भी हो, इसे चूक ही माना जावेगा, और फिर यह संग्रह है ‘संगमन‘ और ‘अकार‘ वाले प्रियंवद का, जो केवल कहानीकार नहीं, आयोजक-संपादक भी हैं, इसलिए यह चूक अधिक गंभीर मानी जाएगी।

‘आईनाघर‘ शीर्षक से कोई कहानी ‘कथा-समग्र‘ में नहीं है, जैसा नामकरण आमतौर पर किया जाता है, तो माना जा सकता है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है‘ के समर्थन में यह एक शब्द तय कर इसे समग्र का शीर्षक बनाया गया है। इस तर्ज पर प्रियंवद पूरा आईनाघर रचते हैं, जिसमें मानों समाज के साथ, अपना अक्स तो निहारते ही हैं, पाठक को आमंत्रित करते हैं, खुद को कुछ घड़ी ठहर कर देखते, महसूस करते, अपना खुद का सामना करने के लिए।

इस भूमिका के साथ कुछ और बातें। किसी प्रतिष्ठित-स्थापित साहित्यकार के लेखन पर टिप्पणी करते हुए ध्यान में रहता है कि इस तरह अपने पाठकीय अनुभव लिखते हुए मेरी साहित्यिक समझ पर संदेह किया जा सकता है, मगर इस दबाव से मुक्त रहना जरूरी मानता हूं। साहित्य को अधिकतर शौकिया पढ़ता हूं। पूरी जिम्मेदारी रचनाकार और उसके लिखे है कि वह मुझे पकड़े। कोर्स की किताब नहीं है, न पेशे जैसा कोई दबाव, इसलिए खुद को रट्टा-घिस्सा की तरह पढ़ने से मुक्त रखता हूं। फिर पढ़े हुए को जुगाली की तरह याद करते हुए, मन ही मन दुहराता हूं। जो और जितना याद आता है, मानता हूं कि वही मेरी रुचि का था, ठहर गया। इस याद रह गए पर सोचते हुए लगता है कि उसमें कुछ और भी बात रही होगी, परतें थीं, इसलिए वह दुबारा धीर धर कर पढ़ता हूं। अक्सर ऐसा होता है कि अब उसमें से रस निथरने लगता है, पहली बार कुछ-कुछ, फिर और-और।

इसके पहले ऐसा अवसर बना था, जब लगभग महीने भर में प्रेमचंद की कहानियां, ‘मानसरोवर‘ के सात खंडों में पढ़ गया था, माना था कि उन्हें बड़ा कहानीकार माना जाता है, वह अनुचित नहीं है। देथा की प्रसिद्ध और उपलब्ध में से अधिकतर पढ़ कर पाया कि ‘दुविधा‘ का कोई मुकाबला नहीं। इसके अलावा भी कहना हो तो उनकी कुछ अन्य कहानियों में से याद रहा शीर्षक ‘रिजक की मर्यादा‘ है। फिर इसी तरह उदय प्रकाश को पढ़ा। ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड‘, उनकी पहचान के लिए एक-अकेले काफी है। इससे आगे बढ़ना हो तो ‘छप्पन तोले का करधन‘ और ‘मैंगोसिल‘। उनकी कविताओं में निसंदेह ‘मैं लौट जाऊंगा‘। प्रियंवद जैसे लेखक के लिखे में से कुछ भी को मामूली ठहराना मुश्किल होता है, मगर यह तब आसान हो जाता है जब उसी एक लेखक की दर्जनों कहानियां एक साथ हों, जैसा यहां हुआ है।

कथा-सत्र के आयोजनों में कहानी-पाठ भी होता है। वाचन अच्छा होने पर भी कहानी का पाठ ‘लाइव परफारमेंस‘ सुनते हुए अक्सर लगता है कि कहानी सुनने वाली नहीं, पढ़ने वाली थी और बाद में कहानी पढ़ने पर इसकी पुष्टि भी होती है। (निबंध-लेख और व्याख्यान के साथ ऐसा नहीं होता और कविताओं में अक्सर कवि द्वारा प्रत्यक्ष पढ़ी गई कविता, कवि सम्मेलनों से इतर को भी सुनना, अधिक प्रभावी होता है।) यों लिखे को पढ़ते हुए बोलने की कुछ सीमा भी होती हैं, जैसे दोनों हाथों की दो-दो उंगलियां उठाकर ‘कोट-अनकोट‘ बताना। एक जिल्द में आ जाने वाली कहानियों के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है। अब फिर से कहानी प्रत्यक्ष न सही, मगर सुनने के ही दिन वापस लौट रहें हैं, संभव है नये लेखन में इस बात का ध्यान रखा जा रहा हो।

यों हर कहानी अपने तईं पूरी, स्वतंत्र और एकल होती हैं, मगर संग्रह में शामिल हो कर अपने साथ की कहानियों के असर से मुक्त नहीं हो सकती। जिस तरह किस्सागो वाली आजादी, लेखक को नहीं होती, इसी तरह की एक दूसरी स्थिति कहानियों के एक साथ संग्रह में आ जाने पर लेखक के लिए एक सीमा यह भी हो जाती है कि उसकी एकाकी रची गई कहानी निरपेक्ष नहीं रह जाती और अन्य लेखकों के साथ नहीं, खुद उसी की कहानियों के सापेक्ष पढ़ी जाती है। रचनाकार की सफलता है कि उसकी किसी रचना की पहचान और महत्व, एकल या संग्रह, दोनों स्थितियों में एक समान हो।

प्रियंवद की इन चालीस कहानियों में से तीन ऐसी हैं, जिन्हें दुबारा पढ़ा और जिनमें वैसा रस भी निथरा, मानता हूं कि अन्य कहानियों का भी अपना महत्व और खासियत है, मगर मेरे लिए लेखक इन तीन के आगे नहीं निकल पाया है, ये तीनों ही भाग: 1 में हैं- ‘बहुरूपिया‘ (वागर्थ, नवंबर 1997), ‘बूढ़ा काकुन फिर उदास है‘ (सारिका, दिसंबर 1985) और ‘बच्चे‘ (सारिका, संभवतः 1985), मेरे लिए इस पूरे समग्र का हासिल यही हैं।

1980 में उनकी पहली कहानी ‘बोसीदनी‘ (सारिका, जनवरी 1980) आई, जो उस दौर के लेखन का अनुकरण करती जान पड़ती है। छायावाद पर अस्तित्ववाद छा गया था और मनोवैज्ञानिक ‘नई कहानी‘ के नाम पर उत्तर-आधुनिकता और जादुई यथार्थवाद, साहित्य का मानक हो गया। 1980 की पहली कहानी के बाद इस लेखक को अपनी स्वाभाविक लय पाते 1985 आ गया, जिस वर्ष की ‘बच्चे‘ और ‘बूढ़ा काकुन ...‘, प्रकाशन क्रम में नवीं, दसवीं कहानी हैं। ऐसा लगता है कि इसके बाद की कहानियां सधे कलम से नियमित अभ्यास की तरह आती गई हैं, लेकिन 12 साल बाद उन्तीसवीं कहानी ‘बहुरूपिया‘ में लेखक ने एक बार फिर अपनी असल पहचान याद दिलाई है। यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि किसी कथा-रचना में रूपक-बिंब-प्रतीकों में कही गई बात परतदार हो सकती है, होती है, मगर एक आम पाठक के लिए वह सतह पर भी खुलनी चाहिए। वह सतह पर अपना भेद आसानी से न खोले, चौंकाए, अजीब जान पड़े और पाठक वहीं उलझा रह जाए तो रचना उसके लिए बेरस, बेमजा है। पाठक की क्षमता और पसंद पर निर्भर हो कि वह रचना की गहराई में जा सके/जाना चाहे, तो उसके लिए रचना परत-दर-परत खुलती जाए। ‘बोसीदनी‘ को कमतर और अन्य तीन को बेहतर ठहराने में मेरा मूल्यांकन इसी दृष्टि से है।

बहरहाल, अन्य में खब्ती, जो मृत्यु-लेख लिखता है, बांधे रखने वाली मगर असहज कर देने वाली कहानी ‘बूढ़े का उत्सव‘ है। ‘बोधिवृक्ष‘ सतह पर सतही प्रतिवेदन या संस्मरण की तरह, कहीं लिजलिजी-सी, मगर आहिस्ता खुलने वाली इसकी परतें अनूठी हैं। ‘कहो रिपुदमन‘ और ‘आर्तनाद‘ में आदर्श और यथार्थ का द्वंद्व, नग्न सचाई के सामने सिद्धांत और विचारधारा की रक्षा का जज्बा- आक्रोश, कहानी के पात्रों से रचा वितान, देश-काल की सीमा लांघ जाता है। ‘मायागाथा‘ एक खास मांसल प्रेम कहानी है। ‘बदचलन लड़की‘ की अंधी मछली बस्तर के कुटुमसर गुफा की याद दिलाती है, वहीं निस्तब्ध क्रांति का रूपक रचती है।

‘कैक्टस की नाव देह‘ और ‘ये खंडहर नहीं हैं‘ मां-बेटी और वह के साथ वार्धक्य के अतृप्त आत्म वाली दो कहानियां हैं। ‘युवा वधिक का गीत‘, दरअसल कहानी नहीं गद्य-कविता ही है। कहानी ‘एक पीली धूप‘ के वाक्य- ‘सब सड़-गल गया है... सारा समाज...संस्कारहीन और जड़ है।‘ एक अन्य वाक्य ‘इस समाज, इस व्यवस्था से अपना बदला चुकाने, इसकी छाती पर अपनी नफ़रत उगलने के लिए यह आखिरी युद्ध है मेरा।‘ एक और- ‘एक हिस्से को पार करके दूसरे हिस्से में पांव रख रहा हूं जहां व्यवस्था... समाज... तंत्र से युद्ध एक हताशा है, जहां सिर्फ बहते रहना जीवन है। ‘दो बूढ़े‘ और ‘धूर्त‘ अलग तरह की कहानी - इस कहानी? में खुद कहानी बन चुके एकाकी से दो बूढ़े पात्रों को शामिल कर जीवन को समझने का चिंतन है। ‘धूर्त‘ भी बूढ़े कहानीकार की कहानी के लपेट में बनाई गई कहानी है। ‘सूखे पत्ते’ संतान खो देने के बाद के बुढ़ापे का अकेलापन और कैसी बेबस उम्मीदें!

‘ये खंडहर नहीं‘ का पात्र, लेखक के निजी जीवन के करीब जान पड़ता है, जब वह कहता है- ‘अभी पढ़ता हूं और कविताएं, कहानियां लिखता हूं। सिर्फ शौक के लिए दो घंटे फैक्ट्री जाता हूं या कहिए रुपयों के लालच में‘। इस कहानी में आया है- ‘खजुराहो के गर्भगृहों में नृत्य करती नर्तकी...‘, आशय स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि किसी भी मंदिर के गर्भगृह में तो नृत्य होता नहीं। कहानी में फिल्म गाइड की याद बरबस आती है। चालीसवीं कहानी ‘बूटीबाई की नथ‘ में अनाड़ी-से वाक्य पर कहानी खत्म होती है।

प्रियंवद की कई कहानियों के पात्र बूढ़े हैं, उनकी उम्र भी बताई जाती है, इनमें से कुछ- ‘कलन्दर‘ के बदरी की उमर 55 साल, ‘चूहे‘ की बुढ़िया श्रीमती पलुस्कर 72 साल की, ‘बहुरूपिया‘ का लाइब्रेरियन 60 साल का, ‘इतिवृत्त‘ के मुख्य पात्र नंबर सत्रह की उमर लगभग 60 साल है। ‘एक पीली धूप’ के पात्र के लिए कहा गया है- ‘निरीह बूढ़ा सा था वह।‘ ‘कैक्टस की नाव देह‘ कहानी का पहला वाक्य हैै- ‘मैं बूढ़ा हो गया हूं।‘ ‘रेत‘ का मुख्य पात्र ‘रिटायर होने के बाद... दस सालों से...‘। ‘दो बूढ़े‘ में तो बूढ़े हैं ही, ‘धूर्त‘ भी बूढ़े कहानीकार की कहानी है।

प्रियंवद की पसंद, बूढ़े पात्रों को देख कर लगता है कि उन्हें जो स्थिति उभारनी होती है, उसके लिए पात्रों का बूढ़ा होना सटीक बैठता है। उनके बूढ़े पात्र परिस्थितियों के सामने असहाय, लाचार, बेबस, नाकाम, कहीं खब्ती है, फिर भी जद्दोजहद करता, हालात से जूझता बुढ़ापा, आम आदमी का ही रूपक बन जाता है। ‘बहुरूपिया‘ का लाइब्रेरियन दीमक से तो श्रीमती पलुस्कर चूहों से परेशान हैं। दीमक और चूहे, समाज की गलित-पलित व्यवस्था और पात्रों का उनके प्रति रवैया, उससे निजात के उद्यम की तरह आए हैं।

मनुष्य और जीवन के लिए कठपुतली, रंगमंच वाला रूपक आम है। इसी तरह एक रूपक बहुरूपिया है, जिसे विजयदान देथा ने ‘रिजक की मर्यादा‘ में आधार बनाया है, प्रियंवद का ‘बहुरूपिया‘ इससे अलग है। उनके पात्र लाइब्रेरियन और बूढ़ा काकून, विसंगतियों को उभारने के लिए निर्धारित ऐसे ही पात्र हैं, जिनके साथ परिस्थितियां अधिक संजीदा दिखती हैं। यों भी बूढ़ा, जीवन को जीते हुए उसे बूझता होता है। कहानी बूढ़े पात्र के साथ जुड़ी हो तो, रचना रची जा रही है, लिखी जा रही है के बजाय सहज-सवाभाविक घटित हो रही लगती है।

प्रियंवद, अपनी कहानियों में रूढ़ संस्कारों सामाजिक मान्यताओं, वर्जनाओं के विरुद्ध खड़े होने का अवसर बनाते हैं, जिसकी ऊपर भी चर्चा है। ‘दावा‘ का पात्र कहता है- ‘मेरे अंदर अपने जीवन को समस्त वर्जनाओं से मुक्त करने का उत्साह था।‘ लेखक बूढ़ों की तरह गीत, संगीत-प्रेमी पात्र भी अक्सर गढ़ता है। ‘वसंत-सा‘ कहानी का पात्र कंकाल बेचने का काम करता है। पात्र से कहलाया गया है- ‘तुम्हारी ये धर्म, समाज और राज्य-व्यवस्थाएं, सब, जीवन को जहरीले दांतों से धीरे-धीरे कुतरती रहती हैं...‘ कहानी ‘आक्रांत‘ में समाज की वीभत्स विसंगत स्थितियों के साथ फिर दुहराया गया है- ‘कंकालों को बेच कर पैसा कमाते लोग।‘

बात पूरी करते हुए वे तीन कहानियां- पहली ‘बच्चे‘, जिसमें पतंगबाजी में उलझी, आसमानी प्रेम-पतंग, जुड़ी-कटी जीवन की डोर है, प्रेम कहानी तो है ही, वहीं वे ऐसे लाचार पात्र गढ़ते हैं, जो पाठक को बेचैन कर दे। इन तीन में से दूसरी ‘बूढ़ा काकुन फिर उदास है‘ का नायक घरों से निकलने वाले कचरे-रद्दी में से किस तरह उन घरों में रहने वालों की कहानी निकाल लेता है, की कहानी है। कहानीकार भी तो इसी तरह समाज के अपशिष्ट, अवांछित, वर्ज्य, गलित-पलित, इस्तेमाल हुए, अनुपयोगी, तिरस्कृत, बहिष्कृत, निष्कासित, रद्द (वस्तु, व्यक्ति, विचार, व्यवहार) में से ‘अच्छे‘, अपने काम के कचरे के फिराक में रहता है, जिससे समाज की प्रवृत्तियों की पहचान-पकड़ और काम के कचरे को छांट कर उससे कहानी बनाता है। जिक्र होता है कि विश्वविजेता मुक्केबाज कैसियस क्ले यानि मोहम्मद अली के घर से निकलने वाले कचरों पर लंबे समय नजर रखते किसी ने उनके खान-पान और जीवनचर्या का विवरण तैयार किया था, संभव है कि यह कहानी इससे प्रभावित हो। बहरहाल, यह संरचना अपने आप में अनूठी है, दूसरी तरफ इस कहानी में अनदेखा वात्सल्य कितना प्रबल हो सकता है, देखना रोमांचक है।

अंत में ‘बहुरूपिया‘, इस कहानी में भी सीधे स्पष्ट नहीं होता कि कहानी का शीर्षक ‘बहुरूपिया‘ क्यों है। मगर इसका एक स्पष्ट संकेत आता है जहां कहानी के प्रमुख पात्र लाइब्रेरियन के लिए बताया गया है कि ‘जिस दिन (लाइब्रेरी वाली) इमारत की नींव खुदी, उस दिन वह मां के गर्भ में आया था।‘ यानि माना जा सकता है कि इमारत और पात्र, एक दूसरे के रूप हैं। इसी तरह दीमक, व्यवस्था का रूप लेता दिखता है, डी.एम. प्रशासनिक व्यवहार-कुशलता और सीमाओं के प्रतिनिधि की तरह, जिसके लिए कहा गया है कि- ‘डी.एम. ने नींद में बंद होती आंखों से उसे (लाइब्रेरियन को) देखा... कैसे तकलीफ की।‘ लाइब्रेरियन विश्व प्रसिद्ध लाइब्रेरियों का उल्लेख से, प्रभाव डालने का प्रयास करते अपनी अर्जी पर कार्यवाही की अपेक्षा रखता है, डी.एम. बात तो सुन लेते हैं, चाय भी पिलाते हैं, मगर उनका निष्कर्ष वाक्य आता है- ‘मैं आपकी अर्जी ऊपर भेजता हूं। मैं आपकी भावना समझ रहा हूं... उसका सम्मान करता हूं।‘ अगला पात्र एम.एल.ए. है, जो आम राजनीतिक रवैये का ‘रूप‘ है। कहानी के अन्य पात्रों में भी, प्रतीक और रूपक देखे जा सकते हैं। इस कहानी को प्रियंवद की ‘मास्टर पीस‘ कहा जा सकता है।

प्रियंवद की कहानियों का घुला-मिला असर रह जाता है कि अधिकतर अगल-बगल घटती जिंदगियों और परिवेश पर बात-बेबात नजर हो तभी ऐसी भरोसेमंद किस्सागोई संभव होती है। फिर वे जिस तरह से कहानी ‘लिखते‘ हैं, उसमें कहानी ‘कहने‘ का ऐसा रोचक ठहराव है, जो ‘पढ़ते‘ हुए प्रवाह में बाधक नहीं, सहायक होता है। मोटे तौर पर प्रियंवद, धर्म-संप्रदाय, विचारधारा और नजरिए के द्वंद्व को और लोक-विश्वास, मान्यता, रूढ़ियों और आदिम स्मृतियों के साथ समाज-संस्कार के बरअक्स, निर्मम होने से भी नहीं चूकते, मगर कहानी बुनने में नज़ाकत बरतते हैं, इससे कहानी के पात्र एकल से बहुल और अंशतः सर्व में बदलने लगते हैं।