Thursday, February 6, 2025

नार्वे की खुशहाली

अजायबघर के सैर की तरह है, प्रवीण झा की ‘खुशहाली का पंचनामा’।

बचपन में किताब पढ़ी थी ‘ये भी मानव हैं‘, अब यह किताब पढ़ते हुए लगा कि नार्वे, यह भी एक देश, एक समाज है, ऐसे भी नागरिक, लोग होते हैं, ऐन्ड्रूयू ब्रेविक जैसे अपराधी, उसकी ‘सजा‘ और उसके साथ होने वाला सलूक!

किताब बताती है कि- ‘पूरे स्कैंडिनैविया में धर्म की शिक्षा भी स्कूलों में अनिवार्य है। पहले लूथेरान क्रिश्चियन पढ़ाई जाती थी। आजकल ईसाई धर्म घटाकर 50 प्रतिशत और बाकी इस्लाम, बौद्ध, यहूदी, हिंदू धर्म पढ़ाए जा रहे हैं। नास्तिकता भी पढ़ाई जा रही है। धर्म की शिक्षा पर कई विवाद हुए पर ये 100 साल से अड़े हुए हैं। कहते हैं, धर्म चाहे दो-चार और बढ़ा लो, ये शिक्षा बंद नहीं होगी।‘ इसके साथ याद आया कि भारतीय परंपरा में अथर्ववेद का मंत्र है- ‘जनं बिभ्रति बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।‘ अर्थात- “भिन्न-भिन्न भाषा वाले, नाना धर्मों वाले जन को यह पृथिवी अपनी-अपनी जगह पर धारण कर रही है। महाभारत कहता है- धर्मं यो बाधते धर्माे न स धर्मः कुधर्म तत्। अविरोधात् ‌तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम।। अर्थात- जो धर्म दूसरे धर्म का बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्म का विरोध नहीं करता, वही वास्तविक धर्म है। अशोक का बारहवां शिलालेख, जिसमें सभी धर्मों के सार-वृद्धि की कामना है और कथन कि ‘एक-दूसरे के धर्म को सुनना और सुनाना चाहिये।‘

लेखक पंचनामा करता है, मगर वह डॉक्टर है तो पोस्टमार्टम भी करता है और पाता है कि- ‘मेरे मन में एक शाम यह प्रश्न आया कि क्या सचमुच नॉर्वे एक ‘हैप्पी‘ या प्रसन्न देश है? या यह बस आंकड़ों पर बुना गया एक भ्रम-जाल है? दुनिया का सबसे खुश देश आत्महत्या में भी टॉप 10 में है।‘ और फिर अपनी साइकोलॉजिस्ट दोस्त के साथ अपना समाधान भी निकालता है।

यात्रा संस्मरण में देश और निवासी, निर्मल वर्मा वाले लेखन में शब्द-दर-शब्द साहित्यिक हो जाता है, ज्यों कहना कि- आइसलैंड हरा-भरा है और ग्रीनलैंड बर्फीला। मगर अपने लेखन को बेवजह साहित्य बना डालने के फेर में न पड़े, यह वैसा ही पसंद आने वाला लेखन है, कुछ-कुछ बातचीत की सपाटपन वाला। ऐसा नहीं कि ‘साहित्य है ही नहीं, एक बानगी- ‘नॉर्वे ग्रामसुंदरी है तो स्विट्ज़रलैंड राजनर्तकी। नॉर्वे के पहाड़ों में ग्रामसुंदरी की त्वचा का रूखापन है, यहाँ के पहाड़ बीहड़ हैं; बिना किसी 'फिनिशिंग' के बच्चों के सतोले की तरह जैसे पत्थर एक-दूसरे के ऊपर रख दिए गए हों। जबकि स्विट्ज़रलैंड में कौमार्य कोमलता है, हर पहाड़ तराशा हुआ नवयौवना के वक्ष की तरह।’

तिलक ‘द आर्कटिक होम इन द वेदाज‘ में वेदों आर्यों से उत्तरी ध्रुव का रिश्ता जोड़ते रहे, जिसकी चर्चा यहां भी है, उस पर मुझे याद आते रहे छत्तीसगढ़ में प्रचलित किस्से। कई प्राचीन स्मारकों के साथ यहां दंतकथा प्रचलित है कि उनका निर्माण छमासी रात में हुआ था।

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की खोज वाले नार्वे के एमंडसन की चर्चा है। इसे पढ़ते हुए हम मित्रों के बीच का प्रसंग याद आया। ध्रुवीय प्रदेशों की वैज्ञानिक अध्ययन के लिए गया दल बर्फीली हवाओं से जूझता सर्वे स्टेशन स्थापित करने की मशक्कत में लगा था। उधर कोई स्थानीय बर्फीली सतह के बीच एक छेद के उपर हारपून ले कर स्थिर बैठा था कि कब मछली वहां से गुजरते सेकंड भर के लिए रुके और वह उस पर वार करे। सर्वे टीम का सदस्य सोचने लगा कि हम स्टेशन खड़ा करने के लिए घेटों जूझ रहे हैं और एक ये श्रीमान हैं जो फुरसत से मछली मारने के लिए बैठे हुए हैं। इस पर हमारे मित्र ने टिप्पणी की, कि वह स्थानीय सोच रहा होगा कि यहां मछली मारने से फुर्सत नहीं और इन्हें देखो, किस बेमतलब काम के लिए समय मिल गया है, जो यहां तक चले आए हैं।

किताब में मछली मारी जाती है, पहाड़ भी एकाधिक बार चढ़ा दिया है। ऐसे दुहराव और भी हैं। स्वस्तिक को हर बार ‘स्वास्तिक‘ क्यों छापा गया है, समझ न सका।