Friday, February 7, 2025

शब्दों से परे कविता

कविताओं की मेरी समझ और रुचि संकीर्ण है, मगर परिचितों की कविता पढ़ने को अवश्य उत्सुक रहता हूं। एक खेल-सा होता है कि रचनाकार का व्यक्तित्व जैसा प्रकट है और जिस तरह परिचित हूं, उसकी रचनाओं की संगति कितनी बैठती है और फिर वह ऐसा कवि हो, जो प्रशासनिक अधिकारी हो और जिसके मातहत काम किया हो तब यह खेल और भी रोचक हो सकता है, कुछ-कुछ रोमांचक भी, मगर अंतराल लंबा हो तो यह रोमांच वैसा नहीं रह जाता और कवि-पाठक के रिश्ते का सहज निर्वाह संभव हो जाता है। यही स्थिति बनी त्रिलोक महावर जी की पुस्तकें पा कर। 

उनकी चार पुस्तके हाथ में हैं- ‘शब्दों से परे‘-2018, कविता का नया रूपाकार‘-2020, ‘नदी के लिए सोचो‘-2021 दूसरा संस्करण, ‘आज के समय में कविता‘-2022। 

‘शब्दों से परे‘ उनकी चयनित कविताएं हैं, आवरण शशांक का है, जिन्होंने उनकी कविताओं पर विमर्श की पुस्तक कविता का नया रूपाकार‘, जिसमें उनके संग्रह ‘शब्दों से परे‘ और ‘हिज्जे सुधारता है चाँद‘ पर केंद्रित विमर्श हैं, के लिए चयन किया है, संभव है कि ‘शब्दों से परे‘ की कविताओं के चयन में भी उनका मशविरा रहा हो। ‘आज के समय में कविता‘ भी उनके संग्रह ‘शब्दों से परे‘ से संबंधित है, जो उसके विमोचन पर एक सत्र में आयोजित परिचर्चा का दस्तावेज है, जबकि ‘नदी के लिए सोचो‘, उनका अन्य कविता संग्रह है। 

‘नदी के लिए सोचो‘ की कुछ कविताएं ‘शब्दों से परे‘ में भी हैं। कविताओं में बेतवा, इंद्रावती, तमसा, यमुना, बैनगंगा आदि नदी है, चांद के साथ और जंगल-दरख्त भी। नदी दुबलाती है, सिकुड़ती है, मौन रहती है, उसकी कमर कुछ ज्यादा ही झुक जाती है, कभी नवयौवना भी है, नदी रोती भी है, नदी सिसकती है, अब सपने में आती है, जैसे शब्द, पाठक को शब्दों से परे सहज ले जाते हैं। पर्यावरण के हालात भी कवि को रचने के लिए बाध्य करते हैं। ‘शब्दों से परे‘ में रूमानी कविताएं भी हैं और कम शब्दों में बात कहने के हुनरमंद, इस संग्रह की अंतिम और लंबी कविता ‘सिक्के की आखिरी साँस में मानों अपनी स्मृति के सारे पड़ाव को चवन्नी के बरअक्स देख-दिखा लेना चाहते हैं। 23 पाद टिप्पणियों वाली कविता, बस्तरिया भाषा-संस्कृति के शब्दों से अभिव्यक्त, कवि की तरल स्मृति का प्रवाह जैसा है। 

सीधे, सपाट बात कह कर असर पैदा करना, जैसे स्वयं शीर्षक ‘नदी के लिए सोचो‘ भी, इसे समीक्षकों द्वारा कितना काव्य माना जाता है, पता नहीं, लेकिन मन को छूता जरूर है। मगर नामवर सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, सतीश जायसवाल, राधेलाल विजघावने, राम अधीर, तेजिन्दर, शशांक, रामकुमार तिवारी, रमेश अनुपम, संजीव बख्शी, रऊफ परवेज, लक्ष्मीनारायण पयोधि, नारायण लाल परमार, विजय सिंह, सतीश कुमार सिंह नथमल शर्मा, सुधीर सक्सेना, शाकिर अली जैसे मर्मज्ञ और सुधिजन, इन कविताओं का मूल्यांकन कर चुके हैं, फिर और कुछ कहने को बस इतना कि मेरा भी वोट, इन कविताओं को। 

कविता ‘कहि देबे संदेश‘ की आखिरी पंक्तियां हैं- रोटी की आस है/ पानी की प्यास है/ धरती उदास है‘ मगर कवि यह भी मानता है कि- ‘ठिठुरती हुई जिजिविषा को भरोसा है/ एक दिन नदी फिर बहेगी/ धूप के साथ-साथ‘।

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