Friday, January 24, 2025

कृश्न चन्दर

बारह-पंद्रह वाली, बाली उमर में पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाले प्रेमचंद से कुछ-कुछ परिचय हो गया था मगर पाठ्यक्रम से बाहर के आकर्षण में मेरे पसंदीदा कहानीकार कृश्न चन्दर थे (अब भी हैं)। याद करने लगा, उनकी दो-तीन कहानियां- एक जिसका शीर्षक ‘सबसे बड़ा लेखक‘ जैसा कुछ था, कब्र पर लगे शिलालेख वाला। एक अन्य अन्य ग्रह के यात्री का पृथ्वी पर आना और किसी हसीना का गिर गया रुमाल ले कर अपने ग्रह पर वापस लौटना, वहां शीर्ष विशेषज्ञों की बैठक, जिसमें ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...‘ वाली राय आती है। एक और कहानी, जिसमें स्कूल की पढ़ाई में फेल, सोलह साल की लड़की को खुद विश्वविद्यालय, जैसा कुछ कहा गया है। 

इस खोज-बीन में हाथ आए उनके संग्रह दुहराने-टटोलने लगा, वह कोई नहीं मिला, जो मिला उसके कुछ अंश-
 

एक कहानी याद आती थी, ‘आजादी का मोहभंग‘, मगर लगता कि शीर्षक इतना ठेठ भी न था, कुछ नाजुक-सा था, वह मिल गई- ‘पांच रुपए की आजादी‘, जिसमें वे मेट्रो सिनेमा के सामने सिर्फ दो आने में मिलने वाली रोटी की दावत, एशिया के सबसे बड़े नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू की, करने की बात कहते हैं। आगे बढ़ कर यहां तक कह जाते हैं- ‘ साम्राज्य जीवन के हर अंग में व्यभिचार का समर्थक है। सुन्दरता, सचाई, पवित्रता, शांति, लाज, घर, खुशी, किताब, फूल, आराम इत्यादि सब चीज़ों को वह नंगा करके उससे व्यभिचार करता है। इसके बाद उसे महंगे-सस्ते दामों बाजार में जाकर बेच देता है।‘ 

‘मेरी प्रिय कहानियां‘ संग्रह के लेखकीय वक्तव्य ‘कहानी की कहानी‘ में कहते हैं- ‘आप जब उनसे बात करेंगे तो उनकी बातचीत बिल्कुल ठीक-ठीक आपकी समझ में आ जाएगी। लेकिन जब वे कहानी लिखेंगे तो आपके पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा। सिवाय ऊटपटांग, अनबूझ पहेली के। वे कॉफी हाउस का रास्ता जानते हैं लेकिन अपनी कहानी का नहीं। उन्हें अपनी नौकरी का उद्देश्य मालूम है, अपनी कहानी का नहीं। जब वे अपने घर जाते हैं तो दो टांगों के सहारे कदम उठाते जाते हैं, लेकिन अपनी कहानी में सिर के बल रेंगते हैं और उसे आर्ट कहते हैं। मैं उन्हें कहानीकार नहीं, मदारी कहता हूं।‘ 

कहानी ‘भक्तराम‘ का अंश- 
लाला बांसीराम के सिख बन जाने से गांव में झटके और हलाल का प्रश्न उठ खड़ा हुआ था। मुसलमान और सिक्खों के लिए तो यह एक धार्मिक प्रश्न था, परंतु भेड़-बकरियों और मुर्गे-मुर्गियों के लिए तो जीवन और मृत्यु का प्रश्न था। लेकिन मनुष्यों के नकारखाने में भला पशुओं की आवाज कौन सुनता है? 

कहानी ‘महालक्ष्मी का पुल‘ का अंश- 
महालक्ष्मी स्टेशन के इस पार महालक्ष्मीजी का मन्दिर है, उसे लोग ‘रेस कोर्स‘ भी कहते हैं। इस मन्दिर में पूजा करने वाले हारते अधिक हैं, जीतते कम हैं।‘ 

कहानी ‘पूरे चांद की रात‘ का अंश- 
मैंने कहा, ‘मैं तुम्हें चूम लूं?‘ 
वह बोली, ‘हुश ! ... नाव डूब जाएगी।‘ 
‘तो फिर क्या करें?‘ मैंने पूछा। 
वह बोली, ‘डूब जाने दो।‘ 

अब याद कर रहा हूं कि ठीक ऐसा ही संवाद किसी फिल्म में भी है- राजकपूर-नरगिस का, ‘आवारा‘ या चोरी-चोरी‘ या शायद अन्य किसी का, यह भी संभव है कि इसे तब पढ़ते हुए दृश्य की कल्पना मैंने खुद कर ली हो, जैसा कई बार हुआ करता है कि कुछ पढ़ा, वह समय बीत जाने पर देखी किसी फिल्म के संवाद जैसा याद आने लगता है और इसके उलट कुछ फिल्मी दृश्य इस तरह याद आते हैं, जैसे उन्हें कहीं पढ़ा है। ‘तीसरी कसम‘ और ‘गाइड‘ के साथ ऐसा हो, तो लगता है, स्वाभाविक है मगर अन्य में भी होता रहता है, होता रहे, इसमें लुका-छिपी का धूप-छांही आनंद जो होता है। 

कहानी ‘पांच रुपये की आजादी‘ में लिखते हैं, ‘मेरा जी चाहा कि मैं कावसजी जहांगीर हाल में भाउकर का एक लेक्चर रखूं और हिन्दुस्तान के सारे बड़े-बड़े नेताओं को बुलाऊं और उनसे पूछूं कि बताओ, जनता इस आजादी की यथार्थ्ज्ञता को जानती है या नहीं? और इसी कहानी के आरंभ में - ‘ऊ हू दम चिखा डिक डिक! जिसका मतलब यह था कि आज बहुत खुश हूं। खैर...‘