प्राचीन ज्ञान की नई रोशनी
छत्तीसगढ़ में 2000 से अधिक दुर्लभ पांडुलिपियां मिलीं- इससे
यह मिथक भी टूटा कि यह आदिवासी इलाका सदियों से निरक्षरता
और अज्ञानता के अंधकार में डूबा था
यह ज्ञान का ऐसा पुराना और धुंधला हो उठा खजाना है जिसके लिए राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन (रापांमि) संजीवनी बनकर उभरा है। भावी पीढ़ी को इतिहास, पुरातत्व, आयुर्वेद, लोक संस्कृति और पौराणिक आख्यानों से परिचित कराने में समर्थ इस विरासत को जीवनदान देने का विचार देर से आया लेकिन दुरुस्त आया। क्या इस खजाने की जीवनरेखा फिलहाल मिटने मुहाने पर खड़ी है। शायद इसी संकट को भांपकर रापांमि देशभर के ऐसे राज्यों को खंगालने निकल पड़ा जहां से ऐसी संपदा मिलने का भरोसा है। रापांमि का मंसूबा वर्ष भर में 10 लाख से अधिक पांडुलिपियों को इलेक्ट्रॉनिक कैटलॉग में दर्ज करने का है। उसके इरादों को कहीं और कितनी तवज्जो हासिल हुई, इसे उसके आला अफसरान ही बता सकते हैं। अलबत्ता नए राज्य छत्तीसगढ़ में इस रचनात्मक काम का खासा स्वागत हुआ। इससे बेहतर नतीजा क्या होगा जो खोजबीन के प्रथम तीन माह में, जबकि योजना का प्रथम चरण चल रहा है, कुल 2,000 दुर्लभ बेशकीमती पांडुलिपियों को चिन्हित कर लिया गया।
जीर्ण-शीर्ण हालत में इन पांडुलिपियों को देखने के बाद राज्य सरकार का प्रसन्न होना स्वाभाविक था। इस ऑपरेशन के राज्य समन्वयक जी.एल. रायकवार इसे अच्छी उपलब्धि करार देते है। छत्तीसगढ़ में इसकी बहुतायत के साथ राज्य को पांडुलिपियों का गढ़ मानने में भी उन्हें संकोच नहीं है। इस उपमा में अतिशयोक्ति ढूंढना इसलिए निरर्थक होगा क्योंकि प्रदेश के लगभग आधे जिलों से ऐसी पांडुलिपियां बाहर निकल आईं जिनका काल 200 से 400 साल पुराना बताया जा रहा है। रायकवार की राय में आगे पड़ताल करने पर यहां वे चीजें मिलेंगी जिससे पाडुलिपियों की देशव्यापी पट्टी में नए सूत्र जुड़ सकते हैं। प्रदेश के संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल पांडुलिपियों को पूर्वजों के पगचिन्ह कहते हैं, उनके मुताबिक संग्रहालय में इनका एक अलग प्रकोष्ठ बनेगा। उन्होंने अधिकारियों को इनके अध्ययन-चिन्हांकन की व्यवस्था करने के अलावा इस दुर्लभ धरोहर को बेहद गंभीरता से
लेने के निर्देश दिए है। संस्कृति मंत्री की मानें तो इस नए काम में छत्तीसगढ़ का अलग-सा चेहरा बाहर आएगा।
यकीनन, दुर्लभ पांडुलिपियों में दर्ज ज्ञान को सुरक्षित रखने की योजना के लिए रापांमि ने जब छत्तीसगढ़ को इस मुहिम में लग जाने को कहा था तो इसके नतीजों के बारे में सब अनजान थे, पर भरोसा जरूर था। करीब 10 जिलों में जिलाधीशों द्वारा मनोनीत संयोजक विश्वस्त मंडली के साथ गांव-गलियों में बिखर गए। इनमें बढ़त ली महासमुंद जिले ने। 853 पांडुलिपि देने वाले इस जिले के मिशन प्रभारी लेखराज शर्मा शहरी क्षेत्रों की बजाए ग्रामीण इलाकों में मिले प्रतिसाद को सकारात्मक मानते हैं। इससे यह मिथक भी टूटा कि आदिवासी निरक्षर हैं। शर्मा के मुताबिक पूर्वजों की सैकड़ों वर्ष पुरानी इन पांडुलिपियों का मिलना इस बात का सबूत है कि उस दौर में साक्षरता का बेहतर बोलबाला था वरना पूर्वजों की पेटियों में ज्ञान का यह कोश कहां से और कैसे आया। सचमुच छत्तीसगढ़ में अविभाजित म.प्र. के दौर में ऐसी पड़ताल कभी नहीं हुई। इसलिए जिलाधीशों का फरमान कहीं उत्साह पैदा करता रहा तो अपनी कीमती विरासत के खो जाने का भय पालने वाले लोग भी सर्वे दल से टकराए। अंबिकापुर के परियोजना संचालक दिनेश कुमार झा को याद है कि सामान्य-से नजर आने वाले
गंवई नागरिकों ने से बड़े जतन से संभालकर रखा है। पहले तो वे संदेह से देखते थे कि उनकी इस पुरखा धरोहर का शासन क्या करेगा, लेकिन मन से मन मिला तो सहयोग करने वाले आगे आने लगे।
इस तरह बने लिपि, ग्रंथ और पुस्तक
राहुल कुमार सिंह इस विषय के गहन जानकारों में से हैं. वे बताते हैं, ‘लिख‘ का अर्थ कुरेदना है. ‘लिप‘ स्याही के लेप के कारण प्रचलित हुआ. ‘पत्र‘ या ‘पत्ता‘ भूर्जपत्र और ‘तालपत्र‘ से आया. पत्रों के मध्य धागा पिरोना ‘सूत्र मिलाना‘ है और सूत्र ग्रंथित होने के कारण पुस्तक ‘ग्रंथ‘ है, जबकि ‘पुस्त‘ का अर्थ पलस्तर या लेप करना है. ग्रंथ बनने की प्रक्रिया में पत्रों पर लौह शलाका से अक्षर कुरेदे जाते थे. स्याही का लेप करने से अक्षर उभरते थे.
उधर, दुर्ग जिले के, जिसने 575 के लगभग पांडुलिपियां चिन्हित की, प्रमुख संयोजक रामकुमार वर्मा नागरिकों को समझाते थे कि शासन इन्हें छीनने या राजसात करने नहीं वरन् यह बताने आया है कि वे इन्हें और लंबे समय तक कैसे सुरक्षित रख सकते हैं। जब ग्रामीणों ने बेहतर रख-रखाव का सूत्र जाना तो संदेह का संकट विश्वास में बदल गया। झा बताते हैं कि जब गृह स्वामियों ने संदूकों में सिमटी से जर्जर वस्तु की उपयोगिता को समझा तो वे खुद के खर्च से शासन के पास चलकर आए और पांडुलिपियों से भरी गठरी सामने धर दी। कांकेर जिले में अंतागढ़ इलाके से 112 पांडुलिपियां खोजने वाले राम विजय शर्मा बताते हैं, ‘‘प्रारंभिक दौर सचमुच मुश्किल भरा था। विश्वास जीतने में काफी समय लगता था। कई घरों में तो ऐसे हालात ये कि घर के सदस्यों ने 40-50 वर्षों बाद पहली दफा पांडुलिपियां देखीं।‘‘ वैसे ये पांडुलिपियां ग्रामीण भागों के अलावा घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में भी मिलीं। इन्हें जतनपूर्वक रखने वाले लोगों से भी सामना हुआ। थोड़ा-बहुत तो शासन के अपने रिकॉर्ड में भी यह मिला। प्रदेश के एकमात्र संस्कृत महाविद्यालय में 1,100 के करीब पांडुलिपियां लाल कपड़े के गट्ठे में सुरक्षित हैं। वहीं महंत घासीदास संग्रहालय का अपना खंड भी इस मायने में समृद्ध है।
खोजबीन की इस कवायद ने विभाग में आशा की किरण को उभार दिया है। वजह है उन चीजों का मिलना जिसकी उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी। मिसाल के तौर पर अंबिकापुर इलाके ने बौद्ध साहित्य दिया तो रायकवार प्रदेश में आए रिफ्यूजी परिवारों के पास बंग साहित्य मिलने का संकेत मानते हैं। रायगढ़ के संयुक्त कलेक्टर संतोष देवांगन को जिले में इस मिशन को अंजाम देने के दौरान ताड़पत्रों वाली 500 ऐसी पांडुलिपियां मिलीं जो विषय के मामले में बेजोड़ साबित हुई जैसे ‘सिकलिन बीमारी का निदान‘, ‘गौ चिकित्सा‘, तालाब का महत्व बताती ‘तालाब प्रतिष्ठा‘ एवं मानव जीवन में कौवे की उपस्थिति का अर्थ खोलती ‘काकदूलन‘ आदि उपलब्ध हुईं। देवांगन 400 बरस उम्र वाली इस धरोहर को मानव जीवन के विकास का एक पड़ाव मानते हैं। विभागीय अधिकारी या जमीनी कार्यकर्ता इस काम के सिलसिले में जहां-जहां गए, सबने लोगों को यही समझाया कि सरकार की नजर उनकी इस विरासत पर नहीं है। सरकार का मकसद उपलब्ध पांडुलिपियों का चिन्हांकन कर सिर्फ यह पता लगाना है कि अगर कहीं ऐसी चीजें हैं तो किस हाल में हैं। ऑपरेशन पांडुलिपि में लगे अधिकारियों ने जर्जर होती पांडुलिपि एवं उसमें दर्ज ज्ञान से बेखबर उनके मालिकों को बताया कि न तो उन पर पानी के छींटे मारने चाहिए, न चंदन-कुमकुम आदि लगाएं। उन्होंने सीलन से सुरक्षित रखने का तरीका भी सिखाया। शासन को इस काम में निरंतर सफलता मिल रही है, जैसे कुछ जागरूक नागरिक अपने निजी संग्रह की जानकारी विभाग को आकर दे रहे हैं, डॉ. भानुप्रताप सिंह, डॉ. दीपक शर्मा ऐसे ही हैं जिन्होंने पांडुलिपि का पंजीयन कराने में खुद दिलचस्पी दिखाई।
भाषा, माध्यम और विषय
अब तक मिली अधिकांश पांडुलिपियां ताड़पत्रों वाली हैं. इसके अलावा तामपत्र, कपड़े, चमड़ा, कागजों वाली भी नजर आईं. इनमें संस्कृत, देवनागरी, उड़िया, लरिया, तमिल, तेलुगु का प्रयोग है. आकर्षक चित्रों से युक्त पांडुलिपि भी मिली. अध्यात्म, पुराण, ज्योतिष, फलादेश, कर्मकांड, वेद-पुराण, आयुर्वेद, वैद्यक, संगीत कला, तंत्र-मंत्र विषय हैं. पांडुलिपि लेखन उपकरण भी साथ में मिले.
यह तो था खोजबीन, चिन्हांकन एवं ज्ञान का दस्तावेजीकरण। दूसरे दौर में बेशकीमती धरोहरों का क्रमवार विषय, लिपि, लेखक, कृतिकार एवं संवत् की पड़ताल करने का अध्ययन होगा। इनका प्रकाशन भविष्य की योजना रहेगी। भोपाल के लोक अध्येता बसंत निरगुणे कहते हैं, ‘ज्ञान पांडुलिपियों को छलनी की मदद से देखना होगा वरना भावुकता कहीं ऐसी चीजों की भीड़ न बढ़ा दे जो हर नजरिए से गैर-उपयोगी है।‘‘ झा को भी ऐसा ही अंदेशा है, ‘‘रापांमि को इसका फालोअप करना चाहिए। ऐसा न हो कि कुछ रोज के उत्साह के बाद आंखें मींचकर सो जाएं।‘‘ रापांमि के डाक्यूमेंटेशन प्रभाग में स्टेट कोऑर्डिनेटर की हैसियत से यह काम देख रहे डॉ. डी.के. कर इस धरोहर को संग्रहालय या पुस्तकालय में रखने का सुझाव देते हैं। देवांगन को तो ग्रामीणों ने इसे निःशुल्क सौंपना चाहा, बशर्ते रख-रखाव में सरकार ईमानदारी बरते। यानी रास्ते खुले हैं।
और अंत में, रासायनिक परीक्षण, लेपन के बाद ये पांडुलिपियां डिजिटल रूप में परिवर्तित होंगी जो कि रापांमि की इस महती कार्ययोजना का अगला चरण है। जाहिर है, तब इन पांडुलिपियों के दर्शन का सुख उस तरह से नहीं बचेगा जो दरअसल इनका वैभव है। फिर भी इतना क्या कम है कि पत्तों में दर्ज विषय और ज्ञान की यह दुर्लभ दुनिया देर से ही सही, डगमगाते, ठिठकते सतह पर उभर आई।
-राजेश गनोदवाले
Hazar Hazar badhai sir
ReplyDeleteसराहनीय
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण कार्य
ReplyDeleteयह एक बहुत सराहनीय प्रयास था, इसमें बहुत सफलता भी मिली। जांजगीर चाम्पा जिले में इसके सार्थक प्रयास नहीं हुआ। अन्यथा यहां भी कुछ जरूर मिलता। बहरहाल, राजेश भाई की बहुत सुंदर रिपोर्ट। बधाई
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