छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पत्र ‘प्रसारिका‘ का संपादन देवीप्रसाद वर्मा जी ‘बच्चू जांजगीरी‘ करते थे। इस पत्र के अप्रैल 1997 अंक के साथ बच्चू जी, शारदा प्रसाद तिवारी जी और बैरिस्टर छेदीलाल जी का पुण्य स्मरण-
देवीप्रसाद वर्मा शारदाप्रसाद तिवारी |
देश में गांधी-इरविन पेक्ट के टूटने से व्याप्त हताशा का परिणाम छायावाद काव्य है
- शारदाप्रसाद तिवारी
ठाकुर छेदीलाल के विषय में मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि राष्ट्रीय जीवन में उनका बहुत महत्वपूर्ण स्थान था- उनका अपना विशिष्ट महत्व था उनकी योग्यता, कुशलता तथा पांडित्य की जितनी भी चर्चा की जाए वह कम है। महाकोशल कांग्रेस कमेटी के वे 15 वर्षों तक अध्यक्ष रहे जिसमें उनके संगठन क्षमता तथा कार्य कुशलता का आकलन किया जा सकता है पर मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नही होता है कि राष्ट्रीय जीवन में उन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। बिलासपुर जिले ने इस राष्ट्र को दो मेधा सम्पन्न संसदविद् दिए उनमें ई. राघवेन्द्र एवं ठाकुर छेदीलाल का नाम हम सगर्व ले सकते हैं।
उनके परिवार से हमारे परिवार का संबंध मधुर एवं आत्मीय था तथा ये संबंध तीन पीढ़ियों के थे। मेरे पिताजी ठाकुर सहाब के पांडित्य की प्रशंसा करते कभी नही थकते थे। हमारे पिताजी अपने मित्रों से यही कहा करते थे ऐसा राजनेता ढंूढे नहीं मिलेगा जो सब विषयों का प्रकांड पंडित हो, किसी भी विषय में चर्चा कीजिए समस्या रखिए, समाधान मिलेगा। यह घटना सन् 1951-52 की होगी जब मै छत्तीसगढ़ कालेज में प्राध्यापक होकर आया था तब हिन्दी साहित्य के साहित्य परिषद के उद्घाटन के लिए बैरिस्टर छेदीलाल को आमंत्रित किया था। उस अवसर पर उन्होंने जो भाषण दिया वह साहित्य की गहराई को स्पर्श करने वाला था- साथ ही व्यक्तिगत चर्चा के दौरान भी छायावाद के विषय में एक सर्वथा नया विचार का उद्घाटन उन्होेंने किया था। उनकी स्पष्ट मान्यता थी जब हमारे देश में गांधी-इरविन पैक्ट हुआ था तब महात्मा गांधी इस विश्वास के साथ कि गोल मेज कांफ्रेंस में होमरूल को स्वीकार कर ही लेगी, परन्तु मोहम्मद अली जिन्ना अपने 14 शर्तो से हटने के लिए तैयार ही नहीं थे - इस कारण उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। और उन्होंने असहयोग बहुत ही बडे पैमाने से शुरू करने का निर्णय लिया। उस समय लार्ड वेलिंगटन द्वारा असहयोग आन्दोलन को जिस तत्परता एवं बर्बरतापूर्वक कुचला गया। जगह-जगह पर गोलियां चली, लाठी चार्ज हुआ, जेल आन्दोलनकारियों से भरा गया - इसका परिणाम स्पष्ट उभर कर सामने आया- वह था पूरे देश में हताशा उदासी की छाया प्रतिबिंबित होने लगी और इसका सीधा प्रभाव तत्कालीन हिन्दी कविता पर पड़ा जिसे हम छायावाद के नाम से पुकारते हैं। तत्कालीन हिन्दी काव्य में पलायनवादी प्रवृत्ति की भावना जो परिलक्षित हुई वह देश की निराशा, कुंठा और मायूसी के कारण आई थी जिसमें प्रसाद और निराला की कविताओं में अधिक स्पष्ट दिखाई ... है।
छायावाद के विशिष्ट समीक्षकों ने पलायन प्रवृत्ति को बराबर रेखांकित किया है। साथ ही बाबू गुलाबराय छायावाद में लोक पक्ष की चर्चा की है जो वास्तव में जन आन्दोलन के असफलता के कारण हुई थी। प्रसाद के नाटक, कहानी और कविता में इसका प्रभाव देखा जा सकता है - निराला की तत्कालीन कवितायें यही साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। पंत और महादेवी में यह लोक पक्ष नहीं दिखाई देता है।
ठाकुर छेदीलाल की ओजस्वी वाणी को सुनकर आचार्य नरेन्द्रदेव तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्मरण हो आता था। बैरिस्टर साहब सहिष्णुता के प्रतीक थे।
बैरिस्टर साहब के प्रकाशित ग्रंथ
एशिया के प्रति यूरोपियनों का बर्ताव का एक अंश-
भारत
भारतवर्ष को यूरोपियन लोगों से क्या क्या लाभ हुए हैं, उनका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। भारत की कथा सब पर विदित ही है। वर्तमान दरिद्र, असहाय और पंगु भारत स्वयं ही अपनी दशा कह देता है। इस सब घटनाओं पर पूर्णदृष्टि से विचार करने पर यही ध्वनि निकलती है कि यूरोप वाले हम काले लोगों से जब-जब संबंध जोड़ते हैं कि यह कार्य संसार को सभ्य बनाने के लिए किया जाता है, किन्तु इनकी करतूत को देख कर कहना पड़ता है कि यह कथन उनका स्वार्थ छिपाने के लिए परदा मात्र है। शुद्ध विजय या व्यापार का प्रचार केवल अपने ही स्वार्थ के लिए किया जाता है। यह सिद्धांत यूरोप पर विशेष रूप से लागू होता है। जहां धन-वृद्धि और बाहरी आडम्बर सभ्यता के मुख्य लक्षण समझे जाते हैं। भारत निवासियों ने इतने समय तक यूरोप वालों के आभ्यान्तरिक विचारों से अपरिचित होने के कारण बहुत धोखा खाया। किन्तु इनके वास्तविक विचारों का ज्ञान हो जाने पर और इनकी सभ्यता से परिचय प्राप्त कर लेने के बाद धोखा खाना, हमारी मूर्खता का ही द्योतक होगा। हमें अपनी स्थिति सुधार कर अपनी अवस्था इतनी दृढ़ कर लेनी चाहिए कि ये लोग भविष्य में हमारे साथ मनमाना बर्ताव न कर सकें। शक्ति के कारण ही आज जापान, ईरान, मिश्र, चीन तथा भारत से सभ्यता में कई दर्जे कम होने पर भी यूरोप संसार में मान पा रहा है और सभ्य समझा जा रहा है। हमें भी उसी का अनुकरण करके अपना कल्याण करते हुए संसार का कल्याण करना चाहिए।
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