Saturday, August 16, 2025

जन गण मन, दयाल महरानी और राजपुत्र चिरंजीव

गांव-गोष्ठी जमी है, राज-सुराज की बातें हो रही हैं- मैंने ‘गॉड सेव द किंग‘ का तीन वर्शन सुना है, एक हमारी माताजी सुनाती थीं, वे गोला गोकर्णनाथ पढ़ती थीं, वहां प्रार्थना उर्दू में होती थी- ‘खुदाया जॉर्ज पंजुम की हिफाजत कर, हिफाजत कर।‘ इसी उच्चरण में, पंचम नहीं पंजुम। बाद में वे फतेहपुर आ गईं, वहां आर्य समाजी माहौल के स्कूल में हिंदी की प्रार्थना होती- यशस्वी रहें हे प्रभो हे मुरारे, चिरंजीवी राजा और रानी हमारे। छत्तीसगढ़ के स्कूलों में ठेठ किस्म की प्रार्थना होती थी- ‘ईश राजा को बचाओ, हमारे राजा की जै, इस राजा को बचाओ।‘- लगभग एक सदी पुरानी, सुनी-सुनाई याद रह गई ये बातें, हमारे लिए सहज उपलब्ध, आसान और भरोसेमंद गंवई गूगल रवीन्द्र सिसौदिया जी बताते हैं। याद किया जाने लगा, उस दौर की ऐसी और भी कई रचनाएं हैं। मुझे भारतेन्दु का पद याद आता है- ‘राजपुत्र चिरंजीव’। बात आई-गई से आगे भी बढ़ी, इस तरह- 

भारतेन्दु के ‘राजपुत्र चिरंजीव’ के पहले गुलामी के दौर के साहित्य और साहित्यकारों में एक छत्तीसगढ़ के पंडित सुंदरलाल शर्मा को याद करते चलें। उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा जाता है। 
हस्तलिखित जेल पत्रिका का चित्र,
दो भिन्न स्रोतों से

1881 में जन्मे पं. सुंदरलाल, 1922 से 1932 के बीच एकाधिक बार कैद किए जाने की जानकारी मिलती है, जेल से ही ‘श्री कृष्ण जन्म स्थान समाचार पत्र‘ हस्तलिखित सचित्र पत्रिका निकाली, जिसके एक अंक का चित्र उपलब्ध होता है, इस पर अंकित है- ‘चैत्र-वैशाख, छठवां अंक प्रथम वर्ष 1923?‘ मगर इसके पहले इन्हीं ने 1902 में रचित और 1916 में प्रकाशित ‘विक्टोरिया-वियोग और ब्रिटिश-राज्य-प्रबन्ध-प्रशंसा‘ पुस्तक में निवेदन किया था कि ‘राज-भक्ति-प्रचार करने के पवित्र उद्देश्य को लेकर मैंने इसकी रचना की थी। यदि उसमें सफलता हुई, तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूंगा। महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा में की गई इस काव्य रचना में विभिन्न विभागों- पुलिस, अदालत, रेल, तार, डाक, पाठशाला, सड़क, अस्पताल, म्युनिसिपैलिटी, पलटन, जहाज, कल कारखाना, नल, बागीचा, सराय और कुँआ, सेटलमेन्ट, नहर, तालाब, अकालप्रबन्ध, पुल, कृषि-बैंक, धर्म्म, दुष्ट-दलन, रामराज्य, कोर्ट्स आफ़् वार्ड्स- के शीर्षक से काव्य रचा गया है। 

जगतसेठ अमीचंद अंग्रेजों का साथ देने के लिए इतिहास-प्रसिद्ध हैं, जिनके वंशज भारतेंदु हरिश्चंद्र हुए। 1876 में भारतदुर्दशा‘ नाटक छपा, अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा‘ नाटक प्रसिद्ध है ही। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली-4 में संपादक ने लिखा है- ‘राजभक्ति की भावना भारतेन्दु में कूट-कूटकर भरी हुई है। ... महारानी विक्टोरिया के परिवार में किसी को छींक भी आई तो भारतेन्दु ने कविता लिखकर उसके स्वास्थ्य की कामना की है। यह बात अलग है कि छींक स्वाभाविक प्रक्रिया में आई है पर भारतेन्दु के लिए तो वह अवसर ही बनी है।‘ ऐसी कुछ कविताएं हैं- ‘श्री राजकुमार सुस्वागत‘, ‘प्रिंस ऑफ वेल्स के पीड़ित होने पर कविता‘, या वाइसराय लार्ड रिपन के प्रति कविता ‘रिपनाष्टक‘। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली के ‘राजभक्ति की कविताएं‘ खंड के अंतर्गत उनकी ऐसी 15 कविताएं संकलित हैं। उनकी कविताओं के लिए यह भी कहा गया है कि उनमें ‘राज-भक्ति‘ की कविताओं की काफी संख्या है। आश्चर्यजनक तथ्य है कि उनकी स्वतंत्र कविताओं में एक भी कविता ऐसी नहीं है जिसे देशभक्ति की कविता कहा जा सके। 

यह सुनते हुए तब के उन संदर्भों की ओर ध्यान जाता है- भारतेंदु ने सन 1874 में ‘बालबोधिनी‘ पत्रिका में प्रकाशित पौराणिक पात्र मदालसा की कथा को ‘मदालसोपाख्यान‘ शीर्षक से पुनः सन 1875 में पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया था। पुस्तिका के आरंभ में विवरण था कि इसे पुस्तिका रूप में श्रीयुत प्रिस आव वेल्स बहादुर के शुभागमन के आनन्द के अवसर में बालिकाओं में वितरण के अर्थ अलग छपवाया गया। और यह भी कि ‘जिस लड़की को यह पुस्तक दी जाय उस से अध्यापक लोग 5 बेर कहला लें ‘‘राजपुत्र चिरंजीव‘‘। 

1883 में भारतेन्दु के फ्रेडरिक के. हेनफोर्ट के नाम संबोधित अधूरे पत्र में उनके द्वारा ब्रिटिश राष्ट्रगीत का अनुवाद, इस प्रकार शुरू होता है- प्रभु रच्छहु दयाल महरानी, बहु दिन जिए प्रजा सुखदानी, हे प्रभु रच्छहु श्रीमहरानी, सब दिस में तिन की जय होइ, रहै प्रसन्न सकल भय सोइ, राज करे बहु दिन लों सोई, हे प्रभु रच्छहु श्रीमहरानी। 

दूसरी तरफ 1874 में उन्होंने लिखा- बीस करोड़ (वाली आबादी के) भारतवर्ष को पचास हजार अंगरेज शासन करते हैं ये लोग प्रायः शिक्षित और सभ्य हैं परंतु इन्हीं लोगों के अत्याचार से सब भारतवर्षीयगण दुखी हैं। 

यों तो उनके लेखन में खास बनारसी ठाट और मौज के कहने ही क्या, ‘लेवी प्राण लेवी‘ जैसे शीर्षक से टिप्पणी लिखी और उसकी एक प्रासंगिक बानगी ‘स्तोत्र पंचरत्न‘ का ‘अंगरेज स्तोत्र‘ है, देखिए- ‘अस्य श्री अंगरेजस्तोत्र माला मंत्रस्य श्री भगवान मिथ्या प्रशंसक ऋषिः जगतीतल छन्दः कलियुग देवता सर्व वर्ण शक्तयः शुश्रुषा बीजं वाकस्तम्भ कीलकम् अंगरेज प्रसन्नार्थे पठे विनियोगः।’ 

रवींद्रनाथ टैगोर रचित हमारे राष्ट्रगान पर वाद-विवाद होता रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पर लिखे ‘जन गण मन अधिनायक जय हे‘ लेख में स्पष्ट किया है कि- कवि ने बड़ी व्यथा के साथ श्री सुधारानी देवी को अपने 23 मार्च 1939 के पत्र में लिखा था कि ‘‘मैंने किसी चतुर्थ या पंचम जार्ज को ‘मानव इतिहास के युग-युग धावित पथिकों की रथ यात्रा का चिर-सारथी‘ कहा है, इस प्रकार की अपरिमित मूढ़ता का सन्देह जो लोग मेरे विषय में कर सकते हैं उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्मावमानना है।‘‘ 

इस लेख में आगे स्पष्ट किया गया है कि- ‘असल में सन् 1911 के कांग्रेस के माडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दम्पति की विरुदावली कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होंने इस आशय की रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना भी की थी, पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। कांग्रेस का अधिवेशन 'जन गण मन' गान से हुआ और बाद में सम्राट दम्पति के स्वागत का प्रस्ताव पास हुआ। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिन्दी गान बंगाली बालक-बालिकाओं ने गाया था, यही गान सम्राट की स्तुति में था। ... विदेशी रिपोर्टरों ने दोनों गानों को गलती से रवीन्द्रनाथ लिखित समझकर उसी तरह की रिपोर्ट छापी थी। इन्हीं रिपोर्टों से आज का यह भ्रम चल पड़ा है।‘ 

यों वार्तालाप, कथन, वक्तव्य, अभिव्यक्ति, या किसी साहित्यिक रचना के साथ आवश्यक नहीं कि वह, या उसमें इस्तेमाल किया गया शब्द, सदैव विचारधारा प्रमाणित करता हो, विशेषकर संवेदनशील साहित्यिकों के साथ ऐसा तय कर दिया जाना, समाज में अब आम है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ‘माफीनामे‘ पर भी एकांगी टिप्पणियां होती रही हैं। मनोभाव और उसके अनुरूप या परिस्थितिगत अभिव्यक्ति स्वाभाविक है, मगर वह लिखी-छपी जाकर और अब सोशल मीडिया में दर्ज हो कर गफलत के लिए इस्तेमाल किया जाना आसान हो गया है। 

टीप - ‘द वायर‘ हिंदी ने इसे बेहतर संपादित स्वरूप में यों पेश किया है।

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