भोरमदेव का संक्षिप्त इतिहास
(पद्यों में)
प्रस्तुत अंश किसी कवि ने भोरमदेव के सिलालेखों को देख कर सं. १९५९ (बीसवीं सदी का आरंभिक सन) में लिखी है। उस पुस्तक का सारांश यहाँ प्रस्तुत है। संग्रहकर्ता के अथक प्रयास से सं. २००५ (सन 1948?) में इस लघु कृति का संकलन हो सका।
संकलनकर्ता
स्व. रामसहाय पुजारी (भोरमदेव मन्दिर)
मूल्य ५० पैसा) (द्वितीय वृत्ति १०००
भोरमदेव मन्दिर एक अविस्मरणीय अद्वितीय एवं दार्शनिक ऐतिहासिक परम पूज्य स्थल है। जो कवर्धा से पश्चिम दिशा में १६ कि. मी. और बोड़ला से दक्षिण दिशा में ९ कि.मी की दूरी पर स्थित है, पास ही में एक छोटा सा ग्राम छपरी है। भोरमदेव एक अद्वितीय स्थान है जिसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जा सकता है। भोरमदेव मन्दिर के कुछ स्थान - ‘मड़वा महल‘ यह पुराने जमाने का एक विचित्र महल है जिसमें उस युग के वैवाहिक जीवन का मनोरम चित्रणं शिल्प कलाओं द्वारा प्रदर्शित किया गया है। जिसे देखकर मनुष्य अति आनन्द विभोर हो जाता है। भोरमदेव के निवास स्थान अभी भी खडहर के रूप में मौजूद हैं। मन्दिर के पश्चिम दिशा में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर यह स्थान है यहां अभी भी एक तालाब है, तालाब के किनारे एक किला है। जिसकी दीवाल अभी भी खंडहर रूप में मौजूद है यह किला करीब १५ एकड़ के क्षेत्रफल में है। मन्दिर के दरवाजे पर कभी २ सफेद माग भी दिखाई देते हैं, मंदिर के अंदर जहां शिवलिंग स्थापित है, उसके नीचे भी शिवलिंग है, तालाब के अंदर मी मन्दिर है, उसमे पारस पत्थर भी है। कुछ समय पहले तालाब से खाना पकाने के लिये बर्तन निकलते थे, आज मी ८ बजे सुबह व रात्रि को मनोरम ध्वनि होती हैं जिसे सुनकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कई प्रकार के वाद्य यंत्रों से युक्त होती है, दो बार ऐसी आवाज भी हुई है मानो मन्दिर गिर गया मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
दक्षिण दिशा के द्वार पर कुंवार के महीने १५-२० दिन तक एक दो मुंह का नाग रहता है। वह नाग इतने दिन तक वहां से कहीं भी नहीं हटता।
दोहा - भोरमदेव प्रसिद्ध है शेषनाग को अंश।
यथा सुमरति सों बरनिहों, भयो जहां लों वंश।।
छप्पै - जातुकरन मुनि नाम रहत तेहि कानन माहि।
तेहके युगलकुमार एक कन्या छबि जाहीं।।
निरखत रूप लोभात उमर सुन्दर वारेशी।
रच विचार करतार मनहू सांचे ढारे सी।।
तेहि नाम कहत मिथला सुभगचन्द्र वदन गजगामिनी।
लोचन विशाल कंचन रचित चंवल छबि जनुदामिनी।।
सोरठा - तास बन्धू के नाम आदि सुसरमा जानिये।
दूसर शील सुभाव ताहिं देव सरमा कहत।।
दूनौं बंधु चले जांय गिरी कन्दर तप करन हित।
रहत कुटि के माह आपु अकेलो कन्य का।
ताहि कुटी के पाहि रहो एक जल के गड्डा।
निकसे कछु दिन मांहि तहां से सेवक शेष को।।
निकसत देखी कुंवरि रूप सोने सो झलकै।
बरत दीप से वदन लटक नागिन सो अलकै।।
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सोरठा
दुर्गावती के माहिं छोटे से पर्वत सुघर।
अति रमणीक सुहाहिं उपर से झिरना झिरत।।
चली बहुरि होई धीर नाम ताहि सुरही नदी पावन।
कारीवारि नग्र कवर्धा होइ गई सुहावन।
समाप्त
प्रकाशक - राधेश्याम सोनी, ग्राम - चवरा
मुद्रक - दीपक प्रिंटिंग प्रेस, कवर्धा
महत्वपूर्ण जानकारी, ॐ नमः शिवाय।
ReplyDeleteBhut accha Thanks for sharing Bihar shiksha mantri
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