वह परिवेश, जो होश संभालने के पहले से देखते रहें, उससे एक अलग ही रिश्ता होता है, जन्मना। जो पहले से है, वह सदैव से विद्यमान, शाश्वत लगता है। अक्सर उसके प्रति वैसा कुतूहल भी नहीं होता, क्योंकि हमारी जानी दुनिया वही होती है, मन मानता है कि वही दुनिया है और उसे वैसी ही होना चाहिए।
किसी रामनामी को पहली बार कब देखा, याद नहीं। कह सकता हूं कि होश संभालने के पहले से देखता रहा हूं। रामनामियों से मेरा ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब देखा कि लोगों को आश्चर्य होता है, जिज्ञासा होती है इनके बारे में, तो मुझे अजीब लगा। बाद में जाना कि इनके बारे में जानने कोई अमरीकी आया करता था, शोध किया, वे डॉ. लैम्ब रामदास हुए, उनकी पुस्तक है- Rapt in the name: the Ramnamis, Ramnam, and untouchable religion in Central India। कुछ और परिचित पत्रकार-लेखक, अध्येता-विद्वानों को रूचि लेते देखा। दसेक साल पहले सुन्दरी अनीता से रामनामियों पर उनके शोध के दौरान मुलाकात और फिर मेल-फोन से सम्पर्क बना रहा। अनीता को लंदन विश्वविद्यालय से इस अध्ययन Dominant Texts, Subaltern Performances:Two Tellings of the Ramayan in Central India पर डाक्टरेट उपाधि मिली, जिसमें रामकथा, विशेषकर रामचरितमानस के पदों की खास 'रामनामी' व्याख्या और इस अंचल की रामलीला में कथा-प्रसंगों की निराली प्रस्तुति को शोध-अध्ययन का विषय बनाकर सामाजिक संरचना को समझने का प्रयास है।
बड़े भजन मेलों और शिवरीनारायण मेले में रामनामियों के साथ समय बिता कर मैंने देखा-जाना कि वे दशरथनंदन राम के नहीं बल्कि निर्गुण निराकार ब्रह्मस्वरूप राम के उपासक हैं और इस भेद को अपने तईं बनाए रखने के लिए राम का नाम एक बार कभी भूले से भी प्रयोग नहीं करते, रामराम ही कहते, लिखते, पढ़ते हैं (छत्तीसगढ़ी में इन्हें रामनामी नहीं रामरामी या रमरमिहा ही कहा जाता है)। रामराम पूरे शरीर पर, कहने से स्पष्ट नहीं हो पाता कि गुदना शरीर के गुह्य हिस्सों सहित आंख की पलकों और जीभ पर भी होता है। समय बदला है। पूरे शरीर पर गोदना, कम होते-होते माथे पर रामराम तक आया फिर हाथ में, लेकिन अब बिना गुदना के रामनामियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
छत्तीसगढ़ में मेलों की गिनती का आरंभ अंचल की परम्परा के अनुरूप 'राम' अर्थात् रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को ध्वजारोहण की तैयारियां प्रारंभ कर चबूतरा बनाया जाता है, दूसरे दिन द्वादशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है, तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा में रमरमिहा सदस्यों एवं श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरण होता है।
संपूर्ण मेला क्षेत्र में अलग-अलग एवं सामूहिक रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख राम-नाम गुदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं। परिवेश की सघनता इतनी असरकारक होती है कि मेले में सम्मिलित प्रत्येक व्यक्ति, समष्टि हो जाता है। सदी पूरी कर चुका यह मेला महानदी के दाहिने और बायें तट पर, प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों में समानांतर भरता है। कुछ वर्षों में बारी-बारी से दाहिने और बायें तट पर मेले का संयुक्त आयोजन भी हुआ है। मेले के पूर्व बिलासपुर-रायपुर संभाग के रामनामी बहुल क्षेत्र से गुजरने वाली भव्य शोभा यात्रा का आयोजन भी किया गया है।
13 मई 2011 को इस हकीकत की कहानी, फिल्म्स डिवीजन के 51 मिनट के वृत्तचित्र, को सेंसर प्रमाण-पत्र मिला, जिसमें मैं विषय विशेषज्ञ के रूप में शामिल हूं। कमल तिवारी के कथालेख के साथ फिल्म शुरू होती है, कुछ इस तरह-
'समूची दुनिया किसी कथा के छूटे प्रभाव की तरह है' - योगवशिष्ठ कहता है। न जाने कितनी कथाएं हैं, जिनसे बनता है जगत।
एक कहानी यहां भी जी जा रही है। ... यहां श्रद्धा का एक सैलाब है जो तट पर बह निकला है। वैसे बहती श्रद्धा का आरंभ कहां होता है ... आत्मा का, विश्वासों का यह कौन सा भाव है जो अपने शरीर को ही वह पवित्र स्थल बना लेता है, जहां सारी श्रद्धा जैसे मंदिर की सी शक्ल में सिमट आती है। ... इसी आस्था की छुअन अपने शरीर पर लिये चले आए हैं। ये मेला है, आस्थाओं का समागम है, या जिन्दगी को जीने का एक अलग अंदाज़।
ये रामकहानी है, रामनामी समाज की। एक ऐसा समुदाय जो अपने होने में ही एक कथा है। इनके शरीर पर उभरते ये शब्द महज शब्द नहीं, जीवन को जीने के, समझने के सूत्र हैं। इन्हीं सूत्रों से बुनी गई है, रामनामी समाज की गाथा। वो गाथा जो एक सदी से कुछ ज्यादा समय में ले पाई है आकार। रामनामी समुदाय की पहचान है, उनके शरीर पर गुदने के रूप में लिखा रामराम। उनके सिर पर विराजता मोर मुकुट और बदन पर रामराम लिखा बाना।
... ट्रेलर समाप्त... आगे 'रुपहले परदे' पर देखना चाहें तो स्वयं उद्यम करें, या लाइव के लिए आ जाएं छत्तीसगढ़, आपका स्वागत है। आपने समझ लिया हो कि यह पोस्ट छत्तीसगढ़, फिल्म और स्वयं के प्रचार-प्रसार के लिए है, तो कहने की इजाजत लूंगा कि 'आप तो बड़े समझदार निकले।'
सभी तस्वीरें फिल्म निर्देशक भोपाल के सुनिल शुक्ल (अपना नाम वे इसी तरह लिखते हैं) ने उतारी हैं। मेरे प्रोफाइल वाली तस्वीर भी उन्हीं की ली हुई है। इस फोटो पर शुभाशंसा मिलती रही है, मैं सब से कहता हूं कि शकल तो वही है, जो हमेशा से है, लेकिन इसमें अलग कुछ है तो वह सुनिल जी की फोटोग्राफी के बदौलत है, सो इस मामले के सारे पिछले-अगले काम्प्लिमेंट, उन्हीं के नाम, रामराम।
28 सितंबर 2011, दैनिक भास्कर, रायपुरके सिटी भास्कर मुख्य पृष्ठ क्र. 17 की कतरन |
इस तरह से भी प्रकाशित हुआ |
अखिल भारतीय रामनामी महासभा के तत्वाधान में आयोजित वार्षिक सम्मेलन (रामराम बड़े भजन मेला) की यह वर्षवार सूची मुख्यतः श्री गुलाराम जी द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर है। वर्षवार भजन मेला एक-एक वर्ष महानदी के दाएं और बाएं आयोजित होता है। बाद में दाएं और बाएं दोनों ओर भी आयोजित हुआ, जिसे दा/बा से दर्शाया गया है।
1910-पिरदा, 1911-पिरदा, 1912-देवरबोड़, 1913-मंधाईभांठा
1914-दुर्ग, 1915-मुड़पार,
1916-परसाडीह, 1917-बड़े चुरेला
1918-छपोरा, 1919-छोटे चुरेला, 1920-सेंदरी,
1921-भिनोदा
1922-प्रधानपुर, 1923-कुरदी, 1924-भांठागांव, 1925-पिकरीपार
1926-जोगीडीपा, 1927-बटउपाली, 1928-जांजगीर, 1929-कोड़िया
1930-परसाडीह,
1931-रींवांपार, 1932-मोहतरा (बालपुर), 1933-कुटराबोर
1934-रमतला, 1935-पतेरापाली,
1936-बरभांठा, 1937-भटगांव
1938-भदरा, 1939-अकलतरा, 1940-बड़े सीपत,
1941-ग्वालिनडीह
1942-कोसीर, 1943-फगुरम, 1944-कटेकोनी, 1945-मड़वा,
1946-तालदेवरी, 1947-बिसनपुर, 1948-रायगढ़, 1949-सेन्दुरास
1950-केसला,
1951-दहिदा, 1952-मालखरौदा, 1953-खैरा
1954-ठठारी, 1955-छोइहा,
1956-सारसकेला, 1957-जेवरा
1958-रबेली, 1959-धनगांव, 1960-जवाली पुरेना,
1961-मल्दा
1962-करही, 1963-जमगहन, 1964-ओड़ेकेरा, 1965-डोमाडीह
1966-धुरकोट, 1967-मोहतरा, 1968-छपोरा, 1969-रईकोना
1970-खपरीडीह,
1971-चंदई, 1972-मौहापाली, 1973-पवनी
1974-सिंघरा, 1975-बलौदी-मुड़वाभांठा,
1976-कोरबा-छोटे सीपत, 1977-बरदुला-पासीद
1978-नरियरा, 1979-गोरबा, 1980-धुरुवाकारी,
1981-छिन्द, 1982-हरियाठी
1983-पंडरीपानी, 1984-बड़े पंड़रमुड़ा, 1985-सरसीवां,
1986-परसाडीह
1987-अरजुनी, 1988-सूपा, 1989-लेंन्ध्रा, 1990-कांशीगढ़
1991-कैथा, 1992-देवरीगढ़, 1993-नाचनपाली, 1994-पंडरीपानी-नवापारा दा-बा
1995-बिलासपुर-उरकुली दा-दा, 1996-परसदा-बेलादुला दा-बा
1997-खरकेना-कपिस्दा बा-दा,
1998-गौरादादर-खमरिया दा-बा
1999-मुनगाडीह-आनंदपारा (चुरेला) दा-दा,
2000-मरघटी-चरौदा बा-बा
2001-हरदी दा, 2002-चिस्दा-ठनगन बा-बा, 2003-दोमुहानी बा
2004-चारपारा बा, 2005-डंगनिया दा, 2006-बंदोरा बा
2007-शुक्लाभांठा दा,
2008-कुशियारीडीह-तुलसी बा-बा, 2009-पेलागढ़-गिरसानाला दा-दा,
2010-पिरदा (शताब्दी वर्ष) दा
2011-पंडरीपाली-बरतुंगा दा-दा, 2012-कुसमुल-कुटेला दा-दा
2013-बेल्हा (बिलाईगढ़) दा, रेड़ा (सारंगढ़) दा, रक्शा (कोसिर) दा
2014-रेड़ा से लालमाटी (हसौद) बा, रक्शा से बासिन (घोघरी) बा, बेल्हा से बिनौरी (मलार) बा
2015-कोदवा, 2016-रानीसागर-नगझर, 2017- इंदिरानगर (कोसीर)-तुषार,
2018- कुरदा-मुड़पार, 2019- सलौनीकला-गौराडीह, 2020- पिकरीपार,
2021- नंदेली-चंदलीडीह