कहावत है- 'दोनों हाथों से ताली बजती है' या 'एक हाथ से ताली नहीं बजती', मगर ... मगर-अगर, किंतु-परंतु, लेकिन, बल्कि, जबकि, तो, इसलिए, गोयाकि, चुनांचे कुछ नहीं, सीधी-सादी बात, जिसका एक सिरा इसी कहावत में है। आमतौर पर यह 'द्वेष' के संदर्भ में कहा जाता है, आशय होता है कि लड़ाई-झगड़े के लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार होते हैं और इसी तरह यह 'राग' के लिए भी प्रयुक्त होता है। यानि कहावत बैर-प्रीत दोनों के मामलों में फिट और संबंध सिर्फ कर्ता-दृष्टा या मंच-कलाकार जैसा नहीं, बल्कि जहां दोनों पक्षों की सक्रिय भूमिका हो।
नागपुर-हावड़ा रेल लाइन पर सफर करते हुए बिलासपुर जंक्शन के बाद बमुश्किल पंद्रह मिनट बीतते बाईं ओर दलहा पहाड़, लीलागर नदी का पुल, मिट्टी के परकोटे वाला खाई (प्राकार-परिखा) युक्त गढ़-बस्ती-कोटमी सुनार स्टेशन, जयरामनगर के बाद और अकलतरा से पहले है। आपको भान नहीं होगा कि आप मगरमच्छ संरक्षण परियोजना के अनूठे केन्द्र से हो कर गुजर रहे हैं। लंबी दूरी की मेल-एक्सप्रेस गाड़ियां यहां रूकती भी नहीं, अभी आगे बढ़ जाइये। फिलहाल यह कुछ तस्वीरों में देख सकते हैं।
ताली बजने को थी कि मगर बीच में आ गया। छत्तीसगढ़ में कहा जाता है- 'चले मुंह ...' बातूनी और मुंहफट अपनी जबान पर काबू नहीं रख पाता, लेकिन जो फिसलती न चले वो जबान क्या, वह तो रिकार्डेड आवाज हुई। खैर! यहां मामला जरा अलग, बतरस का है-
कोई 45 साल पुरानी बात है। उत्तरप्रदेश, बस्ती जिले का निवासी 25 वर्षीय युवा, गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बजाय घर-बार छोड़कर, बरास्ते हनुमानगढ़ी, अयोध्या इस गांव कोटमी आया और तब से वह यानि सीतारामदास वैष्णव 'बाबाजी', जोगिया तालाब के किनारे रामजानकी मठ में सेवा कर रहे हैं। 'जात न पूछो साधु की', लेकिन मैं दुनियादार पूछ ही लेता हूं- 'कौन जमात, कौन अखाड़ा, कौन गुरू। सिलसिला आगे बढ़ता है। माया जगत है, बाल-ब्रह्मचारी बाबाजी ने एक अलग गृहस्थी बना ली, जिसमें अगर-मगर नहीं सचमुच के मगर(मच्छ) रहे हैं।
कोटमी में मगरमच्छ शाश्वत हैं, यानि कब से हैं, कहां से और क्यों-कैसे आ गए, इसका इतिहास क्या है, अब लोगों की स्मृति में कालक्रम अतिक्रमित करते हुए समष्टि चेतना का हिस्सा बनकर थे, हैं और रहेंगे हो गया है। अनुमान होता है कि मगरमच्छ, लीलागर नदी के रास्ते कभी आए होंगे और तालाब बहुल इस गांव को अनुकूल पाकर इसे पक्का डेरा बना लिया। यह भी माना जाता है कि यहां छत्तीसगढ़ के विशिष्ट, मिट्टी के परकोटे वाले प्राचीन किले (गढ़) के चारों ओर की खाइयों में कभी सुरक्षा के लिए जहरीले और खतरनाक जीव-जंतुओं के साथ मगरमच्छ भी छोड़े गए। किला-गढ़ का वैभव तो राजाओं की पीढि़यों की तरह चुक गया, लेकिन मगरमच्छ, पुश्त-दर-पुश्त, खइया के अलावा बंधवा तालाब, मुड़ा तालाब, जोगिया तालाब सहित अन्य तालाबों में बसर करते, फलते-फूलते रहे।
इस तरह न जाने कब आए मगरमच्छ और अब आए सीतारामदास वैष्णव 'बाबाजी'। रामजानकी मठ-मंदिर की सेवा के साथ के बाबाजी मगरमच्छों का ख्याल रखने लगे और मंदिर के सामने का जोगिया तालाब हैचरी बन गया। कोटमी के लोगों की बातों पर यकायक भरोसा नहीं होता। गांव वाले बताते हैं- गरमी में रात पहर रहते ही 'खातू पालने' के लिए गाड़ा फांदा जाता। पानी कम हो जाने के कारण यही समय होता जब मगरमच्छ एक तालाब से दूसरे तालाब जाते होते। गाड़ा के रास्ते में मगरमच्छ आ जाता तो दो गड़हा मिलकर उसे बगल में ले कर उठाते और गाड़ा में डाल कर तालाब तक पहुंचाते फिर किनारे पर घिसला देते। मगरमच्छ धीरे से सरक कर तालाब में उतर जाता।
गांव के आम लोग मगरमच्छ जानकार हैं ही लेकिन बाबाजी तो विशेषज्ञ के साथ-साथ मगरमच्छ सेवक, पालक, अभिभावक भी हैं। वे बताते हैं कि चैत-बैसाख अंडा देने का समय है। मगरमच्छ, तालाब के किनारे दो फुट या अधिक गड्ढा खोद कर उसमें अंडा देते हैं। अंडे सेते हुए दो-तीन हफ्ते वे कुछ नहीं खाते। दो माह बीतते-बीतते जेठ-आषाढ़ में बरसाती गर्जना से अंडे दरकते हैं और गिरगिट आकार के बच्चे निकल आते हैं। ये बच्चे मिट्टी खाकर रहते हैं। बाबाजी बताते हैं- एक मगरमच्छ दूसरे के बच्चों को भी खा जाता है। बाबाजी, लंबे समय तक स्वयं तय की जिम्मेदारी का पालन करते हुए जोगिया तालाब की अपनी हैचरी में मगरमच्छ के बच्चे पाल कर, बड़ा कर, तालाबों में छोड़ते रहे हैं। बाबाजी के अनुसार इनका मुख्य आहार मछली है, जिसे सीधे निगलकर, कछुए को उछालते-लपकते, अन्य भोज्य को नोच-नोच कर या कीचड़ में दबा कर, सड़ना शुरू होने पर खाते हैं।
आज परियोजना वाले मुड़ा तालाब में ज्यादातर, कर्रा नाला बांध में 5-7 और इक्का-दुक्का अन्य तालाबों में मिला कर 150 से अधिक मगरमच्छ हैं। उल्लेखनीय यह कि इनमें शायद एक भी ऐसा नहीं जिसे बाबाजी ने दुलराया-सहलाया न हो।
कोटमी में मानव-मगरमच्छ सहजीवन की अनूठी मिसाल है। पिछले चालीसेक साल में कुछ दुर्घटनाएं हुई हैं, जिनमें अब तक दो-तीन जानें गई और दो अपंग हुए हैं। एक घटना 1 अप्रैल 2006 को शाम चार बजे बाबाजी के साथ घटी। जोगिया तालाब के किनारे मगरमच्छ अंडे से रहा था, कुछ बच्चे वहां आए और उसे छेड़ने लगे। बच्चों को डांट कर भगाने के लिए बाबाजी बाहर निकले और बेख्याली में मगरमच्छ की जद में आ गए। मगरमच्छ, उनका बायां हाथ दबोच कर, खींचते हुए पानी में ले गया। बाबाजी मजे से बताते हैं- अंदर ले जा कर गोल-गोल घुमाते हुए खेलाने लगा और तली में ले जाकर गड्ढा खोदना शुरू कर दिया। लगा कि गड़ा देगा। उन्हें बस गज-ग्राह के नारायण याद आए। शायद तभी, बच्चे फिर अंडों की जगह की ओर बढ़े और मगरमच्छ, बाबाजी को छोड़कर बच्चों की ओर लपका। समरस बाबाजी हंसकर बताते हैं कि वे झिंझोड़ा-लटकता अपना हाथ, दाहिने हाथ में पकड़े, रामजी की कृपा से बाहर निकल आए। बच गया तो लगा कि अभी और सेवा करनी है, भगवान की, मगरमच्छों की।
बाबाजी कहते हैं- सरकारी मदद मिली, इलाज हुआ, मैंने डॉक्टर से कहा हाथ काम का नहीं रहा, जहर फैल जाएगा, काट दीजिए। शरीर तो नश्वर है। सरकार ने और दो-दो हाथ बनवा दिए, लेकिन नकली है, बोझा लगता है। मैंने कहा कि हाथ कटा के आप तो चतुर्भुजी बन गए, वे ठठाकर हंसते हैं और बात का मजा लेते, मेरा इरादा भांपते हुए कहते हैं, फोटो खींच लीजिए और जोगिया तालाब के किनारे ठीक वहीं चतुर्भुजी बन कर खड़े हो जाते हैं, जहां मगरमच्छ ने उन्हें दबोचा था। सोच रहा हूं, तस्वीर में अहिंसा के पुजारी का निष्काम कर्मयोग कैसे दिख पाए। बाबाजी निरपेक्ष, पूछते हैं अब हाथ टांग दूं वापस झोले में।
पिछले दो साल में छः-सात लोग सरकार की ओर से चेन्नई जा कर मगरमच्छ का प्रशिक्षण ले कर आए हैं। एक मगरमच्छ का इलाज कराना था। प्रशिक्षित, हिम्मत नहीं जुटा पाए तो बाबाजी की टीम काम आई।
बाबाजी के हांक लगाने पर मगरमच्छ तालाब से बाहर आ जाते हैं, लेकिन सुस्त-बीमार जीव को मुड़ा तालाब में पानी के अंदर जा कर निकालना पड़ा, जिसे इलाज के बाद फिर छोड़ा गया। बाबाजी कहते हैं कि मगरमच्छ समझदार जीव है और इसकी आंख ढंक दी जाए फिर उस पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। पूछने पर कि प्रशिक्षितों ने नया क्या सीखा, बाबाजी हंसकर कहते हैं वे लोग तो ठीक से बताते नहीं, लेकिन लगता है कि मगरमच्छ से डरना सीख कर आए हैं।
बाबाजी का मगरमच्छ प्रेम पूर्ववत बना हुआ है अब उनके लिए क्या कहें- 'ताली दोनों हाथों से बजती है' या 'एक हाथ से भी ताली बजती है', खूब बज रही है।
जांजगीर जिला के कोटमी सोनार में 86 एकड़ रकबा वाले मुड़ा तालाब को ही क्रोकोडायल पार्क (मगरमच्छ संरक्षण आरक्षिति) विकसित किया गया है।
यह अपने किस्म की देश की पहली परियोजना बताई जाती है। यहां लगातार पर्यटक आते रहते हैं। छुट्टी के दिनों में यह संख्या हजार तक पहुंच जाती है, जिनमें विदेशी भी होते हैं।
इस मगरमच्छ संरक्षण परियोजना का शिलान्यास 09 मई 2006 को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रीजी और लोकार्पण 23 अगस्त 2008 को वनमंत्रीजी (के करकमलों) की गरिमामय उपस्थिति में हुआ, अंकित है। लेकिन इसमें शायद बाबाजी का हाथ भी है, जो नहीं है।