बीसेक साल पहले मेरे इर्द-गिर्द जिन पुस्तकों की चर्चा होती, वे थीं-
# Dr. Eric Berne की Transactional Analysis in Psychotherapy, Games People Play और What Do You Say After You Say Hello?
# Muriel James, Dorothy Jongeward की Born To Win
# Thomas A Harris की I'm OK, You're OK और
# AB Harris, TA Harris की Staying OK
# Claude Steiner की Scripts People Live आदि।
इनमें से कुछ सुनी, देखी, उल्टी-पल्टी, कुछ पढ़ी भी, इससे जो नई बात समझ में आई, तब लिख लिया, यह वही निजी नोट है, इसलिए इसमें प्रवाह और स्पष्टता का अभाव हो सकता है, लेकिन इस विषय से परिचितों के लिए सहज पठनीय होगा और अन्य को यह पढ़ कर, इस क्षेत्र में रुचि हो सकती है।
व्यक्तित्व के रहस्य को समझने और उसे सुलझाने का वैज्ञानिक तरीका, टीए-ट्रान्जैक्शनल एनालिसिस या संव्यवहार विश्लेषण, मानव के जन्म से उसकी विकासशील आयु को आधार बनाकर व्यवहार को पढ़ने का प्रयास करता है। व्यक्ति के आयुगत विकास वर्गीकरण में 1. उसका स्वाभाविक निश्छल बचपन, 2. अनन्य शैतानी भरा बचपन, फिर 3. पारिवारिक अनुशासन में अभिभावकों के निर्देशों का पालन करता हुआ बचपन होता है। इस क्रम में पुनः 4. तर्कशील, व्यावहारिक, समझदार वयस्क और फिर 5. अभिभावकों के अनुकरण से सीखा उन्हीं जैसा अनुभवजन्य व्यवहार तथा अंततः 6. दयाशील पालनकर्ता अभिभावक, देखी जाती हैं।
1. Natural Child (NC) - प्यारा, स्नेहमय, मनोवेगशील, इंद्रियलोलुप, सुखभोगी, अ-गोपन, जिज्ञासु, भीरु, आत्म-केन्द्रित, आत्म-आसक्त, असंयमी, आक्रामक, विद्रोही।
2. Little Professor (LP) - अन्तर्दृष्टि-सहजबुद्धिवान, मौलिक, रचनाशील, चतुर-चालाक।
3. Adapted Child (AC) - आज्ञापालक, प्रत्याहारी, विलंबकारी-टालू।
4. Adult (A) - यथार्थवादी, वस्तुनिष्ठ, तर्क-युक्ति-विवेकपूर्ण, हिसाबी, व्यवस्थित, संयत, स्वावलम्बी।
5. Prejudicial Parent (PP) - अनुभवी, नियंत्रक, संस्कार-आग्रही।
6. Nurturing Parent (NP) - हमदर्द, दयावान, संरक्षक, पालक-पोषक।
डॉ. एरिक बर्न द्वारा विकसित इस ढांचे के प्राथमिक संरचनात्मक विश्लेषण में व्यक्तित्व का 1, 2 व 3 Child (C)- शिशु // 4 Adult (A)- वयस्क // 5 व 6 Parent (P)- पालक होता है, जिनकी व्यवहार-शैली संक्षेप में शिशु- महसूसा-felt // वयस्क- सोचा-thought // पालक- सीखा-taught कही जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण सहायक हो सकता है- शिशु का कथन होगा- ''मुझे भूख/नींद लगी है'', वयस्क का ''मेरे/हमारे खाने का/सोने का समय हो गया'', तो पालक कुछ इस तरह कहेगा- ''हमें खाना खा लेना/सो जाना चाहिए।'' चाहें तो कभी बैठे-ठाले स्वयं पर आजमाएं, घटाकर देखें।
उक्त सभी व्यवहार, जन्म से नहीं तो लगभग बोलना सीखने से लेकर जीवन्त-पर्यन्त, प्रत्येक आयु दशाओं में देखे जा सकते हैं, यानि बच्चे में वयस्क और पालक भाव तो बुढ़ापे के साथ बाल-भाव का व्यवहार सहज संभव हुआ करता है। इन्हीं भावों की कमी-अधिकता और संतुलन से मानव का व्यवहार, उसकी अस्मिता-स्व निर्धारित करता है। मानव व्यवहार का इनमें से कोई गुण अच्छा या बुरा नहीं, बल्कि इनका संतुलन अच्छा और असंतुलन बुरा होता है इसलिए व्यवहार के माध्यम से व्यक्तित्व की असंतुलित स्थिति की पहचान कर, उसका विश्लेषण टीए है, जो विश्लेषण के पश्चात् संतुलन का दिग्दर्शन करने तक, पृष्ठभूमि व प्रक्रिया में विज्ञान सम्मत और सुलझा होने के साथ-साथ संवेदनशील और सकारात्मक भी है। जैसा कि इसमें स्पष्ट किया जाता है- ''समय होता है आक्रामक होने का, समय होता है निष्क्रिय होने का, साथ रहने का/अकेले रहने का, झगड़ने का/प्रेम करने का, काम का/खेलने का/आराम का, रोने का/हंसने का, मुकाबला करने का/पीछे हटने का, बोलने का/शांत रहने का, शीघ्रता का/रुकने का।''
फ्रायडवादी मनोविज्ञान का इड, इगो, सुपर इगो (अहम्, इदम्, परम अहम्) तथा डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन से शिव खेड़ा तक, व्यवहार विज्ञानियों के बीच (यहां मनोविज्ञान की पाठ्य पुस्तकें हैं और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास कुरु कुरु स्वाहा भी) विकसित टीए इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करते हुए इन्हें सैद्धांतिक स्पष्टता प्रदान कर, इसके व्यावहारिक, अनुप्रयुक्त और क्रियात्मक पक्ष के विकास से अपनी उपयोगिता के क्षेत्र में असीमित विस्तार पा लेता है। वह क्षेत्र जहां हम हैं, हमारा समाज है और जिसमें पागलखाने हैं, इसमें एक ओर से मनोचिकित्सकों की कड़ी जुड़ी तो दूसरी ओर समाजसुधारक जैसे वर्ग के लोग सक्रिय हुए, इन्हें अभिन्न करने के लिए, या इसे एक ही श्रृंखला की कड़ियां दिखाने के लिए मानव जाति को परामर्शदाता-Counselors की जरूरत थी, इस महती उत्तरदायित्व को पूरा करने हेतु व्यापक और गहन टीए की वैज्ञानिक अवधारणा का स्वरूप बना है।
ऐसा नहीं कि परामर्शदाता की जरूरत, बीच की कड़ी की आवश्यकता का आभास पहले नहीं था। व्यक्ति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध के निरूपण का प्रयास सदैव किया जाता रहा है। आदिम समाज से आज तक, मनुष्य ने जादू-टोना, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, षोडशोपचार-कर्मकाण्ड, ज्योतिष-सामुद्रिक, मुखाकृति-हस्तलिपि और बॉडी लैंग्वेज जैसे कितने रास्ते खोजे, जो कमोबेश परामर्शदाता की आवश्यकता पूर्ति का माध्यम बने हैं। इन्हें प्रश्नातीत प्रभावी और लाभकारी मानें तो भी इनकी विधि या प्रक्रिया में तार्किक व्याख्यापूर्ण वैज्ञानिक स्पष्टता का अभाव ही रहा। इन उपयोगी किन्तु उलझे/अस्पष्ट तरीकों की व्याख्या बदल-बदल कर आवश्यकतानुसार कर ली जाती रही। ऐसा नहीं कि टीए में उलझाव नहीं है, पर वह उलझाव अज्ञान, अंधविश्वास या कमसमझी का नतीजा नहीं, बल्कि मानव प्रकृति और व्यवहार की जटिलता के कारण है, यानि मानव व्यवहार को दो-दूनी चार जैसा स्पष्ट न तो समझा जा सकता और न ही समझाया जा सकता, किन्तु इसे टीए की मदद से इतना स्पष्ट किया जा सकता है जो एक-दूसरे को लगभग एक जैसा समझ में आ सके।
यूं तो टीए की उपयोगिता और अनुप्रयोग का क्षेत्र अधिकतर कल-कारखाने, कार्यालय अथवा सार्वजनिक संस्थानों के प्रबंधन से जुड़ा है, क्योंकि मानव-संसाधनों को विकसित करने का तीव्र आग्रह यहीं होता है, किन्तु परामर्शदाता के रूप में टीए की आवश्यकता पूरे समाज और समाज की प्रत्येक इकाई को है, और टीए की पृष्ठभूमि में वह विस्तार और गहराई एक साथ महसूस की जा सकती है जो ऐसे धार्मिक ग्रंथों में, जिनमें मानव के जीवन-मूल्यों, नीति और सिद्धांतों को लगभग काल-निरपेक्ष स्थितियों में व्याख्यायित कर धर्म के व्यावहारिक पक्षों का प्रणयन होता है, फलस्वरूप टीए में वैज्ञानिक तटस्थता के साथ नैतिक और संवेदनशील मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं होता।
कहा जाता है कि जो टीए की थोड़ी-बहुत भाषा सीख लेते हैं वे कभी बच्चों को मिल गए नए खिलौने की तरह इसका खिलवाड़ करने लगते हैं तो कभी अपना ज्ञान बघारते हुए अपने आसपास के लोगों का विश्लेषण शुरू कर देते हैं और कई बार दूसरों से इसकी भाषा का उपयोग कर, परोक्षतः उनकी कमियों का अहसास कराते हुए नीचा दिखाने और प्रभावित करने का भी प्रयास करते हैं, जो उचित नहीं है (मंत्रों के नौसिखुआ के लिए निषेध की तरह?)। टीए की भाषा और जानकारी का सकारात्मक उपयोग स्वयं की जागरूकता और परिवर्तन तथा दूसरों की ऐसी ही मदद के लिए किया जा सकता है। सचेत प्रयास रहा कि इस नोट को पोस्ट बनाते हुए उक्त नैतिकता का पालन हो।
ऊपर, ''कुरु कुरु स्वाहा'' का जिक्र है, इसके नायक में इड, इगो, सुपर इगो या शिशु, वयस्क, पालक संयोग का मजेदार चित्रण है, जिन्होंने न पढ़ा हो उन्हें स्पष्ट करने के लिए और जो पढ़ चुके हों उन्हें स्मरण कराने के लिए यह अंश-
''मैं साहब, मैं ही नहीं हूं। इस काया में, जिसे मनोहर श्याम जोशी वल्द प्रेमवल्लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्ली अल्मोड़ा, हाल मुकाम दिल्ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए है। एक हैं जोशी जी। ... इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर।'' फिर यह भी कहा गया है- ''इसमें वर्णित सभी स्थितियां, सभी पात्र सर्वथा कपोल-कल्पित हैं। और सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''